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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् ।।
यदेवात्र तदन्यत्र यन्नात्रास्ति न तत्क्वचित् ॥ जिन्होंने लक्षण शास्त्र की रचना की, मैं उन पूज्यपाद आचार्य को प्रणाम करता है। इसीसे उनके लक्षण शास्त्र की महत्ता स्पष्ट है कि जो इसमें है वही अन्यत्र है और जो इसमें नही है वह अन्यत्र भी नही है । इनके सिवाय उत्तरवर्ती धनंजय, वादिराज, और पद्मप्रभ आदि अनेक विद्वानों ने उनका स्तवन कर उनकी गुण परम्परा को जीवित रक्खा है । इससे पूज्यपाद की महत्ता का सहज ही भान हो जाता है। इनके पूज्यपाद और जिनेन्द्र बुद्धि इन नामों की सार्थकता व्यक्त करने वाले शिला वाक्यों को देखिये
श्रीपूज्यपादोद्धृत धर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वर पूज्यपादः । यदीयवैदुष्य गुणानिदानों वदन्ति शास्त्राणि तदुद्धतानि ।। धृत विश्व बुद्धिरयमत्रयोगिभिः कृत्कृत्यभावमनुविभ्रदुच्चकैः ।
जिनवद् बभूव यदनगचापहृत्स जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुणितः ।। ये दोनों श्लोक शक सं० १३५५ में उत्कीर्ण शिलालेख के है जिनमें बतलाया गया है कि प्राचार्य पूज्यपाद ने धर्मराज का उद्धार किया था। इससे आपके चरण इन्द्रो द्वारा पूजे गए थे। इसी कारण आप पूज्यपाद नाम से सम्बोधित किये जाने लगे। आपके विद्या विशिष्ट गुणों को आज भी आपके द्वारा उद्धार पाये हुए-रचे हुए - शास्त्र बतला रहे हैं। प्राप जिनेन्द्र के समान विश्व बुद्धि के धारक-समस्त शास्त्र-विषयो में पारगत थे, कृतकृत्य थे और कामदेव को जीतने वाले थे । इसीलिये योगी जन उन्हें 'जिनेन्द्र बुद्धि' नाम मे सम्बोधित करते थे।
___ आप नन्दि संघ के प्रधान प्राचार्य थे । महान दार्शनिक, अद्वितीय वैयाकरण अपूर्व वैद्य, धुरंधर कवि बहुत बड़े तपस्वी, सातिशय योगी और पूज्य महात्मा थे।
जीवन-परिचय-आप कर्नाटक देश के निवासी और ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। पूज्यपाद चरित और राजावली कथे नामक ग्रंथ में आपके पिता का नाम माधव भट्ट और माता का नाम श्रीदेवी दिया है। आपका जन्म कोले नाम के ग्राम में हुआ था।
___ जीवन-घटना-आपके जीवन की अनेक घटनाएँ है-(१) विदेहगमन (२) घोर तपारणादि के कारण प्रांखों की ज्योति का नष्ट हो जाना तथा शान्ताष्टक के निर्माण और एकाग्रता पूर्वक उसका पाठ करने से उसकी पूनः सम्प्राप्ति । (३) देवतानो द्वारा चरणों का पूजा जाना, (४) प्रौषधि ऋद्धि की उपलब्धि (५) पाद स्पृष्ट जल के प्रभाव से लोहे का सुवर्ण में परिणत हो जाना । इस सबके विचार का यहाँ अवसर नहीं है। यह विशेष अनुसन्धान के साथ योग की शक्ति की विशेषता और महत्ता से सम्बन्धित है। साथ में अडोल श्रद्धा भी उसमे कारण है।
आपकी निम्न रचनाएं हैं-तत्त्वार्थ वृत्ति (सर्वार्थ सिद्धि) समाधितत्र, इष्टोपदेश, दश भक्ति, जैनेन्द्र व्याकरण, वैद्यक शास्त्र, छन्द ग्रंथ, शान्त्यप्टक, सारसग्रह और जैनाभिषेक।
तत्त्वार्थ वृत्ति-उपलब्ध जैन साहित्य में गृद्ध पिच्छाचार्य के तत्त्वार्थ सूत्र पर लिखी गई यह प्रथम टीका है। पूज्यपाद ने प्रत्येक अध्याय के अन्त में समाप्ति सूचक जो पुष्पिका दी है। उसमें इसका नाम सर्वार्थ सिद्धि बतलाते हुए इसे वृत्ति ग्रन्थ रूप से स्वीकार किया है । जैसा कि टीका प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :
१. शक संवत् १३५५ के निम्न शिला वाक्य में औषधऋद्धि, और विदेह के जिन दर्शन में शरीर की पवित्रता तथा उनके पादधीत जल के स्पर्श के प्रभाव मे लोहे के सुवर्ण होने का उल्लेख किया गया है :
श्री पूज्यपादमुनिग्प्रतिमौषद्धिः जीयाद्विदेहजिनदर्शनपूतगात्र. ।
यत्पादधौतजलसंम्पर्य प्रभावात्कालायशं किल तदा कनकीचकार ।। १७ २. इति सर्वार्थ सिद्धि मज्ञकायां तत्त्वार्थवृत्ती प्रथमोऽध्यायः समाप्त. ।