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नवमी - दशवी शताब्द प्राचार्य
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वर्द्धमानमानम्य, जितघातिचतुष्टयं ।
श्री वक्ष्येह
नय विस्तारमागमज्ञानसिद्धये ॥
नय का लक्षण देते हुए लिया है- 'नानास्वभावेभ्यो व्यावृत्य एकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयनीतिनयः ।' जो वस्तु को नाना स्वभावों से हटा कर एक स्वभाव में (विपय में) निश्चय कराता है वह नय है। एक गाथा उक्त च रूप से दी है, जो धवला टीका में भी उद्धत है.
यदिति णश्रो भणिदो बहूहिं गुणपज्जएहिं जं दव्व । परिणामसेत कालन्तरेसु श्रविणट्ट सवभाव ||
इसके बाद सप्त नयो का गद्य-पद्य में वर्णन किया गया है।
द्वितीय नयचत्र के मंगल पक्ष मे मोहरूपी अन्धकार को नष्ट करने
रूप श्री से युक्त
वर्द्धमान रूपी सूर्य को नमस्कार करके गाथा के अर्थ मे अनुरूप से परे द्वारा चक्र कहा जाता है :
श्रीवर्द्धमानार्कमानम्य मध्वान्तप्रभेदिनं । गाथार्थरयाविरोधेन नयचक्र मयोच्यते ॥
दूसर पद्य जिनपति मन (जैनमन) एक पृथ्वी है, उगमे समयसार नामक रत्नों का पहाड़ है, उसमे रत्न लेकर मोह के गाढ विभ्रम को नष्ट करने व दीप पत्र को कहा
जिनपत मतह्यां रत्नशैलादयापादिह हि समयसाराद्बुद्ध बुद्धया गृहीत्वा । प्रहृतघनाविनेोहं सुप्रमाणादि रत्न, पतन गुडीपं विद्वि व्यापनीयं ॥ २ प्रस्तुत नयचत्र 'श्रुतभवन दीपक नाम से ख्यात है जो देवमेन के गाए पत्रक का बोधक है । कर्ता के साथ भट्टारक विशेषण भी प्रा० नपचक के कर्ता से भिन्नता का सूचक है। यह नयचक तस्कृत गद्य-पद्य में रचा गया है । विषय विवेचन की दृष्टि और तर्कणा शैली सुन्दर है, जो व्योम पण्डित के प्रतिबाधन के लिये रचा गया है । जैसा कि उसके निम्न पुष्पिका के ' इति देवगेन भट्टारक विरचिते व्योम पनि प्रतिबोध के नयचके' वाक्य मे जाना जाता है । इसमें तीन अधिकार है । ग्रन्थ के शुरू समयसार की तीन गाथाको उद्धा करके कर्ता ने संस्कृत गद्य में उनकी व्याख्या करते हुए व्यवहार नय की प्रभूतार्थना र निनग तय को भूना पर अच्छा प्रकाश डाला है । ग्रन्थ व्यवस्थित र नयादि के स्वरूप का प्रतिपादक है। इसका सम्पादन क्षुल्लक मागर ने किया है । और वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने सोलापुर ने प्रकाशित किया है। सामग्री के समान रचना का समय निर्णय करना
कठिन है ।
आलाप पद्धति
आलाप पद्धति के कर्ता देवगेन बतलाये जाते है । परन्तु ग्रन्थ ने कही भी कर्तृत्व विपयक मकेत नही मिलता । इस कारण यह की गंगा के कर्ता देवमन की कृति नही मालूम होती । यद्यपि प्राकृत नय चक्र ोर आलाप पद्धति का विषय समान है । यालाप पद्धति नयचक्र पर लिखी गई है। जैसा कि उसके निम्न वाक्य से प्रकट है :
'अलाप पद्धतिर्वचन रचनानुक्रमेण नयचक्रस्योपरि उच्यते । फिर प्रश्न हुआ कि इसकी रचना कि लिये की गई है, तब उत्तर में कहा गया है कि द्रव्य लक्षण सिद्धि के लिये यार स्वभाव सिद्धि के लिये आलाप पद्धति की रचना की गई है। अब तक इसे दर्शनगार के कर्ता की कृति कहा जाता रहा है, पर इस सम्बन्ध में, अब तक कोई अन्वेषण नही किया गया, जिससे यह प्रमाणित हो सके कि यह दर्शनसार के कर्ता की कृति है या अन्य किसी देवसेन की ।
१. सा च किमर्थम् । द्रव्यलक्षण सिद्ध्यर्थं स्वभाव सिद्ध्यर्थ व जालापपद्धति