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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
सिद्धान्ते जिन वीरसेन सदृशः शास्त्राब्जभा-भास्करः षट्तर्केष्वकलंकदेव विबुधः सक्षादयं भूतले । सर्व व्याकरणे विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयं ।
विद्योत्तम मेघचन्द्र मुनिपो वादीभपंचाननः ।। इनके शिष्य वीरनन्दी प्राचार्य ने प्राचारसार को प्रशस्ति में उन्हें 'सिद्धान्तार्णवपूर्णतारकपति' योगीन्द्र चूड़ामणि, और विद्यविभूषण आदि विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है । यथा
सिद्धान्तार्णव पूर्णतारकपतिस्तकाम्बुजाहपतिः शब्दोद्यानवनामृतोरुसरणिर्योगीन्द्रचूड़ामणिः । विद्यापरसार्थ नाम विभवः प्रोद् धूतचेतोभवः, स्थेयादन्यमृतावनीमृदशनिः श्रीभेघचन्द्रो मुनिः ॥३० यद्वाक्छो रवतंस मण्डनमणिवर्दग्धदिग्धत्विषाम् यच्चारित्र विचित्रता शमभृतां सूत्रं पवित्रात्मनाम् । यत्कोतिधवलप्रसाधनधरं धत्ते धरा योषितः,
स विद्यविभूषणं विजयते श्रीमेघचन्द्रो मुनिः ॥३१ इनके अनेक शिष्य थे । वीरनन्दी, अनन्तकीर्ति, प्रभाचन्द्र और शुभकीर्ति । लेख नं० ५० में मेघचन्द्रत्रविद्य देश के शिष्य प्रभाचन्द्र को पागम का ज्ञाता और वीरनन्दी को भारो सैद्धान्तिक बतलाया है । इन प्रभाचन्द्र का स्वर्गवास शक सं० १०६८ (सन् ११४६ई०) पीर वि० स० १२०३ में हुआ था। इनमें वीरनन्दी 'आचारसार के कर्ता हैं. पौर जिन्होंने उसकी स्वोपज्ञ कनड़ी टीका शक स० १०७६ (सन् ११५३ ई०) में बनाकर समाप्त की थी।
मेघचन्द विटादेव का स्वर्गवास शक सं० १०३७ वि० स० ११७२) में मगशिर सदी चतर्दशी पनि वार के दिन धनुलग्न में हुआ था। जैसा कि श्रवणवेलगोल के शिलालेख न० ४७ के निम्न वाक्यों से प्रकट है
"सक वर्ष १०३७ नेयमन्मथ संवत्सरद मार्गसिर सुद्ध १४ वृहवार धनुर्लग्नद पूर्वाह्वदारुधलि मेयप्पग्गलु श्रीमूलसद देसियगणद पुस्तकगच्छद श्रीमेघचन्द्रत्र विद्यदेवर्तम्मवसानकालमवरिदु पल्यङ्कासन दोलिददु मात्मभावनेयं भाविसुत्त देवलोक्के सन्दराभाव नेयन्त प्पुदेन्दोडे ।" अतः इन मेधचन्द्र का समय वि० की १२ वीं शताब्दी सुनिश्चित है।
शान्तिषेण यह काष्ठासंधान्तर्गत माथुरसंघ के विद्वान अमितगति (द्वितीय) के शिष्य थे। जिन्होंने अपने चरण कमलोंपर महीश को नमा दिया था'। चूकि अमितगति द्वितीय का समय संवत् १०५० से १०७३ है। प्रतः उनके शिष्य शान्तिषण का समय ११वी शताब्दी का अन्तिम भाग होना चाहिये।
प्रमरसेन शान्तिषेण के शिष्य और माथुरमघ के अधिप अमरसेन हुए, जो पापों का नाश करने वाले थे-माहरसंघाहिउ प्रमरसेणु तहो हुउ विणेउ पुण हय-दुरेणु"। (षट् कर्मोपदेश प्रशस्ति) । इनका समय १२वीं शताब्दी का मध्य भाग संभव है।
श्रीषेणसूरि यह प्रमरसेन सूरि के शिष्य थे। माथुरसंघ के पंडितों में प्रधान और वादिरूपी वन के लिये कृशान (अग्नि १. गणि मंतिमण तहो जाउ सीसु, रिणय-चरण-कमल-णामिय महीसु-पट्कर्मोपदेश प्रशस्ति ।