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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
गुरगभद्र प्रस्तुत गुणभद्र संभवतः माथुर संघ के विद्वान थे। यह मुनि माणिक्यसेन के प्रशिष्य और नेमिसेन के शिप्य थे। इन्होंने अपने को सैद्धान्तज्ञ मिथ्यात्व कामान्त कृत, स्याद्वादामल रत्नभूषण धर, तथा मिथ्यानय ध्वंसक लिखा है, जिससे वे बड़े विद्वान तपस्वी मिथ्यात्व और काम का अन्त करने वाले, सैद्धान्तिक विद्वान थे । स्याद्वादरूप निर्मल रत्नभूपण के धारक तथा मिथ्या नयों के विनाशक थे।
इनकी एक मात्र कृति 'धन्यकुमार चरित्र' है जिसमें धन्यकुमार का जीवन-परिचय अंकित किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ उन्होंने लम्ब कचुक गोत्री साहु शुभचन्द्र जो सुशील एवं शान्त और धर्म वत्सल थावक थे। साह शभचन्द्र के पुत्र बल्हण नामका था 'जो दानवान' परोपकार कर्ता, तथा न्यायपूर्वक धन का अर्जन करने वाला था. उसी धर्मानुरागी बल्हण के कल्याणार्थ धन्यकुमार चरित्र रच गया है। इसी से उसे वल्हण के नामांकित किया गया है
ग्रन्थ में कवि ने रचनाकाल नहीं दिया किन्तु उन्होंने धन्यकुमार चरित्र को विलास पुर के जिनमन्दिर में बैठकर परमदि के राज्य काल में बनाया था। जैसा कि प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :---
शास्त्र मिदं कृतं राज्ये राज्ञो श्री परमदिनः ।
पुरे विलासपूर्वे च जिनालयविराजते ॥५ इस पद्य में उल्लिखित विलास पुर झांसी जिला उत्तर प्रदेश का मोठ परगना में पचार या पछार में सन १६७० में इस ग्राम के निवासी वृन्दावन नामक व्यक्ति को अपने मकान की नीव म्वादते समय एक ताम्र शासन मिला जिसे उसने सन् १६०८ में सरकार को भंट किया। इस अभिन्नखानुसार कालिजर नरेश परमदिदव (चन्दल परमाल) ने केशव शर्मा नाम के ब्राह्मण को करिग्राम पहल के अन्तर्गत विलासपुर नामक ग्राम में कर विमुक्त भमिदान की थी । इस करिग्राम को झांसी जिले के परगना मोठ में करंगेवा नामक स्थान से पहिचाना गया हैचन्देलों के समय में यह स्थान विलासपुर के नाम से प्रसिद्ध था।
प्रशस्ति पद्य में उल्लिखित परिमादिदेव चन्देल वंगी नरेग परमाल हैं, जिनका पथ्वीराज चौहान से सिरसा गढ़ में, जालोन जिले के उरई नामक स्थान के निकट युद्ध हुआ था। उसमें परमाल को पराजय हुई थी, फलतः झांसी का उक्त प्रदेश चौहानों के प्राधीन हो गया था। इस युद्ध का उल्लेख मदन पुर के सं० १२२६ सन् ११८२ ई. के लेख में पाया जाता है। बाद में कुछ प्रदेश उसने वापस ले लिया था, पर झांसी जिले का उत्तरी भाग प्राप्त नही कर सका।
धन्य कूमार चरित की प्रशस्ति के ५वं पद्य में उक्त विलासपूर को 'जिनालयविराजते' वाक्य द्वारा जिानलयों से शोभित लिखा है । इससे वहाँ कई जैनमन्दिर रहे होगे । पुरातत्त्वावशेपों से ज्ञात होता है कि वहां एक छोटा सा पाषाण का मन्दिर मोजूद है, किन्तु काल के प्रभाव से आस-पास की भूमि ऊंची हो गई है और मन्दिर की छत भूमितल से ६ फुट नीचे हो गई है। अन्वेपण करने पर वहां जैन मन्दिरों का पता चल सकता है। चूँकि परमाल का राज काल ११७० से ११८२ तक तो सुनिश्चित है। उसके बाद भी रहा है । धन्य कुमार चरित्र उक्त समय के मध्य ही रचा गया जान पड़ता है।
१. आचार समिती र्दधौ दश विधे धर्म तपः संयमम् । सिद्धान्तस्थ गणाधिपस्य गुणिनः शिष्यो हि मान्योऽभवत् । सद्धान्तो गुणभद्र नाम मुनिपो मिथ्यात्व-कामान्तकृत् ।
स्याद्वादामलरत्नभूषणधरो मिथ्यानयध्वंसकः ॥३ -धन्य कुमार चरित प्रशस्ति १. यु. पी. डिस्टिक्ट गजेट्रिटियर्स, बी. वाल्यूम (१६१६, पृ० ३६, ६५-६६ तथा डी. वाल्यूम १९३४ पृ० २१ २. एपीग्राफिया इण्डिका, x, पृ० ४४-४६ । ३. जनसन्देश शोधाङ्क १७, १० अक्टूबर १९६३ का शोधकरण नामका डा. ज्योतिप्रसाद का लेख । ४. देखो कनिधम रिपोर्ट १० पु०६८, तथा अनेकान्त वर्ष १६ कि० १-२ में मध्यभारत का जैन पुरातत्व प०५४