Book Title: Anekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिरका त्रैमासिक 312 अनेकान्त (पत्र प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४३: कि० १ जनवरी-मार्च १९६० इस अंक मेंक्रम विषय १. मृनिवर-स्तुति २. प्रद्युम्न चरित मे उपलब्ध राजनैतिक सन्दर्भ - डा. श्रीमती विद्यावती जैन ३. ईसामसीह और जैनधर्म जस्टिस एम० एल० जैन | ४. निर्विकल्पता का विचार 1 डॉ० सुपार्श्व कुमार जैन ५. पं० नाथूराम प्रेमी का साहित्यिक अवदान -श्री मुन्न लाल जैन ६. महाराष्ट्र में जैन धर्म--डॉ० भागचन्द भास्कर ७. संस्कृत जैन काव्य शास्त्री और उनके ग्रन्थ -डॉ० कपूरचन्द जैन खतौली ८. शुद्धि पत्र-धवलापु० ३-५० जवाहरलाल शास्त्रा ६. अज्ञात जैन कवि हरिसिंह को रचनाएं -डा. गंगाराम गर्ग १०. कुछ स्मृतिया-सम्पादक ११. 'निष्काम साधक' -डा० महेन्द्र सागर प्रचण्डिया | १२. परिग्रही को आत्म-दर्शन कहाँ ? -संपादक आवरण २ - प्रकाशक: धीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रही को आत्मदर्शन कहाँ ? वे बोले -"आत्मा के निकटस्य पुरुष-जिन को शुद्ध-सिद्धत्व और अरहन्तादि पद की लब्धि संनिकट होती है, वे नि:गन्देह ही पुण्यात्मा होते है। शास्त्रो में उल्लिखित मोक्षप्राप्त महापुरुष तीर्थक रादि भी इसमे प्रमाण है। तद्भव मोक्षगामी महापुरुषो के वैभवशाली मुख-समद्ध घरानों मे उत्पन्न होने के अनेकों कथानक है । आज लोक में भी तदनुरूप देखने मे आ रहा है कि अधिकाशतः पुण्योदयी और धन-वैभव संपन्न व्यक्ति ही आत्म-चर्चा के रसिक परिलक्षित होते हैं और यह बात जंचती भी है। क्योंकि अभाव-ग्रस्त जनमाधारण के वश की बात नही कि वह आत्मचर्चा कर सके । और आज के इस अर्थ-युग मे तो ऐमा सर्वथा ही दुःसाध्य है । क्योंकि जन साधारण को तो जीवनोपयोगी सामग्री जुटाने की चिन्ता ही व्याकुल बनाए रहती है। उन्हें आत्मचिन्तन के लिए समय और निश्चिन्तता ही कहां? जो उधर मुड सकें। हां, जिन गृहस्यो को पुण्योदय से 'रोटी-कपडा और मकान' आदि की चिंता न हो-जिन्हे खाद्यरूप यथेच्छ फलादि और अन्य व्य जन उपलब्ध हो, भांति-भाति के ढेर से वस्त्र-ग्राभूषणादि उपलब्ध हो और जो धन-वैभव के रूप मे प्रभूत बैक-बैलैन्म और अनेक भवनो, जमीन-जायदादों के स्वामी हो, वे चाहें तो (दैनिक आवश्यकता पूर्तियो की चिन्ता से मुक्त होने के कारण) आत्मचर्चा में लग सकते है। फलत: आज जो हो रहा है, अनुकूल ही हो रहा है'वैभव वाले प्रात्माओं है और वैभवहीन विभव-संचय के चक्कर में।" । पर, हमारे विचार से बात कुछ और ही है । जैन दर्शन मे आत्मचर्चा और प्रात्मचिन्तन मे व्यक्ति के विशेष या साधारण होने या न होने को वैसी प्रमुखता नही दी गई जैसी प्रमुखता उसकी परिग्रह-हीनता, परिग्रह में नि:स्पृहता परिग्रह मे निलिप्तता को। जिन-आगम में तो वीतरागता की ओर बढ़ने वालों को ही प्रात्म-दर्शन का अधिकार दिया गया है । कही भी सा कथन नही है कि कोई व्यक्ति अन्तरग या बाह्य परिग्रहो को जकड कर पकडे रहा हो और आत्म-दृष्टा बना हो । स्वय ममार के साधन जुटाना और स्वप्न आत्मा के देखना-दिखाना यह तो सरासर धोखा और बेईमानी ही होगी। माना, कि तीर्थकरादि पुण्यपुरुष विभूति-संपन्न थे। पर, जैसा इकतरफा सोचा जाता है वैसा तो नही है । अन्यों की दृष्टि मे तीर्थक र आदि भले ही बाह्य मे वैभवशाली रहे हो, वे स्वय मे तो उस विभूति से नि:स्पृही ही थे और प्रतीत भी वैसे ही होते थे। जबकि आज के अधि काश विभूतिधारी बाह्य और अन्तरंग दोनो ही रूपो मे विभूतिप्रिय देखे और अनुभव किए जा रहे हैं । जव तीर्थंकरादि परिग्रह से दूर हटते गए तब अधिकांशत. प्राज के लोग परिग्रह को आत्मसात् किए आत्मा को देखने की बाते किए जा रहे है। कुछ लोगो ने तो आत्म-चर्चा को बढावा देने का बहाना बना धर्म प्रचार के नाम पर अर्थ अर्जन कर ऊँचे-ऊँचे विस्तृत विशाल भवन तक निर्माण करा उनका आधिपत्य तक स्वीकार कर लिया हो-मठाधीश जैसे बन गए हो। उन्होने आगमो की नई-नई व्याख्याएँ रच दी हो तब भी आश्चर्य नही । भला, ये कैसा आत्म-दर्शन? चेली-चेला बनाकर अपने 'अह' को पोषण देना तो आम बात हो गई है। लोग कहते है कि पैसे के बिना कोई काम नहीं होता। शायद, आज तो पूजा-पाठ, पचकल्याणक प्रतिष्ठाएँ आदि भी अधिकांशत. मूतियो की अपेक्षा पैसो के द्वारा 'अह' पोषण को अधिक हो रही है-वैभव प्रदर्शन भी इसी मे अन्तहित है। पर, हमारा मानना है कि शुद्ध आत्मचर्चा का आनन्द और आत्मदर्शन ये दो काम ऐसे है जो वैभव की बदवारी या लीनता मे विगडते है। ये दोनों कार्य संपन्न हो सकें इसीलिए तीर्थंकरोंवत् बारह भावनाओं का चितवन कर, पर से ममत्व त्याग, दिगम्बरत्व धारण करने का उपदेश दिया गया है । फलत:--- जो लोग पहिले क्रमश: स्वय अन्त रग-बहिरग परिग्रहो के त्यागरूप दिगम्ब रत्व की ओर बढ़े, वे ही आत्मदर्शन और आत्मोपलब्धि की बातें करे । स्मरण रहे कि अपरिग्रह ही जैन का दूसरा नाम है। बिना स्वय अपरिग्रह की ओर बढ़े धर्म के किसी एक आग का भी पालन नहीं हो सकता और ना ही किसी वाचन का किसी पर असर हो सकता है । क्योकि आत्मदर्शन तो अनुपम और दुःसाध्य कार्य है। आज के साधुओं तक को भी परिग्रही- । होने से आत्मदर्शन नहीं हो रहा-वे भी दुनियादारी मे फंसे है- सभी नही तो अधिकाश । फिर गृहस्थो की बात तो दूर की है । तथा परिग्रह को कसकर पकड़े लोगों को 'सम्यग्दर्शन प्राप्त करो' और 'आत्मा को देखो' जैसे उपदेश का तो तुक ही कहाँ ? -सम्पादक Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ४३ किरण १ } प्रोम् मन परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर - निर्वाण संवत् २५१६, वि० सं० २०४७ मुनिवर स्तुति निन्दक बंदक मन-वच-तन कर तरुतल कबध मिले मोहिं श्रीगुरु मुनिवर, करिहैं भव-दधि पारा हो । मोग उदास जोग जिम लीनो, छांड़ि परिग्रह भारा हो ॥ इन्द्रिय-दमन नमन मद कोनो विषय कषाय निवारा हो । कंचन-कांच बराबर जिनके, सारा हो । दुर्धर तप तप सम्यक् निज घर, धारा हो । ग्रीषम गिरि हिम सरिता तीरें, पावस ठारा हो । करुणा भीन, चीन बस-यावर, ईर्या मार मार, व्रतधार शील दृढ़, मोह महाबल टारा हो । मास छमास उपास, बास बन, प्रासुक करत अहारा हो ॥ आरत रौद्र लेश नहि जिनकें, धरम शुकल चित धारा हो । ध्यानारूढ़ गूढ़ निज आतम, शुध उपयोग विचारा हो ॥ आप तहिं औरन को ताहि, भवजलसिंधु अपारा हो । 'दौलत' ऐसे जैन जतिन को, नितप्रति धोक हमारा हो ॥ पंथ समारा हो । { जनवरी-मार्च १६६० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्युम्नचरित में उपलब्ध राजनैतिक-सन्दर्भ डॉ. (श्रीमती) विद्यावती जैन पज्जुण्ण चरित (प्रद्युम्नचरित) तेरहवी सदी के १. शासक-भेद अन्तिम चरण का एक पौराणिक महाकाव्य है, जो अद्या- राजा-प्रभुसत्ता में हीनाधिकता के कारण राजाओं की वधि अप्रकाशित है। उसमें महाभारत के एक यशस्वी, परिभाषा में आचार्यों ने अनेक भेद-प्रभेद किए हैं। इस दृष्टि से द्युम्न चरित मे शासकों के लिए विभिन्न प्रसंगो हुआ है । उसके मूल लेखक महाकवि सिद्ध है। कुछ दैबिक मे चक्रवर्ती', अर्द्धचक्रवर्ती, माण्डलिक,' नराधिप,' विपदाओं के कारण इस रचना के कुछ अश नष्ट-भ्रष्ट हो नरनाय, नरपति,' एवं नरेन्द्र' जैसे विशेषणो के प्रयोग जाने के कारण सिद्ध कवि के सम्भवतः सतीर्थ्य-महाकवि किए गए है । सिंह ने अपने गुरु के आदेश से उसका पुनरुद्धार, पुनर्लेखन आदिपुराण के अनुसार चक्रवर्ती उस शासक को एवं संशोधन-कार्य किया था। इस कारण वह ग्रन्थ पर- कहते है, जो पृथिवी के छह खण्डो का अधिपति होता था वर्तीकालों में महाकवि सिंह द्वारा विरचित मान लिया गया। और जिसके अधीनस्थ बतीस हजार राजा होते थे। कवि प्रस्तुत ग्रन्थ अपभ्रश-भाषा अथवा पुरातन-हिन्दी की सिद्ध ने भा चक्रवत सिद्ध ने भी चक्रवर्ती की यही परिभाषा दी है तथा एक अनूठी कृति है । उसे अपभ्रश पुरातन हिन्दी की महा पोदनपुर नरेश को चक्रवर्ती एव महाराज श्रीकृष्ण को काव्य शैली में लिखित सर्वप्रथम स्वतन्त्र र चना मानी जा अद्धचक्रवता अर्द्धचक्रवर्ती के नाम से अभिहित किया है। अर्द्धचक्रवर्ती सकती है। भाषा, शैली एवं परवर्ती-साहित्य की अनेक को उन्होंने तीन-खण्डो का अधिपति बतलाया है।" कवि प्रवृत्तियों के मूल-स्रोत तो प्रस्तुत ग्रन्थ में उपलब्ध है ही. द्वारा प्रयुक्त नराधिप, नरपति, नरनाथ, नरेन्द्र एव राजा १३वीं सदी को विभिन्न राजनैतिक, भौगोलिक, सामा. शब्द पर्यायवाची प्रतीत होते हैं । कवि द्वारा वणित शासको जिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परिस्थितियो की दष्टि से के निम्नकार्यों पर प्रकाश पडता हैभी यह ग्रन्थ अपना विशेष महत्त्व रखता है। इसमे कुल १. शत्रु-राजाओं को पराजित करके भी वे उन्हें क्षमा १५ सन्धियाँ एवं ३०६ कडवक है। यहाँ उक्त ग्रन्थ के सभी प्रदान कर देते थे।" पक्षों पर स्थानाभाव के कारण प्रकाश डालना तो सम्भव २. विशेष परिस्थितियो में वे परनारियों का अपहरण नही, किन्तु जो प्रासगिक राजनैतिक सन्दर्भ उसमे उप- भी कर लेते थे।" लब्ध हैं, उन पर सक्षेप मे विचार किया जा रहा है। ३. विजेता राजा अपने अधीनस्थ राजायो को विजजैसा कि महाभारत के कथानक से भी स्पष्ट है कि योत्सव के ममय पर आदेश भेजकर बुलाता था।" युग पुरुष प्रद्युम्न, जो कि "प्रद्युम्नचरित" का भी प्रधान ४. प्रजा-कल्याण एवं राज्य की समृद्धि तथा यश के नायक है, दुर्भाग्य से अपने जन्म काल से ही अपहत होकर लिए उपयोगी कार्य करते थे। युवा-जीवन के दीर्घकाल तक संघर्षों से जूझता हुआ इधर. २. माण्डालक : उधर भटकता रहा। कवि सिद्धसिंह ने इसका बहुत ही महाकवि जिनसेन ने उस शासक को माण्डलिक मार्मिक वर्णन प्रस्तुत किया है। इस कारण प्रस्तुत ग्रन्थ कहा है, जिसके अधीन ४०० राजा रहते थे। किन्तु आगे में प्रद्युम्न के संघर्षों एव युद्धों की विस्तृत चर्चा हुई है। चलकर सम्भवतः यह परम्परा बदल गई और माण्डलिक प्रसंग-प्राप्त-प्रवसरों पर जिन राजनैतिक तथ्यों के उल्लेख उस शासक को कहा जाने लगा, जो किसी सम्राट या प्राप्त होते हैं। वे निम्न प्रकार हैं अधिपति के अधीन रहकर किसी मण्डल-विशेष अथवा १. शासक-भेद, एक छोटे प्रान्त के शासक के रूप में काम करता था। २. राज्य के प्रमुख अंग, एवं, ३. युद्ध । कवि सिद्ध ने माण्डलिक को भूत्य कहा है ।" इसका Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्युम्नचरित में उपलब्ध रामजनतिक सन्दर्म तात्पर्य यही है, कि वह किसी बड़े शासक द्वारा नियुक्त लता, चतुराई, दूरदशिता एवं मनोवैज्ञानिकता पर निर्भर किया जाता था, जो उसके राज्य के प्रदेशविशेष का एक करती है। इस कारण राजा किसी अनुभवी एव परमशासक के रूप में यथानिर्देशानुसार कार्य किया करता तथा विश्वस्त योदा को ही सेनापति नियुक्त करता था और सुनिश्चित शों के अनुसार जिसे भुगतान मिलता था महा- सम्भवतः उसे अमात्य की श्रेणी का सम्मान दिया जाता कवि सिम न अपनी आय-प्रशस्ति मे "भुल्लण" को या। युद्ध के पूर्व राजा मन्त्रियों के साथ-साथ सेनापति से बम्हणवाडपट्टन का भृत्य कहा है, जो बल्लाल-नरेश का सलाह लेकर ही युद्ध की घोषणा करता था। कवि ने एक माण्डलिक था प्रद्युम्नचरित में वटपुर के राजा कनक- सेनापतियों के नामों के उल्लेख नहीं किये, किन्तु युद्धरथ को भी कवि ने माण्डलिक' कहा है। प्रसगों में उसने सेनापतियों को पर्याप्त महत्त्व दिया है।" ३. सामन्त ३. तलवर-राज्य मे शान्ति एवं शासन-व्यवस्था कवि ने प्रद्युम्नचरित में सामन्त" शब्द का उल्लेख बनाए रखने के लिए तलवर के पद को महत्त्वपूर्ण बतलाया किया है. जो शासकों की सम्भवतः एक बहन छोटी इकाई गया है । वह राजा वा विश्वास-पात्र होता था। प्रद्युम्नथी। कवि सिद्ध ने सामन्तो का जिस ढग से वर्णन किया चरित के उल्लेखों से ध्वनित होता है कि उसकी सलाह के है, उससे निम्न तथ्यो पर प्रकाश पड़ता है अनुसार ही राजा किसी को दण्डित करने अथवा पुरस्कृत १. सामन्तगण अपने अधिपति राजा के आज्ञापालक करने का अपना अन्तिम निर्णय करता था।" होते थे। प्रद्युम्नचरित के एक प्रसग के अनुसार परदारागमन २. वे अअने राजाओं के इतने पराधीन रहते थे कि करने वाले एक व्यक्ति को पकड़कर जब तलवर उसे राजा मांगे जाने पर अपनी रानियो को भी उन्हें समपति करने के सम्मुख प्रस्तुत करता है, तब राजा उसे उसी क्षण शुली को बाध्य हो जाते थे' तथा, पर लटका देने का सीधा आदेश दे देता है "आजकल के ३. मनोनुकूल कार्य करने पर अधिपति राजा विशेष आरक्षी महानिदेशक से उक्त तलवर की तुलना को अवसरों पर उन्हें वस्त्राभूषण प्रदान कर सम्मानित भी ' जा सकती है। करते थे।" ४. दूत--राज्य के हित मे शासक विदेशों से राज्य के अङ्ग सांस्कृतिक अथवा सौजन्यपूर्ण सम्बन्ध रखने के लिए विविध १. मन्त्री-मानसोल्लास२ मे राज्य के ७ अगों मे प्रकार के दूतो की नियुक्ति करता था। प्राचीन-साहित्य से अमात्य अथवा मंत्री को प्रमुख स्थान दिया गया है। र मे वणित दूतो में निम्नप्रकार के गुणों का होना अनिवार्य था । महाकषि विबुध श्रीधर (१२वी सदी) ने अमात्य को । १. व्यक्तिगत गुण-मनोहरता, सुन्दरता, आतिथ्यस्वगपिवर्ग के नियमों को जाननेबाला," स्पष्टवक्ता,२४ भावना, निर्भीकता, वाकपटुता, शालीनता, तीव्र-स्मरण नयनीति का ज्ञाता, वाम्मी, महामति," सद्गुणों को शक्ति एवं प्रभावशाली वक्तत्व-शक्ति । खान,“ धर्मात्मा," सभी कार्यों में दक्ष.° सक्षम" एवं वीर" कहा है। २. सन्धिवार्ता से सम्बद्धगुण-कुशल सूझ-बूझ, शान्ति, धैर्यवृत्ति एव प्रत्युत्पन्नमतित्व । कविसिद्ध ने भी अमात्य के इन्ही गुणो को प्रकाशित ३. सुविज्ञता-विविध भाषाओं का ज्ञान, परिग्राहक किया है। प्रद्युम्नचरित में उल्लिखित ऐसे अमात्यो राष्ट्र की प्रथाओ एव परम्पराओं से परिचय आदि । अथवा मन्त्रियों मे सुमति नामक एक मन्त्री का नाम ४. अपने शासक के प्रति मनोवृत्तियों यथा-निष्ठा, उल्लेखनीय है। देशभक्ति, आज्ञाकारिता प्रादि । २. सेनापति-युद्ध-प्रसंगों मे कवि सिद्ध ने सेनापति" कौटिल्य-अर्थशास्त्र मे तीन प्रकार के दूत बतलाए का विशेष रूप से उल्लेख किया है। क्योंकि युद्ध मे उसका गए है-(१) निस्टष्टार्थ (२) परमितार्थ एवं (३) शासविशेष महत्त्व होना है। जय अथवा विजय उसीकी कुश- नहर । ० Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, वर्ष ४३; कि० १ अनेकान्त कवि सिद्ध ने इनमें से शासनहर नामक दूत का उल्लेख भवन सम्बन्धी सामग्री के साथ-साथ विविध प्रकार के किया है। इस कोटि के दूत आवश्यकता पड़ने पर शत्रुदेश हथियारों की भी उपलब्धि हुई है, इससे हथियारों की के प्रमुख राजपुरुषों से येनकेन-प्रकारेण सम्बन्ध जोड़कर प्राचीनता पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। उनको अन्तरंग बातों की जानकारी प्राप्त करने के प्रयत्न वैदिक-काल में धनुर्विद्या को अत्यधिक महत्व दिया किया करते थे, साथ ही, वे राजा के गुप्त-संदेशों को भी गया है, इसलिए उसे धनुर्वेद की संज्ञा प्रदान की गई। यत्र-तत्र प्रेषित किया करते थे। उसी समय से लोहे के प्रयोग के उदाहरण भी मिलते हैं । प्रद्युम्नचरित मे उल्लिखित दूत राजा मधु का सदेश वहां धनुष को कोदण्ड सारंग, इषु एवं कार्मुक जैसे नामों लेकर उसके शत्रु शाकम्भरी नरेश-राजा भीम के पास इस से सम्बोधित किया गया है। इतना ही नहीं, उसके 'इषउद्देश्य से पहुंचता है कि रिपराध सैनिको की हत्या के कृत' एवं 'इषुकार' जैसे शब्द-प्रयोगों से भी पता चलता है पूर्व ही यदि दोनों पक्षों में शान्ति-समझोता हो सके, तो कि उस समय धनुष-वारणों के निर्माण करने सम्बन्धी उत्तम है कवि ने उसका वर्णन निम्नप्रकार किया है :- उद्योग-धन्धे भी पर्याप्त-मात्रा में प्रचलित हो गए थे। ___ "वह दूत राजा भीम के पास इस प्रकार पहुंचा-मानों यूनान के सुप्रसिद्ध इतिहासकार "हेरोडोटस" ने लिखा रौद्रसमुद्र मे से मकर ही उछल पड़ा हो।" है कि ई० पू० ५वीं सदी मे फारस की सेना में भारतीयों विवाह का निमन्त्रश भी दूत के द्वारा ही भेजा जाता का भी एक दल सम्मिलित था, जो धनुषवाण चलाने मे था। उसे कवि ने "कक्कारा"(-वर्तमान हल्कारा) कहा अत्यन्त कुशल माना जाता था। कौटिल्य ने वाणो के है।" इसी प्रकार दुर्योधन ने भी कृष्ण के पास जिस साथ अन्य अनेक हथियारों के भी उल्लेख किए है। महाव्यक्ति के द्वारा अपना लेख-पत्र भेजा, उसे कवि ने लेख" भारत, जो कि युद्ध-विद्या का एक महान ऐतिहासिक धारी के नाम से अभिहित किया है। विशेषण कुछ भी हो, ग्रन्थ-रत्न है, उसमें भिन्दिपाल, शक्ति, तोमर, नालिका वस्तुत: वे सभी "शासनहर दूत" की कोटि के ही दूत हैं। लोगो भा "शासनहर दूत' का काट कहा पूत हा जैसे अनेक हथियारों के उल्लेख मिलते हैं। शस्त्रास्त्रो की ३. कविका सैन्य-प्रचार एवं यद्ध-विद्या सम्बन्धी यह परम्परा परवर्तीकालों में उत्तरोत्तर विकसित होती र ज्ञान: कवि सिद्ध ने प्रद्युम्नचरित में युद्ध वर्णन के प्रसंगो में कवि सिद्ध ने सम्भवतः पूर्व-साहित्यावलोकन तो किया विविध प्रकार की शब्दावलियों के प्रयोग किए हैं, जिनसे ही, साथ ही उसे समकालीन प्रचलित युद्ध-सामग्री की भी प्रतीत होता है कि वह युद्ध-विद्या का अच्छा ज्ञाता था। उसकी शब्दावलियों में से अच्छोह," कटक," सण्णाह, जानकारी थी, क्योकि प्रद्युम्नचरित मे कवि ने प्राच्यकपिण्य," सडंग", रन्धावार," चतुरगिणी सेना," एवं कालीन युद्ध-सामग्री के साथ-साथ समकालीन अनेक शस्त्रास्त्रों के उल्लेख लिए हैं। विविध बाणों, सिद्धियों चमु" के प्रयोग प्रा है। कृष्ण एवं शिशुपाल"-युद्ध, एवं विद्याओं के प्रकार भी उसमें उल्लिखित हैं। इनकी राजामधु एवं भीम-युद्ध, प्रद्युम्न एवं कालसबर-युद्ध," तथा प्रद्युम्न एवं कृष्ण के युद्ध ५ वर्णनों से भी हमारे वीकृत सूची यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। उपर्युक्त अनुमान का समर्थन होता है। चुमनेवाले हथियार-खुरूप", कुन्त", बल्लभ", शस्त्रास्त्र-अनादिकाल से मानब अपने अस्तित्व की भाला। सुरक्षा के लिए विविध प्रकार के संघर्षो को करता आया काटने वाले हथियार-खड्ग", रांगचक्र", है सम्भवतः इसलिए नृतत्वशास्त्र की एक परिभाषा के अनुसार हथियारों के विधिवत् प्रयोग करने वाले को चूर-चूरकर डालने वाले हपियार--शैल", सब्बल", "मानव" कहा गया है। सिन्धुवाटी में जब खुदाई की गई शल", मुदगर", धन"। तो उसमें विविध प्रकार के आभूषण आलेख, मुहरें एवं दूर से फेंके जाने वाले प्रस्त्र-मोहनास्त्र"दिव्यास्त्र Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधुम्नचरित में उपलब्ध राजनकि सम्वर्भ आग्नेयास्त्र", वारुणास्त्र", गिरिदुअस्त्र, तमप्रसार", आलोचनी-विद्या । नागपाश", हल्ाहरणास्त्र", प्रहरणास्त्र"। शक्तियाँ-तीन बुद्धिया एवं तीन शक्यिां" कवि ने विविध प्रकार के वाण-पचाणणु वाण", घोरणि. इनके नामों के उल्लेख नही किए हैं। वाण", कणयबाण", शुक्लबाण", दिव्य-धनुष', इक्षु- इस प्रकार यहा प्रद्युम्नचरित के कुछ राजनैतिक कोदड, मुसंदि। सन्दर्भो को उदाहरणार्थ किया गया। कवि ने समकालीन देवी-सिद्धियां: परिस्थितियो को ध्यान में रखकर उनका अपनी कृति मे विधाएं-प्रज्ञाप्तिविद्या , गृहकारिणी-विद्या", सैन्य- प्रयोग किया है। उनके आधार पर तत्कालीन परिस्थितियों कारिणी-विद्या, जयसारी-विद्या, इन्द्रजा विद्या का विस्तृत अध्ययन किया जा सकता है। . . सन्दर्भ-सूची १. पज्जुण्णचरिउ, ४।१०।११४ २. वही, १०।१६।५ 47. वही, 211719 48. वही; 1311518 ३. वही, ६।११। १ ४ . वही, १४१५५ 49. वही, 611218 50. वही, 611411 ५. वही, १४।५।११ ६ . वही, १३।५।१४ 51. वहीं, 121281 52. वही, 2117120 ७. वही, १३३५४१४८. आदिमपुराण, ६।१९६ 53. बही, 611411-15 54. वही, 9117123 ६. प० च० ४।१०।१४ १०. वही, ४।१०।१४ 55. वही, 12125-28, 1311113 ११. वही, १०।१६।५ १२. वही, १।१२।१० 56. भारत के प्राचीन शस्त्रास्त्र और युद्ध कला, (राष्ट्रीय १३. वही, ६।१६।३ १४. पज्जुण्णचरिउ ६।१६।१. शैक्षणिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद, 1965), १५ पज्जुण्णचरिउ, ६।१६।११ १६. आदि पुराण, पृ०५ १७. पज्जण्णचरिउ १।४।१० १८. वही, ६।१।। 57. प्रद्युम्नचारत, 211119 १६. वही, ६।१०।४, ६।१४।५, ६।१८।१ 58. वही, 611017 59. वही, 611017 २०. पज्जुष्णचरिउ ६।१८१ २१. वही, ६।१८।९-१० 60. वही, 211719 61. वही, 411717, 611017, 81518 २२. वही, ६.१८१३-४ २३. मानतोल्लास, अनुक्रम २०62वी . 2119116 63. वहीं, 211219 २४. वङ्गमाणचरिउ, ३७६ २५. वही, ३१७११४ 64. वही, 2117112 65. वही, 2117110 २६. वही, ३८५ २७. वही, ३।९।१२ 66. वहीं, 2117110 67. वही, 2116112 २८. वही, ३१६१२ २६. वही, ३९१३ 68. वही, 611018 69. वही, 1311212 ३०. वही, ३।१२।११ ३१. वही, ३।१२।६ 70. वही, 1311218 71. बही, 1311311 ३२. वही, ३।१२।११ ३३. वही, ३।१२।११ 72. वही, 1311411 73. वही, 912019 ३४. ५० च०,६।१२।१३ ३५. वही, ६।१६८ 74. वही, 75. पज्जुण्ण परिउ, 212017 ३६. वही, ६।६७, १२।१ ३७ वही, ६९७ 76. वही, 217112 77. वही, 311211 ३८. पज्जण्णचरिउ, ७।३।२ 78. वही, 211519 79. वही, 211817 ३६. दे० राजनय के सिद्धान्त : डा. गांधी जी राय 80. वही, 211016 81. वही 912018 (पटना, १९७८) पृ० १८०-१८१ 82. वही, 912018 83. वही, 111317 ४०. कौटिल्य अर्थ-शास्त्र, ११।१५।१, पृ० ५६ 84. वही, 911312 85. वही, 1011713 ४१. प्रद्युम्नचरित, ६।१३।११-१२ ४२. वही, १४१३१७ 86. वही, 815114 17. वही, 815114 43. वही, 319/11 44. वही, 31215 8 8. वही, 811417 89. वही, 811417 45. वही, 211416 46. वही, 2115112 90. वहो, 911714 91. वही, 618 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारणीय: ईसा मसीह और जैन धर्म ० एम० एल० जैन, नई दिल्ली निकोलस नोटोविच नामक रूसी यात्री ई.सन् १८७७- दिया परन्तु वह नही रुका और अपनी ज्ञान पिपासा को ७८ में भारत-तिब्बत यात्रा पर निकला मध्य ए शया, शांत करने के लिए तत्समय चचित जगन्नाथ (पुरी) को फारस, अफगानिस्तान, और पंजाब होता हुआ कश्मीर तरफ बढ़ चला। बाया और वहां से लद्दाख की राजधानी लेह पहुंचा । वहां जगन्नाथ में ईसाने छह वर्षों तक संस्कृत भाषा, दर्शन, पर वह बोद्ध मठ 'हिमिस' गया जहां पर उसे पता चला आयुर्वेद, गणित आदि का अध्ययन किया परन्तु वर्ण कि तिम्बत की राजधानी ल्हासा में ईसा मसीह के जीवन व्यवस्था में शद्रों की दुर्दशा देखकर उसका प्रकट विरोध का इतिवृत्त तिब्बती भाषा मे मोजूद है और उसकी प्रति- करने लगा। परिणाम में ब्राह्मणो का कोप-भाजन बन लिपि के अश हिमिस मठ के पुस्तकालय मे भी है। उसके गया और जान बचाकर भागा तथा नेपाल में जाकर अनुनय पर प्रमुख लामा ने उसे वे पढ़कर सुनाए जिनका शरण ली। नेपाल में ईसा ने बौद्ध धर्म का अध्ययन अनुवाद उसका दुभाषिया करता जाता था और नोटोविच किया। यह अध्ययन छह वर्षों तक चला। तब तक वह नोट लेता जाता था। इन्ही टिप्पणियो का अग्रेजी अनुवाद भी छब्बीस साल का हो चला था। सन् १८६० मे प्रकाशित हुआ जिसका पुनसंस्करण सन् भारत से इस प्रकार, जैन, वैदिक व बौद्ध दर्शनों का १९८१ मे कलकत्ता के नवभारत पब्लिशर्स ने निकाला। सार अपने मानस में संजोकर वह फारस होता हुआ तीम यह है-The unknown life of jesus christ. वर्ष की आयु मे अपने वतन यहूदीस्तान में प्रकट हुआ। इस विवरण को पढ़ने से पाया जाता है कि तेरह वर्ष मार्ग में मूर्ति पूजा, नर बलि प्रादि कुरीतियों के विरुद्ध की प्रायु प्राप्त करने पर जब माता-पिता ने उसको दाम्पत्य प्रचार भी करता गया। सत्र में बांधना चाहा तो ईसा विबाह स्थल पर न पहुचकर आगे का इतिहास तो लोक विदित है। ईसा के बोरी-छपे चुपचाप भारत की राह पर चल पड़ा पोर सिद्धान्त भारत की श्रमण सस्कृति से जो इतनी समानता सिन्धु नदी पार करके आर्यावर्त में प्रविष्ट हुआ। तब तक रखते है उसग कारण जैन व बौद्ध धर्मों का प्रभाव है यह वह चौदह साल का हो चुका था। वात नोटोविच द्वारा उद्घाटित तिब्बती ग्रथ मे अकित पंजाब पहुंच कर राजपूताना (राजस्थान) मे आया इतिहास से साबित हो जाती है। अतः ईसाई धर्म को और यहां वह जैन मदिरो मे ज्ञानार्जन के लिए घूमता अनायो या म्लेच्छो का धर्म कहना बड़ी भारी भूल लगती रहा। नोटोविच के अनुसार जैनधर्म बौद्ध और ब्राह्मण है। ईसाई धर्म भारत का स्वदेशीय धर्म है और है भारत धर्मों के बीच की कड़ी है। इसका प्रचार-प्रसार ईसा से की श्रवण सस्कृति का परिस्थिति जन्य रूपान्तरण । ७०० वर्ष पहले से चला आ रहा है। यह जैनमत अन्य . अब तो यह भी माना जाने लगा है कि शूली पर मतों का बण्डन करता है और उन्हें मिथ्यात्व में भरा हुआ चढ़ाए जाने के बाद भी ईसा जीवित रहा और उसके बतलाता है इसी कारण जैन शब्द का अर्थ है कि उसके मतप्रायः शरीर को लेकर उसकी माता मरियम ने न जाने सस्थापकों ने प्रतिद्वन्दी मतों पर विजय प्राप्त करली है। किस आशाब देवी प्रेरणा के साथ चलकर भारत में शरण ऐसे जैन धर्म के अनुपायिनों ने जब देखा कि ईसा एक ली। यहां वह पूर्ण स्वस्थ हो गया। यह उस का पुनर्जन्म चैतन्य नवयुवक है तो उसे अपने यहां रहने का निमंत्रण ही था परन्तु वह शत्रुओं की ओर वापस न जा सका।' Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईसा मसीह मौरन धर्म मरी (बब पाकिस्तान) मे माता मरियम का प्राणान्त हुआ खोग बब इस बात की होनी चाहिए कि क्या जैन और सिा कश्मीर में ब्रह्मलीन । माख्यानकारों ने भी इस विषय पर आगे-पीछे कही थोड़ा आश्चर्य यह है कि उसके इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बहत वर्णन किया है। राजस्थान के इतने पुरातन मंदिर जीवन काल के वृत्तान्त के बारे मे धर्म ग्रन्थ बाइबल और तो अब ध्वस्त हो चुके होगे जिनमे ईसा दर्शनार्थ व ज्ञाना. ईसाई धर्म के अनुयायी दोनों चुप हैं और आज लगभग र्जन के लिए गया था परन्तु प्राचीन ग्रंथावशेषों में इस दो हजार वर्ष के पश्चात् भी भारत के आध्यात्मिक ऋण बारे मे कोई सकेत मिल पाना सभावना की सीमा के को स्वीकार करना पसन्द नही करते। वे तो नोटोविष अनगंत है। क्या कोई तपस्वी मनीषी इसकी खोज में को उसकी खोज के जग जाहिर करने मे भी हतोत्साहित समय लगाएगा? यदि उसे सफलता मिली तो धर्मों के ही करते रहे। इतिहास पर नया प्रकाश पड़ेगा। संदर्भ-सूची: १. C.L. Datta की पुस्तक लदाख, मुंशीराम मनोहर• हस्तलेख मौजूद हैं जिनमें ईसा के भारत आने का लाल, नई दिल्ली, १९७३ ५० ५६ से पाया जाता है वर्णन है। Fifth Gospel pp181-1861 कि लदाख के सम्राट् सेन में नामग्याल (१६००- ४. वह व्यापारियो के काफिले के साथ सिंध की ओर १६४५ AD) के समय मे लामा स्तेगता साग रसपा इस उद्देश्यसे निकला था कि बौद्ध धर्मकी शिक्षा ग्रहण ने सन् १६४० मे इस मठ की स्थापना की थी। यह करे । टपरोक्त The Fifth Gospel p. 179 । मठ तिब्बत और भूटान के अध्यात्म नेताओ के वर्चस्व ५. ब्राह्मणो और क्षत्रियों का कोप भाजन ईसा इसलिए को स्वीकार करता रहा है। लदाख का यह मठ बना कि वह वैश्यों व शूदो के साथ घुल-मिल गया वैभवशाली और राज्य संरक्षित रहा है। था और उन पर किए जा रहे अत्याचारो का प्रति रोध करने लगा था। पूरोहित कहते थे कि शूद्रों और २. इस बात की पुष्टि निकोलस रोरिच द्वारा १९२५ मे वैश्यों को केवल मौत ही आजादी दिला सकती है प्राप्त तिब्बती लेखों से होती है देखिए-(i) Fida Hassnain & Dahan leni The Fifth Gaspel किन्तु ईसा ने शद्रों को कहा कि उठो और अपनी Dastgir Siragar, (1988) १० 79-80% (ii) शक्ति को पहचानों, सारा ससार ही तुम्हारा है। Grant Francis & Roerich, Himalayas pp एक दिन आएगा जब ब्राह्मण व क्षत्रिय शुद्ध हो 148-153 (iii) Johan Forsstorm; The King जाएगे। इस पर क्रुद्ध होकर ब्राह्मण एकत्र हए और of the Jews. p 176 (iv) Miguel Serrano; The Serpent of Paradise, pp 142-143 मे उसका वध करने के लिए हत्यारा नियुक्त किया। नाथनामावलि मे चचित ईशानाथ का वर्णन है।। वह वहाँ बौद्ध धर्म में पारगत हो गया और वहां के ३. निकोलस नोटोविच की इस खोज ने ईसाई जगत मे शीषंलामा सघाराम के निवासियों को कहा कि बड़ी हलचल पैदा कर दी पी। इसलिए ब्रिटिश यह यहूदी पैगम्बर है और दुनियां इसको सुनेगी और सरकार ने इस बात की जांच करने के लिए प्रो० उसके नाम की प्रशंसा करेगी। उपरोक्त Fifth मेक्समूलर और आगरा के प्रो. आर्चीबाल्ड को कहा। Gospel, pp. 181-189. ६. ईसवी सन् ईसा के शूली पर चढ़ाए जाने के दिन से Nineteenth Century oct 1894 और April लेते हैं परन्तु ईसा शूली पर मरा नहीं था। अतः 1896 मे उसने अपने नतीजे प्रकाशित कराए ईसवी सन् के बाद भी उसका जीवित रहना पाया जिनका सार यह था कि निकोलस नोटोविच एक जाता है। वह १२० साल की आयु पाकर ई. धोखेबाज आदमी है किन्तु अभेदानंद ने अपनी पुस्तक सन् १०६ में मरा ई० सन् ७८ मे तो बोद्ध परिषद् Kashmir & Tibbet (1922)p 269 मे इस ने उसे बोधिसत्व का दर्जा दिया था । उपरोक्त बात का समर्थन किया कि हेमिस मठ में वे तिब्बती Fifth Gospel अध्याय ४ । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्विकल्पता का विचार डॉ० सुपार्श्व कुमार जैन निर्विकल्पता का तात्पर्य है सभी प्रकार के संकल्पों- बनावे, वह आनन्द है। सर्वविधि सम्पूर्ण विकल्पो के हट विकल्पों से रहितता । इसमें मानव का सम्पूर्ण उपयोग स्व जाने पर व्यक्ति को जो निर्विकल्प व अनाकुल अनुभव की ओर उन्मुख होता है, न कि आवश्यकताओ की पूर्ति होता है वह आनन्द है। धर्म की तरह आर्थिक जीवन का हेतु आर्थिक क्रियाओं के क्रियान्वयन की ओर। लष्य भी इसी आनन्द को प्राप्त करना होना चाहिए। मामवीय आवश्यकताए आकाश की तरह असीम एवं मुक्ति के प्रयास मे पोर भी उलझती जाती हुई कफ सागर की तरगों की तरह अमन्त होती है। एक आवश्य- मे पड़ी हई मक्खी के समान इन्द्रिय-विषयाभिलाषी मनुष्य कता भी पूर्ण नहीं हो पाती कि दूसरी अन्य आवश्यकताये द्रव से मुक्ति व सुख-प्राप्ति के लिए जितनी भी क्रियायें सामने खड़ी हो जाती हैं, जिन्हें मानव अपने अल्प जीवन- करता है, वे सब क्रियायें दुख रूप ही होती जाती हैं। काल में सीमित साधनों द्वारा सन्तुष्ट नहीं कर पाता। घी से शान्त न होने वाली प्रज्वलित अग्नि की भांति जितनी भी आवश्यकतायें सन्तुष्ट की जाती है, उससे प्राप्त मनुष्य कभी भी इच्छाओं की सन्तुष्टि से तृप्त नहीं होता। होने वाली सवेदना सुख की भांति आभासित होती है, वह जब इन्द्रिय विषयों से तृप्ति नही होती तो विकल्प उत्पन्न बास्तविक सुख नही है। होते हैं, विकल्पों से आकुलता बढ़ती है और आकुलता से सुख भोर दुःख दोनो ही एंद्रिय है 'ख'-इन्द्रिया, सु= द.ख होता है, अतः आवश्यकताओं को घटाना चाहिए व सुहावना पर्थात् जो इन्द्रियों को सुहावना लगे, उस अनु विषयों की ओर से परांगमुख होना चाहिए। आकुलता भव को सुख कहते हैं। चूंकि इन्द्रियां अशाश्वत है अतः दु.ख की जननी है और निराकुलता सुख की। सविकल्पता इम्ब्रियो का सुहावना लगने का परिणाम या अनुभवने भी आवश्यकता और आकुलता सापेक्ष होती है तो निर्विकल्पता अशाश्वत है तथा इस सुख के अनुभवन में मृगमरीचिका आवश्यक्ता और आकुलता निरपेक्ष । अतः यह सच्चा की तरह आकुलता भरी है जिसे व्यक्ति समझ नही पाता। सुख निर्बाध, शाश्वत और इन्द्रिय-निरपेक्ष होता है। आ० 'दु' का अर्थ है बुरा या असुहावना, अत: इन्द्रियो को जो अमितगति के अनुसार इस ससार में परम सुख निस्पृहत्व बरा या असुहावना लगे, उस प्राप्त अनुभवन को दुःख (इच्छारहितपना) अवस्था है और परम दुःख सस्पृहत्व या कहते हैं । दुःख से छूटने की बात तो सभी कहते है किन्तु इच्छाओ का दास हो जाना है।" इसलिए भ. महावीर भ. महावीर ने सासारिक सुख से भी मुक्ति का विवेचन ने कहा कि प्रत्येक जीव (व्यक्ति) को समस्त चिन्ताओं किया जो निस्सन्देह अद्वितीय है। वस्तुतः सांसारिक सुख को छोड़कर निश्चिन्त होकर अपने मन को परमपद मे पराधीन, नाशवान, दुःख पूर्ण और विपत्ति के कारण है, धारण करना चाहिए। अतः वे आनन्ददायो कैसे हो सकते है ? यही कारण है कि वास्तविक सुख-प्राप्ति हेतु निर्विकल्पता प्राप्त करना म. महावीर ने वास्तविक सुख के अनुभवों से अपरिचित है। निविकल्पता प्राप्ति हेतु अन्तरंग परिग्रहों को घटाना प्राणियों पर दया करके उसके सच्चे मार्ग का अनुसंधान है, इस हेतु वाह्य परिग्रहों को छोड़ना होगा और ऐसा कर उसकी प्राप्ति का उपाय बतलाया है। करने के लिए अपनी आवश्यकताओं को क्रमशः कम करने आनन्द-आ समन्तात् नन्दीति आनन्दः अर्थात जी जाना चाहिए। इस प्रकार भ. महावीर दर्शन में दो उपाय परिणाम या अनुभवन व्यक्ति को सर्व ओर से समृद्धिशाली दृष्टिगोचर होते है Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निविकल्पता का विचार (१) निवृत्तिमूलक उपाय से त्यागमार्ग या श्रमण- (8) रात्रि मथुन को छोड़कर पूर्णत. ब्रह्मचर्य का मार्ग भी कह सकते हैं। समस्त आवश्यकताओ पालन करना चाहिए। पूवं परिग्रहों से एक ही झटके मे मो.ममत्व को (१०) आवश्यक धन-सम्पत्ति ब मकान मादि रखकर छोड़कर अरण्यवास स्वीकार करते हुए नजात्म व्यापारिक कृषि सम्बन्धी कार्य अपने पुत्र को स्वरूप में ही रमण करना निवृत्ति या श्रमण छोड़कर निश्चिन्त हो जाता। मार्ग है। यह निविकरूपता की प्राप्ति का (११) आवश्यकता के अनुरूप रखे गये धन-सम्पत्ति से साक्षात कारण या साधन है। भी अपना स्वामित्व हटा लेना। (२) प्रवृत्तिमूलक उपाय--इसे ग हस्थमार्ग कहते हैं । (१२) रिश्तेदारों को तो बात ही क्या उमे अपने घरेलू पापरूप अशुभ कार्यों को छोड़कर शुभ रूप वैधानिक व नैतिक प्रवृत्तियों को व्यावहारिक व्यापार विवाह आदि मे सम्बन्धित अनुमति जीवन में उतारना । जो एकदम आवश्यकताओं देना छोड़ते हुए एकान्तबाम करना चाहिए, तथा को नही छोड सकते, उनके लिए सहेज रूप में (१३) सम्पूर्ण वस्त्रादिक का परिग्रह भी छोड़कर क्रमशः निम्न ग्यारह कार्य करना पड़ते हैं जिन्हें अरण्यवास करना चाहिए और अधिश समय 'प्रतिमा' नाम से कहा गया है : स्वोपयोग को आत्मोन्मुखी बनाकर निर्विकल्पता (३) सर्वप्रथम व्यक्ति को शराब, मास शहद तथा को प्राप्त करना चाहिए। भ० महावीर का पांव उदम्बर फलो का भक्षण, सप्तव्यसन एवं कहना है-जो समस्त विकलो से रहित परम हिंसादि पाचो पापों तथा इनसे सम्बन्धित कार्यों अवस्था को प्राप्त होते हैं वे ही सच्वे सुख का को छोड़ देना चाहिए। मनुभव करते हैं। (४) वारह प्रकार के आचरण पालना चाहिए । इस इस प्रकार भ. महावीर द्वारा आध्यात्मिक दृष्टि से प्रकार पापाचरणो से पूर्ण निवृत्ति व शुभाचरण । प्रतिपादित निविकल्पता या पावश्यकताहीनता का विचार मे प्रबृत्ति होने लगती है। आथिक जगत में अनेको समस्याओं का समाधान करना है (५) अनुकूल व प्रतिकूल संयोगों में साम्यभाव धारण क्योकि निस्पृहत्व भाव से सामाजिक, आर्थिक एवं राज. करना चाहिए, इससे शारीरिक व आत्मिक नीतिक आदि समस्याओ का स्वतः निराकरण हो जाता ऊर्जा (शक्ति) का ह्रास न होकर केन्द्रीयकरण है और स्वहित के साथ-साथ परहित मे वृद्धि होती है। होता है। धर्म, अर्थ, म और मोक्ष रूप पुरुषार्थ-चतुष्टय से यह (६) आठ दिनो में एक बार उपवास रखना इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि व्यक्ति का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की आत्मिक शाक्त का प्रादुर्भाव होता है और प्राप्ति होनी चाहिए, न कि अर्थ या काम की प्राप्ति । राष्ट्रीय खाद्याना की समस्या सुलझती है। अर्थ व काम की प्राप्ति यदि धर्ममूलक है तो सुखदायी (-) सारा जीवन उच्न विचार के सिद्धान्त पर चल- होते है अन्यथा नही। इस वास्तविक तथ्य को जानकर कर पूर्णत: शाकाहारी होना चाहिए। अभक्ष्य प्रतीति कर जब तक गहस्थावस्था मे है तब तक न्याय व शाक-सब्जियों को भी छोड़ना चाहिए। नीति धर्मपूर्वक कार्य सम्पादित करना चाहिए, अनन्तर (6) रात्रि में खाद्य. स्वाद्य, लेह्य न पेय रूप आहार उपर्युक्त रीति से आवश्यकताओं व परिग्रह को हटाते हुए का क्रमशः त्याग एव दिन मे मैथुन को छोड़ निर्विकला अवस्था की प्राप्ति हेतु अग्रसर होना चाहिए । देना चाहिए। दिवा में मैथुन भी अकालमरण भ० भहावीर ने स्वयं इस मार्ग का अनुसरण किया और का निमित्त है। परमपद वो पाया। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० नाथूराम प्रेमी का साहित्यिक अवदान बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न पं० माथुराम " प्रेमी" का हिन्दी साहित्य तथा प्राचीन वाङ्मय के सम्वर्धन मे महत्त्व - पूर्ण योगदान है । उनका जन्म अगहन सुदी ६ वि० सम्वत् १९३९ में सागर जिलान्तर्गत देवरी नगर मे हुआ था । उनकी प्रारम्भिक शिक्षा देवरी में हुई थी। बाद मे अध्ययन हेतु नागपुर भी रहे । उनके कर्मक्षेत्र की शुरुआत देवरी के स्कूल में अध्यापक के रूप में हुई । देवरी के प्रसिद्ध साहित्यकार सैयद अमीर अली "मीर" से प्रभावित होकर उन्होने शृंगार रस से परिपूर्ण कविताएं लिखना प्रारम्भ किया । और 'प्रेमी' उपनाम से प्रसिद्ध हो गए । इसी बीच बम्बई - प्रातिक-दिगम्बर जैन सभा, बम्बई में लिपिक के रूप में सेवारत हुए। वही से (प्रेमी) जी के व्यक्तित्व का चहुंमुखी विकास प्रारम्भ हुआ । उन्होंने बम्बई मे ही संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजो, गुजराती, मराठी, बंगला, और हिन्दी आदि अनेक भाषाओ का उच्चकोटिक ज्ञान प्राप्त करके अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थो तथा लेखों के सम्पादन और अनुवाद किये, तथा अनेक स्वतन्त्र लेख लिखे । वे अपने युग के सर्वाधिक प्रतिष्ठित और समीक्षा प्रधान पत्रों "जैनमित्र" एवं "जैन- हितेषी" का सम्पादन भी करते रहे । "प्रेमी" जी ने "जैन ग्रन्थ रत्नाकर-कार्यालय नाम से हीराबाग, गिरगांव, बम्बई मे एक प्रकाशन सस्था की स्थापना की तथा उनके माध्यम से अनेक प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन किया । उन्होने इस संस्थान से अनेक उच्चकोटि की पुस्तकों का प्रकाशन कर हिन्दी साहित्य के प्रसार-प्रचार और सम्वर्धन मे उल्लेखनीय योगदान दिया । "माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला” बम्बई के माध्यम से भी संस्कृत और हिन्दी के प्राचीन लुप्तप्राय वाङ्मय को प्रकाशित कराने में भी "प्रेमी" जी का विशेष योगदान रहा। श्री मुन्नालाल जैन, दमोह "प्रेमी" जी ने समाज-सुधार जैसे आन्दोलनों मे भी बड़े चाव से भाग लिया और इनमे महत्त्वपूर्ण सफलता भी प्राप्त की । विधवा-विवाह आन्दोलन मे "प्रेमी" जी ने समय-समय पर हिस्सा लेकर प्रोर अपने भाई का एक विधवा के साथ विवाह करके अपने हृदयगत विवारों को जीवन्त उदाहरण के रूप मे समाज के सामने प्रस्तुत किया । "प्रेमी" जी महात्मा गांधी, सैयद अमीर अली "मीर", गोपालदास जी बरैया माणिकचन्द्र जी जैन, पं० पन्नालाल जी वाकलीवाल, काशीनाथ रघुनाथ "मित्र" आदि व्यक्तित्वों से प्रभावित रहे और उनके साथ उनका सम्पर्क रहा। "प्रेमी" जी के समकालीन साहित्यकारों ने सर्व श्री डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द्र, जयशंकर प्रसाद, प० बनारसीदास चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, उदयशकर भट्ट, जैनेन्द्र कुमार जैन, चतुरसेन शास्त्री, सुदर्शन जी, डा० बलदेव उपाध्याय, प्रो० मूलराज जैन, पदुमलाल पुन्नालाल बडणी, आदि थे । "प्रेमी" जी ने पुरान महान् साहित्यकारो को प्रकाश मे लाने का महत्त्वपूर्ण कार्य तो किया ही है साथ ही नवीन उदित हो रहे तत्कालीन साहित्यकारों की प्रारम्भिक रचनाओ को संशोधित करके शुद्ध रूप में प्रकाशित कर उनकी साहित्यिक प्रतिभा को उजागर किया। आपने प्रकाशन का क्रम डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी की 'स्वाधीनता' नामक रचना से श्रीगणेश किया था। "प्रेमी" जी के "हिन्दी ग्रन्थ- रत्नाकर कार्यालय से हिन्दी के अधिकांश लेखको की प्रारम्भिक रचनाएं निकलीं। प्रेमचन्द्र जी की सबसे प्रारम्भिक रचनाएं "नवनिधि' और सप्तसरोज" करीब-करीब एक साथ ही निकली थी । "प्रेमी" जी ने सर्व श्री जैनेन्द्र कुमार जैन, चतुरसेन शास्त्री, सुदर्शन जी, Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा० रामकुमार वर्मा, शांतिप्रिय द्विवेदी, गुलाब राय, सियारामशरण गुप्त रामचन्द्र वर्मा आदि की रचनाओं को प्रकाशित कर इन्हें जनप्रिय बनाकर हिन्दी साहित्य के भण्डार में भूतपूर्व सी वृद्धि की है । श्री "प्रेमी" जी द्वारा प्रणीत मौलिक ग्रन्थ (१) अर्द्धकथानक, (२) जैन साहित्य और इतिहास, (३) जैनधर्म और वर्णव्यवस्था, (४) तारणबन्धु, (५) दिगम्बर जैन ग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ, (६) भट्टारक मीमासा, (८) विद्वद्रत्नमाला, (८) हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, अति-प्रन्थ : (१) कर्नाटक जैन कवि, (२) धूर्ताख्यान, पं० नाथूराम प्रेमी का साहित्यिक प्रदान (३) नाटक समयसार, ( ४ ) पुण्यास्त्रव कथाकोष, (५) पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, (1) प्रतिमा (उपन्यास) (७) प्रद्युम्न चरित, (८) मोक्षमाला, (६) रवीन्द्र कथाकुन्ज, (१०) शिक्षा, (११) सज्जनचित्त वल्लभ, । सम्पादित-ग्रन्थ : (१) जिनशतक, (२) दौलत-पद-संग्रह, (३) बनारसी विलास, ( ४ ) ब्रह्म विलास | प्रन्थों की भूमिकाएं : (१) आराधना, (२) नीतिवाक्यामृत । सम्पादित पत्रिकाएं : (१) जैनमित्र, (२) जैन- हितैषी । स्फुट - महत्वपूर्ण आलेख : (१) तीर्थों के झगड़ों पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार, (२) दक्षिण के तीर्थक्षेत्र, (३) हमारे तीर्थक्षेत्र । ११ श्री "प्रेमी" जी ने, अनेक संस्थाओं के संचालन में भी योगदान दिया है। इस प्रकार पं० नाथूराम जी "प्रेमी" के दिव्य कृतित्व पर समग्रस्थ से विधार करने पर स्पष्ट होता है कि उनका भारतीय साहित्य, विशेषतः हिन्दी साहित्य के सम्बर्धन में महत्त्वपूर्ण अवदान है । ऐसे विराट् व्यक्तित्व के धनी श्री "प्रेमी" जी के विषय मे अभी तक किसी भी प्रकार से व्यवस्थित शोध-खोज का कार्य नहीं हुआ है । इसीलिए मैंने संकल्प किया है कि ऐसे महारथी - हिन्दी-सेवीसाहित्यसृष्टा और साहित्यकार प्रात्साहनकर्ता "पं० नाथूराम " प्रेमी" का साहित्यि अवदान" विषय पर अपनी पी-एच० डी० उपाधि के शोध-प्रबन्ध के माध्यम से उनकी साहित्य सेवा के सार्वभौम उदात स्वस्थ को साहित्य जगत में उजागर करूं । विश्वास है आप सभी सुधीजनों के कृपापूर्ण मार्गदर्शन और सक्रिय सहयोग से मैं अपनी इष्टपूत्ति मे सफल होऊगा । शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय दमोह (म० प्र०) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वर्ष ४२ कि० १ से आगे ) महाराष्ट्र में जैनधर्म महाकवि स्वयंभू ने अपने ग्रन्थों की रचना उसी के आश्रय में रहकर की । पुन्नागवंशी जिनसेन ने भी ७८३ मे रचे अपने हरिवंश पुराण के अन्त मे ध्रुव का उल्लेख किया है । वीरसेनाचार्य के ग्रन्थ भी इसी शासनकाल की देन है व के पुत्र जयसुंग के शासनकाल में उनकी साहित्यिक गतिविधियां चलती रही है । बाद मे जगत्तुंग ने मान्यखेट ( मलखेड, मैसूर) को अपनी राजधानी बनाया जो अकलंक स्वामी विद्यानन्द, अनन्तकी, जिनसेन, गुणभद्र, महावीराचार्य, अनन्तवीर्य आदि अनेक जैनाचार्यो का कार्यक्षेत्र रहा है। राष्ट्रकूटों की राजधानी यद्यपि मान्यलेट रही है पर उनके अधिकार क्षेत्र मे महाराष्ट्र का भाग भी आता है । मलखेड़ बलात्कारगरण का मुख्य केन्द्र था। इसी की दो शाखायें महाराष्ट्र में स्थापित हुईकारंजा और लातूर । बलात्कारगण के प्रधान आचार्यों में कुन्दकुन्द, उमास्वामी जटासिंहनंदि, माघनंदि, जिनचन्द, प्रभाचन्द, अकलंक, माणिक्यनन्दि आदि आचार्यों का उल्लेख आता है। कारंजा शाखाका प्रथम उल्लेखनीय आचार्य मर कीति है। उनकी शिष्य परम्परा में विशालकीर्ति विद्या नन्द, देवेन्द्रकीति, धर्मचन्द्र धर्मभूषण आदि आचार्य हुए हैं। ये सभी १४-१५वी शती के आचार्य है। लातूर शाखा का प्रारम्भ अजितकीति से हुआ जिनके गुरु कारजा शाखा के भ० कुमुदचन्द्र थे । इन्होने शक स० १५७३ में एक जिनमूर्ति की स्थापना की थी। 1 औरंगाबाद के समीप देवगिरि की स्थापना जंनाचार्य हेमाद्रि के अनुसार यादव नरेश निलम्मा प्रथम १८८७ ई० में की और उसे अपनी राजधानी बनाया। मुहम्मद तुगलग ने उसे दौलताबाद नाम दिया। यहीं पास ही उस्मानाबाद के नजदीक नदी के किनारे पारस नाम [C] डॉ० भागचन्द्र भास्कर, नागपुर की सात गुफाये हैं जिनमे चार गुफाये जैनो को है । इनका समय कला की दृष्टि से लगभग सप्त । शताब्दी निर्धारित किया गया है। सिंहन यादव काल मे जंनाचार्य पार्श्वदेव ने समयसार नामक संगीत ग्रन्थ लिखा । यहाँ के कूषिराज ने मी जिनालय का निर्माण कराया बंदन में देवगिरि सुरगिरि के नाम से दलिखित है। परभणी भी यादवकालीन केन्द्र रहा है। नासिक और उसके आसपास का भाग भी जन सास्कृतिक केन्द्र के रूप में विख्यात है। धातवशी भट्टाक्षहरातवशी राज नेहपान कुषाणों सूबेदार था जो बाद मे उज्जैन और सौराष्ट्र का अधिपति बना तथा गौतमीपुत्र सातकर्णी पेटन का सातवाहन नरेश था । ६५ ई० के आसपास गौतमीपुत्र सातकर्णी ने नहवान को युद्ध में पराजित किया। नहपान के राज्य में नानगोल ( ठाणा जिला नारगोन) गोवर्धन (नासिक का समीपवर्ती पर्वत) जिम (नासिक) जुन्नार आदि भाग सम्मिलित रहे है । नहपान के दामाद ऋषमदत (द्वितीय शतक का प्रथम भाग ) द्वारा लिखित एक अभिलेख नासिक में प्राप्त हुआ है जिसमें उन का भट्टारक कहकर ससम्मान उल्लेख किया गया है। इस लेख मे जैन वैदिक आदि सभी धार्मिक तीर्थों को दान दिये जाने की बात अंकित है। नहपान के लिए भट्टारक जैसे शब्दों का प्रयोग उसके जैन होने का संकेत करते हैं। विवृष धीघर के बुतावतार के अनुसार नहपान ने जैम दीक्षा ली और भूतबलि के नाम से विख्यात हुए राज श्रेष्ठ सुबुद्धि भी उसी के साथ दीक्षित हुए जो पुष्पदत के नाम से विद्युत हुए। ये दोनों आचार्य धरसेनाचार्य के शिष्य बने और उन्होंने पट्खण्डागम की रचना की। ई० पू० प्रथम शती मे आन्ध्र सातवाहन वंश का उदय हुआ । प्रतिष्ठानपुर (पेठन) उनकी राजधानी बनी । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराष्ट्र में गंग धर्म जैन इस वंश के अधिकांश नरेश ब्राह्मण धर्मानुयायी थे पर उनमें हाल (शिक) की सम्भावना जैन होने की अधिक है । उनके गाहा सत्तसई ग्रन्थ पर जैनधर्म का प्रभाव स्पष्ट झलकता है इससे प्राकृत की लोकप्रियता का भी पता चलता है । जंनाचार्य शर्ववमं द्वारा कातंत्र व्याकरण तथा काणमूर्ति की प्राकृत कथा के आधार पर गुणरूप की वृहत्तथा भी इसी के राज्यकाल में लिखी गई । हाल के ५२ योद्धाओं में से अधिकांश ने पैठन मे जैन मन्दिरों का निर्माण कराया। कहा जाता है कालकाचार्य ने पेंठन की यात्रा की थी और वहाँ पर्युषण पर्व मनाया था। नासिक के पास वजीरखेड़ में दो ताम्रपत्र उल्लेखनीय हैं। सन् ६१५ मे राष्ट्रकूट सम्राट इन्द्रराज ने अपने राज्याभिषेक के अवसर पर जैनाचार्य वर्धमान को अमोध वसति और उरिअम्म वसति नामक जिन मन्दिरो की देखभाल के लिए कुछ गांव दान मे दिये थे अमोधवसति से यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि यह मन्दिर इन्द्रराज के प्रपितामह अमोघवर्ष को प्रेरणा से बनाया गया होगा । | यादववशीय राजा सेउणचन्द्र का एक लेख सन् ११४२ का नासिक के पास अजमेरी गुहामन्दिर मे प्राप्त हुआ है जिसमे चन्द्रप्रभु मन्दिर मे प्रदत्त दान का वर्णन है। धूलिया के समीप मुलतानपुर मे सन् १९५४ के आसपास वा लेख मिला है उसमे पुग्नाह गुरुकुल के आचार्य विजयकति का नाम अकित है । नासिक के समीप ही लगभग ६०० फीट ऊंची अकाई सकाई नामक पहाड़ी है। वस्तुतः ये एक साथ जुड़ी हुई दो पहाड़ियां है। यहां सात जैन गुफाये है, बड़ी अलकृत है। पहली गुफा दो मंजली है । दूसरी गुफा भी लगभग ऐसी ही है, पर इसमे एक बन्द बरामदा है जिसमे इन्द्र ओर अम्बिका की मूर्तियां रखी हुई है । मन्दिर मे एक जिन मूर्ति भी है । शेष दोनों गुफायें भी लगभग ऐसी ही हैं। तीसरी गुफा के पीछे के भाग में पार्श्वनाथ और शांतिनाथ की प्रतिमाये उकेरी हुई मिलती है कायोत्सर्ग मुद्रा में। । चौदी गुफा का तोरणद्वार अत्यन्त कलात्मक है। ये गुफायें शाहजहाँ के सेनापति खानखाना की सेना द्वारा तोड़ तोड़ दी गयी थी इसलिए कलात्मकता छिन्न-भिन्न हो गई है । १३ नासिक के ही उत्तर-पश्चिम में चामरलेग नाम की छोटी-सी पहाड़ी है जिस पर जैन गुफायें उपलब्ध हुई हैं। इनका समय लगभग सातवी शताब्दी है । एक गुफा मे पार्श्वनाथ की बुरकाय आवस प्रतिमा उल्लेखनीय है ये गुफायें उसमानावाद के पास है । पूना उत्तर-पश्चिम में लगभग पच्चीस मीर एक वामचन्द्र स्थान है जहाँ जैन गुफा है। आज उसे शेव मन्दिर के रूप परिवर्तित कर दिया गया है । वार्मी से लगभग २२ मील दूर प्राचीन जैन तीर्थक्षेत्र कुंलगिरि एक सिद्धक्षेत्र है जहाँ से कुलभूषण और दिशभूषण नाम मुनि मुक्त हुए। वशस्थ लखमरे पछिम भाभिकुण्यगिरि सिहरे, कुलदिसभूषण मुणी किराणामलेणिकाण्ड इस पहाड़ी पर आदिनाथ को मूलनायक विशाल प्रतिमा है। इसका समय लगभग १२-१३वीं शती निश्चित किया जा सकता है । अर्धपुर (नादेह जिना) के प्राचीन जैन मन्दिर भी प्रसिद्ध रहे है लगभग इसी समय के । पर अब इनके मात्र अवशेष शेष है । इसी जिले में एक कटहार नामक स्थान है जहाँ सोमदेव का बनाया हुआ अति प्राचीन दुर्ग है। मालखेड के राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय ने इस दुर्ग का विस्तार करवाया था और कन्दहार की उपाधि ग्रहण की थी। इस दुर्ग में एक भव्य जिनालय है जिसे सोमदेव या कृष्ण तृतीय ने बनवाया होगा। जैन स्तोत्र तीर्थमाला चैत्यवदन में जिस कुतीविहार का उल्लेख आया है शायद वह वही कहार होगा। कुछ लोग इस नासिक के समीप गोदावरी तट पर भी अवस्थित बताते है जो पाण्टुग जहाँ अदि गुफायें हैड मे चालुक्य नरेशों की एक शाखा राज्य करती थी। बाद मे यही वारंगल के काकातीय राजवंश का भी शासन रहा। इसी समय का यहां एक जैन मन्दिर है। वर्तमान कराड प्राचीन काल का करहाटक होना चाहिए जो कृष्णा और ककुदमती के संगम पर बसा हुआ है यहा कम का शासन रहा है जो सातवाहनों | का नाम था और बाद मे स्वतंत्र शासक के रूप मे स्थापित हुआ था। करहाटक उन्हीं की राजधानी रही है। इस समूचे वंश के शासक यद्यपि सर्वधर्म समभावी रहे हैं Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ uote राज्य के ग्यारहवें वर्ष में प्रत्येक पूर्णिमा के दिन जिन भगवान की पूजा के दिन दिया गया था यह भूमि पलासिका ग्राम के कईमपटी की थी। (Epigraphica Indica Vol. 6 Page 27-29 ) हरिवर्मा एक लेख में कूर्चक सम्प्रदाय को दान देने का उल्लेख है और उसी में वारियेणाचार्य संघ का भी उल्लेख है जिसके प्रधान चंद्रक्षोत मुनि थे (वही, पृ० ३०-३१) हरिवर्मा के ही एक अन्य लेख में चालय के लिए भ्रामदान का उरलेख है। यह चैत्यालय अरिष्टी नाम के भ्रमण संघ की सम्पत्ति के रूप में मान्य था । (वही, पृ० ३०-३१) हरिवर्मन के पूर्ववर्ती राजा काकुत्स्यदर्शन शांतिवन और रविवर्मन भी जैनधर्म के अनुयायी थे जिनके राज्य मे जैनाचार्य श्रुतकीति दामकीर्ति कुमारदत्त, हरिदत्त आदि जैसे विद्वान अभिभावक थे । यहा यह उल्लेखनीय है कि पलासिका (हल्सी) सौराष्ट्र की पलासनी जोर पश्चिमी बंगाल की पलासी नगरी से कोई भिन्न नगरी होनी चाहिए जो महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमा पर स्थित रही होगी । " १४,४२,० पर अभिलेखों आदि के आधार पर वह कहा जा सकता है कि जैन धर्म के प्रति उनका विशेष झुकाव था। इन शासकों में मृगेशवर्मन (४५०-७८ ई०) का नाम विशेष उल्लेखनीय है उसके अनेक ताम्रपत्र और अभिलेख उपलब्ध होते हैं जिससे उसका जैनधर्म के प्रति झुकाव सिद्ध होता है । एक ताम्रपत्र में जैनधर्म के तीन समुदायो के लिए दान देने का उस्ले माया - १. तीन निवर्तन जमीन मातृसरित से लेकर इमिनी संगम तक कूर्वक संप्र को दी, २. कालयेगा गाँव का एक भाग श्वेत पट अर्थात् श्वेतांबर संप्रदाय को दी, ३. और उसी का दूसरा भाग दिगम्बर सम्प्रदाय को प्रदान किया। हालमणि अभिलेख भी इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है । साधारण तौर पर यह माना जाता है कि श्वेतांबर सम्प्रदाय का अस्तित्व दक्षिण में नही था पर इस अभिलेख से इस भ्रम का खंडन हो जाता है । इतना ही नही बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि श्वेतांबर सम्प्रदाय दक्षिण मे लोकप्रियहोने लगा था अन्यथा मृगेश वर्मा उसकी ओर आकर्षित नहीं होता। इसी तरह के कुछ अन्य अभिलेखों और साहित्यिक प्रमाण मिलते हैं जिनसे दक्षिण भारत में श्वेतांबर सम्प्रदाय का अस्तित्व भलीभांति सिद्ध होता है। जैसा हम जानते हैं यापनीय सम्प्रदाय का संस्थापक श्रीकलश स्वयं श्वेताबर सम्प्रदाय का पोषक था और दक्षिषवासी था इससे इस समय को और भी पीछे लाया जा सकता है । दलभि वाचना के बाद जैनधर्म गुजरात से दक्षिरण की ओर गया होगा और वैसी स्थिति मे श्वेतांबर सम्प्रदाय का वहां अस्तित्व होना असंगत नही हो सकता । दक्षिण का कदब वंश आंध्र सातवाहनों का सामंत था और उसने वनवास देश मे दूसरी शती के मध्य करहाटक ( वर्तमान करहद) को राजधानी बनाकर शासन की स्थापना की। इस वश के द्वितीय राजा शिवस्कध मे अपने भाई शिवायन के साथ आचार्य समन्तभद्र से जैन दीक्षा सी। मयूरवर्मन ने हस्सी (पलासिका) को उपराजधानी बताकर शासन किया और जैनधर्म को संरक्षण प्रदान किया । हल्सी से प्राप्त एक अभिलेख में भानुवर्मा और उसके अधीनस्थ कर्मचारी पडक "भोजक" के दान का उल्लेख है यह दान भानुवर्मा के बड़े भाई रविवर्मा के सांगली क्षेत्र के अन्तर्गत तेरडाल ११-१२वी पाती मे जैनधर्म का प्रभावक केन्द्र रहा है। समीपवर्ती क्षेत्र बेलगाँव पर रट्ट शासको का आधिपत्य था । ये शासक राष्ट्रकूटों के सामंत थे । ८७५ ई० मे प्रमोघवर्ष के सामत मेरद्रि के पुत्र पृथ्वीराम रट्ट ने सोदन्नी में जिन मन्दिर का निर्माण कराया था । और उसके संचालन के लिए दान भी दिया था । तेरदल में प्राप्त एक शिलालेख से पता चलता है कि यहां का मांडलिक गोक (११८७ A.D.) जैनाचार्य द्वारा सर्पदंश से मुक्त किया गया था और फलत: उसने नेमिनाथ का मन्दिर बनवाया और उसके संचालनार्थ दान दिया । कार्तवीर्य रट्ट शासक द्वितीय के काल में ( ११२३-२४ A. D.)। इस शुभावसर पर माघनन्दि सैद्धान्तिक को विशेष रूप से आमन्त्रित किया गया था । ये कोल्हापुर के रूपनारायण वसदि के मण्डनाचार्य थे। इसी वंश का कार्तवीर्यं चतुर्थ शिलाहार नरेश के राज्य में स्थित एकसाम्बी के नेमीश्वर जिनालय के दर्शनार्थं गया जिसे यापनीय आचार्य विजयकीर्ति के संरक्षकत्व में शिलाहार सेनापति कालन ने अपने गुरू कुमारकीर्ति त्रैविद्य के उपदेश से बनवाया था। कार्तवीर्य चतुर्थ के मंत्री एवं सेनापति ब्रूचिराज और मल्लिकार्जुन भी जैन धर्मावलम्बी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराष्ट्र में जैन धर्म थे। बूचिराज ने बेलगांव में रट्ट जिनालय भी बनवाया पास तेरदल में प्राप्त शिलालेख से पता चलता है कि और मल्लिकार्जन के पुत्र केशीराज ने सौंदंती में मल्लिका- निम्बदेव ने रूपनारायण मन्दिर के लिए बड़ी मारी र्जुन जिनालय बनवाया। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सम्पत्ति दान दी थो। (Ind. Ant. Vol XIV P. 193 मुनि चन्द्रदेव इस राजा के धर्मगुरू और उसके युवराज के Ep Ind. Vol. 3 pp. 207). शिक्षक थे। उन्होंने संघकाल में प्रधानमंत्री का पदभार चालुक्य सामंत शिलाहार वंश के राजा गण्डरादित्य संभाला और शस्त्र भी उठाये शदमन के लिए। बाद में द्वारा कोल्हापुर अभिलेव के अनुसार उसके सामंत नोलंब उन्होंने कोलिंग में मन्दिर बनवाये और फिर जिन दीक्षा को सन् १११५ में दो ग्राम दिये गये थे। इसमें नोलम्ब धारण की। (An. Ref. Inde-Ep. 53-54p. 31). को सम्यक्त्व रत्नाकर तथा पद्मावती देवी लन्धवरप्रसाद कोंकण के शिलाहारों का बेलगांव और कोल्हापुर में जैसे विशेषणों से सम्मानित किया गया है। (Ep. Ind. शासन था। उनमें से प्रसिस जैन राजा गण्डरादित्य Vol. 19 Page 30) इससे नोलम्ब का जैन होना १००७-६ AD.) ने इरुकुडी में एक जिनालय बनवाया। असंदिग्ध है। कोल्हापुर के ही सन् ११३५ के एक अन्य उसका निम्बदेव देवरल नामक सेनापति आजुरिका (वर्त- लेख मे राजा गण्डरादित्य के सामत निम्बदेव द्वारा ही मान आजरे) में पपावती का भक्त था और माणिक्यनन्दि एक जैन मन्दिर के निर्माण का तथा वीरवलज लोगो के का शिष्य था। उसने अनेक ग्राम दाम दिये । उसके सना- संघ द्वारा आचार्य श्रुतकीति को दान दिये जाने का वर्णन पति बोप्पण कालन व लक्ष्मीधर भी परम जैन भक्त थे है। कोल्हापुर के महालक्ष्मी मन्दिर मे प्राप्त एक लेख में जिन्होने अनेक जैन मन्दिर बनवाये । भोज द्वितीय भी सामत निम्बदेव के जिन मन्दिर निर्माण का उल्लेख (१९६५-१२०५ A.D.) भी जैन था। विशालकीति पंडित मिलता है जिसे माघनंदि ने बनवाया था (Ep. Ind. देव उसके गुरू थे। इसी के शासनकाल में सोमदेव ने Vol. 27 Page 176) यहां यह उल्लेखनीय है कि यह १२०५ A.D. मे शब्दार्णव चंद्रिका नामक टीका गण्डरा. मन्दिर आज वैष्णवों के अधिकार में है। दित्य द्वारा निर्मित आजुरिका ग्राम के त्रिभुवन तिलक शुक्रवार गेट के पास ही एक दूसरा अभिलेख ११४३ नेमि जिनालय में पूरी की थी AD. का मिला है जिसमें हाविशहेरिडिगे (आधुनिक "श्री कोल्हापुर देशान्तर भवार्जुरिका महास्थान हेरले) मे निर्मापित जैन मन्दिर के लिए बासुदेव द्वारा युधिष्ठिरावतार महामण्डलेश्वर श्री गण्डरादित्यदेवनिर्मा. प्रदत्त दान का उल्लेख है । यह वासुदेव महानन्दि विजयापित त्रिभूवनतिलक जिनालये ....। (शब्दार्णव चंद्रिका) दित्य का शिष्य और गण्डरादित्य का पुत्र था । माघनन्दि इसी राजा ने राजधानी क्षुल्लकपुर (कोल्हापुर) मे सैद्धांतिक अगाध पांडित्य के धनी थे (तेरडाल शिलालेख अनेक जिनालय बनवाये ((J.B.B.R.A.S.Vol. VIII Ep. Karnatica vol. 14; page 23)। श्रमण बेलगोल Old series pp. 10) सेनापति बोप्पण के सदर्भ मे शिलालेख में भी उनका उल्लेख मिलता है (Ep. Karकिदारपुर शिलालेख एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। रूप- natka vol. II, p. 17) श्रुतकीति, विद्य, गण्डविमुक्त नारायण जिन मन्दिर कुंदकुंद आम्नायी सरस्वती गच्छी देव, माणिक्यनंटि पंडित, आनन्दी सिद्धान्तदेव, निम्बदेव, निम्बदेव ने ही बनवाया था और उसी के ११३५ AD. कामदेव, केदारनाकरस आदि जैसे विद्वान मुनि और में कबडेगोल्ला मे पार्श्वनाथ मन्दिर का भो निर्माण श्रावक उनके शिष्य थे। (Ep. Ind. vol. III, pp. कराया था। गणरादित्य का ही दूसरा नाम रूपनारायण 207-11)। उन्होंने कोल्हापुर में खीर्थ की स्थापना की पा। इसी मन्दिर में उत्कीर्ण शिलालेख में एक चैत्यागगर थी। मठ भी बनवाया था। रूपनारानथ मन्दिर की देखका उल्लेख है। अय्याबोडे (बीजापुर का अइहोल) के भाल के लिए उन्होने श्रुतकीति विद्य को नियुक्त किया व्यापारी वीर वणणजस ने उस मन्दिर के लिए काफी था। कवडेगोल मन्दिर भी इन्हीं के संरक्षकत्व मे व्यवदान दिया (Ep, Ind. Vol. xix pp. 30) सांगली के स्थित थे। माणिक्यनंदि भी मापनन्दि के शिष्य थे। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धमेकाना १६ वर्ष ४३, कि० १ अरहनंदि के संदर्भ में वामणी (कोल्हापुर) पार्श्वनाथ मन्दिर में प्राप्त अभिलेख से जानकारी मिलती है (Ep. Ind Vol. III, pp. 211 ) यहा चौधरे कामगा गुण्ड द्वारा निर्मित जैन मन्दिर भी उल्लेखनीय है। नामगादेवी के आग्रह पर नेमगावंड ने तीर्थंकर चन्द्रप्रभ मन्दिर हाविन हेरिडिगे ( 1118 A.D.) मे बनवाया । बेलगाँव मे प्राप्त दो अन्य लेखों के अनुसार रहवंश के कार्तवीर्यं चतुर्थ तथा उनके वन्धु मल्लिकार्जुन ने स्वयं उनके मन्त्री वीचण ने एक रट्टु जिनालय स्थापित किया था। उन्होंने इस मन्दिर के प्रधान भट्टारक शुभचन्द्र को शक सं० ११२७ मे कुछ भूमिदान किया था (Ep. Ind Vol. 13, P. 15 ) । ये शुभचन्द्र मूलसंघ के पुस्तकगच्छी मलधारिदेव के शिष्य नेमिचन्द्र के शिष्य थे । बेलगाँव के हल्सी गांव में प्राप्त लेख के अनुसार कदम्बा युवराज काकुत्स्थवर्मा द्वारा श्रुतकीर्ति सेनापति को प्रदत्त दान का उल्लेख है। यह दान सेट ग्राम में किया गया था। फ्लोट मे इसका समय पांचवी शती निर्धारित किया है (Ep Ind Vol. 6, P. 22-24 ). मध्यकाल के पूर्व भी कोल्हापुर जैन सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में विख्यात रहा है सम्राट खारवेल के बाद दक्षिणापथ मेडन के सातवाहनों का उत्कर्ष हुआ जो द्वितीय शती तक अवस्थित रहा। इस बीच मूलसंघ के पट्टधर आचार्य अर्हवली (38-66 A D.) ने वेध्यानदी के तट पर स्थित महिमानगरी (कोल्हापुर का महिगान गढ़) मे एक विशाल जैन सम्मेलन का आयोजन किया और आवश्यकता प्रतीत होने पर संघ को नन्दि, वीर, अपराजिन, देव, पंचस्तूप सेन, भद्र, गुणधर, सिंह चंद्र, आदि विविध नामों से संघ स्थापित किये (इन्द्रनन्दि श्रुताबार ११-२६)। इन सचों की स्थापना के पीछे धर्मवात्सल्य, एकता और प्रभावना की अभिवृद्धि मुरुष उद्देश्य था । कोल्हापुर (बल्लमपुर ) मे प्राप्त एक अन्य दानपण के अनुसार मूलसंघ काकोपल आम्नायी सिनदि मुनि को अलक्तकनगर के जैन मन्दिर के लिए कुछ ग्राम दान दिये गये हैं। दान देने वाले थे पुलकेशी प्रथम के सामन्त सामियार जिन्होंने अनेक जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा कराई थी और गंगराज माधव द्वितीय तथा अविनीत ने कुछ ग्रामादि द्वारा में दिये थे। ११-१२वीं शती के चिकतुलसोगे के शिलालेखों में ज्ञात होता है कि वहां मूलसंघ का देशीगण भी काफी लोकप्रिय था। इसके दिवाकरनंदि चन्द्र कीर्ति, पूर्णचन्द्र, दामनंदि, तपकीति आदि आचार्य कोल्हापुर के आसपास ही रहते थे। यहां अनेक जैन वसदियां थीं जिन्हें कंगाल्य नरेशों द्वारा संरक्षण प्राप्त था। देशी गरण का प्रमुख गच्छ पुस्तकगच्छ है । हनसोगेर्नल पुस्तकगच्छ का ही एक उपभेद है। इस गण की एक शाखा का नाम गुनेश्वरवलि है जिसके आचार्यगण प्रायः कोल्हापुर के आसपास रहते थे (Ep. Kar. Vol. VIII & IV; जैन शिलालेख संग्रह भाग २, पृ० ३५६-५८ ) । यापनीय संघ भी कोल्हापुर गांव आदि समीपवर्ती स्थानों में लोकप्रिय था। यह बेलगांव स्थित टोड़डवसदि जैन मन्दिर मे प्राप्त एक अभिलेख से प्रमाणित होता है। मलखेड़ के पास नगई (गुलबर्गा) भी प्रसिद्ध दिगम्बर जैन मन्दिर है जो कदाचित् बलात्कारगण का केन्द्र रहा होगा । कोल्हापुर से लगभग २०० कि० मी० दूर स्थित बादामी (प्राचीन नाम वातावी) का उदय पश्चिमी चालुक्य वंश के रूप मे पचम शताब्दी मे हुआ । इसका सम्बन्ध विजयादित्य चालुक्य से रहा उसी के वश में उत्पन्न दुविनत ने जयसिंह के माध्यम से वाताची साम्राज्य की वीर डाली। इसका वास्तविक राज्य संस्थापक पुलकेशी प्रथम था जो जैनधर्म का कट्टर भक्त था। उसके सामन्त और सहयोगी भी जैन धर्मावलम्बी थे। उसने ५४२ ई० में अलक्तकनगर में एक जिनालय बनवाया जिसमे उत्कीर्ण शिलालेख मे कनकोपल शाखा के जैनाचार्य सिंहनाद, चितकाचार्य नागदेव पौर जिननदि के नामो का उल्लेख है ऐहोल भी इस काल का प्रमुख जैन केन्द्र रहा है। इसी वस के कीर्तिवर्मन प्रथम ५६५-५६७ A.D.) ने जैनमन्दिर में अभिषेकादि के लिए विपुल दान दिया था। इसी के राज्यकाल मे ५८५ ई० मे जैनाचार्य रविकीर्ति ने ऐहोल के पास मेगुनी मे एक जैन मन्दिर बनवाया था और जैन विद्यापीठ की स्थापना की थी। शायद इसी के शासनकाल मे aapaक नगर में चालुक्यों के लघुव्य Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराष्ट्र में जैन धर्म नामक उपराजा की पत्नी ने प्रकाण्ड जैन दार्शनिक भट्ट उनके अस्तित्व को समाप्त नहीं किया जा सका। मुसअकलंक को जन्म दिया। बादामी की प्रसिद्ध गुफाओं लिम आक्रमण भी उत्तरकाल में हुए उस पर, फिर भी वह का निर्माण भी इसी समय हुआ प्रौढ़ संसत में लिखी अपने अस्तित्व को बचाए रखने में सक्षम रहा। रविकीति को प्रशस्ति निश्चित ही संस्कृत साहित्य की मराठी के विकास में प्राकृन का योगदान बहुत आधिक अनुप देन है। अकलंक देव संघ के आचार्य थे और रहा है। मराठी साहित्य का भी प्रारम्भ जैन कवियो से विक्रमादित्य साहसतुग के गुरु थे। इसी वश के विजया हुआ है। उन्होने १६६१ ई० में इस क्षेत्र मे अधिक कार्य दित्य द्वितीय (६६७-७३३ ई.) के शिलालेख मे जैन तीर्थ किया है। जिनदस, गुणदास, मेघराज, कामराज, सूरिराज, क्षेत्र कोप्पण का उल्लेख है। आचार्य अकलंक के सधर्मा गुणनंदि, पुष्पमागर, महीचन्द्र, महाकाति, जिनसेन, देवेन्द्रपुष्पसेन और उनके शिष्य विमलचन्द्र तथा कुमारनंदि कीर्ति, कललप्फा, भामापन आदि जैन साहित्यकारों ने और अकलंक के प्रथम टीकाकार बृहत् अनन्तवीयं भी मराठी मे साहित्य तैयार किया है। यह साहित्य अधिकाश इसी राजा के आश्रयकाल में रहे है। इसी राजा ने शंख- रूप में अनुवादित दिखाई देता है। जिनालय पुलिगेरे जैन मन्दिर आदि के लिए भी पुष्कल जनजातियों के सर्वेक्षण से पता चलता है कि महादान दिया। यह वश जैनधर्म का संरक्षक-सा रहा है। राष्ट्र में उनके ब. च जैनधर्म काफी लोकप्रिय रहा है। कल्याण के चालुक्य सम्राट भवन कमल्ल का १०७१ जनकलार, कास.र आदि कुछ ऐसी जनजातियां यहा है जो ई० का एक शिलालेख नान्देड के पास तडखेल ग्राम में एक समय जैनधर्म में परिवर्तित हुई थी पर कदाचित् उन्हें मिला निसके अनुसार सेनापति कालिमप्प तथा नागवर्मा ढंग से अपनाया नहीं जा सका और फलत: वे वैदिकधर्म ने निकलक जिनालय को भूमि, उद्यान आदि अर्पित किये की ओर पुनः मक गई। यद्यपि उनके आचार-विचार मे थे। इसी वश के सम्राट त्रिभुवनमल्ल के समय (१०७८ आज भी जैनधर्म की झलक दिखाई देती है फिर भी हम ई०) एक अभिलेख सोलापुर के समीप अक्कलकोट में उन्हें जैन कहने में संकोच करते है। यदि इन जनजातियों मिला है जिसमे जैनमठ के लिए भूमिदान देने का उल्लेख बीच जैनधर्म का चिराग जलता और वे एक जैन जाति के है। चालुक्यो के प्रतिस्पर्धी मालवा के परमार वंशीय राजा रूप स्वीकार कर लिए जाते तो संख्या पर काफी असर भोज के सामन्त यशोवर्मन द्वारा कल्कलेश्वर के जिन- होता । साथ ही उनका जीवनस्तर भी बढ़ जाता। मन्दिर को प्रदत्त दाम का वर्णन कल्याण (बम्बई के पास) महाराष्ट्र में जैन समाज विदर्भ, मराठावाड़ा, पश्चिम मे प्राप्त एक ताम्रशासन में मिलता है। महाराष्ट्र और दक्षिण महाराष्ट्र में बटा हुआ है। वर्तमान इस प्रकार महाराष्ट्र में जैनधर्म ई० पू० तृतीय-चतुर्थ में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो सम्प्रदाय संयुक्त रूप से शती मे लेकर मध्ययुग तक अविकल हा दे लोकप्रिय हा महाराष्ट्री संस्कृति के अग बन गये है। दिगम्बर संप्रदाय है। जैन कला और साहित्य के विविध आयाम इस काल- यहा का मूल संप्रदाय दिखाई देता है। केतकर के 'महाखण्ड में दिखाई देते है। एलोरा की गुफाओ की कलात्म- राष्ट्री जीवन' ग्रन्म से भी यह तथ्य उद्घाटित होता है। कता और व्यापकता इतिहास की अनुपम देन है। अनेक ग्रामीण भाग में उनकी संख्या अधिक है। कृषि और गरण- च्छो की स्थापना और उनके विकास का श्रेय भी व्यापार उनके प्रमुख व्यवसाय है। वैदिक संस्कृति से महाराष्ट्र को जाता है। जैनाचार्यों का भी यह कर्मक्षेत्र मिलता-जुलता उनका आचार हो गया है फिर भी सांस्कृरहा है । भट्टारक सम्प्रदाय का भी विकास यहां उल्लेख- तिक धरोहर को मम्हाले हुए है अत: उनकी स्वतत्र पहिनोय है । मध्ययुग में ही यहां ग्रन्थ भण्डारो की स्थापना चान भी बनी हुई है। ज्ञानेश्वरी तथा महानुभाव साहित्य पौर भित्तिचित्रों की सरचना हुई है। शैव, वैष्णव और में जैनों का मगम्मान उल्लेख हुआ है। मराठी सतो पर लिंगायत सम्प्रदायों के हिंसक व्यवहार से यद्यपि महाराष्ट्र जैरधर्म का प्रभाव स्पष्टतः दिखाई देता है। १९११ की में जैनधर्म को अनेक घातक संघात सहने पड़े है, फिर भी (मेष पृ० १८ पर) पाहा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत जैन काव्य शास्त्री और उनके ग्रन्थ डॉ० कपूरचन्द्र जैन, खातौली काव्य-सौन्दर्य की परख करने वाला शास्त्र 'काम्य- को आज्ञा दी। काव्यपुरुष ने अठारह भागों में विभक्त शास्त्र कहा जाता है। यद्यपि इसके लिए विभिन्न कालों काव्यविद्या का उपदेश अपने शिष्यो को दिया किन्तु इस में काव्यालंकार', 'अलंकार शास्त्र', 'साहित्यशास्त्र', आख्यान को प्रामाणिक नही माना जा सकता । 'क्रियाकल्प' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है, किन्तु सर्वाधिक भारतीय ज्ञान विज्ञान के उद्गमस्थान वेदो मे भी प्रचलित नाम काव्यशास्त्र ही है। काव्यशास्त्र के बीज पाये जाते है वहां उपमा रूपकादि इस शास्त्र के उद्गम के विषय मे कुछ निश्चित अलकार का उल्लेख हुआ है। निरुक्त तथा व्याकरण कह पाना सम्भव नहीं है। भारतीय परम्परा आचार्य वेदाङ्गो मे उपमा का विवेचन आया है। पाणिनि की भरत से इसका आरम्भ मानती है । राजशेखर कृत काव्य- अष्टाध्यायी तथा पातञ्जलि के महाभाष्य में भी अलकार मीमांसा में वरिणत एक पौराणिक आरव्यायिका के अनुसार का वर्णन आया है, तथापि यहा काव्यशास्त्र का क्रमबद्ध भगवान श्रीकण्ठ शिव ने इस काव्यविद्या का उपदेश और सुश्लिष्ट शास्त्रीय निरुपण प्राप्त नहीं होता। भरत परमेष्ठी वैकुण्ठादि चौसठ शिष्यों को किया था। उनमें से ही इसका शास्त्रीय और क्रमबद्ध निरुपण आरम्भ हुआ। से प्रथम शिष्य स्वयम्भू-ब्रह्मदेव ने इस विद्या का द्वितीय भरत का समय ई० पू० द्वितीय शती से ई० की द्वितीय बार उपदेश अपनी इच्छा से उत्पन्न शिष्यो को किया इन शती के बीच डॉवाँडोल है। तदनन्तर भामह, दण्डरुद्र, शिष्यों में सरस्वतीपुत्र काव्यपुरुष भी एक था । ब्रह्मा ने बामन, अभिनवगुप्त, मम्मट, विश्वनाथ पण्डितराज उसे भः, भवः और स्वर्गलोक में काव्यविद्याप्रचार करने जगन्नाथ आदि उल्लेखनीय वाव्यालोचक हुए । इस प्रकार (१० १७ का शेषांष) भारतीय काव्यशास्त्रीय परम्परा सुदृढ़ और विस्तृत रही जनसंख्या के आधार पर यह कहा जा सकता है कि महा- है। राष्ट्र में जैनों की संख्या सभी प्रदेशों से अधिक है। लग जैन साहित्य की भाषा प्राकृत है, इसी भाषा में मूल भग दस लाख जैन यहां हैं। प्रतिशत की दृष्टि से महा आगम और सिद्धान्त ग्रन्थ सुरक्षित हैं। दार्शनिक ग्रन्थों राष्ट्र में २६.४२ संस्था है । बम्बई, बेलगाव और कोल्हा है बेला और कोल्डा की भी प्रान में कमी नहीं है। साथ ही कथा, उपन्यास पुर मे ही लगभग सात लाख जैन है । इसके बाद सांगली जैसा ललित साहित्य भी इस भाषा मे पर्याप्त मात्रा में ठाणा, नासिक, जलगांव शोलापुर, नागपुर, पूना, आदि उपलब्ध होता है । तथापि काव्यशास्त्र विषयक ग्रन्थो की शहरों का नाम आता है। महाराष्ट्र इस दृष्टि से एक इसमें अत्यन्त कमी है। छन्द विषयक तो ४.६ ग्रन्थ उपमहत्त्वपूर्ण प्रदेश कहा जा सकता है जहां जैन संस्कृति आज लब्ध हैं, पर अलंकार विषयक एक ही ग्रन्थ अब तक भी सर्वाधिक पुष्पित फलित दिखाई दे ही है। अभी प्रकाश में आया है। इसका पृथक्-पृथक् क्षेत्र में मूल्याकन शेष है। साहित्य, 'अलंकार दप्पण' नामक इस लषु ग्रन्थ को प्रकाश में कला, संस्कृति आदि विविध दृष्टियो से इस तथ्य पर लाने का श्रेय प्राचीन पोथियो के महान्वेषक अन्वेषकाचार्य विचार किया जाना अपेक्षित है। यहां हमने स्थामाभाव स्व० अगरचन्द्र नाहटा को है । उन्होंने जैसलमेर के ग्रन्थ के कारण मात्र एक झलक प्रस्तुत की है। भण्डार से इसकी ताडपत्रीय प्रति प्राप्त कर अपने भातृ00 पुत्र श्री भंवरलाल नाहटा से संस्कृत छाया और हिन्दी Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत मैन काव्य शास्त्री और उनके प्रम्य अनुवाद कराकर 'मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ' में प्रका- प्रेमातिशय के अन्तर्गत ही मानना चाहिए।' शित कराया था। रसिक, प्रेमातिशय, द्रव्योत्तर, क्रियोत्तर, गुणोत्तर इस ग्रन्थ में कुल १३४ गाथायें है, कर्ता का कोई उपमारूपक आदि अलकार अन्य अलंकार-ग्रन्थों मे नही पता नहीं चलता अलंकार सम्बन्धो विवरण के आधार पर पाये जाते। यह भी ना पाये जाते। यह भी नहीं कहा जा सकता कि कवि ने ८वी से ११वी शती के मध्य लिखित और १३वीं शती के इनकी उदभावना स्वयं की है या किसी प्राचीन अलंकारपूर्वाध में प्रतिलिखित होने का अनुमान श्री नाहटा ने ग्रन्थ के अनुकरण पर ऐसा लिखा है। शोधार्थियों को उस लगाया है।' जैसलमेर के जैन भण्डार में उसकी प्रति ओर दत्तावधान होकर प्राकृत अलंकार शास्त्र पर शोध प्राप्त होने से लेखक का जैन होना असमीचीन नहीं है। करना चाहिए। कवि ने सर्वप्रथम श्रुतदेवता को नमस्कार किया है, प्राकृत के अन्य छन्दग्रन्थों में उल्लेखनीय है-- तदनन्तर काव्य में अलंकार के औचित्य और उद्देश्य का १. वृत्तजातिसमुच्चय विरहांक ६-८वी शती वर्णन करते हुए कहा है २. कविदर्पण अज्ञात १३वी शती 'सव्वाइ कम्वाइ सघाइ जेण होति भव्वाइं । ३. गाहालक्खरण नन्दिताढ्य १०वी शती तमलकार भणिमोऽलकार कुकवि-कव्वाणं ।। ४. छन्दकोष रत्नेशेखरसूरि १४वीं शती अच्चंतसुन्दर पिहु निरलंकार जणम्मि कीरते। ५ छन्दकन्दली कविदर्पण का कामिणि-मुह व कव्व होइ पसण्णपि विच्छाअ॥ अज्ञात टीकाकार (अ. द. २-३) ६. प्राकृतपंङ्गल संग्रह १४वीं शती अर्थात् कुकवि के भी काव्यो को सुशोभित करने वाला ७. स्वयम्भूछन्द स्वयम्भ वी शती' अलंकार है और जैसे सुन्दर स्त्री का मुख निरलकार होवे जैन संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने अपने काव्यों मे यत्र पर अत्यन्त सुन्दर और विमल होने पर भी शोभारहित तत्र काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तो का प्रतिपादन किया है और होता है, वैसे ही प्रसाद गुण युक्त होने पर भी निरलकार स्वतंत्र रूप से भी ग्रन्थ लिखे हैं। आचार्य जिनसेन ने काव्य शोभा रहित होता है। 'काव्य' की व्युत्पति और परिभाषा करते हुए लिखा आगे ५ पद्यों में वर्णनीय ४० अलकारो के नाम हैगिनाये हैं, अनन्तर प्रत्येक अलंकार के लक्षण और उदा 'कवेर्भावोऽथवा कर्म काव्यं तज्ज्ञनिरुच्यते । हरण प्रस्तुत किये गये हैं। किन्ही के मात्र लक्षण और तत्प्रतीतामग्राम्य सालङ्कारमनाकुलम् ॥ किन्ही के उदाहरण काव्य को न्यनता-घोतक हैं। उल्लि स्वतन्त्र काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का परिखित अलंकार है--उपमा रूपक, दीपक, रोष, अनुप्रास, चय प्रस्तुत है ? आशिय, विशेष, आक्षेप, जातिव्यतिरेक, रसिक, पर्याय, वाग्भट प्रथम यथासख्य, समाहित, विरोध, संशय, विभावना, भाव, वाग्भट प्रथम का वाग्भटालंकार कदाचित पहला अर्थान्तरन्यास, परिकर, सहोक्ति, उर्जा, अपह्न ति, प्रेमाति- प्राप्त काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ है। यों तो वाग्भट नाम के ४ शय, उद्वतं, परिवृत्त, द्रव्योत्तर, क्रियोत्तर, गुणोत्तर, कवियों का उल्लेख जैन साहित्य में हुआ है किन्तु काव्यबहुश्लेष, व्ययदेश, स्तुति, समज्योति, अप्रस्तुतप्रशंसा अनु- शास्त्र के क्षेत्र मे 'वाग्भटालंकार' के लेखक वाग्भट प्रथम मान, आदर्श, उत्प्रेक्षा, ससिद्धि, आशीष, उपमारूपक, और 'काव्यानुशासन' के लेखक वाग्भट द्वितीय कहे जाते निदर्शनाउत्प्रेक्षा, आभेद, उपेक्षा, वलित, यमक तथा हे। अन्य दो वाग्भटों के सक्षिप्त परिचय के विना यह लेख सहित । ये ४६ अलंकार है, किन्तु गाथा में अलंकारो की पूरा नहीं होगा। संख्या ४० बताई गई है। श्री नाहटा ने इसका समाधान एक वाग्भट ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'अष्टाङ्गदिया है कि प्रेमातिशय से गुणोत्तर तक ६ अलकारो को हृदय की रचना की है। ये सिन्धुदेशवासी थे और पिता Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, बर्ष ४३, कि.. का नाम सिंह गुप्त था। कुछ विद्वानों के मतानुसार ये तृतीय में दस गुणों को सोदाहरण विवेचना चतुर्थ में ४ बौद्धधर्मानुयायी थे। पं० आशाधर ने अष्टाङ्गहृदय पर शब्दालंकारों, ३५ अर्यालकारों तथा वैदर्भी गोणी आदि टीका लिखी थी जो आज अप्राप्य है इसी कारण विद्वान् रीतियों का वर्णन है। पंचम में नव-रसों, नायक-नायिका इन्हें जैन मानते हैं । समय अत्यन्त प्राचीन है।' भेवों तथा अन्य आनुषंगिक विषयों का निरूपण है। दूसरे वाग्भट प्रसिद्ध महाकाव्य 'नेमिनिर्वाण' के कर्ता परवर्ती काल में यह अत्यन्त लोकप्रिय हुआ जिसका है। जैनसिद्धान्त भवन आरा और श्रवणवेलगोल के हर निदर्शन इस पर लिखी गई टीकाएं हैं इनमे 'जिनवर्धन जिनदास शास्त्री के पुस्तकालय में प्राप्त प्रति की प्रशस्ति । सूरिकृत टीका (१४०५-१४१६ ई०) सिंहदेवगणिकृत के अनुसार वाग्भट (बाहड़) छाहड के पुत्र और प्रारबाट क्षेमहंसगणिकृत, गणेशकृत, राजहम उपाध्याय १३५०. या पोरवाड़ कुल के थे जन्म अहिन्छत्रपुग मे हुआ। वाग्भटा १४०० ई.) समयसुन्दरकृत (१६२६ ई०) अवचरिकृत, लंकार' मे 'नेमिनिर्वाण के पद्य दिये गये हैं अत: वाग्भट कृष्णशर्मकृत, वामनाचार्य कृत तथा ज्ञानप्रमोदगरिणकृत प्रथग (वि० सं० ११७६) ई०१२१२) के पूर्व इनका समय टीकाएं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। स्वीकार किया जाना चाहिए। वाग्भट प्रथम के पिता का नाम सोमश्रेष्ठी था। वाग्मट द्वितीय सिंहदेवगाण के कानानुसार वे महाकवि और एक राज्य यद्यपि अब परम्पराप्राप्त हेमचन्द्र और उसके काव्या. के महात्मा थे। कविचन्द्रिका टीका के कर्ता वादिराज ने के कता वादिराज ने नशासन का विवंचन समीचीन था किन्तु वाग्भटो को उन्हे 'महामात्यपदमत' लिखा है। वाग्भट ने यत्र तत्र परम्परा में वाग्भट द्वितीय का विवेचन असमीचीन ही जयसिंह की प्रशंसा की है और एक जगह लिखा है कि होगा। वाग्भट द्वि० का काव्यानुशासन महत्त्वपूर्ण कृति ससार में तीन ही रत्न है अणहिलपाटक नगर, महाराज है। इन्होने वाग्भटालंकार-कर्ता का उल्लेख किया और जयसिंह और 'श्रीकलश' नाम का उनका हाथी।," अतः कहा ही कि वे दस गुणों का प्रतिपादन करते है पर परतुत. सिद्ध है कि ये अहिलपाटक या पुर नगरवासी थ और नीती आर तीन ही गुण हैं। काव्यानशासन की टोका की उत्थानिका राजा जयसिंह के समकालीन जयसिंह का राज्यकाल से ज्ञात होता है कि ये नेमिकुमार के पुत्र थे नेमिकुमार के १०६३-११४३ ई० स्वीकार किया जाता है। अतः वाग्मट पिता का नाम मक्कल भोकल) और माता का नाम महाप्रथम १२वी शती के पूर्वादं मे हुए। हेमचन्द्र ने दयाश्रय देवी था। नेभिकूमार कौन्तेय कुलदिवाकर, महान विद्वान, काव्य मे वाग्भट को जयसिंह को अमात्य बताया है।" धर्मात्मा और महा यशस्वी थे। उन्होंने मदपाट मे वाग्भटालकार के अतिरिक्त इनकी अन्य कोई रचना प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ जिनका यात्रा महोत्सव किया था, उपलब्ध नहीं है। उक्त ग्रन्थ मे जगह-जगह स्वरचित जिससे उनका यश भूवनव्यापी हो गया था। राहड़पुर में प्राकृत-संस्कृत के उदाहरण कवि को उभयभाषाविज्ञता के नेमिमगवान का और नलौरव पुर मे ऋषभ जिनका बाइस मज्ज्वल निदर्शन है। इसका अपरनाम काव्यलकार भी देवकलिकाओ सहित विशाल मन्दिर का निर्माण कराया भोपांच परिच्छेद और २६.१द्य है, काव्यशास्त्रीय सभी था। उनका कुल धन और विद्या से सम्पन्न था। काल विषयो का सक्षेप मे विवेचन है । अनुष्टप का वाहुल्य है। के सन्दर्भ में कोई सकेत उन्होने नही दिया है। डॉ. कृष्णप्रथम परिच्छेद पे काव्य-स्वरूप हेतु बतलाते हुए यह भी कुमार ने इन्हें १२वी शती के बाद स्वीकार किया है।" बताया गया है कि काव्य-रचनार्थ कौन सी परिस्थितियां पर श्री प्रेमी ने नेमिनिर्वाण, चन्द्रप्रभचरित, नाममाला, अनुकूल है। द्वितीय परिच्छेद में सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश राजमती परित्याग आदि ग्रन्थो के उल्लेख का आधार और भूत इन चार काव्य-भाषाओ का वर्णन कर छन्दोबद्ध लेकर उन्हे १.वी शती का विद्वान माना है।" जो समीगद्यनिबद्ध तथा गद्यपद्यमिध ये तीन काव्य के भेद कहे गये चीन जान पड़ता है। ग. नेमिचन्द्र शास्वो भी मही हैं। पश्चात् पद, वाक्य और अर्थदोषों का निरूपण है। समय मानने के पक्ष में हैं। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत जैन काव्य शास्त्री और उनके प्रम्य दिगभ्राचार्य थे या श्वेताम्वराचार्य यह प्रश्न भी कम विवादास्पद नहीं है। काव्यानुशासन में ऋषभदेव चरित का एक श्लोक है जिसमें जिनसेन (मुनिसेन) और पुष्पदन्त का उल्लेख है साथ ही वृहत्स्वयम्भू स्तोत्र ( लव समन्तभद्र) का एक श्लोक दिया गया है और नेमिनिर्वाण चन्द्रप्रभचरित, राजमती परित्याग आदि ग्रन्थों का उल्लेख है, जो सभी दिगम्वर परम्परा के ग्रंथ हैं अतः उन्हें दिगम्वराचार्य ही मानना होगा । 'काव्यानुशासन' के अतिरिक्त 'छन्दोऽनुशासन' प्राप्त है पर ऋषभदेवचरित अप्राप्त है। तीन ही इनकी रचनाए है । काव्यानुशासन की वृत्ति से ज्ञात होता है कि वे नाटकादि के भी अशेष विद्वान् थे मम्भव है अन्य रचनाएँ रही हों, जो आज अप्राप्त है । छन्दोऽनुशासन की प्रति पाटण के ज्ञान भण्डार मे है । इसमे लगभग ५४० श्लोक हैं और स्वोपज्ञ वृत्ति भी है। १. काव्यमीमांसा : अनु० केदारनाथ शर्मा, विहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना १९६५, प्रथम अध्याय २. 'मरुधर केशरी अभिनन्दन ग्रन्थ', जोधपुर-व्यावर १६६८, पृष्ठ ४३० । सन्दर्भ-सूची ३. वही, पृष्ठ ४३० ४. विशेष विवरण को देखे- प्राकृत साहित्य का इति हास : डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी । ५. आदिपुराण : अनु० पन्नालाल साहित्याचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली, १ / ६४ | ६. जैन साहित्य और इतिहास : नाथूरामप्रेमी, बम्बई १६४२, पृ० ४८३ । ७. वही. पृ० ४८३ ८. वही, पृ० ४८५ C. 'इन्द्रेण कि यदि स कर्णनरेन्द्रसूनुरं रावणेन किमहो यदि तहिपेन्द्रः २१ ५ अध्यायों में विभक्त उसका वर्ण्यविषय निम्न है । (१) सज्ञा ( २ ) - समवृत्ताख्य (३) अर्धसमवृत्ताख्य (४) मात्रासमक और (५) मात्रा छन्दक | M दम्भोलि नाप्यलमलं यदि तत्प्रतापः स्वर्गोऽध्ययननुमुघा यदि तत्पुरी सा ॥ काव्यानुशासन निर्णयसागर से छपा है, यह हेमचन्द्र के काव्यानुशासन की शैली मे लिखा है। सूत्रो पर वृत्ति स्वय वाग्भट ने लिखी है और उसका नाम अलकार तिलक दिया है। काव्यमीमांसा, काव्यप्रकाश आदि प्राचीन काव्यग्रन्थो के मतों और विवेचनाओं का ही सग्रह है, मौलिकता कम ही है इसके पाँच प्रध्यायों मे प्रथम में काव्य-प्रयोजन, हेतु, भेद का, दूसरे मे सोलह-पद-दोष, १४ वाक्यदोष, १४ श्रर्थदोष, १० गुणों का तीन में अन्तर्भाव वैदर्भी आदि शैलियो, तृतीय मे ६३ अर्थालंकारों, चतुर्थ मे छ: शारदालकारों और पचम में नव रस, नायक-नायिका भेद तथा रसदोषो का विवेचन है । (क्रमशः ) जगदात्म कीति शुभ्र जनयन्तुदाम धामदोः परिघः । जयति प्रतापपूषा जयसिह क्षमाभृदाधिनाथः ॥ वाग्भटालकार ४।७६-४५ १०. अर्षाहल्लपाटकपुरमवनिपति: कर्णदेवनृपसूनुः । श्रीकल शनामधेयः करी च रत्नानि जगतीह ॥ वही ४।१४८६ ११. A. द्रयाश्रुव काव्य २०१६१-६२ B. जहसिंह सूरि कृत कुमारपाल भूपाल चरित के अनुसार कुमारपाल का महामात्य उदयन था और अमात्य वाग्भट पर यह आश्चर्य की बात है कि वाग्भट ने कहीं कुमारपाल का उल्लेख नहीं किया है । १२. जैन साहित्य और इतिहास : पृष्ठ ४८६-८७ १३. अलकारशास्त्र का इतिहास : डॉ० कृष्णकुमार साहित्य भण्डार मेरठ १६७५, पृष्ठ २१८ १४. जै० सा० और इतिहास : पृष्ठ ४८७-८८ १५. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा : सागर भाग ४ | पृष्ठ ३८ १६. वही, पृष्ठ ४० Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (गतांक में प्रागे) शुद्धि-पत्र धवल पु० ३ (संशोषित संस्करण) 0 जवाहरलाल सिद्धान्तशास्त्री, भोण्डर पृष्ठ पक्ति ३६६ ३७२ л m س л л س س я л » - ३८४ १९. अशुद्ध सू.प्र. अ. [कोठे के अतिम कालम की छठी पक्ति) बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त अपकायिक जीवो का प्रत्येक जीवो का असंख्याता भाग विष्कम्भ सूची असख्यानगुणी दवमसखेज्जगुण सूक्ष्मवायुकायिक अवासमास के लिए आवे उसके लिए असंयतदृष्टियो छोड़रूप सम्यमिध्यावृष्टि औव अजगुणो/असंखेसच्च वैक्रियिकमिश्रकाययोगियो का णज्जदे उवसामगो भागरूप ध्र वराशि पंज में संख्यात ब पद रस्स राशि में से एक बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त अप्कायिक पर्याप्त जीवों का पर्याप्त जीवो का संख्यातवा भाग विष्कम्भसूची से असण्यातगुणी दव्बमसखेज्जगुण वायुकायिक अद्धासमास सम्बन्धी आवे तत्सम्बन्धी असंयतसम्यग्दृष्टियों जोड़रूप असयतसम्यग्दृष्टि जीव असंखेज्जगुणो/असञ्च वैक्रियि कमिश्रकाययोगि मिथ्यावृष्टियों का जाणिज्जदे उवसामगा भाग को ध्र वराशि ३६२ ४१४ ४१६ ४२६ ४३२ ४३२ ४३७ २७ ४३८ असंख्यात वि पररस्स राशि सम्बन्धी अवहारकाल में से एक इसे विष्कम्भसूची से एसे ४४४ जगच्छणो से Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र ४४५ ४५ २३ ४४६ ४६ पृष्ठं पंक्ति अशुचि विसैसाहिमा २८ विसेसाहिया २८। मदिसुदणारिण-उवसामगा संखेज्जगुणा/खवगा संखेज्जगुणा [देखो परि शिष्ट पत्र २६] अठाईस हैं । मनःपर्ययज्ञानी अठाईम हैं। मति श्रुतज्ञानी उपशामक जीव अवधिज्ञानी क्षपको से सख्यातगुणे हैं । इनसे मति-श्रुतज्ञानी क्षपकजीव संख्यातगुणे है । मन:पर्ययज्ञानी ४४५ २३ अवधिज्ञानी क्षपकों से मति-श्रुतज्ञानी अपकों से परिबद्धत्तादो। दुणाणि परिबद्धत्तादो। आभिणिणाणी सुदणणी अपमत्त-संजदा संखेज्जगुणा । तत्थेव पमत्तसजदा संखेज्जगुणा । दुणाणि [देखो परि शिष्ट पत्र २७] ४४६ णेदव्वं । जाव णेदव्यं जाव ४४६ व्यभिचारी व्यभिचार अवधिज्ञानी प्रमत्तसयतों अवधिज्ञानो प्रमत्तसंयतों से मति-भूतज्ञानी से दो ज्ञान वाले अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातयुणे है । इन्ही दो ज्ञानो वाले प्रमत्तसंयतजीव उक्त अप्रमत्त. संयतो से संख्यातगुणे हैं । इनसे ४६७ प्रमत्तसंपत आदि प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसयत आदि ४७३ अभव्यसिद्धिक भव्यसिद्धिक उपशमसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टियो मे संख्यात प्रसख्यात ४८७ बन्धक जीव मिथ्यादृष्टि जीव विशेष निवेदन इतना है कि प. पु. ३ पृ० २०६ पर "संतपमाणाणवत्था" का हिन्दी अर्थ सिद्धान्ततः गलत नहीं होते हुए भी मूलानुगामी नही है । अतः पुनः देख लें। संत का अर्थ सत्त्व (अस्तित्व-विद्यमानता) है जबकि सातपृथिवी अर्थ निकालना चाहें तो "सत्त" शब्द ही ठीक होगा, जैसा कि पूर्व मुद्रित प्रति मे है। इतना सब कुछ होने पर भी संतपमाणाण वत्था या सत्तपमाणाणवत्था का अर्थ विचारणीय निश्चित है। यहां पर क्या कोई पाठान्तर नहीं पाया गया ? होता तो लिखते ही। इसका अर्थ तो 'सात पृथिवियो के प्रमाण (सख्या) की अनवस्था', ऐसा होता है। "एग" शब्द इसी वाक्य में आ गया है, अत: उसके परिप्रेक्ष्य में सप्त पृथिवी का वाचक "सत्त" ही होना निश्चित होता है, इतना तो निर्विवाद है । पर तब भी अर्थ पुनः मीमांसणीय अवश्य है। दूसरा निवेदन यह है कि पृष्ठ २५७ पर विशेषार्थ में "परन्तु धवलाकार ने............ .. .. परिधि के प्रमाण के ऊपर से" यह लगभग ३१ पंक्तियो का मेटर काट देना ही ठोक प्रतीत होता है। ४८५ १२ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ v, वर्ष ४३, कि० १ अनेकान्त क्योंकि विशेषार्थ में जो कहा है कि-परन्तु धवलाकार ने १३ अंगुल से अधिक के स्थान में १३३ अंगुल से कुछ कम ग्रहण किया है। यह बात उचित नहीं बैठती है, क्योंकि एक तो यहां (मूल में) परिधि निकाली भी नहीं गई है और साधिक १३३ अंगुल परिधि मे ही पाते हैं न कि क्षेत्रफल में। पर यहां तो ७६०५६६४१५० प्रवर योजनो मे १३३ अंगुलों को मिलाने के लिए कहा है। मिलाने में यानी योग करने में समान इकाई वाली चीज ही सदा मिलाई जाती है। ऐसा नहीं कि वर्गगज में गज भी मिला दिये जायें। उसी तरह ये देशोन १३३ अंगुल थी प्रतरांगुल (वांगुल) स्वरूप ही होने चाहिए, क्योंकि इनका क्षेत्रफल में प्रक्षेप (मिलाना या जोड़ना) करने के लिए कहा गया है। ३३ अंगुल' इस संख्या की समानता देखकर इन्हें परिधि विषयक कैसे समान लिया जाय? यह तो अनुचित बात है, अतः विशेषार्थ में से-"परन्तु धवलाकार ने ................"ऊपर से" इतना प्रकरण अपनेतब्य है। फिर भी पृष्ठ २५६ में १३, अंगलों के मिलाने की प्रक्रिया तथा उसमे भी देशोनत्व की गणित किन नियमों से हुई, यह विचारणीय अवश्य है। जम्बूदीप की परिधि ३१६२२७ योजन ३ कोश १२८ धनुष और साधिक १३३ अंगल होती है। यथा-जम्बूद्वीप का विष्कम्भ १००००० योजन; १०००००x१०=३१६२२७ यो., ३ कोश, १२८ धनुष, १३३ अंगुल साधिक-परिधि। परिधि-साधिक ३१६२२७३ योजन 1. क्षेत्रफल = परिधि व्यास/४ व्यास%D१०.००० योजन ' ३१६२२७३-100000 -साधिक ७६०५६६४१५० वर्गयोजन (प्रतरयोजन) जम्बूढीप का क्षेत्रफल [जंबूदीवपण्णत्ति पृ० ३] अथवा :"जम्बूद्वीप का सूक्ष्म क्षेत्रफल=सूक्ष्मपरिधि x व्यास का चौथाई ३१६२२७ यो० ३ को. १२८ धनुष १३१ अगुल साधिक X २५००० यो. =७९०५६६४१५० वर्गयोजन १ वर्गकोश, १५१५ वर्ग धनुष, २ वर्ग हाथ, १२ वर्ग अंगुल [त्रिलोकसार गा. ३११ पृ. २६० सं० रतनचन्द्र मुख्तार] यानी ७६०५६६४१५० प्रतरयोजन व साधिक १ वर्गकोश अनेकान्त के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त श्री बाबूलाल जैन, २ अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय । प्रकाशन अवधि- मासिक । सम्पादक-श्री पत्रचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्लीराष्ट्रीयता-भारतीय । मुद्रक-गीता प्रिंटिंग एजैसी, न्यू सीलमपुर, दिल्ली-५३ स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ मैं बाबूलाल जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूँ कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है। बाबूलाल जैन प्रकाशक Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञात जैन कवि हरीसिंह की रचनाएँ अद्यावधि पूर्णतः अज्ञात हरिसिंह जयपुर राज्य के प्रमुख नगर दौसा (देवगिरि) के रहने वाले थे। कवि के वर्तमान वंशज दौसा निवासी श्री मगनलाल छाबड़ा ने महावीर स्मारिका ८५ के अपने एक लेख में उन्हें जयपुर नगर के संस्थापक सवाई जयसिंह का दीवान बतलाया है हिन्दु अन्तसदिन के आधार पर यह प्रमाणित नहीं होता। अपनी एक फुटकर रचना की प्रशस्ति में कवि ने खामेर के शासक जयसिंह के सेवक 'सुख' को अपने काव्य-प्रेरक के रूप मे स्वीकार किया है अम्बावती राज महाराज, जैसिंह सेवक है सुबनेन । जाउदै सुमति घटि आई, कोयो प्रसाद अर्थ सुष जैन । ६ दौसा में निर्मित देवालय मे भी कवि ने 'नैनमुख' का सहयोग स्वीकार किया है देवगरी नगरी चतुर से महाजन लोक | ता देवकी थापना भई नैनसुष जोग । २२ बोध पच्चीसी प० भंवरलाल जी न्यायतीर्थ ने वीरवाणी में प्रका शित अपने एक लेख "पं० टोडरमल के समय मे जैन दीवान" मे नैनसुख खिदूका (दीवानवाल सं० १८१४ से ३५) नामक एक दीवान का उल्लेख किया है। सम्भवतः यही नैनमुख राज्य कर्मचारी हरिसिंह के अधिकारी दीवान थे; किन्तु इनका दीवानकाल ब्रह्म पच्चीसी के रचनाकाल के अनुसार संवत् १७८ के आस पास प्रारम्भ होना चाहिए। दोसा नगर में स्थित 'पार्श्वनाथ चैत्यालय' मे विद्यमान स्तम्भ लेख के अनुसार कवि हरिसिंह के पांच छोटे भई शंकर, श्री चंदकिशोर, नन्दलाल, मनप और गोपाल हरिसिंह की रचनाए दीवान जी मन्दिर भरतपुर मे विद्यामान एक गुटके में उपलब्ध रचनाएं इस प्रकार डॉ० गंगाराम गर्ग ब्रह्मपच्चीसी : दोहा और छप्पय छंदों में निखी यह रचना आषाढ़ कृष्ण ११, संवत १७८३ को पूर्ण हुई। ब्रह्मपच्चीसी के प्रारम्भ में ऋषभदेव और शारदा की बन्दना की गई है। अष्ट सिद्धि नवनिधि के दाता तथा ब्रह्म रूप को दिखाने वाले प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की छवि-कवि को बढी आकर्षक लगी हैछत्र फिर चमर जुगलदिसि जाने ढरे, छोर आन बाकी, आग्या सब मानियो । अंतेवर छिन सहस्यतणां भोग रहे अष्ट सिद्धि नवनिधि, चट्टे सोई आनियो । इन आदि विभी विराम होय, कीनी स्वाग एकाकी मुनिवर रहत पद ठानियो । तातें भवि सिव सुषदाई, ब्रह्म रूप लषी आंत भव दुषकारी छोटो सब जानियो । अयान । सम्यक् पच्चीसी सावन सुदि ११ संवत् १७८३ को यह रचना कवित्त, कुण्डलियां, दोहा और चाल छंदों में लिखी गई है। कवि ने इस रचना में पुद्गल के मोह मे अनुरक्त जीवात्मा को सम्यक दर्शन की प्रेरणा दी है-वल्यो आतमराम मोह पिसाधनो सम्यक् दरसन जब भयो, तव प्रगटयो सुभ ज्ञानं १४ ।। असुचि अपावनि देहमनि, ताके सुष हूँ लीन । कहा मूल वेतन करी, रतनत्रय निधि दीन | १५|| बोध पच्चीसो इस रचना मे जिन दर्शन के प्रभाव का अनुभव कराते हुए धर्म की महिमा गाई गई है। छवि देषि भगवान की, मन मैं भयो करार | सुर नर फणपति की विभो दो सबै अवार 1 छबी देषि भगवान की, जो हिय में आनद । भयो कहाँ महिमा कडू तीन लोक सुधद ॥ 4 जबड़ी ५ छन्द की इस छोटी सी रवना मे जैन तत्वों में आस्था रखने का उपदेश दिया गया है Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६, बर्ष ४३ कि.१ अनेकान्त जिन धर्म कथित सुमागं रे जिय, तास निज सुष गाइय। के लिए आतुर हरिसिंह प्रभु की शरणागति के लिए बड़े सो परम ब्रह्म अनादि कबहूं, सम्यक् भाव न भाइयै ॥ आतुर हैंफुटकर गीत संग्रह : अब हूं कब प्रभु पद परसौ। हरिसिंह ने लोक धुनों में कुछ गीत भी लिखे है। नैन निहारि करौं परनामै, मन बच तन करि हितसौं । 'सिपाहीड़ा की ढाल' संज्ञक एक गति में पंचपरमेष्ठी के भव भव के अध लागे तिनक, मूर उषारौ जरस । ध्यान, और अनुप्रेक्षा धारण करने की प्रेरणा दी गई है। सरणं राषउ जिन स्वामी, और न मांगों तुम सौं । दो अन्य गीतो मे क्रमशः ऋषभदेव के जन्मोत्सव और यह बीनती दास हरी की कृपा करौं यह मुझसौ। गिरिनार की महिमा गाई गई है। राजुल विषयक एक प्रभु-नाम के स्मरण से सती अजना और श्रीपाल का गीत में नेमिमथ की बारात और उनके वैराग्य धारण हित हो जाने के कारण नाम-स्मरण मे हरिसिंह की आस्था करने का प्रसंग कहा गया है। फुटकर गीतो मे राज- भी बढी हुई है । प्रभु-दर्शन की सभावना वह नाम-स्मरण स्थानी भाषा की प्रधानता है । नेमिनाथ के 'दूलह' रूप से ही मानते हैंतथा उनकी निकासी का चित्र कितना भव्य है प्रभु जी बेगि दरसन देहु । कोई गावै कोई नांचे हरष स्यौ, कोई मगल कर धार, भये आतुरवत भविजन, ये अरज सुनि लेहु । बाजा वाजे प्रभु मदिर अति घना, ताको सोर न पाय । इह ससार अनत, आतपहरन कौं प्रभु मेह । मौड़ मस्तग प्रभु जी के बांधियो, रतन जटित कनकाइ। तुम दरस तै परषि आतम, गये सिवपुर गेह ।। निरत करत आगै गुनि जन चले, पाछ ज्ञानी लारजी। नाम तुम जन अजना से, किये सिवतिय नेह। गज पर चढ़ि प्रभु सोभा अति वनी, चाले जूनानेर हे। पतित उदधि श्रीपाल उधारे, नाम के परचेह। समवशरण सम्बन्धी एक गीत मे रुक्मिणी से प्रेरित इह प्रतीति विचारि मन धरि, कियो निश्चै येह। होकर कृष्ण और बलभद्र के सभवशरण में जाने का वर्णन सकल मंगल करन प्रभु जी, हरी नमत करेह ॥ किया गया है। भक्तिपरक पदों के अतिरिक्त हरीसिंह ने विरहिणी पद संग्रह : राजुल की व्यथा को भी अपने स्वर दिये हैं। विवाह-वेदी हरिसिंह की काव्य-कीर्ति का प्रमुख आधार सारंग, पर आने से पूर्व नेमिनाथ के विरक्त हो जाने पर उनकी विहाग, विलावल, कान्हड़ी आदि २० रागो मे लिखित वाग्दत्ता पत्नी राजुल भी अपना शृगार हटाकर प्रिय की भक्तिपूर्ण पद है। इन पदो मे कवि का आत्म-निवेदन अनुगामिनी बनी है , शरणागति की भावना, नाम-स्मरण मे आस्था पदे-पदे प्रभु बिन कैसे रहोगी माई, उन बिनु कछु न सुहाई। दृष्टिगोचर होती है। ससार-चक्र से ऊबे हुए भक्त को कोन सुनै हियकी मेरी अब, बिरह भयो दुषदाई ॥ जिन-दर्शन की उत्कट लालसा है इह संपर गहन वन तामैं, प्रभु बिन कौन सहाई । मोहि देषन जिनवर चावरी। छिन छिन आव बितीत होत है, काल गयो अनभाई ।। उतम नर भव कुल श्रावक को, पायो मैं यह दावरी॥ सरण जाय करी पिय सेवा, फिरि ओसर नहिं पाई। कीये परावर्तन बहुतेरे, तामैं कहूं न मिलावरी। तामैं अब हम पियसौं मिलिहैं, दोउ भव सुषदाई ।। भाग विशेष मिलै अब स्वामी, गहि बरन नहिं रहारी॥ मिल अब स्वामा, गाह बरन नाह रहाउरा ॥ तोड़ सिंगार केस सब तोड़े राजुल गिरि पर जाई । स्वपर प्रकास ज्ञान की महिमा, ताकी देत बतावरी। तप करि कीयो कारिज अपनी, नाम 'हरी' मन भाई ॥ ति नूप बिराजत, हू ताका बाल जाउरा ।। उक्त विवरण से स्पष्ट है कि हरिसिंह मुक्तक और इह भवसागर तारन तुम बिन, और कछु न उपावरी। गेय दोनों प्रकार के जैन काव्य मे अपना उचित स्थान हरिसिंह आयो तुम सरण, अब जु रजो है रावरी॥ रखते हैं। -१०-ए, रणजीतनगर, जन्म-जन्मान्तरो के पापों को जड़ से उखाड़ फिकवाने भरतपुर Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ स्मृतियाँ १. धर्म प्रभावना कैसे हो? समन्तभद्र के शब्दों मेंवीतराग के आगम में परिग्रह के त्याग का विधान 'अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्ययथायथम् । है-साधु को पूर्ण अपरिग्रही होने का और गृहस्थ को जिनशासनमाहात्म्यप्रकाश स्यात्प्रभावना ॥'-१८ ममत्वभाव से रहित परिग्रह के परिमारण का उपदेश है। अर्थात् अज्ञान-तिमिर के प्रसार को दूर करके, जिन इन्हीं विचारधाराओं को लेकर जब जीवन यापन किया शासन की-जैसा वह है उसी रूप में महत्ता प्रकट करनाजाता है तब धार्मिकता और धर्म दोनों सुरक्षित होते हैं। प्रभावना है। प्रभावना में हमे यह पूरा ध्यान रखना तीर्थकर की समवसरण विभूति से भी हमे इसको स्पष्ट परमावश्यक है कि उसमें धर्ममार्ग मलिन तो नही हो रहा झलक मिलती है अर्थात् तीर्थकर भगवान छत्र, चमर, है। यदि ऐसा होता हो और उपास्य-उपासक का स्वरूप सिंहासन आदि जैसी विभूति के होने पर भी पृथ्वी से चार ही बिगड़ता हो तथा सांसारिक वासनाओ की पूर्ति के लिए अंगुल अधर चलते है और बाह्य आडम्बर से अछूते रहते यह सब कुछ किया जा रहा हो तो ऐसी प्रभावना से मुख हैं-अन्तरग तो उनका स्वाभाविक निर्मल होता ही है। मोड़ना ही श्रेष्ठ है। क्योंकि सम्यग्दष्टि जीव कभी भी इसका भाव ऐसा ही है कि वहाँ धर्म के पीछे धन दौड़ता किसी भी अवस्था में सांसारिक सुख वृद्धि के लिए धर्महै और धर्म का उस धन से कोई सरोकार नही होता। सेवन नहीं करता और न बह मान बड़ाई ही चाहता है। पर, आज परिस्थिति इससे विपरीत है यानी धर्म दौड़ कहा भी हैरहा है धन के पीछे। 'भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिगिनाम् । ऐसी स्थिति में हमें सोचना होगा कि आज धर्म की प्रणामविनयंचव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ॥' मान्यता धर्म के लिए कम और अर्थ के लिए अधिक तो सम्यग्दृष्टि जीव भय-आशा-स्नेह अथवा लोभ के नही हो गई है ? तीर्थ यात्राओ मे तीर्थ (धर्म) की कमी वशीभूत होकर भी कुदे । कुशास्त्र और कुगुरुओं को प्रणाम और सांसारिक मनोतियो की बढ़वारी तो नही है ? मात्र विनय (आदि) नही करते हैं। आगे ऐसा भी कहा है कि छत्र चढ़ा कर त्रैलोक्य का छत्रपति बनने की मांग तो राग-द्वेष से मलीन-लोकमान्य चार प्रकार के देवों को नहीं है ? जिन्हें तीर्थकरो ने छोड़ा था उन भौतिक साम- देव मान कर किसी भी प्रसंग की उपस्थिति में उनकी ग्रियों से लोग चिपके तो नही जा रहे ? कही ऐसा तो नही पूजा आरती वीतराग धर्म की दृष्टि से करना देवमूढ़ता हो गया कि पहिले जहां धर्म के पीछे धन दौड़ता था वहाँ है। इसी प्रकार धर्म मूढता और लोक मूढ़ता के त्याग का अब धन के पीछे धर्म दौड़ने लगा हो? कतिपय जन अपने भी जिन शासन मे उपदेश है। यहां तो वीतरागता मे प्रभाव से जनता को बाह्य प्राडम्बरों की चकाचौध मे सहायक साधनो-सु-देव, सुशास्त्र और सुगुरु की पूजामोहित कर कुदेवादि की उपासना का उपदेश तो नही देने उपासना की आज्ञा है, आर्षज्ञाताओं से धर्मोपदेश श्रवण लगे? जहां तीर्थंकरो की दिव्यध्वनि के प्रचार-प्रसार हेत की आज्ञा है। यदि हम उक्त रीति से अपने आचरण में वीतरागी पूर्णश्रुतज्ञानी गणधरों की खोज होती थी वहां सावधान रहते हैं तो धर्म-प्रभावना ही धर्म-प्रभावना है। आज उनका स्थान रागी, राजनीति-पट और जैन तत्वज्ञान अन्यथा यत्र-मंत्र-तत्र करने और सांसारिक सुखो का प्रलोशून्य-नेता तो नही लेने लगे? आदि। उक्त प्रश्न ऐसे है भन देने वालों की न पहिले कमी थी और न आज कमी जिनका समाधान करने पर हमें स्वय प्रतीत हो जायगा है। हमें सोचना है कि हम कौन-सा मार्ग अपनाएं ? कि धर्म का ह्रास क्यो हो रहा है। सम्यग्ज्ञान मे ये तीनो ही नहीं होते। सम्यग्ज्ञानी धर्म प्रभावना का शास्त्रों मे उपदेश है और समाज के जीवादि सात तत्त्वों को यथार्थ जानता है । ज्ञान के विषय जितने अग हैं-मुनि, व्रती श्रावक, विद्वान् और अवृती मे आचार्य कहते हैसभी पर धर्म की बढ़वारी का उत्तरदायित्व है। स्वामी अन्यूनमनतिरिक्त याथातथ्यं विना च विपरीतात् । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८, वर्ष ४३, कि०१ निःसन्देहं वेद बदाहुस्तज्ज्ञानमामिनः ॥ कारी शिष्य । नतीजा यह होता है कि साधु की अपनी प्रयोजनभूत जीवादि सात तत्त्वों को यथातथ्य जानने दृष्टि वैराग्य से हटकर प्रतिष्ठा और यश पर केन्द्रित होने वाला ज्ञान-सम्यग्ज्ञान होता है। अतः श्रावक व मुनि दोनों लगती है। उसकी दृष्टि में परम्परागत प्राचार्य भी फोके को भौतिक ज्ञान की ओर प्रवृत्त न हो-मोक्षमार्ग में पड़ने लगते हैं । बस, साधु की यही प्रवृत्ति उच्छल और सहायक सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होना उद्दण्ड होने की शुरुआत होती है। चाहिए और धर्म प्रभावना होना चाहिए। जनता दूसरों का माप अपने से करती है। हमे २. क्या हम धावक निर्दोष हैं ? बोलने की कला नहीं और अमुक साधु बहुत बढ़ियामुनि-पद को अपनी विशेष गरिमा है और इसी गरिमा जन-मन-मोहक प्रवचन करते है या हम अपना भ्रमणके कारण इस पद को पंच परमेष्ठियो मे स्थान मिल सका प्रोग्राम घोषित कर चलते हैं तो अमुक साधु बिना कुछ है-'णमो लोए सव्वसाहणं ।'-जब कोई व्यक्ति किसी कहे ही एकाकी, मौन विहार कर देते हैं तो हम आकर्षित मुनिराज की ओर अंगुली उठा है तो हमें आश्चर्य और होकर उन्हें हर समय घेरने लगते है - उनकी जय-जयदुख दोनों होते है। हम सोचते है कि यदि हमें अधिकार कार के अम्बार मगा देते हैं। पत्रकार प्रकाशन-मामग्री मिला होता तो हम ऐसे निन्दक व्यक्ति को अवश्य ही मिलने से उस प्रसग को विशेष रूपों में छपाने लगते है । तनखया' घोषित कर देते जो हमारे पूज्य और इष्ट की बस, कदाचित् साधु को लगने लगता है कि मुझसे उत्तम निन्दा करता हो। आखिर, हमें सिखाया भी तो गया है और कौन ? उसका मोह (चाहे वह प्रभावना के प्रति ही कि-"मुनिराज का पद हो गरिमापूर्ण है।" क्या हम यह क्यों न हो) बढ़ने लगता है और वह भी ऐसे कार्यों को भी भन जायं कि-"भुक्तिमात्र प्रदानेन का परीक्षा प्राथमिकता देने लग जाता है जिसे जनता चाहती हो उसके तपस्विनां" वाक्य हमारे लिए ही है और सम्यग्दृष्टि भक्त चाहते हों और जिससे उसका विशेष गुणगान होता श्रावक सदा उपगृहन अग का पालन करते है, आदि। हो। यह देखता है-लोगों की रुचि मन्दिरो के निर्माण में उप्त दिन हमने एक हितचित्तक की बातें सुनी, जो है तो वह उसी मे सक्रिय हो जाता है, साहित्य में जन-रुचि बड़े दुखी और चिन्तित हृदय की पुकार जैसी लगी। तो वह साहित्य लिख-लिखाकर उसके प्रकाशन मे लम इनमें मुनि संस्था के निर्मल और अक्षुण्ण रखने जैसी जाता या बाहरी शोध-खोज की बातें करने लगता है भावना स्पष्ट थी। अपनी खोज और कर्तव्य को भल जाता है। आज अविचल बातें समय-संगत थीं और विचार कर सुधार करने रहने वाले साधु भी हैं और वे धन्य हैं। में सभी की भलाई है। हमारी दृष्टि मे तो पहिले हम मुनियों की जयन्तियां मनाने उन्हें अभिनन्दन प्रथ या श्रावक ही अपने में सुधार करें। सम्भवतः हम श्रावक ही अभिनन्दन-पत्रादि मेंट करने कराने जैसे सभी कार्य भी मुनिमार्ग को दूषित कराने में प्रधान सहयोगी हैं । हम श्रावकों से ही सम्पन्न किये जाते हैं। कैसी विडम्बना है श्रावक जहाँ इक्के-दुक्के मुनिराज को अपनी दृष्टि से- कि-'मारे और रोने न दे। हम ही बढ़ावा दें और हम कहीं किन्हीं अंगों में कुछ प्रभावक पाते है, उनकी अन्य ही उन्हें उस मार्ग में जाने से रोकने को कहें ? ये तो ऐसा शिथिलताओं को नजरन्दाज कर जाते हैं और साधु को ही हुआ जैसे साधु कमरे में बैठ जाय और गृहस्थ आपस इतना बढ़ावा देने लग जाते हैं कि साधु को स्वयं में एक में ऊपर एक पंखा फिट कराने की बातें करें? साधु मना संस्था बनने को मजबूर हो जाना पड़ता है। साधु के यश करें तो कहें-महाराज यह तो हम श्रावकों के लिए हो के अम्बार लगे रहें और वह भीड़ से घिरा चारों ओर लगवा रहे है आदि । जब पंखा लग जाय तब वे ही धावक अपने जय-घोष सुनता रहे, तो इस युग मे तो यश-लिप्सा बाहर जाकर कहें कि ये कैसे महाराज हैं--पसे का उप. से बचे रहना उसे बड़ा दुकर कार्य है । फलतः साधु स्वयं योग करते हैं ? संस्था और आचार्य बन जाता है और भक्तगण उसके आशा- हमने देखा पू०मा० श्रीधर्मसागर जी का 'अभिनदन Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ स्मृतियाँ २६ ग्रन्थ ।' लोगों का कहना है आचार्य श्री इस में सहमत न थे जहां के तहां और उससे भी गिरे बीते रह गए और आत्मऔर अन्त तक इससे दूर रहे उन्होंने नही स्वीकारा जब लक्ष्य न होने से किसी गर्त में जा पहुंचे। यदि यही दशा कि कई मुनि श्रावको की भक्ति के वशीभूत हो अपने स्वयं रही तो एक दिन ऐसा आयगा कि कोई उस गतं को मिट्टी के पद को भूला बैठते हैं। किसी मुनि के जन्म की रजत, से पूर देगा और हम मर मिटेंगे-जैनी नाम शेष न रहेगा स्वर्ण या हीरक-जयंती मनाई जाती है तो काल गणना .-मात्र खोज की जड सामग्री रह जायगी। या फिर क्या माता के गर्भ निःसरण काल से की जाती है-जैसे कि पता कि वह भी रहे न रहे। पिछले कई भण्डार तो दीमक आम संभारी जनों में होता है। जबकि, मुनि का वास्तविक और मिट्टी के भोज्य बन ही चुके हैं। जन्म वीक्षा काल से होता है-वीतराग अवस्था के धारण प्राचीन पूर्वाचार्य बड़े साधक थे उन्होने स्वयं को शुद्ध से होता है और आगम में भी मुनि अवस्था को ही पूज्य किया और खोजकर हमें आत्म-शुद्धि के साधन दिए । बताया गया है। क्या मुनि कोई तीर्थकर है; जो उनको आज भण्डारों से पूर्वाचार्यो कृत इतने ग्रंथ प्रकाश में आ कल्याणकों से तोला जाय? पर, क्या कहें श्रावक तोलते है चके हैं कि अपना नया कुछ लिखने-खोजने की जरूरत ही और मुनि तुलते हैं। आखिर जरूरत क्या है-घिसे-पिटे नहीं रही। हम प्रकाश मे आए हुए मूल ग्रन्थों का तो दिनो को गिनने की? क्या इससे मुनि-पद ज्यादा चमक जीवन मे उपयोग न करें और मनमानी नई पर-खोजों में जाता है ? धन्य हैं वे परम वीतरागी मुनि, जो इस सबसे जटे रहें, वह भी दूसरों के लिए। यह कहा की बुद्धिमानी दूर रहते हैं-'हम उनके हैं वास, जिन्होंने मन मार लिया।' है? हमे अपने जीवन मे आचार पर बल देना ही हमारी हमे यह सब सोचना होगा और मुनियो के प्रति चिता सच्ची खोज होगी। व्यक्त न कर, पहिले अपने को सुधारना होगा। काश, हम यह हम पहिले भी लिख चुके हैं और आज भी लिख श्रावक उन्हें चन्दा न दें तो मुनि रसीद पर हस्ताक्षर न रहे है कि यदि वास्तव मे शोध-खोज का मार्ग प्रशस्त करें, आदि । यदि हम ठीक रहें और श्रावक संघ को करना है तो हम शुद्ध पंडित परम्परा को जीवित रखने कर्तव्य के प्रति सजग रखने का प्रयत्न करें तो सब स्वयं का प्रयत्न करें-जिससे हमें भविष्य में आत्म-शोध का हो सही हो-पदेन सभी मुनि उत्तम है। मार्ग मिलता रहे। आचार्यों द्वारा कृत प्राचीन शोधों से कैसी बिडम्बना है कि हम अपने नेताओ को ओर अपने हमे वे ही परिचित कराने में समर्थ हैं । इसमें अत्युक्ति नहीं श्रावक-पद को तो सही न करें और पूज्य मुनियों की तथा कि भविष्य मे पूर्वापार्यों द्वारा शोधित ऐसे जटिल प्रसंग परायों की चिंता मे दुबले होते रहें। हमें सरल भाषा में कोन उपस्थित करा सकेगा, जैसे प्रसंग ३. शोध-खोज और हमारा लक्ष्य : आयु के उतार पर बैठे हमारे विद्वानो ने जुटाए हैं। षट्शोध की दिशा बदलनी होगी। आज जो जैसी शोध खडागम-धवलादि, समयसार, षट्शाभूत सग्रह, बंधमहा. हो रही है और जैसी परिपाटी चल रही है, उससे धर्म बंध तथा अन्य अनेक आगमिक ग्रंथों के प्रामाणिक हिन्दी दूर-दूर जाता दिखाई दे रहा है। यह ठीक है कि जैनधर्म रूपातर प्रस्तुत करने वाले इन विद्वानों को धन्य है और शोध का धर्म है पर उसमें शोध से तात्पर्य आत्म-शोध इनको खोजें हो सार्थक हैं । हमारा कर्तव्य है कि उन ग्रंथो (शोधन) से है, न कि जड़ की गहरी शोध से। जड़ को का लाभ लें-उन्हें आत्म-परिणामों में उतारें और आगामी गहरी शोध तो आज बहुत काल से हो रही है और इतनी पीढ़ी को उनसे परिचित करायें। बस आज इतनी ही शोध हो चुकी है कि दुनियां बिनाश के कगार तक जा पहुची आवश्यक है और यही जैन और जैनत्व के लिए उपयोगी है-परमाण-खतरा सामने है। प्रकारान्तर से हम जैनी है-अन्य शोधे निरर्थक हैं। वरना, देख तो रहे हैभी आज जो खोजें कर रहे है, वे पाषाण और प्राचीन जैनियों के ढेर को आप। शायद ही उसमे से किसी एक लेखन आदि को खोजें भी सोमाओ को पार कर गई है। जैनी को पहिचान सके आप। उनसे हमारे भण्डार तो भरे, पर हम खाली के खाली, एक सज्जन बोले-हमे याद है, जब हमने एम. ए. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०, ४३, कि.१ अनेकान कर लिया तो हमारे सामने भी कई हितषियों द्वारा शोध- का ध्यान आया हो-क्षण भर के लिए ही सही। वे विरप्रबंध लिख कर डिग्री प्राप्त कर लेने की बात आई थी मत हुए और बात समाप्त हो गई। मैंने सोचा-काश, ये और चाहते तो हम डिग्री ले भी सकते थे। पर, हमने अन्य शोध-संभालों के बजाय आत्म-शोध करते होते । आप सोचा-शोध तो आत्मा की होनी चाहिए। प्रयोजनमत इस प्रसग में कसा क्या सोचते हैं ? तस्वों और आगमिक कथनों को तो आचार्यों ने पहिले हो जब देश में हिंसा का वातावरण बन रहा है, लोग शोध कर रखा है। क्यों न हम उन्ही से लाभ लें? यदि मछली-पालन और पोल्ट्रीज फार्म कायम करने जैसे धन्धो हमने प्रचलित रीति से किसी नई शोध का प्रारम्भ किया द्वारा जीवों के वध में लगे हैं तब कुछ लोग उस वध के तो निःसन्देह हमारा जीवन उसी मे निकल जायगा और निषेध मे भी लगे है । कुछ ऐसे भी हैं जो पशु-पक्षियो पर अपनी शोध-आत्म शोध कुछ भी न कर सकेंगे। बस, रिसर्च कर ग्रन्थो के निर्माण में लगे हैं। गोया, अनजाने हमने उस मे हाथ न डाला। अब यह बात दूसरी है कि मे वे मांस-भक्षियों को विविध जीवो की जानकारी दे रहे परिस्थितियो वश हम अपनी उतनी खोज न कर सके, हों, क्योंकि परमाणु खोज की भांति उसमें भी जीवरक्षा जितनी चाहिए थी। फिर भी हमे सतोष है कि हम जो है, की गारण्टी नहीं है-मास भक्षी ऐमी जानकारी का दुरुपजैसे हैं, ठीक है । पूर्वाचार्यों की शोध में सतुष्ट, आस्थावान योग भी कर सकते है। हमने बहुत से आफसैट पोरटरो और विवादास्पद एकांगी शोधो से दूर । को देखा है, जो प्लेट पर अण्डे की जर्दी लगाकर छापे जाते क्या कहें, शोध और सभाल की बातें ? एक दिन है। अहिंसा के पुजारी बनन वाले कतिपय प्रचारक इसी एक सज्जन आ गये। बातें चलती रही कि बीच मे- विधि के पोस्ट र बनाने-बनवाने मे सन्नद्ध है, आदि। बिखरे वैभव की रक्षा और शोध का प्रसग छिड़ गया। वे हम निवेदन कर दे कि यह अनेकान्त के ४३वे वर्ष बोले-पडित जी, क्या बताएं ? मै अमुक स्थान पर गया। को प्रथम किरण है । गत बीते वर्ष में हम स्खलित भी कितना मनोरम पहाड़ी प्रदेश है वह, कि क्या कह ? मैंने हुए होगे जिसका दोष हमारे माथे है। हम यह भी जान देखा वहां हमारी प्राचीन सुन्दर खडित-अखडित भूतियो रहे है कि जो मोती चुनकर हम देते रहे हैं उनके पारखी का वैभव विखरा पड़ा है, कोई उसकी शोध-सभाल करने थोडे ही होगे। एक-एक मोती चुनने में कितनी शक्ति वाला नही-बड़ा दुख होता है इस समाज की ऐसी दशा लगानी होती है इसे भी कम लोग ही जानते होगे। धर्म को देखकर । वे चेहरे की आकृति से, अपने को बडा दुखी और तत्त्वज्ञानशून्य वर्ग तो हमारे कार्य को निष्फल मानने जैसा प्रकट कर रहे थे, जैसे सारी समाज का दुख-दर्द का दुःसाहस भी करता होगा। पर, इसकी हमे चिन्ता उन्हीं ने समेट लिया हो। नही । यत: सभी हस नही होते । हां, एक बात और, अब बस, इतने मे क्या, हुआ कि सहसा उन्होने पाकिट से तक हमारे महासचिव, सस्था की कमेटी आदि ने हमे सिगरेट निकाली, माचिस जलाने को तगार हुए कि मुझसे पूरा-पूरा सहयोग दिया है। लेखको के सहयोग से तो न रहा गया-मन ने सोचा, वाह रे इनका प्राचीन वैभव। पत्रिका को जीवन ही मिलता रहा है। हम सभी के वचनों ने तुरन्त कहा-'कृपा करके बाहर जाकर पीजिए।' आभारी है और नए वर्ष में सभी का स्वागत करते है। वे सहमे । जैसे शायद उस क्षरण उन्हें अपनी शोध-सभाल --'संपादक -द्वन्द-युद्धदोनों ने एक दूसरे को चैलेंज जैसा दे रखा है। एक ओर हैं परिग्रही-आत्मोपलब्धि की चर्चा करने वाले और दूसरी ओर है अकेला अपरिग्रह । अपरिग्रह कहता है कि मेरे अपनाए बिना आत्मोपलब्धि असंभव है और वे हैं-वाचन और पाचन को बेचैन-भोगों में रस लेते, आत्मोपलब्धि को रट लगाए। हमारे ख्याल से तो तीर्थंकरों ने भी अरूपी आत्मा की ओर ऐसी दौड़ें नहीं लगाई । पहिले उन्होंने बारह भावनाओं का चिन्तवन कर इन्द्रियगम्य-नश्वर शरीर-भोगों को पहिचान कर छोड़ा तब आत्मा में रह सके। देखें-कौन जीतता है ? Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीक्षा। 'निष्काम साधक' (श्री यशपाल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ) 0 समीक्षक-डॉ. महेन्द्र सागर प्रचडिया प्रकाशक : श्री यशपाल जैन अभिनन्दन समारोह उनकी क्या और कैसी धारणा रही है, उसका आस्वादन समिति द्वारा सस्ता साहित्य मण्डल,९१७७, कनाट सरकस, उन्ही की शब्दावली मे द्रष्टव्य है, यथा : नई दिल्ली। "इस ग्रंथ मे बहुत-कुछ ऐसा है, जो पाठकों को प्रेरणा पृष्ठ-संख्या : बड़े आकार के आठ सौ अट्ठाईस । १०० दे सकता है। यशपालजी के जीवन में बड़े उतार-चढ़ाव से अधिक चित्र आर्ट पेपर पर, नयनाभिराम प्रकाशन । बाए हैं, उन्होने अच्छे-बुरे दोनों तरह के दिन देखे है। किंतु मूल्यमान् : रु. २५१-०० मात्र । उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्हं ने नीति के गुणों के समूह को द्रव्य कहते है । जीव-अजीव, धर्म- मार्ग को कभी नहीं छोड़ा। इतना ही नही, जिसे उन्होंने अधर्म, आकाश और काल नामक षद्रव्यो के समूह को ठीक माना, उस पर दृढतापूर्वक चलते भी रहे हैं।" कहते है संसार । ससार में कोई वदनोय है तो वह है गुण। "हम निस्सकोच कह सकते है कि यशपालजी में कुछ गुण सदा शाश्वत रहते हैं। जीव अथवा प्राण एक अवि- ऐसी विशेषतायें है जो सामान्यत: दूसरों में नही मिलती। नाशी द्रव्य है, गुण है। प्राण जब पर्याय धारण करता है वह परिश्रमशील है, मुक्त भाव से लिखते हैं और मुक्त तब कहलाता है प्राणी । पर्याय बदलती रहती है। भाव से अपनी बात भी कहते है। अपनी लेखनी और अभिनन्दन ग्रंथ शाब्दिक वंदना का समवाय है । इसमें अपनी वाणी पर उन्होने कभी कोई अकूश स्वीकार नहीं जिस व्यक्ति पर आधारित अभिनन्दन ग्रंथ रचा जाता है, किया। उसके गुणों का वर्णन किया जाता है। विवेच्य अभिनंदन वर्तमान युग मे जबकि मूल्यो का संकट उपस्थित हो ग्रंथ साहित्य-वारिधि, पद्मश्री, श्री यशपाल जी जैन के गया है, यह काम आसान नहीं कि व्यक्ति जो चाहे, वह गुणों की मंजूषा है। इसका विशालकाय होना इस बात कहे और जो चाहे, वह लिखे; पर यशपाल जी ने वह रास्ता का प्रमाण है कि उनमें 'गुणो' का परिमाण कितना विराट आरम्भ से ही चुना है और अब भी उसी रास्ते पर और बजनीक है। अभिनन्दन-परम्परा में नागरिक-प्रमुख निर्भीकतापूर्वक चले जा रहे हैं। इसमें जो खतरे है, उनकी भारतरत्न श्रीमती इन्दिरा अभिनन्दन ग्रन्थ विशालतम उन्होंने कभी परवाह नही की।। प्रकट हुआ है और संतजगत में अभिनन्दन ग्रन्थ पहल "इस ग्रथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमे करता परमवद्य आचार्य देशभूषणजी महाराज पर आधा- एक प.म आस्थावान आशावादी, मूक और मुक्त व्यक्ति रित अभिनन्दन ग्रन्थ । साहित्यिकों-सामाजिकों में जितने की कहानी है। इस ग्रय को जो भी पढ़ेगा, उसे कुछ न अभिनन्दन-ग्रंथ प्रकट हुए है, उनमे 'निष्काम साधक' कुछ अवश्य मिलेगा।" सम्पाद: की शब्दावली में 'निष्काम निस्सदेह निराला है। निरुपमेय है। साधक' की राम-कहानी साफ और सुथरी शैली मे कही हिन्दी मे सम्पादन की परम्परा आधुनिक हिन्दी गई है।" साहित्य के पुरोधा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी द्वारा प्रवर्तित ग्रंथ का प्रारम्भ सन्देश और शुभ कामनाओं से होता है। अभिनन्दन-ग्रन्थों के सम्पादन मे सींक, बडी करने है, जिसमे अनेक महापुरुषों के उद्बोधक विचार और वालों मे अगुआ रहे है राजसम्मानित सांसद प. बनारसी वरिष्ठ जनों के मंगल-वचन तथा देश-विदेश से प्राप्त शुभ दास चतुर्वेदी । 'निष्काम साधक' के प्रधान सम्पादक है- कामनाएं संग्रहीत हैं। सन् १९७२ में षष्ठि-पूर्ति के अवपं०बनारसीदास चतुर्वेदी । 'निष्काम साधक' के विषय में सर पर श्री यशपालजी को एक विशाल हस्त-लिखित प्रथ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, बर्ष ४२, कि०४ भनेकान्त 'समन्वयी साध साहित्यकारमेंट किया गया था। उसके सम्पादित सामग्री की सबसे बड़ी उपलब्धि है पाठकों को लिए मंगल कामनाएँ भेजने वाले महानुभावों में से जो सद्-असद् प्रवृत्तियों का अवबोध और उसके द्वारा हमारे बीच नहीं रहे, उनके उद्गार-'अशेष आशोष' जीवन को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग की ओर उन्मुख उपखंड में वे दिए गए हैं। शेष तथा अन्य 'जीवेम शरदः करना । इसी अध्याय में 'चित्रावली भी दी गई है, जिनमें शतम्' उपखंर में सम्मिलित किए गए हैं। इन भावोद्गारों बड़े और विरल महापुरुषों के साथ यशपालजी दर्शाये को पढ़कर पता चलता है कि यशपालजी के प्रति देश गए हैं। विदेश में कितनी अधिक प्रात्मीयता है। 'निष्काम साधक' का अगला अध्याय है-'रचना 'व्यक्तित्व और कृतित्व' अध्याय में भारत तथा अन्य संसार ।' श्री यशपालजी ने समाज तथा देश की जो सेवा देशों के उन व्यक्तियों के संस्मरण दिए गए हैं, जिन्हें को है, उसका माध्यम रहा है उनकी लेखनी। उन्होंने यशपालजी के समाकं में आने का अवसर मिला था। इन विविध विधाओं में साहित्य रचा है। कहानियों, कविताओं, सभी संस्मरणों को तीन उपखंडों में विभाजित किया गया संस्मरणों, बोध-कथानों, निबंधों तथा यात्रा-वृत्तान्तों आदि. है। 'पुण्य पुरुषों की कलम से' की सामग्री 'समन्वयी साधु आदि के द्वारा उन्होने हिन्दी साहित्य के भंडार को समुद्र साहित्यकार' हस्तलिखित ग्रंथ के उन हितैषियों को है, किया है। सकड़ों कृतियों में से कतिपय रचनाएँ बानगी के जिनका निधन हो गया है। अन्य संस्मरणों को 'समका- रूप मे इस अध्याय में दी गई है। इससे यशपालजी का लोनों की दष्टि में दिया गया है। पारिवारिक उपखंड मे साहित्यिक व्यक्तित्व ही उजागर नहीं हमा है, अपितु उनकी परिवार के सदस्यों की भावनाएँ संकलित हैं। कहने की अभिव्यक्ति क्षमता और भाषा-विषयक विलक्षणता का भी आवश्यकता नहीं कि सारे सस्मरण यशपालजी की मान- आभास हो जाता है। बीय गुणवत्ता तथा उनके द्वारा की गई मानवीय मूल्यों की 'जननी जन्म भूमिश्च' नामक अध्याय मे श्री यशपाल उपासना पर प्रकाश डालते हैं। जी को जन्म भूमि ब्रज भूमि के विषय मे उन मूर्धन्य __'निष्काम साधक' का अगला अध्याय है 'प्रवासी विद्वानो की रचनाओं का संकलन किया गया है, जिनसे भारतीयों के बीच' यशपालजी को संसार के लगभग ४२ वहां की संस्कृति, साहित्य और धर्म का महत्त्व मुखर हो देशों में जाने का सुयोग मिला है। विभिन्न देशो मे उनके उठा है। ब्रज की विभूतियों का भी सहज में अवबोध हो योगदान के सम्बन्ध में जो लेख प्राप्त हुए है, उन्हें इस जाता है। खंड में दिया गया है। उस सबसे स्पष्ट हो जाता है कि 'जैन संस्कृति' अगला अध्याय है। यशपालजी का यशपालजी जहां कहीं गए हैं, भारतीय संस्कृति, भारतीय जन्म जैन परिवार में हुआ, उनमें जिनधर्म के प्रति गहरी दर्शन और हिन्दी साहित्य का सन्देश लेकर गए हैं। इस आस्था है। इस अध्याय में जिनधर्म, दर्शन और संस्कृति सम्देश-थाती का विभिन्न देशों के निवासियों विशेषकर को उजागर करने वाली रचनाओं को संकलित किया गया प्रवासी भारतीयों पर कितना गहरा प्रभाव पड़ा है, उसका है। लेखक रहे हैं जैन जगत के जाने-माने मनीषी। अनुमान इस खंड में प्रकाशित सामग्री को वांचकर लगाया 'भारतीय संस्कृति' ग्रंथ का अगला अध्याय है। इसमे जा सकता है। उन विरल विद्वानों के अमूल्य निबंधों का संकलन है, ___ 'जीवन के विविध सोपान' नामक अगले अध्याय में जिनका महत्त्व आज भी ज्यों-का-त्यों सुरक्षित है । सर्वोदय भी यशपालजी स्वयं अपने जीवन-विकास की कहानी (मो० क. गांधी), प्राचीन भारतीय परम्परा में त्रेत लिखते हैं। ग्रामीण परिवेश तथा परिवार से उन्हें जो परात्पर-तत्त्व (श्री अरविन्द), भारतीय संस्कृति में अद्वैत संस्कार बचपन में प्राप्त हुए हैं, उन्हें किस प्रकार पचाया का अधिष्ठान (साने गुरुजी) मन की महिमा (स्वामी और परिपुष्ट किया है, उस सबका विस्तारपूर्वक उल्लेख मुक्तानन्द परमहंस), अणुव्रत की क्रान्तिकारी पृष्ठभूमि इस अध्याय की सामग्री में किया गया है । इस अध्याय में (आचार्य तुलमी), दृश्य से द्वष्टा की ओर यात्रा (प्राचार्य Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजनीश) सुखी इसी जीवन में (स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती), भारतीय दर्शन ( युवाचार्य महाप्रज्ञ), अहिंसा सार्वभौम (जैनेन्द्र कुमार ), श्री अरविन्द और माताजी के जीवन-दर्शन का प्रधान प्रभाव (डा० इन्द्रसेन ) भारतीय संस्कृति-स्वरूप चिन्तन (डा० बल्देव उपाध्याय), भारतीय संस्कृति के अवदान (डा० प्रभाकर माचवे), भारतीय ललित कलाओं का आकलन (प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी), भारतीय संस्कृति और श्रमण परम्परा (डा० हरीन्द्रभूषण जैन), लोककल्याण के लिए विनोबा के सिद्धान्तो की सार्थ कता (सुशील अग्रवाल), भारत का एक विश्वासी खेल छक्का चपेटा (कृष्णानन्द गुप्त ) सात निषेधात्मक सूत्र ( चन्द्रगुप्त वार्ष्णेय ), तथा भारतीय जीवन में लोक-शक्ति का अधिष्ठान (सिद्धराज ढड्ढा) जैसे सुधी लेखकों की अमृतवाणी को दायित किया गया है। इन सभी सिद्धान्तो ने श्री यशपालजी के जीवन को प्रभावित किया है। कहा जा सकता है कि जैन सिद्धान्तों से अनुप्राणित गांधी दर्शन को छाप उनके जीवन पर सर्वाधिक पड़ी है। : 1 इसी प्रकार 'निष्काम साधक' मे अगला अध्याय है। 'हिन्दी का वैभव' श्री वाली का सम्पूर्ण जीवन साहित्य की सेवा में ही व्यतीत हुआ है। उन्होने ज शताब्दी की सुदीर्घ अवधि मे कहानिया, कविताएँ, निबंध, यात्रा विवरण आदि अनेक विधाओं मे हिन्दी साहित्य की धाराओं को परिपुष्ट किया है। इस अध्याय में हिन्दी के आधुनिक साहित्य का मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है। ग्रंथराज का अन्तिम अध्याय है 'परिशिष्ट' रूप का । जिसमें विवेच्य श्री जैन की जीवन-यात्रा की तालिका प्रस्तुत की गई है. जो इतिहास के क्रमिक विकास पर अच्छा प्रकाश डालती है । परिशिष्ट दूसरे मे आपकी रच नाओं की तालिका दी गई है। इतने विशाल महाग्रंथ के प्रकाशन से जहाँ एक ओर श्री यशपालजी की आदर्श जीवन यात्रा का क्रमबद्ध विकासआभास मिलता है, वहां दूसरी ओर भारतीय संस्कृति साहित्य, इतिहास, कला, दर्शन और धर्म का विरल भंडार एक स्थान पर उपलब्ध हो जाता है । अन्वेषण-क्षेत्र के अध्येताओं के लिए प्रस्तुत महाग्रंथ एक सन्दर्भ-प्रथ की नाई अपनी उपयोगिता रखता है। प्रथ की साज-सभार इतनी आकर्षक और मूल्यवान है कि दर्शक और पाठक का मन पन्ने पलटते अघाता नही । हर पन्ने में मानवीय मूल्यो का प्रकाश विकीर्ण होता दीख पडता है। इतने विशाल किन्तु विचारवंत सामग्री का सवाहक 'निष्काम साधक' महाग्रथ का सम्पादन और प्रकाशन निश्चित ही हिन्दी ससार के गौरव को बर्द्धमान करता है और मानवीय मूल्यों का महत्व-वर्द्धन। इत्यलम् । आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० ६० वार्षिक मूल्य : ६) ३०, इस अंक का मूल्य । १ रुपया ५० पैसे मंगल कलश ३६४, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़-१ विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो । पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते । कागज प्राप्ति :- श्रीमती अंगूरी देवी जैन (धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी ) नई दिल्ली-२ के सौजन्य से :― Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वार-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन ३... नाम-प्रशस्ति मग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का मगलाचरण सहित अपर्व सग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं.परमानन्द शास्त्रो को इतिहास-विषयक साहित्य. परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... जैन ग्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण सग्रह । पचपन प्रन्थकारो के ऐतिहासिक प्रथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । स. पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १५.०० समाधितन्त्र प्रौर इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित श्रवणबेलगोल पोर दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ सख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहसुत्त । मूल ग्रन्थ की रचना अाज मे दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री पतिवषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो पोर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पाठो मे । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । ... २५०० ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : सपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२-०. बन लक्षणावली (तीन भागों में) : स०प० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग ४.... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग . श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, सात विषयो पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन २-०० Jaina Bibliography Shri Chhotelul Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences) In two Vol. (P. 1942) Per set 600-00 सम्पादन परामर्शदाता . श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पद्मचन्द्र शास्त्री प्रकाशक----बाबूलाल जैन वक्ता, वीर सेवा मन्दिर के लिए ति, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली..३ BOOK-POST Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिरका मासिक अनेकान्त (पत्र प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४३ : कि०२ अप्रैल-जून १९६० a इस अंक में विषय १. अनेकान्त-महिमा २. क्या नवग्रह पूजा शास्त्र-सम्मत है ? -उदयचन्द जैन एम. ए., वाराणसी ३. महान सम्राट अशोक का संवत्सर-श्री अभ. प्रकाश जैन ५ ४. शुभाशुभ और शुद्ध भाव-श्री नरेन्द्रकुमार शास्त्री ८ ५. त्रिशष्ठि शलाका पुरुष-राम, लक्ष्मण, रावण -कु० विभा जैन ६. भूले-बिसरे जैन भक्त कवि-डा० गंगाराम गर्ग ७. दशलक्षण पर्व : क्या यह शास्त्र सम्मत है ? -डॉ० कपूरचन्द जैन खतौली ८. पर्युषण और दशलक्षण धर्म-श्री पपचन्द्र शास्त्री १७ ९. संस्कृत के पूर्व मध्यकालीन जैनकवि जटासिंहनन्दि: परिचय एवं कालनिर्णय-डॉ. कमलकुमारी, आरा २१ | १०. नये प्रकाशन पर साधुवाद-श्री मुन्नालाल जैन प्रभाकर २४ ११. मुन्नालाल की शंकाओं का समाधान-श्री बाबूलाल जैन २८ १२. ग्राम पगारा को जैन प्रतिमाएं-श्री नरेशकुमार पाठक ३० १३. जरा सोचिए-संपादक १४. कहीं जैन इब न जाय-सम्पादक आवरण १५. आगमों से चुने : शान-कणभी शान्तिलाल जैन आवरण ३ مس प्रकाशक: पीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावधान ! कहीं जैन डूब न जाय -त्यागियों और श्रावकों द्वारा "चारित्तं खलु धम्मो" वाक्य को पूर्ण आचरण में न लाया जाना-उनके द्वारा योग्य चारित्र के पालन की उपेक्षा किया जाना जैन को ले डूबेगा। -धर्म के मूलरूप दिगम्बरत्व-अपरिग्रहत्व से लोगों को अरुचि होना और मल से विपरीतसीमित आवश्यकताओं से अधिक परिग्रह का रुचि पूर्वक संचय, संरक्षण और संवर्धन कर उसमें गद्धता रखना जैन को ले डूबेगा। -आगम में इस आत्मा को वर्ण, रस, गंध, स्पर्श रहित अरूपी-अदृश्य कहा है इस मान्यता के खिलाफ आत्मा को देखने-दिखाने, पहिचानने-पहिचनवाने की बातें करना तत्त्वार्थ-अश्रद्धान का ही घोतक है। क्या, पर-संग रहित अरूपी आत्मा को-वह भी भोगों में रत रहते, घेखने-दिखाने की बातें छल और मिथ्यात्व नहीं? ___ -आश्चर्य है कि लोग भाग्योदय से प्राप्त अपनी ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग पहिले अपनी पहुँच योग्य-अनित्य (रूपो) पदार्थों को असारता के चितन में लगाकर तीर्थंकरोंवत् विरक्त तो नहीं होतेउल्टे, अपनी पहँच से बाहर अरूपी आत्मा को पाने को चर्चायें करते हैं वह भी भोगों में रत रहकर । ये भी मिथ्यादृष्टि जैसा उल्टा प्रयास जैन को ले डूबेगा। -लोग मानते हैं कि सम्यग्दर्शन और आत्म-दर्शन पहिचान से परे हैं- किसको हैं, किसको नहीं, यह सर्वज्ञ जाने। फिर भी वे शून्य में हाथ मारने जैसी इन दोनों को रटन लगाए हैं। चारित्र पालन और परिग्रह परिमाण या परिग्रह-त्याग पर उनकी दृष्टि नहीं जाती। दृष्टि जाय भी तो कैसे? उसमें त्याग और श्रम जो है और इन्हें चाहिए संग्रह, मौज और यश । बस, इनका ऐसा व्यवहार जैन को ले डूबेगा। - स्मरण रहे, आत्मसाक्षात्कार तो अनासक्ति में स्वयं होता है-आत्मा के प्रति आत्मा को पकड़ के प्रयत्न की अपेक्षा नहीं। आश्चर्य है कि आसक्त लोग आसक्तों को आत्मदर्शन के स्वप्न दिखा 'परस्परं प्रशंसन्ति' से पापवन्ध कर रहे हैं। -जैनधर्म निवृत्ति प्रधान है। तीर्थंकरों जैसे महापुरुषों ने पहिले बारह भावनाओं के माध्यम से दृश्य-संसार, शरीर, भोगों को असारता को विचारा, उनसे निवृत्ति ली तब अपने में रह सके। पर आज निवृत्ति के स्थान पर प्रायः परिग्रह में प्रवृत्ति का लक्ष्य है। पर-द्रव्य से राग कर अनापशनाप धन, जायदाद, यश-ख्याति अर्जन में लीन होकर आत्मा को देखने-दिखाने की रटना लगाई जा रही है, जो चारित्र के अभाव में जैन को ले डूबेगी। सावधान ! आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०००० वार्षिक मूल्य। ६) 6०, इस बंक का मूल्य १ रुपया ५० पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह आवश्यक नहीं कि सम्पावक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् प्रहम् JALIA THIR परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष ४३ किरण २ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५१६, वि० सं० २०४७ अप्रैल-जन १९९० - - अनेकान्त-महिमा अनंत धर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयीमतिनित्यमेव प्रकाशताम् ॥ जेण विणा लोगस्स वियवहारो सव्वहा ण णिध्वडइ। तस्स भवनक्कगरुणो णमो अणेगंतवायस्स ॥' परमागमस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्ध-सिन्धुरभिधानम्। सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥' भइंमिच्छादसण समूह महियस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गमहाहिगमस्स ।' अनन्त-धर्मा-तत्त्वों अथवा चैतन्य-परम-आत्मा को पृथक-भिन्न-रूप दर्शाने वाली, अनेकान्तमयी मूर्ति-जिनवाणी, नित्य-त्रिकाल ही प्रकाश करती रहे-हमारी अन्तर्योति को जागृत करती रहे। जिसके बिना लोक का व्यवहार सर्वथा ही नहीं बन सकता, उस भुवन के गुरु-असाधारणगुरु, अनेकान्तवाद को नमस्कार हो । जन्मान्ध पुरुषों के हस्तिविधान रूप एकांत को दूर करने वाले, समस्त नयों से प्रकाशित, वस्तु-स्वभावों के विरोधों का मन्थन करने वाले उत्कृष्ट जैन सिद्धान्त के जीवनभूत, एक पक्ष रहित अनेकान्त-स्याद्वाद को नमस्कार करता हूँ।। मिथ्यादर्शन समूह का विनाश करने वाले, अमृतसार रूप; सुखपूर्वक समझ में आने वाले; भगवान जिन के (अनेकान्त गर्भित) बचन के भद्र (कल्याण) हों। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या नवग्रह पूजा शास्त्र सम्मत है ? - उदयचन्द्र जैन एम. ए., सर्वदर्शनाचार्य, वाराणसी ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ग्रह होते है। उनके भविष्यवाणी तो करते रहते हैं किन्तु वे ग्रहों की शान्ति नाम इस प्रकार हैं-सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, के लिए कोई उपाय बतलाते हों यह देखने में नहीं शनि, राहु और केतु । ज्योतिषियो के अनुसार ये ग्रह आया है। व्यक्तियों को ही नही, किन्तु राष्ट्रों को भी समय-समय ___ ज्योतिष के अनुसार व्यक्तियों पर ग्रहों का जो पर फल देते रहते है। कानपुर, वाराणसी आदि कई प्रभाव होता है उसकी शान्ति के लिए ज्योतिषी कई प्रकार स्थानों से प्रकाशित होने वाले दैनिक जागरण में प्रत्येक के उपाय बतलाते हैं। जैसे-विभिन्न प्रकार के मूंगा, सोमवार को प्रसिद्ध ज्योतिषी के०ए० दुवे पद्मश के रुद्राक्ष आदि का धारण, दान, पुण्य आदि । पता नहीं इस ग्रहों के सम्बन्ध में एक या दो वक्तव्य निकलते रहते हैं। प्रकार के उपायो से ग्रहो की शान्ति होती है या नहीं। जैसे-वक्री ग्रह बड़ी दुर्घटना करायेंगे। १७ मई तक ग्रहों के सम्बन्ध में एक बात यह भी विचारणीय है कि बुध और शनि का वक्री होना कोई बड़ी दुर्घटना करा जन्म के समय जन्मकुण्डली मे जो ग्रह जिस रूप मे पड़ येगा। रेल, यान, सड़क या अन्य दुर्घटनाओ से कई जाते है क्या वे जीवन भर उसी रूप मे उस जीव को फल हजार व्यक्ति प्रभावित होंगे। वक्री ग्रह मौसम को भी देते रहते है। ग्रहों के सम्बन्ध में इतनी भूमिका बतला प्रभावित करेंगे। बुध का पूर्व में उदय होना महा उत्पात देने के बाद अब हम प्रकृत विषय पर विचार करते हैं। कारी होगा । ४ मई से शनि वक्री चल रहा है और वक्री शनि २३ सितम्बर ६० तक रहेगा। शनि के साथ बुध यहाँ विचारणीय यह है कि ग्रह जड़ है या चेतन । भी वक्री है । लेकिन जब बुध का पहले ही पूर्व दिशा मे जैनधर्म के अनुसार ग्रह चेतन है । अर्थात् वे ज्योतिषी देव उदय हो और शनि वक्री रहे तो अनेक प्रकार की दुर्घटनायें है। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में बतलाया हैहोती हैं। हिंसा व आगजनी की घटनाएं देश के अनेक सूर्याचन्द्रमसो ग्रह नक्षत्र प्रकीर्णकतारकाश्च । अर्थात सर्य, अंचलो में होंगी। दिल्ली में भी कुछ विशेष अप्रिय घटनाएँ चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे ये पांच प्रकार के ज्योतिषी घट सकती हैं। बुध के उदय हो जाने तथा शनि के वक्री देव हैं। किन्तु आधुनिक विज्ञान के अनुसार ग्रह जड़ होने के कारण कुछ खाद्यान्न वस्तुओं मे मन्दी आयेगी। (अचेतन) है। ग्रह चाहे जड़ हो या चेतन दोनों ही स्थितियो मे वे अपना प्रभाव चेतन और जड़ पदार्थों पर इस प्रकार से ग्रहों को लेकर सामान्य भविष्यवाणी के अतिरिक्त व्यक्तिगत भविष्यवाणी भी निकलती रहती कैसे डालते है अर्थात् अच्छा या बुरा फल कसे देते हैं यह है। जैसे-शरद पवार अपना कार्यकाल न पूरा कर बात विशेषरूप से विचारणीय है। जैन दर्शन के अनुसार सकेंगे। क्योकि शनि इन वर्षों में मकर और कंभ मे एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में कोई क्रिया या प्रतिक्रिया नही कर सकता है। निश्चयनय से सब द्रव्य अपने में ही परिणामों रहेगा। बहस्पति इन वर्षों में कई बार षडाष्टक योग बनायेगा। शनि और बृहस्पति का षडाष्टक योग उन्हें का कता है और पुद्गल द्रव्य अपने परिणामों का कर्ता पद मुक्त होने के लिए बाध्य करेगा। इस कारण वे अपना है। पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा नही कर सकेंगे। यहां यह यहां एक बात यह भी विचारणीय है कि जीवों को दृष्टव्य है कि दुबे जी ग्रहों को लेकर विभिन्न प्रकार की जो शुभ या अशुभ फल मिलता है वह प्रहों के द्वारा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या नवग्रह पूजा शास्त्र सम्मत है ? मिलता है या कर्मों के द्वारा जैन दर्शन तो कहता है कि सब जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते रहते हैं । सन्त कवि तुलसीदास ने भी कहा है कि 'कर्म प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करइ तो तस फल चाखा ।' जैन दर्शन के अनुसार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, श्रायु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ कर्म होते हैं। और जब तक ये कर्म सत्ता में बने रहते हैं तब तक यह जीव चारों गतियो में भ्रमण करता हुआ जन्म, जरा, मरण आदि के विविध दुःखों को भोगता रहता है । हिन्दू धर्म का पञ्चामृत भिषेक, भगवान् के चरणों पुष्प, फल आदि चढ़ाना आदि अनेक बातें जैनधर्म में आ गई हैं। हिन्दू धर्म में ग्रहो की शान्ति के लिए कुछ उपाय बतलाये गये है । इसी से प्रभावित होकर किसी जैन विद्वान् ने भी ग्रहो की शान्ति के लिए नवग्रह पूजा का विधान बतला दिया है। यहाँ प्रश्न यह है कि यदि ग्रहो की शान्ति करना है तो क्या देवशास्त्र गुरुपूजा, चोबीस तीर्थंकर पूजा, सिद्ध पूजा, शान्तिनाथ पूजा, पार्श्वनाथ पूजा, महावीर पूजा आदि पूजाओ के करने से ग्रहो की शान्ति नही होगी और नवग्रह पूजा करने से नवग्रह जन्य अरिष्ट की शान्ति हो जायगी। हमारी समझ से ऐसा सोचना गलत है । जैन धर्म के किस शास्त्र में ऐसा लिखा है कि नवग्रह फल देते है और उनकी पूजा करने से तज्जन्न अरिष्ट की शान्ति हो जाती है । अब हम नवग्रह की जो पूजा है उस पर विचार करते हैं । श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर दिल्ली से प्रकाशित 'नित्य पूजन पाठ प्रदोष' नामक पुस्तक मेरे सामने है । उस पुस्तक मे नवग्रह पूजा के लेखक का नाम नही दिया गया है। पूजन के किसी भी भाग मे लेखक का नाम नहीं मिला । सम्भव है कि पुस्तक मे लेखक का नाम भूल से छूट गया हो अथवा पुस्तक के सम्पादक को भी लेखक का नाम ज्ञात न हो। इसके लेखक की जानकारी न होने से यह जानना कठिन है कि नवग्रह पूजा की रचना किसने की और कब की । इतना तो अवश्य प्रतीत होता है कि इस पूजा के रचयिता संस्कृतज्ञ भी रहे हैं। इसी कारण उन्होंने नवग्रह पूजा की स्थापना का पद्य संस्कृत में लिखा है और सम्पूर्ण पूजा हिन्दी में लिखी है । नवग्रह पूजा के प्रारम्भ में जो संस्कृत पद्य है उसमें पूजा का प्रयोजन इस प्रकार बतलाया गया है ! भव्यविघ्नोपशान्त्यर्थं ग्रहाच वर्ण्यते मया ।' अर्थात् भव्य जीवों के विघ्नों की शान्ति के लिए मेरे द्वारा ग्रहों की पूजा का वर्णन किया जाता है । यहाँ 'ग्रहाची' शब्द ध्यान देने योग्य है । हिन्दी पद्य में भी लिखा है आदि अन्त जिनवर नमो धर्म प्रकाशन हार । भव्य विघ्न उनशान्ति को ग्रह पूजा चित धार ॥ काल दोष परभाव सों विकल्प छूटे नाहि । जिन पूजा में ग्रहन की पूजा मिथ्या नाहि ॥ इस ही जम्बू द्वीप मे रवि शशि मिथुन प्रमान । ग्रह नक्षत्र तारा सहित ज्योतिष चक्र प्रमान ॥ तिनही के अनुसार सो कर्मचक्र की चाल । सुख दुःख जाने जीव को जिनवच नेत्र विशाल || यहाँ कोई शंका करे कि नवग्रह पूजा मिध्यात्व तो नही है तो 'जिनपूजा में ग्रहन की पूजा मिथ्या नाहि' यह कह कर शंका का समाधान कर दिया गया है । तथा कर्मचक्र की चाल भी ग्रहों के अनुसार बतला दी गई है । यहाँ ध्यान देने योग्य विशेष बात यह है कि जिनपूजा के बहाने ग्रहो की पूजा की गई है । समुच्चय पूजा ' के बाद प्रत्येक ग्रह का अर्थ है । अ में पृथक्-पृथक् तीर्थंकर के पृथक्-पृथक् गृहजन्य अरिष्ट का निवारक चन्द्रप्रभु को चन्द्रग्रह जन्य अरिष्ट का निवारक और वासुपूज्य को मंगलग्रह जन्य अरिष्ट का निवा रक बतलाया गया है । विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, नमिनाथ और महावीर इन आठ तीर्थकरो को बुध ग्रह जन्य अरिष्ट का निवारक बतलाया गया है। इसी प्रकार ऋषभनाथ, अजितनाथ, सभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, सुपारसनाथ, शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ इन आठ तीर्थंङ्करों को गुरुग्रह जन्य अरिष्ट का निवारक बतलाया गया है । पुष्पदन्त को शुक्र ग्रह जन्य अरिष्ट का निवारक, मुनिसुव्रतनाथ को Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, बर्व ४३, कि०२ अनेकान्त शनिग्रह जन्य अरिष्ट का निवारक तथा नेमिनाथ को राहु निवारण में शेष दो दो तीर्थकर समर्थ हैं। (६४३=१८, ग्रह जन्य अरिष्ट का निवारक बतलाया गया है। मल्लि- ३४२६, १८+६=२४)। इस प्रकार नवग्रह जन्य नाथ और पार्श्वनाथ को केतु ग्रह जन्य अरिष्ट का निवा- अरिष्ट निवारण के सम्बन्ध में चौबीस तीर्थंकरों का विभारक बतलाया गया है। जन युक्तिसंगत हो जाता। यहाँ यह विचारणीय है कि कही एक तीर्थकर एक नवग्रह पूजा की जयमाला के एक पद्य में लिखा ग्रह के अरिष्ट का निवारण करने में समर्थ है तथा कहीं है-'पंच ज्योतिषी देव सब मिल पजें प्रभु पाय।' पता दो तीर्थकर एक ग्रह का अरिष्ट निवारण करते है और नही किस शास्त्र मे ऐसा लिखा है कि पांच प्रकार के कही आठ तीर्थकर मिल कर एक ग्रह का अरिष्ट निवा- ज्योतिषी देव मिल करके प्रभु के चरणों की सेवा करते रण करते हैं। बुध ग्रह जन्य अरिष्ट का निवारण करने है। नवग्रह पूजा के बाद नवग्रह शान्ति स्तोत्र दिया गया के लिए आठ तीर्थङ्करों की आवश्यकता होती है। इसी है। उसमे लिखा हैप्रकार गुरु ग्रह जन्य अरिष्ट का निवारण करने के लिए जिनेन्द्रा: खेवरा ज्ञेया: पूजनीया विधि क्रमात् । भी आठ तीर्थङ्करों की आवश्यकता पड़ती है। केतु ग्रह पुष्पैविलेपनै—पर्ने वैद्यै स्तुस्टि हेतवे ॥ जन्य अरिष्ट का निवारण दो तीर्थङ्कर कर देते है। शेष जन्म लग्न च गशि च यदि पीडयन्ति खेचराः । छह ग्रहो के अरिष्ट का निवारण एक एक तीर्थङ्कर द्वारा तदा सम्मूजयेद् धीमान् खेचरान् सह तान् जिनान् ।। हो गया है। सम्भवत: बुध और गुरु ग्रह जन्य अरिष्ट इसका तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार जिनेन्द्र भगबहुत भारी होता है। तभी तो आठ आठ तीर्थङ्कर मिल वान् पूजनीय हैं उसी प्रकार आकाश स्थित नवग्रह भी कर इनके अरिष्ट निवारण में समर्थ होते है। पूजनीय है। यह कैसे जान लिया गया कि पद्मप्रभ सूर्य ग्रह जन्य नवग्रह शान्ति स्तोत्र के बाद नव ग्रहों के जाप्य भी अरिष्ट के निवारक है। चन्द्रप्रभ चन्द्र ग्रह जन्य अरिष्ट दिये गये है। भिन्न-भिन्न ग्रहों की शान्ति के लिए जाप्यों के निवारक हैं। वासुपूज्य मंगल ग्रह जन्य अरिष्ट क की संख्या सात हजार से लेकर तेईस हजार बतलाई गई निवारक है । पुष्पदन्त शुक्र ग्रह जन्य अरिष्ट के निवारक है। सूर्य ग्रह को शान्ति सात हजार जाप्यो से हो जाती है। मुनि सुव्रतनाथ शनि ग्रह जन्य अरिष्ट के निवारक है तो शनि ग्रह को शान्ति तेईस हजार जाप्यों से होती हैं। नेमिनाथ राहु ग्रह जन्य अरिष्ट के निवारक है। है। ग्रहो के जाप्यो की संख्या में इस प्रकार का अन्तर मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ केतु ग्रह जन्य अरिष्ट के निवा- सम्भवतः ग्रहो के बलाबल की दृष्टि से किया गया होगा। रक हैं। जबकि विमलनाथ आदि आठ तीथंङ्कर बुध ग्रह जो ग्रह अधिक बलवान् है उसको शान्ति के लिए तेईस जन्य अरिष्ट का निवारण करते है और ऋषभनाथ आदि हजार जाप्यो का विधान किया गया है और कम वलवान आठ तीर्थङ्कर गुरु ग्रह जन्य अरिष्ट का निवारण करते है। ग्रह की शान्ति के लिए सात हजार जाप्यो का विधान है। नवग्रह पूजा के लेखक ने नवग्रह जन्य अरिष्ट के इस प्रकार नवग्रह पूजा के सम्बन्ध में विचार करने निवारण के लिए तीर्थङ्करों का जो विभाजन किया है के बाद इस लेख के उपसंहार में जैनागम के प्रकाण्ड उसका आधार क्या है। क्या किसी शास्त्र में ऐसा लिखा मनीषी आचार्य कुन्दकुन्द की वाणी के कुछ अशो को यहां है अथवा लेखक की यह कोरी कल्पना है। यदि कल्पना उद्धत करना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। उन्होंने समयके आधार से ही विभाजन करना था तो निम्न प्रकार से सार में लिखा हैविभाजन किया जा सकता था जो युक्तिसगत होता। जो भण्णदि हिंसामि य हिसिज्जामि य परेहि सत्तेहि। प्रथम छह ग्रह जन्य अरिष्ट के निवारण में क्रमशः तीन- सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दू विवरीदो ।। तीन तीर्थकर समर्थ है तथा शेष तीन ग्रह जन्य के अरिष्ट (शेष पृ०७ पर) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान सम्राट अशोक का संवत्सर ? श्री अभय प्रकाश जैन सम्राट अशोक अपने काल का सबसे शक्तिशाली राजा (ख) वहसपति मित्रस [वहस्पति मित्रस्य] था। सभी प्रमुख राजाओ ने अपने अपने संवत् चलाये (ग) क तुलेन गोपानिया [मातुलेन गोपालिका] लेकिन अशोक संवत् मैंने कही नही पढ़ा था। मेरे मन में (घ) वैहिदरी-पुत्रेन [वैहिंदरी पुत्रेण] उत्सुकता थी कि अशोक ने अपना संवत् अवश्य चलाया (ङ) आगाढ़ सेने न लेनं [आसाढ़ सेने न लपनं] होगा, लेकिन पुष्टि हेतु प्रमाण नही मिल पा रहे थे। (च) कारित [ ] दस [कारितं उदाकस्य दश ] अशोक से सम्बन्धित साहित्य मे काल गणना के कुछ (छ) मे सबछरेवपिक [?] अरहं [मे सवत्सरे प्रमाण मिले फिर सूत्र पकड़ते-पकडते "गुप्त सवत्सर" भी कश्शपीपान अह] "हिमवन्त थेरावली" मे मिल ही गया। उसमे लिखा है (ज) [तानं [• ताना] "निर्वाण से २३६ वर्ष बीतने पर' मगधाधिपति अशोक ने कलिंग पर चढ़ाई की वहां के राजा क्षेमराज को अपनी (द्वियीय) आज्ञा मनवा कर वहाँ पर अपना गुप्त सवत्सर चलाया।' (') अहिच्छत्राया राज्ञो शोनकापन पुत्रस्य बंगपालस्य ___ इस सन्दर्भ से कम से कम यह तो पता चला कि अहिच्छवाया राज्ञः शोनकापन पुत्रस्य बगपालस्य अशोक ने अपना कोई सवत्स र स्थापित किया था। इस (२) पुत्रस्य राज्ञो तेवणी पूत्रस्य भागवतस्य पुत्रेण पुत्रस्य संवत्सर के विषय मे "अस्ति नास्ति' के दो पक्ष विचा राज्ञः वर्णी पुत्रस्य भागतस्य पुत्रेण रार्थ सामने आते है पहला पक्ष-अशोक ने २६० ई.पू० (पुराण मतानुसार) कलिंग पर क्रूर आक्रमण किया था। (३) वहिदरी पुत्रेण आसाढ़ सेनेन कारितं [1] उसी वर्ष अशोक की कनिष्ठा महिषी तिष्य रक्षिता ने वैहिदरी पुढेष आसाढ़ सेनेन कारिते [लपनम् ॥ कुमार "तिष्य गुप्त" को जन्म दिया प्रतीत होता है। समूचे अभिलेख पाठ से ज्ञात होता है कि [क] वहइसी अवसर पर "गुप्त सवत्सर" की सम्भावना मन को स्पति मित्र के मामा [ख] आसाढ सेन ने [ग' दसवें सव शनिवार ह लेती है। दसरा पक्ष - अद्यावधि कोई ऐसा सवत् त्सर में 'लपन' गफा का निर्माण कराया अब प्रश्न उठता शृंखला नही मिली, जिसे “गुप्त संवत्", "कुणाल संवत्" है वृहस्पति मित्र कौन है। प्रायः शोध विद्वानों का अनुया "अशोक संवत" नाम दिया जा सके। अतः प्रस्तुत मान है कि हाथी गम्फा अभिलेख मे चचित वहस्पति मित्र विचारसारिणी को छोड़कर आगे बढ़ते है। यहां वांछनीय है। परन्तु वह वृहस्पति मित्र भी तो अद्यानिरन्तर अध्ययन मनन के पश्चात् भी मुझे यह वधि परिचय निरपेक्ष ही रह गया है। इतिहास मनीषी विश्वास नहीं होता था कि अशोक ने कोई संवत्सर नही डॉ. कागीप्रसाद जायसवाल ने पुष्प नक्षत्र के अधिपति चलाया होगा अथवा उसके अनुयायी उसके नाम से 'काल वृहस्पति को सूत्र मानकर वृहस्पति मित्र को शुंगवंशी गणना' स्थापित नहीं कर पाये। इस बीच मेरी दृष्टि पुष्पमित्र से अभिन्न ठहराया है। इधर डॉ० म० म० 'पपोसा गुहा' अभिलेख पर पड़ी। मीराशी ने शुंगवंशी पुष्पमित्र के प्रपौत्र ओद्राक के सामन्त उसका पाठ है-- वहस्पति मित्र को खोज निकाला है और उसे "मित्र(क) राशो गोपाली पुत्रस [राज्ञः गोपाली पुत्रस्य] कुलोत्पन्न' ठहराते हुए मित्रान्त नामा कुछ एक व्यक्तियों Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ४२, कि०२ अनेकान्त की ओर संकेत भी दिया है।' अर्थात् वृहस्पति मित्र के अशोक पौत्र अर्थात कुणाल पुत्र 'सम्प्रति' दादा की अक्षत अस्तित्व के लिए पूरा का पूरा ढांचा परिकल्पित किया आयुष्य में उज्जयिनीश्वर हो गया था सम्प्रति दीर्घायु न है। मेरे विचार से ये सब अटकलबाजियां हैं निराधार था। वीर निर्वाण संवत् ३०० में वह दिवंगत हुआ। अनुमान हैं। निर्वाण संवत् [ई० पू० ५२७] ३०० % २२७ ई. पू. में शंगवंशी पूष्पमित्र "वहस्पति मित्र" का नामांतरण उनका निधन जैन शास्त्र सम्मत है। उसके बाद उसका है ऐसे उदाहरण अन्यत्र उपलब्ध नहीं है जिनके अनुसरण पुत्र "वृहस्पति" उज्जयिनीश्वर' बन सका। उसने केवल पर या उड़ान सहीमानी जा सके। अतः यह मानना १३ वर्ष शासन किया, अर्थात् २२७-१३-२१४ ई. अमान्य है। हमें केवल वृहस्पति मित्र चाहिए, गुरु मित्र पू० तक उसने शासन किया। या पुष्पमित्र कदापि नहीं। (१) २१४ ई० पूर्व से वहस्पति तथा २०६ ई० पूर्व ___ शुंगवंशीय ओद्रक के सामंत मित्रान्त नामक व्यक्ति से आषाढ़सेन में वर्तमान काल सगति के आधार पर दोनों भी यहां अभिप्रेत नही हैं। वहस्पति के गरिमावर्धक __ करीब-करीब हो जाते है। 'मातुल पद' की सूचना भी तब तक अर्थहीन है जब तक (२) वृहस्पति' और 'आषाढसेन' के बीच मातुलउसका भागनेय निश्चित रूपेण प्रतिष्ठित न हो जाय। भागनेय का सम्बन्ध अब प्रबल तर्कानुप्राणित और गरिमा यहां खटक पैदा करने वाली बात यह है कि शुंगवंश सूचक है एव मान्य ह ब्राह्मण वंश है. उनके सामंत भी जहां रिश्तेदारियां स्था- (३) जैन धर्म इन्हें और अधिक निकटता प्रदान पित की जा सकें ब्राह्मण ही सभाव्य है। ब्राह्मण वंश करता है । पपोसा गुहा लेख से "अशोक संवत्" को सुदङ [राजा या सामंत वैदिक धर्म को छोड़कर किसी पौरुषेय विचार भूमि तो अवश्य मिल गई परन्तु विस्तृत प्रयोग धर्म [जैसे बौद्ध, जैन आदि] को आसानी से अगीकार क्षेत्र के अभाव में उसे "सवत्सर श्रृंखला" में पिरोया नही करेगा। यही सोचकर इस स्थापना में सारवत्ता न नही जा सकता। अब उसका प्रयोग क्षेत्र ढूंढ़ते हैं। वह होने से, इसे स्वीकार करना अति जटिल हो गया है। इस प्रकार हैमेरा अपना मत कुछ और है शिरिक और शिवदिन्ना का लेख मूल पाठ की छठी पंक्ति मे अक्षरो के घिस पिट जाने अभिलेख स० । स्थान | भाषा | स्थिति से अपठित स्थान [- ] रिक्त छोड़कर 'उदाकस्य' ८८ मथुरा । सस्कृत | भग्न शब्द से उसको पूर्ति की गई है। यदि पूर्ति करना ही इम अभिलेख मे संवत् २६६ का उल्लेख है यह संदर्भ अभिप्रेत है तो उदाकस्य के विकल्प में "अशोकस्य" पद वीर निर्वाण संवत् का नही है। "महाराजस्य राजातिद्वारा रिक्त स्थान भरा जा सकता है। राजस्य" के वैशिष्ट्य से किसी उच्चतर महाराजा का यदि ऐसा संभाव्य है तो पाठ होगा "लपन कारितं संकेत मिलता है। यह विक्रम संवत् भी नही है। प्रायः अशोकस्य दशमे संवत्सरे ।" पुराण मतानुसार अशोक श्री विद्वान सवत् या संवत्सर पढ़ कर विक्रम संवत् के बारे में का निधन' सप्तर्षि संवत् १२२६%२१६ ई०पू० के सोचने लगते है उत्तरोत्तर हो रहे अनुसंधान से ये धारसाल में हो गया। चूंकि जैन मत मरणोपरान्त' काल णाएं निर्मूल हो गई हैं। हमारा ध्यान "राजातिराज" गणना में विश्वास करता है अत: यहा "अशोक संवत' पढ़कर सम्राट अशोक की तरफ जाता है। स्वयमेव प्रासंगिक हो जाता है । "अशोकस्य दशमे संवत्- जैन अनुवाद-पब सिद्धों और अर्हन्तों को नमस्कार सरे" का फलितार्थ होगा ई०पू० २१६-१०-२०६ मे हो। महाराज और राजाति राज के सवत्सर २००+६+ आषाढ़ सेन ने अभिलेख तैयार कराया । ६६२६६ के शीत ऋतु को दूसरे महीने के पहिले दिन अब वहस्पति मित्र की खोज भी सुगम हो गई है। भगवान महावीर की प्रतिमा अहंत मन्दिर मे (इत्यादि) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान सम्राट अशोक का संवत्सर? जैन शिलालेख संग्रह-विजयमूर्ति पृ० ५४ एम.ए. इतिहास मनीषियों, अनुसंधान करने वालों के सामने मेरा अपना सुदढ़ अनुमान है कि यह संवत् अशोक एक अवसर है कि वे जैन साहित्य का अभीष्ट मथन करके संवत् २६९ संभाव्य है जिसका ईस्वी साल २६६-२१९ अशोक सवत पर एक निश्चित सर्वमान्य शोध करें और अमृततत्त्व को सामने लायें। एन-१४ चेतकपुरी, ग्वालियर-४७४.०६ संदर्भ-सूची १. ५२७-२३६२८८ ई० पू० वा वर्ष अशुद्ध है। (ख) जैन शिलालेख संग्रह-II भाग श्री विजयमूर्ति महावंश के अनुसार अशोक ने २७६ ई० पू० मे राज्य पृ० १२/१३ । हस्तगत किया और उसका अभिषेक २६८ ई०प० ४. सात वाहन वश और पश्चिमी क्षत्रियों का इतिहास में हुआ। पु० ४७ । ५. षड्विंशत्तुमभा राजा अशोको भवित्ता नष-वायु २. अशोक के गुप्त संवत् चलाने की बात ठीक नहीं पृ० १६/३३२ । जंचती। इसी उल्लेख से इसकी अति प्राचीनता के ६. 'वीर निर्वाण संवत्' मौर्यकालोच्छिन्ने ‘मृते विक्रमसम्बन्ध में शंका उत्पन्न होती है। राजनि।' मनि श्री कल्याण विजय 'वीर निर्वाण संवत्' और ७. दिव्यावदान पृ. ४३३ । काल गणना पृ० १७१ ८. भारतवर्ष का वृहद् इतिहास-भगदत्त द्वितीय भाग ३. (क) भारतीय अभिलेख- डॉ० सूबेसिंह राणा पृ. ६४ पृ. २७३ । (पृ. ४ का शेषांष) जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहि सत्तेहिं । वाणी का तात्पर्य यही है कि सभी जीव अपने-अपने कर्म सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥ के उदय से सूखी और दुःखी होते हैं तथा किसी भी प्रकार जो जीव ऐसा मानता है कि मैं दूसरे जीवो को से अन्य जीव दूसरे जीवों को सुख और दु.ख नही दे मारता हैं और दूसरे जीवों के द्वारा मैं मारा जाता है सकता है। ऐसा जैन दर्शन का विशिष्ट सिद्धान्त है। ऐसा मानने वाला जीव मूर्ख तथा अज्ञानी है। किन्तु जब जैन दर्शन की ऐसी मान्यता तब आकाश में ज्ञानी जीव की धारणा इसके विपरीत है । वह मानता है स्थित नवग्रह भूमण्डल पर स्थित जीवों का इष्ट और कि न तो मैं किसी का घात कर सकता है और न अन्य अनिष्ट किस प्रकार करते है तथा ग्रहों की शान्ति क्या कोई जीव मेरा घात कर सकता है। इसी प्रकार जो नवग्रह पूजा के करने से हो जाती है, यह समझ में नही जीव ऐसा मामता है कि मैं दूसरे जीवो को जीवित करता आ रहा है। इस विषय में अन्य विद्वानो से निवेदन है हूं तथा दूसरे जीवो के द्वारा मैं जीवित किया जाता हूँ कि वे इस लेख के सन्दर्भ मे अपने विचार प्रकट करने ऐसा मानने वाला जीव मुर्ख तथा अज्ञानी है। किन्तु का कष्ट करें। जिससे यदि मैंने कुछ गलत लिखा है तो ज्ञानी जीव की श्रद्धा इसके विपरीत है। वह मानता है मैं अपनी गलती का सुधार कर सकू। मेरी तो यही कि न तो मैं किसी जीव को जीवित कर सकता है और न भावना हैअन्य कोई जीव मुझे जीवित कर सकता है। इस कुन्दकुन्द जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रसरतू सततं सर्व सौख्य प्रदायि । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभाशुभ और शुद्ध भाव भक्ति या संयम तप इनमें जितनी शुभोपयोग प्रवृत्ति होती है उसमे प्रशस्त रागरूप जो अंश होता है वह सवर निर्जरा का कारण नही बन सकता। जो रागाश होता है। प्रशस्तराग शुभोपयोग अश की प्रधानता रहती है इसलिए तारतम्येन शब्द प्रयोग बाहुल्य सूचित करता है । बिना वीतरागता रूप शुद्धोपयोग के संवर निर्जरा का प्रारम्भ सम्भव नहीं हैं। भक्ति में जितनी वीतरागता वह संवर निर्जरा का कारण है और जितनी सरागता वह आश्रवबंध का कारण है । वह आस्रव-बंध का कारण माना गया है। जीवों के जो निर्जरा प्रति समय होती रहती है वह निर्जरा मोक्षमार्ग के सप्ततत्वों में जो निर्जरा तत्व माना गया है उस रूप नहीं है। हर समय जो कर्म जीवो के निर्जरित होते हैं उसको उदय कहा है जो नवीन कर्माश्रव के निमित्त होते हैं। संवर पूर्वक निर्जरा जो आश्रव-बध निरोध सहित होती है उसी को मोक्षमार्ग मे निर्जरा तत्व कहा है। भक्ति (शुभराग) में उसके साथ जितना सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र (शुद्धिरूह वीतरागांश) है वह सवर निर्जरा का कारण होता है। वह रत्नत्रय वीतरागता रूप आत्मा का शुद्ध परिणाम है वह शुद्धोपयोग है वही सवर निर्जरा का कारण है अन्य नहीं । उस भक्ति में जो प्रशस्त रागरूप शुभयोग परिणाम है वह तो नियम से आश्रवबंध का ही कारण है । यदि केवल भक्ति या व्रत नियम निर्जरा का कारण माना जावे तो मिध्यादृष्टि (द्रव्यलिंगी अभव्य ) की भक्ति व्रत संयम भी निर्जरा का कारण मानना पड़ेगा । अनेकान्तात्मक वस्तु गोलरूप नही है । गोल वस्तु का कही से भी आदि अन्त बनाया जा सकता है परन्तु वस्तु का आदि अन्त नही है विवक्षित पर्याय से आदि अन्त रूप है । परन्तु पर्याय परम्परा से श्रनादि अनंत है। पर्याय परम्परा का आदि अन्त नहीं है, गोल नही है । विस्तार रूप काल रूप उता अनादि अनंत है । 1 श्री नरेन्द्र कुमार शास्त्री, भोसीकर, शोलापुर वन का दृष्टान्त दिया है। अर्थात् वीतरागता शुद्धोपयोगरत्नत्रयरूप अश कम और दान पूजा भक्ति व्रतशीलरूप बिना सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र के संवर निर्जरा का प्रारम्भ नही होता । गुणस्थान ४ से १० तक मिश्रपरि णाम होते हैं ( राग वीतरागता रूप) यद्यपि गुणस्थान ४ से ६ तक तारतम्येन शुभोपयोग कहा है उसके लिए निब भक्ति मे जो निदान रहित निष्कांक्षित भावरूप वीतरागता है वह शुभोपयोग रूप न होकर शुद्ध उपयोगमय है-आत्मा का शुद्ध परिणाम है। सम्यग्दर्शन परिणाम को शुद्धोपयोग रूप आत्म परिणाम कहा है ( उवओग सुद्धप्पा ) उसमे जो वीतरागता है वह सम्यक् चारित्र है । व्रत संयम रूप चारित्र के अभाव मे असवदी सम्यग्दृष्टि को भी मोक्षमार्ग रूप वह सम्यक् चारित्र रहता है । "भक्ति" यह मदराग रूप शुभोपयोग मय विशुद्धिपरिणाम हैं । उसमे जो मद राग है वह नियम से आश्रववध का ही कारण है और जो शुद्धिरूप वीतरागता है वह नियमतः संवर निर्जरा का कारण है। यदि ऐसा न माना जावे तो आगे ७ से १० वे गुणस्थान तक शुद्धोपयोग कहा है वहां जो आश्रवबंध होता है वह शुद्धोपयोग के कारण मानने का प्रसंग आयेगा इसलिए शुभोपयोग में संवर निर्जरा मानना तथा शुद्धोपयोग से आश्रवबंध मानना ये दोनो तत्वदृष्टि से असंगत है । गुणस्थान ११-१२ मे वीतरागता है शुद्धोपयोग है परन्तु वहां अल्पज्ञता भावयोग द्रव्ययोग ईर्यापथ आश्रव का कारण है । गुणस्थान १३ में पूर्ण वीतरागता है सर्वज्ञता है तथापि भावयोग न होते हुए भी द्रव्यकाययोग ईर्यापय श्राश्रव का कारण है । ( मन वचन काय की प्रवृत्ति) योग शुभ अशुभ - अशुद्ध Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभाशुभ और बुद्ध भाव ही होते हैं कभी शुद्ध नही । शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य = वे पुण्य पाप ही के कारण है कदापि संवर निर्जरा के कारण नहीं हैं । उपयोग ३ प्रकार के हैं- १. प्रशस्त राग (शुभ), २. अप्रशस्त राग (अशुभ), ३. वीतरागता रूप (शुद्ध) । * रागांश आधवबंध का ही कारण है को वध मार्ग संसार मार्ग है। ॐ वीतरागांश ( रत्नत्रय परिणाम) संबर निर्जरा का कारण है जो मोक्षमार्ग है । आगम में सम्यग्दृष्टि के भोग भी निर्जरा के कारण कहे हैं परन्तु वह उपचार नय कथन है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि की भक्ति भी उपचार से ही निर्जरा का कारण है - मिध्यात्व नहीं है । परन्तु नयनिक्षेप का विवेक जागृत । न रखते हुए उस भक्ति को परमार्थ से निर्जरा का कारण माना जावे तो वह आगम का श्रुत का अवर्णवाद है । भक्ति में जितना निष्कांक्षित अंश है वह वीतराग रूप रत्नत्रय का अंश है उसको संवर निर्जरा का कारण मानना सुसंगत है और भक्ति में जो मन वचन काय प्रवृतिरूप । प्रशरत राग - कर्मचेतना अंश है वह नियम से आश्रवबंध का कारण है । कर्म चेतना के साथ जितना ज्ञान चेतना रूप वीतराग अंश है वह सवर निर्जरा का कारण है । एक ही उपयोग परिणाम रूप रागवीतराग रूप मिश्रपरिणाम होता है। राग पर वीतरागता का आरोपित नय निक्षेप दृष्टि से उपचार कर संवर निर्जरा का कारण कहना उपचार नय है । उसी प्रकार मंद राग का वीतराग स्वरूप रत्नत्रय पर आरोपित नय दृष्टि से उपचार कर "सम्यस्त्वं च "सध्यत्व को देवायु का कारण कहना उपचार नय है। आगम मे प्रयोजन वश उपचार नय से कथन अनेक जगह पर किया है परन्तु उस उपचार कथन को परमार्थ समझना यह आगम का अर्थ विपर्यास है। योग - कर्मधारा (अशुद्धोपयोग ) बंध मार्ग है। शुद्ध उप योग - ज्ञानधारा मोक्षमार्ग है । गुणस्थान ४ से अशुद्ध और शुद्ध उपयोग कर्मधारा-ज्ञानधारा इनका मिश्रभाव रहता है शुभ योग सहित प्रशस्त राग रूप उपयोग ( चेतना, परिणाम ) शुभोपयोग है। अशुभ योग सहित अप्रशस्त रागरूप उपयोग अशुभोपयोग है। ये दोनों अशुद्ध = है कर्मधारा रूप है । इनके सिवा विराग भाव सहित उपयोग है वह शुद्धोपयोग है वही ज्ञानधारा रूप है । उसी से संबर निर्जरा मोक्ष है। मिथ्यादृष्टि को शुभ - अशुभ योग नय मिश्रधारा रूप उपयोग रहना है वह नियम से आधवबंध का कारण है। "स आश्रवः ।" कारण का कार्य में उपचार कर योग को ही अधव कहा है। सम्यग्दृष्टि को भी गुणस्थान ४ से १० तक योग से सोपराधिक भय रहता है किन्तु इसके साथ वीतराग रूप ज्ञानद्वारा मय मिश्रभाव भी रहता है। जिसके कारण एक ही उपयोग में रागांग ( आधवबंध) और वीतरागांश ( संवर निर्जरा) दोनों का सम्मिश्रण रहता है। मिथ्यादृष्टि का मिश्रभाव सिर्फ अशुद्धरूप ही होता है जबकि सम्यग्दृष्टि का मिश्रभाव शुद्धाशुद्ध रूप होता है । मिथ्या दृष्टि को बंधा हुआ कर्म प्रति समय जो निर्जरित होता है उसको उदय कहते हैं- सविपाक निर्जेश कहते हैं वह मोक्षमार्ग के प्रयोजन भूत सप्ततत्वों वाली संगर- निर्जरा नहीं है। भक्ति पूजा तो योग प्रवृत्ति रूप है अतः उसका फल लौकिक आश्रवबंध ही है । उसको जो परम्परा से मुक्ति का कारण कहा है उसका हेतु उसके साथ रही शुद्धोपयोग भावना है जो रत्नत्रय रूप ज्ञान चेतना है वही परम्परा मुक्ति का कारण है जितनी योग प्रवृत्ति है वह आश्रवबंध । का कारण है कदापि संवर निर्जरा का और परम्परा मुक्ति का कारण नहीं है । उपचार नय से कहना अलग बात है। परमार्थ से मुक्ति का कारण नहीं है। अष्टद्रव्य पूजा के मंत्रो में भावना तो मोक्ष फल की रहती है वह निषिद्ध नहीं है यह वीतरागता रूप है। पूजा क्रियाकर्मधारा योगप्रवृत्ति रूप है उसका फल नियमतः लौकिक सद्गति स्वर्गादि है। लौकिक फल की बाधा से पूजा करना निदान मिध्यात्व है। भक्ति मे जो अशुभ की निवृत्ति होती है वह भक्ति के कारण नहीं, किन्तु रत्नत्रय रूप वीतरागता के कारण होती है। प्रवृत्ति (राग) बाधव-बंध का कारण है। निवृत्ति ( वीतरागता ) संवर निर्जरा का कारण है। ( भी रतनलाल कटारिया के सौजन्य से ) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशठि शलाका पुरुष-राम, लक्ष्मण, रावण कु. विमा जैन (द्वारा डॉ० कस्तूरचन्द जैन) भगवान महावीर के समय से लेकर बीसवी शताब्दी प्रतिवासुदेव ये किसी राजा की विभिन्न रानियों के पूत्र के अन्त तक २४०० वर्षों के दीर्घकाल में जैन मनीषियों ने होते हैं। इनकी जीवनियाँ जैन धर्म में रामायण, महाभारत न-साहित्य में विपूल वाङ्मय का निर्माण किया है। तथा पुराणों का स्थान लेती है। इस अवपिणी अवधि में उत्पन्न हुए तिरसठ श्लाका- रामचन्द्रजी का जीवन आलौकिक घटनाओं से भरा पुरुषों में तीर्थंकरों के समान ही राम का नाम अति हुआ है । वे एक मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में पूजे जाते हैं। विख्यात है। बल्कि यह कहने में भी अत्युक्ति न होगी कि पिता-राजा दशरथ के वे परम आज्ञाकारी थे। माता भारतवर्ष में उत्पन्न हुए महापुरुषों में राम का नाम ही कैकयी के कहने से कि भरत को राज्य और राम को सबसे अधिक लोगों के द्वारा आहुत होता है। प्राचीन वनवास की आज्ञा मिली। वे सहर्ष वन को जाने के लिए समय से लेकर अब तक राम का नाम इतना अधिक तत्पर हो जाते हैं। उन्हें पता था कि मेरे रहते हुए भरत प्रसिद्ध क्यों हुआ? लोग बात-बात में राम की दुहाई क्यों का राज्य कभी भी वृद्धिगत नही हो सकेगा इसलिए देते हैं, और अत्यन्त श्रद्धा एवं भक्ति के साथ राम-राज्य उन्होने बनवास करना ही श्रेयस्कर समझा था। वनवासके का स्मरण क्यों किया जाता है ? इन प्रश्नों के उत्तर पर समय उन्होंने कितने ही संकटग्रस्त राजाओं का संरक्षण जब हम गहराई के साथ विचार करते हैं तो ज्ञात होता है किया। कि राम के जीवन में ऐसी अनेक घटनाएं घटी हैं जिससे लंकाधिपति रावण ने दण्डकवन से सीता का अपहरण उनका नाम प्रत्येक भारतीय की रग-रग में समा गया है, किया था उसे वापस करने के लिए रामचन्द्रजी ने रावण और यही कारण है कि वे इतने अधिक लोकप्रिय महा से धर्मयुद्ध किया था। इस धर्मयुद्ध में रावण के अनुज पुरुष सिड हुए हैं। विभीषण, वानरवंश के प्रमुख सुग्रीव तथा हनुमान और राम का महत्व प्रथमतः हमें वाल्मीकि रामायण में विराधित आदि विद्याधरों ने पूर्ण सहयोग किया था। मिलता है जिसमें राम को अवतारी पुरुष माना गया है। भूमिगोचरी राम-लक्ष्मण द्वारा गगनगामी विद्याधरों के महाभारत में उनका अवतारी स्वरूप है। राम आदि से साथ युद्ध पर विजय प्राप्त करना, यह उनके अलौकिक अन्त तक मनुष्य ही हैं । बौद्ध महात्मा बुद्ध राम का पुनर- आत्मबल का परिचायक है। रावण मरण होने पर रामअवतार मानते हैं। इसी प्रकार जैनियों में राम कथा के चन्द्र जी उसके परिवार से आत्मीयपन व्यवहार करते हैं। पात्रों को अपने धर्म में एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। उन्होंने उद्घोष किया था कि मुझे अन्याय का प्रतिकार राम (परम), सक्ष्मण और रावण न केवल जैन धर्माव- करने के लिए ही रावण से युद्ध करना पड़ा। लम्बी माने जाते हैं, लेकिन तीनों ही जैनियों के शिशिष्ट लोकापवाद के कारण सीता का परित्याग करने से वे पनाकापुरुषों में माने गये हैं। अधिक चर्चा में आये । आज हजारों वर्षों के बाद भी लोग इन विशिष्ट महापुरुषों का वर्णन इस प्रकार है:- राम राज्य की याद करते हैं। जब लोकापवाद की चर्चा २४ तीर्थकर (जैन धर्मोपदेशक) १२ चक्रवर्ती (भरत राम के सामने आयी तो वे विचार करते हैं कि-एक के छ खण्डों के सम्राट) तमा बलदेव वासुदेव और भोर लोकापवाद सामने खड़ा है, एक ओर निर्दोष प्राण Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशष्टि इलाकापुरुष-राम, लक्ष्मण, रावण प्रिया का दुसह वियोग? कितनी विकट स्थिति है ? राम कषायों को जैन धर्म ही नहीं सभी धर्मानुयायी मानते हैं। अत्यन्त असमंजस्य में पड़ जाते हैं, कुछ समय के लिए इसमें लक्ष्मण को राम के प्रति अगाध स्नेह, क्रोध एवं किंकर्तव्यविमूह हो जाते हैं और कहते हैं कि यदि में सीता अहंकार तीनों गुण विद्यमान हैं। इन गुणों के कारण ही का परित्याग नहीं करता हूं तो इस मही पर मेरे समान लक्ष्मण नरक गामी कहे जा सकते हैं। इस बात को और कोई कृपण न होगा। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने "राम चरित मानस" में "अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम्"-तत्वार्थ० अ०७ पुष्ट किया हैसूत्र ३८ अर्थात् जो पर अनुग्रह के लिए अपनी वस्तु का "काम, क्रोध, लोभ पर विजय प्राप्त करने के लिए त्याग किया जाता है उसे दान कहते हैं। लोगों में फैले अर्थात् अपनी नैतिकता बनाये रखने के लिए संयम की हुए अपवाद को दूर करने के लिए अपनी प्राणों से भी नितान्त आवश्यकता है।" प्रिय वस्तु सीता का यदि मैं परित्याग नहीं कर सकता तो भगवतगीता के अनुसार काम, क्रोध, लोभ नरक के मुझसे बड़ा और कौन कृपण होगा। द्वार हैं__इस स्थिति में सीता का परित्याग राम के लिए सच- "त्रिविधि नरकस्य द्वारं नाशनमात्मनः । मुच महान त्याग का आदर्श उपस्थित करता है। यह एक कामः क्रोधस्तथा लोभस्तास्मादेतत् त्रयं त्यजेत।" ऐसी घटना है जिससे राम सच्चे राम बने और कल्पान्त में स्थायी उनका यश आज भी दिग्दिगन्त व्यापी है। यदि तुलसी गीता की यह शिक्षा दुहराते नहीं थकतेउनके जीवन में यह घटना न घटती तो लोग राम राज्य काम, क्रोध, मद, मोह सब, नाथ नरक के पन्य । को इस प्रकार याद न करते ।। सब परिहरि रघुबीरहि, भजह भजहि जेहि सन्त ॥ लक्ष्मण की महत्ता का कारण राम का साहचर्य है।ॉ० बुल्के कहते हैं कि लक्ष्मण नरक में इस कारण वे उनके प्रेम के पीछे अपना समस्त सुख न्योछावर करते गये कि उन्होंने हिंसा की । हिंसा और अहिंसा के सम्बन्ध हए पाते हैं। राम को वनवास के लिए उद्यत देख लक्ष्मण प्रश्न उठता है कि क्या राम ने हिंसा नहीं की, राम ने भी उनके पीछे हो लेते है। यद्यपि पहले पिता के प्रति उन्हें हिंसा की जब म्लेच्छों से युद्ध किया तथा रावण के साथ कुछ रोष उत्पन्न होता है, पर बाद मे यह सोचकर सन्तोष युद्ध में भी हिंसा हुई, यह बात स्पष्ट नहीं होती कि लक्ष्मण कर लेते हैं कि न्याय-अन्याय बड़े भाई समझते है। मेरा हिंसा के कारण नरक गये। वह तो क्रोध, मान, मोह के कर्तव्य तो इनके साथ जाना है। वनवास में लक्ष्मण, राम कारण गये हैं। तथा सीता को सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखते हैं । राम यदि उपन्यास के विरुद्ध क्षण मात्र हिंसा होने से सभी के अनन्य आज्ञाकारी है। लंका मे युद्ध के समय जब इन्हें का कल्याण हो सकता है तो वह हिसा नहीं कहलायेगी। शक्ति लगती है तब राम बड़े दुःखी हो जाते है, करुण- रामचन्द्रजी ने क्षण मात्र में शक्ति का प्रयोग कर अन्याय विलाप करते हैं, पर विशल्या के स्पर्श से उनको व्यथा का उन्मूलन किया तथा सत्य, नीति, न्याय की विजय दूर हो जाती है। दिलाती। जैन राम कथाओं के अन्तर्गत लक्ष्मण के विषय में राम भक्ति में पल्लवित होने के पश्चात् रावण के एक बडी ही विसंगति है। ग्रन्थकार कहते हैं कि लक्ष्मण चरित्र, चित्रण में अन्तर पा गया है और यह कहा गया है नरक में गए परन्तु इस धारणा को कहीं भी पुष्ट नहीं किया कि रावण ने मोक्ष प्राप्त करने के उद्देश्य से सीता का हरण गया कि वे क्यों नरक में गये ? हमारे विचार में यह तर्क किया था। जैन रामकथाकारों ने रावण का चरित्र पर निकलता है कि जिसमें क्रोष, मान, माया, मोह, लोभ ये उठाने का प्रयास किया है। रावण में केवल एक दुर्वलता पाँच अवगुण होते हैं वह नरक का गामी है। इन पांच (शेष पृ० १४ पर) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भले-बिसरे जैन भक्त कवि 0 डॉ० गंगाराम गर्ग पिछले कई वर्षों से शोध कों एवं माहित्य-रसिको के राग सारग 'तिताल' में लिखित एक अन्य पद में प्रयत्न से हिन्दी का अप्रकाशित जैन साहित्य चचिन हुआ हितकर' का आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण भाव भी है; फिर भी कई काव्य-कृतिया अभी तक प्रकाश को दृष्टिगत होता हैकिरणें नहीं देख पाई हैं। हितकर', 'सेढ़', 'गंगा' और अरज करां छां जिनराज । 'मरकत' रीतिकालीन जैन भक्तिकाव्य-परम्परा के ऐसे ही तारण तिरण सुन्यौ मोहि तार्यो, थान म्हां की लाज । अज्ञात कवि हैं मव भव भक्ति मिलो प्रभु थांकी, याही बंध्या माज । 'हितकर' (हेतराम): निज प्रातम ध्याउं शिव पाउ, हितकरि करिस्यां काजजी॥ दिगम्बर जैन मन्दिर (बड़ा) दीग के एक गुटके मे वीतरागी नेमिनाथ का सामीप्य-लाभ पाने की राजुल रागमाला के क्रम से अन्य कवियो के साथ भेरू, विलास, की व्यग्रता का अनुभब सभी जैन भक्तों ने किया है। आसावरी, सारंग, धनाश्री, कल्याण, ईभन आदि राग उस में संत कवियो की विरह भावना जैसी मर्म स्पशिता रागनियों में हितकर' छाप से कई पद मिलते है। इसी विद्यमान है। 'हितकर' का यह पद कितना वेदनापूर्ण हैगुटके के अन्त में चौबीस म्हाराजन को बधाई 'हेतराम' तन को तपति जहि मिटि है मेरी, के नाम से पृष्ठ ९८ से १०३ तक अकित है। शायद हेत नेम पिया कंवृष्टि मर देखूगी। राम का ही अपर नाम हितकर' हो। 'चौबीस म्हाराजन जब बरसन पाऊंगी उनको, जनम सुफल करि लेखंगी। की बधाई' मे तीथंकरो के जन्मोत्सव, जन्म स्नान, वाद्य अष्ट जाम ध्यान उनको रहत है, ना जाने कब भेटूंगी। व नृत्य का वर्णन है। इसके एक दो पदो मे हितकर' 'हितकरि' जो कोई प्रानि मिलावै, जिनके पाय सीस टेकेगी। की छाप भी प्राप्त होती है प्राप्त पदो मे से अधिकाश पदों का आकार छोटा होने एरी प्रानन्द है घर घर है द्वार। के कारण उनमे भाव-गाम्भीर्य अधिक है। पावस ऋतु का समुद्विज राजा घरां री, हेली पुत्र भयो सुकमार ।। एक मनोहर चित्र है चहुं ओर बदरिया बरसें प्ररी ए हेली री, जा के जनम उछाह को री, प्रायो इन्द्र सहित परिवार । मापक जन कौं मोद सौ हेली, दीनो द्रव्य अपार । घरड़ धरड़ घन घर। नामकरन सब नै रह्यो री, हेली हितकारी मुषकार ।। नेम प्रभू गिरनारि विराज, देखन . जिय तरस । घुमड़ घुमड़ घनश्याम श्वेत रंग, बिजुरी चमकत दरस । ढूंढारी भाषा का पर्याप्त पुट 'हेतराम' या 'हितकर' राजुन कहें 'हितकर' जिन देखू जबही मम मन सरस । के जयपुर क्षेत्र से सम्बद्ध होने को प्रमाणित करता है। अपने आराध्य से जन्म-मरण का सकट मिटवाने को यह सेहूं: प्रार्थना बड़ी बैन्यपूर्ण है भरतपूर के पंचायती दिगम्बर जैन मन्दिर में सेढं म्हे तो पाका सू, या ही भरज करां छां हो जिनराज । द्वारा लिपीकृत दो काव्य नवलशाह का दो वर्षमान पुराण जामन मरन महा दुख संकट, मेट गरीब नेवाज । और रामचद का 'चतुर्विशति जिन पूजा' उपलब्ध है। • म्हे थांका ते म्हांका साहब, थांम्हांकी लाज। दोनो ग्रन्थों का लिपिकाल सवत् १८७७ एव संवत् १८८८ मा विधि सौभव उदधि पार हौं, 'हितकरि'करिस्यो काज। है। सुवाच्य अक्षरों में दोनो प्रन्या के लिखे होने के कारण Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूले-बिसरे जैन मरत कवि सेढ़ का लिपि-कौशल प्रशंसनीय है। सेढ़ ने एक कवित्त गंगा: में जहां दीग के दो परोपकारी सेठ अभेराम व चेयन की गंगादास द्वारा लिपिकृत आदित्यवार कथा दिगम्बर प्रशंसा की है वहां दूसरे कवित्त में कामां के तेरापथी जैन जैन मन्दिर करौली में उपलब्ध है। शायद इन्होंने 'गंगा' मन्दिर की ख्याति भी अभिव्यक्त की है। इस तरह भरत उपनाम से पद लिखे हों। पुर, कामां व दीग तीनों ही स्थान कवि के कार्यक्षेत्र 'गंगा' नाम से पूर्णतः अजात जैन कवि के पंचायती प्रतीत होते हैं। दिगम्बर जैन मन्दिर भरतपुर के एक गुटके में ५० पद सेढ़ के फुटकर १२ दोहे, कुछ कवित्तो के अतिरिक्त प्राप्त है। इन पदों मे भक्ति और राजुल विरह दोनों की सारंग, सोरठ, गौरी, धनाश्री, काफी, ईमन और बसत प्रधानता है। रागो मे ६० पद प्राप्त होते हैं। सेहूं जिनेन्द्र के पूजा- अपने प्राराधक के प्रति अगाध विश्वास 'गंगा' के कई अर्चन और नामस्मरण में बड़ी रुचि रखते हैं पदों में दृष्टिगोचर होता हैजिनराज देव मोहि भाव हो। अजी मोहे बल नाथ तिहारो। कोई कछ न कहो, क्यों भाई और न चित्त सुहावं हो। जगपति या संसार में, सब कार्य प्रसारो। जाको नाव लेत इक छिन मैं, कोट कलेस नसाव हो। जनम जरामृत आदतें, सुख को नहिं पारो। पूजत चरन कंवल नितता के, मन वांछित रिध पाव हो। सरणागत प्रतिपाल जी, मम रिट निहारो। तीन काल मन वच तन पूज, सेढूतिन जस गावं हो। लख चौरासी जोन सौ, मोहि पार उतारो। दीनानाथ सुनो यही, अरजी प्रति पालो। राग-द्वेष जन्य कष्टों से पीड़ित होकर 'सेतू' भक्ति 'गंगा' चाहे सो करौं, हों वास तिहारो॥ भाव की ओर मुड़े है। जिनेन्द्र के आश्रय में उन्हें बड़ा 'गगा' का आत्म निवेदन भी करुणापूर्ण है। अपने विश्वास है गरीब नवाज से उनका कहना हैकौन हमारी सहाइ, प्रभू बिन कोन हमारौ सहाह। अरज सुनो महाराज दीन की, प्ररज सुनो महाराज । और कुदेव सकल हम देखे, हांहां करत बिहाइ । भय भाव से इन कमनि घेरो, राख लेहु महाराज। निज दुख टालन को गम नाहीं, सो क्यों परं नसाय । राग रोस कर पीड़ित अति हो, सेवग क्यों सुखदाय । गरणधर तुव गुण पार न पावं, चार ज्ञान के राज । या ते संकलप विकलप छाड़े, मन परतीत जुलाइ। सो हम मंदमतो नित हित कों, विनती करत स्वकाज । 'सेटू" यो भव भव सुखवाई, सेवी श्री जिनराइ॥ तुम पद सेवत पाप नसावत, पूजत विघन विलात । 'गंगा' भाग उर्व प्रब पाये, अब सनों गरीब निवाज । भक्तिकाव्य परम्परा के सभी भक्त कवियो के समान सेढ़ को भी आराध्य के नाम-स्मरण में अपार शक्ति भैरव, ईमन, परज, जगलो, सोहनी, विलावल, वर्धरी, जवन्ती विनास, कान्हरो और षमावच आदि रागों में प्रतीत होती है, अत: वह मन, मर्म और वचन से उसमे निष्ठावान् है लिखित विभिन्न पदो मे कुछ पद राजुल विरह से सम्ब न्धित भी मिलते हैं । नेमिनाथ के विरक्त होने पर राजुल थी जिन नाम अधार, मेरे श्री जिन नाम अधार । भी मोक्ष सुख पाने का निश्चय कर लेती हैपागम विकट दुख सागर मैं से, ये ही लेह उबार । या पठंतर और नहिं दूजो, यह हम नहर्च पार । कौंन भांति समझाउं, अब मैं कौन भाँति समझाउं या चित धर ते पशु पंषी भी, उतरे भव दधि पार । सिद्ध रमनी अटक टेक । नर भव जन्म सफल नहीं ता विन, पोर सब करनी छार। रथ फेरू फेरू गिर को अब, उन बिन क्यों सुख पाऊं। 'सेट' मन और वचन काय करि, समिरत क्यों न गवार। मोको त्याग राग अक्षय सख. क्यों करमन बिरमा। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, वर्ष ४३, कि० १ चरनन प्याऊं । वुल जारउ या जग के प्रम, अंतक की चोट बचाऊं ।. या कारन प्रभु करत तपस्या, क्यों न मैं यह धार चित्त में राजुल, अब मैं 'गंगा' हाथ जोर कर भाषी, प्रभु मैं मरकत : इनका जन्म मध्य प्रदेश के ईसागढ़ में हुआ । ईशागढ़ में जन्मे अनेक पदों के रचयिता भागचंद और 'मरकत' को ठोस प्रमाणों के अभाव में एक नही माना जा सकता । 'मरकत विलास' को प्रशस्ति के अनुसार 'मरकत' ने अपनी युवावस्था बजरंग गढ में साधर्मियों के साथ पूजा, स्वाध्याय और तत्त्वचर्चा में व्यतीत की। 'मरकत' मंदसौर और शेरगढ़ भी रहे। इन्होंने अपना 'मरकत विलास' माघ कृष्ण सप्तमी संवत् १९७० को इन्दौर में पूर्ण किया। मध्य प्रदेश के कई स्थानों में घूमते रहने से 'मरकत' का व्यवसाय राजकीय सेवा प्रतीत होता है । यंत्र पूर्णमासी संवत् १९२३ वि० को अतिशय क्षेत्र बैनाड़ा तथा उसके बाद शान्तिनाथ मन्दिर झालरा पाटन जाने का उल्लेख मिलने के कारण कवि का सम्बन्ध राजस्थान से भी माना जा सकता है । मनैकान्स पाप बहाऊं । दीक्षा पाऊ । है सीता के प्रति आसक्ति । वह एक भक्त जो जैन धर्मावलम्बी है । जो नलकूबर को पत्नी उपरम्भा का प्रेम प्रस्ताव अस्वीकार करता है और केवली का उपदेश सुनकर यह धर्म प्रतिज्ञा करता कि मैं विरक्त परनारी का स्पर्श नहीं करूंगा | अपने जीवन के अन्तिम दिनो मे वह सीता का राम के प्रति प्रेम देखकर सीता हरण पर हार्दिक पाश्चात्ताप करता है । यहाँ रावण के चारित्र में हमे "मुंह मे राम बगल में छुरी" वाली उक्ति चरितार्थं होती है क्योंकि यहां हमें रावण का दोहरा चरित्र दिखाई पड़ता है। वह किसी कार्य को करने अथवा प्रण लेने से पूर्व उसके परिणाम तथा कुपरिणाम के विषय मे सोच लेता है । उसने जब नलकूबर को पत्नी उपरम्भा का प्रेम प्रस्ताव ठुकरा दिया था तब दोहरा चरित्र दिखाई देता है एक तरफ तो उसने सोनी जी की नसियां अजमेर के शास्त्र भण्डार में संगृहीत 'मरकत विलास' के भक्तिपूर्ण पदों में से एक पद है ( पृ० ११ का शेषांश) उसकी विद्या प्राप्त करने की बात सोचो कि विद्या प्राप्त कर उसको वापिस नलकबर के पास भेजने की दूसरे रावण उसको चाहता नही था । मरजी । सुनो जिनराज या श्ररजी, करो मो ऊपरं पड़ो संसार की धारा, न सूके वार का पारा । पुकारी दीन हुई हारा, करौ भव सिन्धु से पारा । 'टेक' करग मो दुख अति दीना, सुरस निज कर की हर लीना । प्रभु मैं प्रायो तुम सरना, हरो मेरी जन्म पर मरना । तिरो नहिं जब तक संसारा, सेवा निज बीजे भव सारा । हरो प्रज्ञान अंधियारा, करो रवि ज्ञान उजियारा । करो प्रभु मोह का नासा, रतनत्रय की परकासा । अरज मेरी हृदय धारो, 'मरकत' का कारण यह सारो । भक्तिपूर्ण पदों के अतिरिक्त मरकत के ३२ दोहे तथा एक गद्य रचना द्रव्य संग्रह की वचनिका भी उपलब्ध है । दीग, भरतपुर व अजमेर के शास्त्र भंडारी में प्राप्त 'हितकर', 'सेढूं', 'गंगा' और 'मरकत' के भक्तिपूर्ण पद जैन भक्ति स्तोतस्विनी के अगाध और विस्तृत प्रवाह के अभिव्यंजक हैं । 00 दूसरी बात रावण ने केवली भगवान के निकट यह प्रण लिया था कि जो स्त्री मुझे नही चाहेगी मैं उसका स्पर्श भी नही करूँगा । उसने यह सोचकर यह प्रण लिया था कि मुझे देखकर कोन स्त्री मुझे नही चाहेगी क्योंकि मैं तो इतना बलवान, सौन्दर्ययुक्त तथा बलवान हूं। मुझे अपनाना अस्वीकार ही नहीं कर सकती तथा मोहित हुए बिना नही रह सकती अर्थात् मुझे वह श्रवश्य हो चाहेगी। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रावण के चरित्र में दोहरा चरित्र पाया जाता है। वह किसी कार्य को करने से पहले परिणाम के विषय में सोच लेता है । कहा जाता है कि प्रतिवासुदेव सदैव वासुदेव का विरोध करते हैं । वासुदेव अपने भाई बलदेव के साथ ही युद्ध करते हैं और प्रतिवासुदेव का वध करते हैं । बलदेव अपने भाई की मृत्यु के कारण शोकाकुल होकर जैन दीक्षा लेते हैं मोर मोक्ष प्राप्त करते हैं। राम, लक्ष्मण, रावण ये क्रमशः बलदेव, वासुदेव भोर प्रतिवासुदेव कहे गये हैं । ब Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशलक्षण पर्व : क्या यह शास्त्र सम्मत है ? 0ॉ कपूरचन्द जैन, प्रवक्ता एवं अध्यक्ष जैन समाज में प्रमुख रूप से मनाये जाने वाले पों में पर्व को भाद्रपद मे मनाये जाने के कारण का उल्लेख जैन दशलक्षण, रत्नत्रय, अष्टाहिका, आदि की गणना होती है। शास्त्रों में प्राप्त नहीं होता। ये पर्व शाश्वत पर्व है, यतः ये किसी व्यक्ति विशेष या हां भाद्रपद शुक्ल पंचमी को पृथ्वी पर पुननुष्यावास घटना से सम्बन्धित नहीं है। ये आध्यात्मिक भावो से होने का उल्लेख जैन शास्त्रो मे बहुधा मिलता है। सम्बन्धित हैं और सदा से चले आ रहे हैं। अत: अनादि जैन दर्शन के अनुसार भरत और ऐरावत क्षेत्रों में हैं तथा सर्वदा चलते रहेंगे। इनमे भी पर्यषण या दश उत्सपिणी और अवसर्पिणी कालों का चक्र घूमता रहता लक्षण पर्व ही सबसे प्रमुख हैं। है।' उत्सपिणी वृद्धि का और अवसर्पिणी ह्रास का सूचक यह पर्व दि. जैन परम्परानुसार भाद्रपद शुक्ल पंचमी है इन दोनों के छह छह भेद है। वर्तमान में प्रवपिणी से चतुर्दशी पर्यन्त १० दिन मनाया जाता है, जबकि म्वे - का पंचम काल चल रहा है। ताम्बर परम्परा मे भाद्रपद कृष्ण १२ या १३ से भाद्रपद पंचम काल में एक एक हजार वर्ष पश्चात् इक्कीस शुक्ल चतुर्दशी या पचमी तक कुल ८ दिन मनाया जाता कल्कि होते हैं जो मुनियों के पाणिपुट में रखे गये प्रथम है' इसका अन्तिम दिन संवत्सरी कहलाता है। ग्रास को भी कर रूप में मांगते हैं। अन्तिम जल मन्थन इस पर्व के लिए 'पर्युषण' और 'दशलक्षण ये दो नाम नाम का कल्कि होगा, उसी समय अन्तिम वीरांगद साधु, प्रचलित हैं। दिगम्बर परम्परा मे 'दशलक्षण' और श्वे सर्वश्री आयिका, अग्गिल धावक तथा पंगूसेना श्राविका ताम्बर परम्परा मे 'पर्युषण' अधिक प्रयुक्त है। इनके अर्थ मोरपर्व के कारणो पर विचार ही प्रस्तुत निबन्ध का होगी तब पंचम काल के तीन वर्ष, ८ माह, . पक्ष शेष विषय है। रह जाने पर कल्कि ग्रास को कर रूप में लगा। अत: 'दशलक्षण का अर्थ है 'दश लक्षणों या स्वरूपो वाला। चारों तीन दिन के सन्यास पूर्वक कार्तिक वदी अमावस्या दि. जैन शास्त्रों में संवर के हेतुओं में तीसरा हेतु 'धर्म' को स्वाति नक्षत्र में मृत्यु को प्राप्त होगे और उसी दिन कहा गया है उमास्वामी ने लिखा है-'स गुप्तिसमिति आदि मध्य और अन्त मे क्रमशः फर्म राजा एवं अग्नि का धर्मानुपेक्षापरिषहजयचारित्रेः' अर्थात् वह संवर गुप्ति, नाश हो जायगा। इसके बाद मनुष्य मत्स्यादि का भक्षण समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह, जय और चारित्र से करने वाले और नग्न होंगे। यहां मरे हुए जीव नारकी होता है। आगे गुप्ति, समिति बता कर धर्म का स्वरूप और तिर्यच होंगे तथा नरक और तिथंच गति से आये कहना चाहिए था पर सीधे उसके-उत्तमक्षमामार्दवार्ज वशां च सत्यसंवरतपस्त्यागाविचन्यब्रह्मचर्याणिधर्म: कहा छठे काल के अन्त में संवर्तक वायु से पर्वत, भूमि, गया है अर्थात् उत्तम क्षमा, मादव, प्रार्जव, शोच, सत्य, वृक्ष आदि नष्ट हो जाते हैं, जीव या तो मूर्छित हो जाते संयम, तप, त्याग, आविरुचन्य और ब्रह्मचर्य धर्म है। यहां हैं या मर जाते हैं। कुछ जीव बिलों आदि में घुस जाते धर्म एक वचन है, स्पष्ट है कि ये सभी मिलकर धर्म हैं। है। अन्त मे पवन, अति शीत, साररस, विष, अग्नि, धूल दूसरे शब्दों में इतने रूपों वाला धर्म है। और धुआं इन सात की, सात सात दिन (४६ दिनों) वर्षा यह तो धर्म का उल्लेख हुआ दशलक्षण पर्व का नही। होती है जिससे प्रलय छा जात है।' Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४३ कि. २ अनेकान्त ___ सपिणी के पहले काल मे जल, दूध, घी, अमृत रस 'माचेलक्कुटेसिय, सिज्जायररायपिंड कि इकम्मे । मादि से भरे हुए नेघ एक एक सप्पाह बरसते है। यहा वयजेटटपडिक्कमणो मास पज्जोसवणकप्पे ॥ 'त्रिलोक सार' की निम्न गाथा विचारणीय है दोनों स्थानो पर अन्तिम कल्प 'पज्जो सवण' है उस्सप्पणीयपढमे पुवखरखीरधदमिदर सा मेघा। जिसका सस्कृत रूपान्तर पर्युषण प्रतीत होता। भगवती सत्ताहं बरसंति य णग्गामत्तादि आहारा ।। आराधना के टीकाकार अपराजित सूरि ने 'पज्जोसवण' इसका सीधा अर्थ है कि पुष्कर जल, क्षीर, दूध, घी, का अर्थ 'वर्षा काल के चार मासों में एक स्थान पर अमृत तथा रस वाले मेघ एक एक सप्ताह या सप्ताह भर रहना' किया है। पं० आशाधर ने 'पज्जो' शब्द काही बरसते है किन्तु व्याख्याकार माधवचन्द्र ने अपनी संस्कृत उक्त अर्थ करते हुए 'सवणकप्पो' का अर्थ 'श्रमणों का व्याख्या' तथा श्रद्धेय प० कैलाश चन्द्र शास्त्री ने अपने लेख कल्प' किया है।" में सात रूप सप्ताह उक्त मेघों की वर्षा होने का उल्लेख पज्जोसवण कल्प को वर्षावास कहा गया है। इसके किया है।० १० जी ने इसी आधार पर श्रावण कृष्ण लिए पर्युषण शब्द संस्कृत में व्यवहृत है और 'परियाय ववत्यवणा, पज्जोसमणा, पागइया, परिवसना, पज्जुसणा, प्रतिपदा से ४६ दिन मानकर भाद्रपद शुक्ल पचमी को वासवास, पढमसमो-सरण, व्वणा तथा जेट्रोमाह इसके पृथ्वी पर मनुष्यावास की बात कही है, जो समीचीन नही पर्यायवाची वताये गये है।" जान पड़ती ।११ इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती मे ४ प्रकार के मेघों का यद्यपि ये सभी नाम एकार्थक है तथापि व्युत्पत्ति भेद ७-७ दिन बरसने का उल्लेख है" इस प्रकार इस आधार के आधार पर इनमे किंचित अर्थभेद भी है। किन्तु अर्षावास (वर्षाकाल के चार माह एक स्थान पर रहना) पर जो भाद्रपद शुक्ल पचमी को मनुष्यावास की बात कही जाती है वह ठीक नहीं । अर्थ सभी में निहित है । साधुओं को आषाढी पूर्णिमा तक नियत स्थान पर पहुंच श्रावण कृष्ण पचमी मे वर्षावास इस पर्व के लिए बहुतायत से प्रयुक्त होने बाला दूसरा आरम्भ करना चाहिए। उचित स्थानादि न मिलने पर शब्द 'पर्युषण है। पर्यषण शब्द परि उपसर्ग पूर्वक-उष श्रावण कृष्ण दशमी अन्यथा अमावश्या को, उतने पर भी से त्वद् (अन्) प्रत्यय करने पर बना है।" उष् का अर्थ उचित क्षेत्र न मिले तो पांच-पांच दिन बढाते हए भाद्रपद निवास करना है। अतः पर्युषण का अर्थ होगा-'परि शुक्ला पंचमी को अवश्य ही पर्यषण कल्पारम्भ करना समन्नात उष्यते स्थाप्येतेचम् यस्मिन् तत् 'पर्युषणम्' डॉ. चाहिए। यदि उचित क्षेत्र न मिले तो वृक्ष के नीचे ही देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने परि उपसर्ग पूर्वक वस से अन् प्रत्यय कल्पारम्भ करे। पर इस तिथि का उल्लंघन किसी भी करके पर्युषण की उत्पत्ति मानते हुए इसका अर्थ किया है दशा मे नही करना चाहिए। पंचमी दशमी या पन्द्रहवी मात्मा के समीप रहना।" इन पर्वो मे ही कल्पारम्भ करना चाहिए अपर्व मे नही । पर यह पर्युषण पर्व का उल्लेख नही पर्युषण कल्प का इस प्रकार भाद्रपद शुक्ल पचमी से पर्दूषण कल्प का उल्लेख है । पर्युषण के लिए प्रयुक्त होने वाला मूल शब्ब आरम्भ हो सकता है। पर पर्युषण पर्व का उल्लेख नही 'पज्जोसवण' है भगवती आराधना में साधु के दम कल्प मिलता जो दस या आठ दिन मानाया जावे। यह कैसे बताते हुए कहा गया है आरम्भ हो गया ? 'कल्पसूत्र' तथा 'समवायोग' में भ० आचेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिंड किरिषम्मे। महावीर द्वारा आषाढी पूर्णिमा से ५० दिन बाद संवत्सरी जेट्रपडिक्कमण वि य मांस पज्जो सवणकप्पो ॥१५ मनाने का उल्लेख है, पर जैन परम्परा तो महावोर से भी इसी प्रकार आवश्यक नियुक्ति-मलयगिरिवृत्ति आदि पूर्ववर्ती है। प्रवक्ता एव अध्यक्ष संस्कृत विभाग, में भी उक्त दस कल्पों का उल्लेख कुछ शब्दों के हेरफेर श्री कुन्दकुन्द महाविद्यालय, खतौली (उ०प्र०) के साथ मिलता है (सन्दर्भ पृ. १६ पर) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृति : पर्युषण और दशलक्षणधर्म जैनों के सभी सम्प्रदायों में पर्युषण पर्व की विशे महत्ता है। इस पर्व को सभी अपने-अपने ढंग से सोल्लास मनाते हैं । व्यवहारतः दिगम्बर श्रावको में यह दश दिन और श्वेताम्बरों में प्राठ दिन मनाया जाता है। क्षमा आदि दश अंगो में धर्म का वर्णन करने से दिगम्बर इसे 'दशलक्षण धर्म' और श्वेताम्बर आठ दिन का मनाने से अह्ना (मठाई) रहते हैं । पर्युषण के अर्थ का खुलासा करते हुए राजेन्द्र कोष में कहा है : "परीति सर्वत क्रोधादिभावेभ्य उपशम्यते यस्यां सा पर्युपस मना" अथवा "परि: सर्वथा एकक्षेत्रे जघन्यतः सप्तदिनानि उत्कृष्टतः षण्मासान् ( ? ) वसनं निरुक्तादेव पर्युषणा ।" अथवा "परिसामस्त्येन उषणा ।" -अभि० रा० भा० ५ पृ० २३५-२३६ । जिसमे क्रोधादि भावों को सर्वतः उपशमन किया जाता है अथवा जिसमे जघन्य रूप मे ७० दिन और उत्कृष्ट रूप से छह मास (2) एक क्षेत्र में किया जाता है, उसे पर्युषण कहा जाता है। अथवा पूर्ण रूप से बास करने का नाम पर्युषण है । पज्जोसवण, परिवसणा, पजुसरणा, वासावासो य (नि० ० १० ) ये सवशब्द एकार्थवाची है । षण (पर्युपशमन) के व्युत्पत्तिपरक दो अर्थ निकलते हैं - (१) जिसमें क्रोधादि भावों का सर्वतः उपशमन किया जाय अथवा (२) जिसमें जघन्य रूप में ७० दिन और उत्कृष्ट रूप में चार मास पर्यन्त एक स्थान मे बास किया जाय । ( ऊपर के उद्धरण में जो छह मास का उल्लेख है वह विचारणीय है 1) प्रथम अर्थ का सम्बन्ध अभेदरूप से मुनि, श्रावक सभी पर लागू होता है, कोई भी कभी भी क्रोधादि के पं० पद्मचन्द्र शास्त्री 'संपादक' में उपशमन (पर्युषण) को कर सकता है। पर, द्वितीय अर्थ साधु की अपेक्षा ही मुख्य है, उसे चतुर्मास करना ही चाहिए । यदि कोई श्रावक चार मास की लम्बी अवधि तक एकत्र वास कर धर्म साधन करना चाहे तो उसके लिए भी रोक नही । पर उसे चतुर्मास अनिवार्य नही है । अनिवार्यता का अभाव होने के कारण ही श्रावकों मे दिगम्बर दस और श्वेताम्बर आठ दिन की मर्यादित अवधि तक इसे मानते है और ऐसी ही परम्परा है । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएं ऐसा मानती है कि उत्कृष्ट पर्युषण चार मास का होता है । इसी हेतु इसे चतुर्मास नाम से कहा जाता है । दोनो ही सम्प्रदाय के साधु चार मास एक स्थान पर ही वास करते हुए तपस्याओ को करते है । यतः उन दिनो ( वर्षाऋतु) मे जीवोत्पत्ति विशेष होती है । और हिमादि दोष की अधिक सम्भावना रहती है मोर साधु को हिंसादि पाप सर्वथा वयं है । उसे महाव्रती कहा गया है । " पज्जुमवणा कप का वर्णन दोनो सम्प्रदायो में है । दिगम्बरों के भगवती आराधना (मूलाराधना) में लिखा -: "पज्जोसमण कप्पो नाम दशम: । वर्षाकालस्य चतुर्षुमासेषु एकत्रावस्थानं भ्रमण त्याग । विशत्यधिकं दिवसशत एकत्रावस्थानमित्ययमुत्सर्गी कारणापेक्षया तु होनाधिक वाऽवस्थानम् । पज्जोसवण नामक दसवां कल्प है । वर्षाकाल के चार मासों में एकत्र ठहरना - अन्यत्र भ्रमण का त्याग करना, एक सौ बीम दिन एक स्थान पर ठहरना उत्सर्ग मार्ग है । कारण विशेष होने पर होन वा अधिक दिन भी हो सकते हैं। भगवती आरा० (मूला रा० ) आश्वास ४ पृ० ६१६ । श्वेताम्बरो में 'पर्युषणा कल्ल' के प्रसग में जीतकल्प सूत्र में लिखा है - Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८, वर्ष ४३; कि०२ अनेकान्त 'चाउम्मासुक्कोसे' सत्तरि राइंदिया जहणेणं । पर विचार करते हैं तब हमें विशेष निर्देश मिलता है ठितमट्टितगेमतरे, कारणे बच्चासितऽणयरे ।। -जीत क. २०६५ पृ० १७६ "एवं पर्वेसु सर्वेसु चतुर्मास्यां च हायने । विवरण -'उत्कर्षत: पर्युषणाकल्पश्चतुर्मासं यावद्- जन्मन्यपि यथाशक्ति स्व-स्व सत्कर्मणां कृति ॥" भवति, अषाढ पूणिमायाः कार्तिकपूणिमां यावदित्यर्थः धर्म स० ६९ पृ० २३५ अशिवादी कारणे समुत्पन्ने एकतरस्मिन् मासकल्पे पर्युष -~-वर्ष के चतुर्मास के सर्व पों में और जीवन में भी णाकल्पे वा व्यत्वासितं विपर्यस्तमपि कुर्यः । यथाशक्ति स्व-स्व धार्मिक कृत्य करने चाहिए। (यह -अभि० रा. भाग० ५ पृ० २४५ विशेषतः गहस्थ धर्म है)। इसी श्लोक की व्याख्या में पर्युषण कल्प के समय की उत्कृष्ट मर्यादा चतुर्मास पर्वो के सम्बन्ध में कहा गया है कि(१२० दिन रात्रि) है। जघन्य मर्यादा भाद्रपद शुक्ला "तत्र पर्वाणि चैवमुचःपंचमी से प्रारम्भ कर कार्तिक पूर्णिमा तक (सत्तर दिन) "अटुम्मि चउद्दसि पुण्णिमा य तहा मावसा हवइ पवं की है। कारण विशेष होने पर विपर्यास भी हो सकता मासंमि पन्च छक्क, तिन्नि अ पब्वाई पक्खंमि ॥" है-ऐसा उक्त कथन का भाव है। "चाउद्दसट्ठमुद्द8 पुण्णमामी त्ति सूत्रप्रामाण्यात्, महा. इस प्रकार जैनो के सभी सम्प्रदायो मे पर्व के विषय निशीथेतु ज्ञान पचम्यपि पर्वस्वेन विभूता । अट्ठमी, चउहमें अर्थ भेद नहीं है और ना ही.समय की उत्कृष्ट मर्यादा सीसुं नाण पंचमीसु उववासं न करेइ पच्छित्तमित्यादिवचमें ही भेद है। यदि भेद है तो इतना ही है कि (१) दि. नात् । एष पर्वसु कृत्यानि यथा-पोषधकरणं प्रति पर्व श्रावक इस पर्व को धर्मपरक १० भेदों (उत्तम, क्षमा, तत्करणाशक्ती तु अष्टम्मादिषु नियमेन । यदागमः,मार्दवाव, शौच, सत्य, संयम, तपस्त्याग, अकिंचन्य, 'सव्वेसु कालपव्वेसु, पसत्थो जिमए हवइ जोगो। ब्रह्मचर्याणि धर्मः) की अपेक्षा मनाते है और प्रत्येक दिन अट्ठमि चउद्दसीसु अ नियमेण हवइ पोसहिओ॥' एक धर्म का व्याख्यान करते हैं। जबकि श्वेताम्बर सम्प्र -धर्म स० (व्याख्या) ६६ दाय के श्रावक इसे आठ दिन मनाते है। वहीं इन दिनों -पर्व इस प्रकार कहे गये हैं-अष्टमी चतुर्दशी, मे कही कल्पसूत्र की वाचना होती है और कही अन्तकृत पूणिमा तथा अमावश्या, ये मास के ६ पर्व हैं और पक्ष के सूत्रकृतांग की वाचना होती है। और पर्व को दिन को ३ पर्व हैं। इसमे 'चउद्दसट्ठमठ्ठिपुणिमासु' यह सूत्र गगणना आठ होने से 'अष्ट'-आह्निक (अष्टाह्निक अठाई) प्रमाण है । महानिशीथ में ज्ञान पंचमी को भी पर्व प्रसिद्ध कहते हैं । साधुओ का पर्युषण तो चार मास ही है। किया है । अष्टमी, चतुर्दशी और ज्ञान पचमी को उपवास न करने पर प्रायश्चित का विधान है। इन पदों के दिगम्बरों में उक्त पर्व भाद्रपद शुक्ला पंचमी से कृत्यों में प्रोषध करना चाहिए। यदि प्रति पर्व में उपवास प्रारम्भ होता है और श्वेताम्बरो में पंचमी को पूर्ण होता की शक्ति न हो तो अष्टमी, चतुर्दशी को नियम से करना भादोनों सम्प्रदायों में दिनों का इतना अन्तर क्यो? ये चाहिए। आगम में भी कहा है-'जिनमत में सव निश्चित शोध का विषय है । और यह प्रश्न कई बार उठा भी है। न कई बार उठा भा है। पर्वो में योग को प्रशस्त कहा है और अष्टमी, चतुर्दशी के जो समझ वाले लोगों ने पारस्परिक सोहा वाद्ध हेतु ऐसे प्रोषध को नियमतः करना बतलाया है। प्रयत्न भी किए हैं कि पर्युषण मनाने की तिथियां दोनो मे उक्त प्रसंग के अनुसार जब हम दिगम्बरों में देखते हैं एक ही हो । पर, वे असफल रहे हैं। तब ज्ञात होता है कि उनके पर्व पंचमी से प्रारम्भ होकर पर्यषण के प्रसंग में और सामान्यतः भी, जब हम तप (रत्नत्रय सहित) मासान्त तक चलते हैं, और उनमें आगम प्रोषध आदि के लिए विशिष्ट रूप से निश्चित तिथियों विहित उक्त सर्व (पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा) पामाहा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यषण और दशलक्षण धर्म 6 . पर्व आ जाते हैं। जब कि श्वेताम्बरों में प्रचलित पर्व पूरा किया जा सकता है। सम्भवतः इसीलिए कोषकार दिनों में अष्टमी का दिन छूट जाता है-उसकी पूर्ति ने 'भाद्रपद शुक्ल पंचम्यां अनतरं' पृ० २५३ और 'भाद्रपद होनी चाहिए। बिना पूर्ति हुए आगम की आज्ञा 'नियमेण शुक्ला पंचम्या कार्तिक पूरिणमां पावदित्यर्थः' पृ० २५४ मे हवह पोसहिओ' का उल्लंघन ही होता है। वैसे भी इसमे लिख दिया है । यहां पंचमी विभक्ति की स्वीकृति से स्पष्ट किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि पर्युषण काल मे होता है कि 'पचमीए' का अर्थ 'पचमी से' होना चाहिए। अधिक से अधिक प्रोषध की तिथियो का समावेश रहे। इस अर्थ की स्वीकृति से अष्टमी के प्रोषध के नियम की यह समावेश और जैनियों के विभिन्न पन्थों की पूर्व पूर्ति भी हो जाती है। क्योंकि पर्व में अष्टमी के दिन का तिथियों में एकरूपता भी, तभी सम्भव हो सकती है जब समावेश इसी रीति में शक्य है । 'अनन्तर' से तो सन्देह पर्व भाद्रपद शुक्ला पंचमी से ही प्रारम्भ माने जायें। को स्थान ही नहीं रह जाता कि पंचमी से पर्युषण शुरू होता है और पर्युषण के जघन्य काल ७० दिन की पूर्ति भी कल्पसूत्र के पर्यषण समाचारी में लिखा है-'समणे मी ति होती है। भगवं महावीरे वीसाणं सवीसइराए मासे वइक्कते वासा दिगम्बर जैनो मे कार्तिक फाल्गुन और आषाढ मे वासं पज्जोसेवइ।' इस 'पज्जोसेवई' पद का अर्थ अभिधान अन्त के आठ दिनो में (अष्टमी से पूणिमा) अष्टाह्निका राजेन्द्र पृ० २३६ भा० ५ में 'पथूषणामाकार्षीत्' किया पर्व माने हैं ऐसी मान्यता है कि देवगण नन्दीश्वर द्वीप मे है । अर्थात् 'पर्युषण' करते थे। और दूसरी ओर कल्पसूत्र इन दिनो अकृत्रिम जिन मन्दिरों में बिम्बों के दर्शन-पूजन नवम क्षण मे श्री विजयगणि ने इस पद की टीका करते को जाते हैं। देवो के नन्दीश्वर द्वीप जाने की मान्यता हए इसकी पुष्टि की है (देखें पृ० २६८) श्वेताम्बरों में भी है । श्वेताम्बरो की अष्टाह्विका की पर्व तिथिया चैत्र सुदी ८ से १५ तक तथा असोज सुदी ८ से विशति रात्रियुक्ते मासे अतिक्रान्ते पर्दूषणमकार्षीत् ।' १५ तक है। तीसरी तिथि जो (सम्भवतः) भाद्र वदी १३ दूसरी ओर पर्यषणाकल्प चूणि मे 'अन्नया पज्जोसवणादि दि. से सुदी ५ तक प्रचलित है, होगी। यह तीसरी तिथि सुदी वसे आगए अज्जकालगेण सालिवाहणं भणिओ भद्दन जुण्ह- से प्रारम्भ क्यो नहीं? यह विचारणीय ही है-जबकि पंचमीए पज्जोसवणां'-(पज्जोसविज्जइ) उल्लेख भी है। दो बार की तिथियां अष्टमी से शुरू हैं । -अभि० पृ० २३८ उक्त उद्धरणो मे स्पष्ट है कि भ० महावीर पर्यषणा हो सकता है-तीर्थकर महावीर के द्वारा वर्षा ऋतु के ५० दिन बाद पर्दूषण मनाने से ही यह तिथि परिवर्तन करते थे और वह दिन भाद्रपद शुक्ला पंचमी था। इस हआ हो। पर यदि ५० दिन के भीतर किसी भी दिन शुरू प्रकार पंचमी का दिन निश्चित होने पर भी 'पंचमीए' पद की विभक्ति में सन्देह की गुंजाइश रह जाती है कि करने की बात है' तब इस अष्टाह्निका को पंचमी के पूर्व पर्युषणा पचमी मे होती थी अथवा पंचपी से होती थी। से शुरू न कर पचमी से ही शुरू करना युक्ति सगत है। ऐसा करने से 'सवीसराए मासे वहक्कते (बीतने पर)' की क्योकि व्याकरण शास्त्र के अनुसार 'पंचमीए' रूप तीसरी पचमी और सातवी तीनों ही विभक्ति का हो सकता है। बात भी रह जाती है और 'सत्तरिराइंदिया जहण्णेणं' की बात भी रह जाती है। साथ ही पर्व की तिथियां (पंचमी, यदि ऐसा माना जाय कि केवल पंचमी मे ही पर्युषण _अष्टमी, चतुर्दशी) भी अष्टाह्निका मे समाविष्ट रह जातो है तो पर्युषण को ७-८ या कम-अधिक दिन मनाने का हैं जो कि प्रोषध के लिए अनिवार्य है। कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, और ना ही अष्टमी के प्रोषध की अनिवार्यता सिद्ध होती है जवकि अष्टमी को एक बात और स्मरण रखनी चाहिए कि जैनो मे पर्व नियम से प्रोषध होना चाहिए। हां, पंचमी से पर्युषण सम्बन्धी ति थ काल का निश्चय सूर्योदय काल से ही हो तो आगे के दिनो मे आठ पा दस दिनों की गणना को करना आगम सम्मत है। जो लोग इसके विपरीत अन्य ए . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० वर्ष, ४३, कि०२ कोई प्रक्रिया अपनाते हो उन्हे भी आगम के वाक्यों पर वर्ष के चतुर्मास में चतुर्दशी पंचमी और अष्टमी को ध्यान देना चाहिए उन्ही दिनों में जानना चाहिए जिनमें सूर्योदय हो, अन्य 'चा उम्मास अवरिसे, पक्खि अ पचमीठमीसु नागवा।। प्रकार नहीं। पूजा प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण और नियम ताजो तिहीओ जासि, उदेइ सूरो न अण्णाउ ॥१ निर्धारण उसी तिथि मे करना चाहिए जिसमें सर्योदय पूआ पच्चक्खाणं पडिकमण तइय निअन गहण च । हो। जीए उदेइ सूरी तोइ तिहीए उ कायव ॥२॥' -धर्मस० पृ० २३६ 00 १. मुनियो का वर्षावास चतुर्मास लगने से लेकर ५० दिन बीतने तक कभी भी प्रारम्भ हो सकता है अर्थात् अषाढ़ शुक्ला १४ से लेकर भाद्रपद शुक्ला ५ तक किसी भी विन शुरू हो सकता है। -जैन-आचार (मेहता) पृ० १८७ (पृ० १६ का शेषांश) संदर्भ-सूची: १. जैन दर्शन मनन और मीमांसा: मुनि नथमल चरू। ११. वही। १९७७ पृ० १३४ १२. तिलोय पण्णत्ती : यतिवृषम, सोलापुर ४/१५८६२. तत्त्वार्थसूत्र : उमास्वामी, वाराणसी ६/२ १५६३ । ३. वही ६/६ १३. संस्कृत हिन्दी कोष : आप्टे, दिल्ली १९७७, पृ० ५६५ ४. वही ३/२७ १४. मरुधर केसरी अभिनन्दन ग्रथ : व्यावर, १६६८ पृ. ५. त्रिलोकसार : नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, श्री महा वीर जी वी०नि० स० २५०१, गाथा ८५-८६। १५. भगवती आराधना : शिवकोटि, कलकत्ता १६७६, ६. वही गाथा ८६३ गाथा ४२१। ७. वही गाथा ८६४-६६७ १६. सम्मतिवाणी : प० कैलाश चन्द जी का लेख। ८. वही गाथा ८६८ १७. मरुधर केसरी अभिनन्दन ग्रंथ : पृ. २६१ । ६. 'उदकक्षीरधृतमृतारसान् सप्त सप्ताह वर्षन्ति...' १८. वही पृ० २६१। वही गाथा ८६८ की व्याख्या। १६. "आषाढ मुणिमाए ठियाण जाति......... १०. सन्मतिवाणी: इन्दौर मे पं० जी का लेख, अपव्वे णवट्टति' 'पर्युषण : श्रमणकल्प, 'श्रावक सकल्प' । कल्पसूत्रचूगि : सम्पा० मुनि पुण्यविजयजी पृ० ।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के पूर्व मध्यकालीन जैनकवि जटासिंहनन्दि : परिचय एवं काल-निर्णय किसी भी व्यक्ति के कार्यों का वर्णन वैशिष्ट्य एवं उसके गुणों का संकीर्तन तो सुलभ है किन्तु स्वयं मे उन प्रेरक तत्वों को समाहित करना दुर्लभ-सा प्रतीत होता है : गुणानां व विशालानां सत्काराणां च नित्यशः । कर्तारः सुलभाः लोके विज्ञातारस्तु दुर्लभाः ॥ मैंने अधिकांशतः कवियो के रचनात्मक कार्यों का अध्ययन किया तथा उसके माध्यम से ज्ञान-विज्ञान की बातों को स्वय में तथा अन्य लोगों में प्रसारित प्रचारित करने का प्रयास किया किन्तु किसी भी कवि की वर्णन शैली एवं वर्ण्यविषय ने मुझे उतना प्रभावित नही किया जितना जैन कवि जटासिंहनन्दि ने। इस कवि की निष्काम सेवा ने बरबस मुझे उसके कर्तृत्व एवं व्यक्तित्व को उद्भासित करने के लिए उत्प्रेरित कर दिया है । संस्कृत के जैन साहित्य के इतिहास के अध्ययन प्रसग मे ही नही विश्वसाहित्य के अध्ययन प्रसंग मे भी महाकवि जटासिंहनन्दि का नाम बड़े आदर के साथ लिया जा सकता है । दक्षिण भारतीय जैन कवि समन्तभद्र, देवनन्दि पूज्यपाद, नागपर्व, पुलकरिकेसोम, सदाक्षरदेव, आदि की प्रमुखता के साथ-साथ महाकवि जटासिंहनन्दि की प्रमुखता अपने आप मे अद्वितीय एवं अलोकिक है । इस कवि की एकमात्र रचना वराङ्गचरितम् ही अद्यावधि उपलब्ध है । मेरे अध्ययन का स्रोत डॉ० ए० एन० उपाध्ये द्वारा सपादित ग्रन्थ है । सर्वप्रथम तो कवि की जीवन वृत्ति ने ही मुझ पर अमिट छाप छोड़ी, क्योकि उस कृति के आद्यो पान्त अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उसने आत्मख्याति से दूर रहकर शुद्ध साधक-साधु वृत्ति से एकान्त-साहित्य साधना की है तथा अपने ग्रन्थ मे उसने डॉ० कमल कुमारी, आरा ऐसा कोई भी साक्ष्य प्रस्तुत न किया है, जिससे अगली पीढ़ी ग्रन्थकार का नाम भी जान सके उस महापुरुष की यह निरपेक्ष-वृत्ति किसी भी साहित्यिक रसिक को सहज श्रद्धापूर्वक आकर्षित कर मकती है। कलापक्ष एवं भावपक्ष की दृष्टि से तो उक्त कृति उत्कृष्ट कोटि की है ही, समकालीन भारतीय संस्कृति, इतिहास एवं भूगोल की दृष्टि से भी वह एक प्रामाणिक कृति है । वैसे प्राव्य शास्त्रागारो मे भारतीय विद्या की अमूल्य निधि भरी पड़ी है । १३-१८वीं सदी से प्राच्य भारती के देश-विदेश के सुधी विद्वानों का ध्यान उस ओर आकर्षित हुआ और उनके प्रयासो से अनेक ग्रन्थरत्नों का उद्धार हुआ, किन्तु जितना साहित्य अभी प्रकाश मे श्राया है उसका सहस्रगुणा भाग अद्यावधि अन्धकारछन्नावस्था मे ही है और वह उद्धारको की प्रतीक्षा कर रहा है । जटासिंहनन्दि के सही उद्धारक डा० ए० एन० उपाध्ये ही हैं जिनकी पैनी दृष्टि ने आज वैसे महाकाव को जिसकी रचना को लोग भ्रमवश रविषेण की समझ बैठे थे, ढूंढ निकाला । वि०स० १६८५ तक इस कवि के विषय मे किसी को कोई भी जानकारी नही थी । सर्वप्रथम पं० नाथूराम जी प्रेमी ने जब आचार्य रविषेण कृत पद्मचरितम् का प्रकाशन किया तथा उसकी भूमिका मे जिनसेन ( प्रथम ) कृत हरिवंशपुराण की प्रशस्ति के पूर्वाचार्य स्मरण-प्रसंग मे प्राप्त वराङ्गचरित का उल्लेख किया, तो साहित्यजगत् में प्रसन्नता की एक लहर उत्पन्न हो गई, किन्तु प्रेमी जी ने उक्त व० च० को भ्रमवश रविषेण कृत बत लाया। डा० उपाध्ये ने एतद्विषयक गहरी छान-बीन की तथा प्रेमी जी के उक्त मत का मात्र खण्डन ही नही किया, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, पाकि०२ भनेकान्त अपितु घोर परिश्रम के बाद उसकी कुछ ताडपत्रीय हस्त- जटासिंहनन्दि ने अपने व० च० में स्वविषयक किसी भी प्रतियों को उपलब्ध कर अन्तर्बाह्य साक्ष्यो के आधार पर प्रकार की सूचना नही दी है, अतः उसके काल को निर्णय यह सिद्ध किया कि वच० का कर्ता जटा अथवा जडिय, करने मे अन्तक्ष्यिो के अभाव मे अनेक कठिनाइया है। जडिल या जटिल अथवा जटासिंहनन्दि था। अतः इस स्थिति मे बाह्य साक्ष्यो का अवलम्बन लेकर ही प्रद्यावधि प्राप्त साक्ष्यों में व. च० ग्रन्थ एवं इसके कुछ विचार किया जा सकता है। इसके लिए निम्न साधन ग्रन्थकार का सर्वप्रथम एक साथ उल्लेख उद्योतन सूरि सामग्री का अध्ययन आवश्यक है :(वि० सं०८३५) रचित-"कुवलयमालाकहा" मे उप- (१) परवर्ती कवियो द्वारा जटिल अथवा जटासिंहलब्ध होता है, जिसमें व० च० के कर्ता जडिय का वर्णन नन्दि का स्मरण । है । अपभ्रश कवियों मे धवल (११वी सदी) एवं धनपाल (२) दक्षिण भारत स्थित कोप्पल-ग्राम में प्राप्त (वि० सं० १४४४) ने व.च. को जडिय कृत न मानकर शिलालेख एवं जडिलमुनि कृत कहा है। कन्नड़ कवि चामुण्डराय (वि० (३) व. च० में वणित सैद्धान्तिक तथा दार्शनिक सं० १०३१-१०४१). नयसेन (वि० स० ११६६), जन्म सामग्री एव अन्य वर्णनों का पूर्ववर्ती आचार्यों एवं महा(वि० सं० १२६२) एवं महावल (वि० स० १३११) ने कवियो द्वारा वणित सामग्री के साथ तुलनात्मक अध्ययन । व० च० के कर्ता को जटासिंहनन्दि मुनि के नाम से स्मरण उत्तरावधि:किया है। इतना ही नही आचार्य जिनसेन द्वितीय (लगभग वि० सं० ८६५), कन्नड़ कवि पम्प (वि० सं० ६२०) एव (क) व० च० एव उसके कर्ता जटिल अथवा जटापावपंडित (वि० सं० १२६२) ने वराङ्गचरित के कर्मा सिंहनन्दि का उल्लेख करने वाले कवियों मे उद्योतनसरि को आचार्य जटाचार्य के नाम से स्मरण किया है। का नाम सर्बप्रयम है। उन्होंने अपनी कुवलयमालाकहा मे इन सभी साक्ष्यो से स्पष्ट है कि एक ही कवि को पूर्व पूर्ववर्ती व वियों के स्मरण प्रसंग मे पप्रचरित के कर्ता विविध नामो से स्मरण करने की परम्परा कोई नवीन रविषेण के पूर्व जडिय अथवा जटिल का नामोल्लेख किया नहीं है। इसका अभ्यास प्राचीन काल से ही रहा है। है।' इस आधार पर प्रतीत होता है कि जडिय मथवा कभी-कभी तो ग्रन्थ अथवा ग्रन्थकारो के अपर नामो में जटामिहनान्द रावषण के पूर्ववता कवि है। रविषेण का शब्द अथवा वर्ण्यसाम्य भी दृष्टिगत नही होगा। इसका समय वि० स० ८३४ निश्चितप्राय ही है। कारण यह है कि कवि अथवा काव्य का जो विशिष्ट गुण (ख) उद्योतन सूरि के उक्त उल्लेख के अतिरिक्त भी लोक को सर्वाधिक प्रभावित एव चमत्कृत कर देता है, नवी सदी से तेरहवी सदी तक के पूर्वोक्त संस्कृत-प्राकृत, उसी के आधार पर लोक मे उसका नाम प्रचलित हो अपभ्रंश एवं कन्नड कवियों ने भी व० च० एवं उसके जाता है। उदाहरणार्थ महाकवि कालिदाम का अपरनाम कर्ता का उल्लेख जितने आदर एव श्रद्धा के साथ किया 'दीपशिखा', रावणवध का अपरनाम 'भट्टिकाव्य', भारवि है उमसे यह स्पष्ट है कि जटिल अथवा जटासिंहनन्दि का अपरनाम 'आतपत्र' आदि प्रसिद्ध हैं। इस आलोक मे अपनी काव्य कला से दक्षिण भारत के साथ-साथ उत्तर यदि व. च० के कर्ता के नाम का अध्ययन किया जाय भारत को प्रभावित कर पर्याप्त ख्याति अजित कर चुके तो जटासिंहनन्दि का मूल नाम सिंहनन्दि रहा होगा, थे और मम्भवतः उसी से प्रभावित होकर उद्योतनसरि ने किन्तु जटिल जटाजूटधारी होने से ही उन्हे आचार्य जटा, उनका उल्लेख किया होगा। कवि-काल मे यातायात के जडिय, जटिल जैसे नामों से भी अभिहित कर दिया गया साधनों एवं सुदूरवर्ती स्थानो तक बिस्तृत कवि-कीर्ति को होगा। ध्यान में रखते हुए यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है काल निर्णय : कि जटासिंहनन्दि एवं उद्योतनसरि के मध्य पर्याप्त समय जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है कि जटिल अथवा का अन्तर होना चाहिए। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय एवं काल निर्णय (ग) कोप्पल ग्राम में प्राप्त शिलालेख, जिसकी चर्चा पूर्व में ही की जा चुकी है, उसमे जटासिंहनन्दि का स्पष्ट उल्लेख है ।' पुरातत्ववेत्ताओं ने उसे ईसा की १० वी सदी का शिलालेख है किन्तु प्रो० उपाध्ये ने विविध तर्कों के आधार से उसे जटासिंहनन्दि के स्वर्गारोहण के सौ-दो सौ वर्षों के बाद उत्कीर्ण किये जाने का निर्णय किया है। उपाध्ये के तर्कों का चूंकि अभी तक खण्डन नही किया जा चुका है इससे प्रतीत होता है कि विद्वानों को उनका निर्णय मान्य है और इस प्रकार इस शिलालेख के अनुसार जटासिंहनन्दि का समय वि० स० ८३५ के पूर्व ही सम्भव है, बाद में नही । इस प्रकार उक्त तीनो तथ्यों के आधार पर जटासिंहनन्दि की उत्तरावधि वि० सं० ८३५ सिद्ध होती है। पूर्वावधि : (घ) कवि के जीवन अथवा रचनाकाल की पूर्वावधि के निश्चय के लिए भी कोई ठोस प्रमाण नही मिल सके है, क्योंकि कवि ने स्वय ही न तो अपने किसी गुरु का उल्लेख किया है और न ही किसी पूर्ववर्ती ग्रन्थकार, राजा, महाराजा, समकालीन नगरसेठ प्रथवा अपने किसी आश्रयदाता का ही उल्लेख किया है। इस कारण पूर्वावधि के निर्धारण में अनेक कठिनाइयाँ है, फिर भी कुछ ऐसे साधन है, जिनके आधार पर पूर्वावधिविषयक कुछ अनुमान किये जा सकते है। ऐसे साधनो में सर्वप्रथम व०च० में वर्णित सैद्धान्तिक आचारात्मक एवं दार्शनिक विषयो को लिया जा सकता है । जासिंहनन्दि ने व० च० मे सैद्धान्तिक दृष्टि से जहाँ आचार्य उमास्वाति रचित रचनाओं का आश्रय ग्रहण किया है, वही समन्तभद्र के स्वयम्भू स्तोत्र के कुछ श्लोको का कुछ अनुकरण भी किया है।" इसी प्रकार व० च० के कुछ दार्शनिक वर्णन प्रसंग सिद्धसेनकृन सन्मति प्रकरण के तुलनीय हैं। साथ ही सामयिक पाठ आदि की व्याख्या संस्कृत के "सामयिक पाठ" नामक ग्रन्थ के सदृश है ।" कुछ विद्वानों के अनुसार संस्कृत का सामयिक पाठ पांचवीं सदी के आचार्य "पूज्यपाद" कृत है ।" इन समकक्षताओं को देखकर यह अनुमान तो किया जा सकता है कि जटा ११ सिंहनन्दि के समक्ष पूर्वोक्त उमास्वाति, समन्तभद्र, कुन्दकुन्द, पूज्यपाद एव सिद्धसेन कृत रचनाएँ अवश्य रही होगी किन्तु दुर्भाग्य यह है कि उक्त आचार्यों का समय भी अद्यावधि विवादास्पद ही बना हुआ है। फिर भी उक्त आचार्यों में से सिद्धसेन, जिनके 'सन्मति प्रकरण' के अनेक स्थल व० च० के वर्णनो से अधिक मेल खाते हैं, उक्त सभी आचार्यों में परवर्ती सिद्ध होते है। प्रो० उपाध्ये प्रभृति विद्वानो ने उनका समय ईसा की सातवी सदी का अनुमान किया है।" (ङ) व० च० का महाकवि भारविकृत किरातर्जुनीम के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने से विदित होता है कि किरातार्जुनीयम् के स्थापत्य का व० च० पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। किरातार्जुनीयम् के छन्द वैविध्य ने तो उसे प्रभावित किया ही है, साथ ही युद्ध एव वस्तु-वर्णन भी उसके समकक्ष हैं। महाकवि भारवि का समय वि० सं० की सातवी सदी का पूर्वार्ध लगभग निश्चित ही है ।" (च) आचार्य जिनसेन - द्वितीय ने सिद्धसेन, समन्तभद्र, यशोभद्र, प्रेमचन्द्र श्रौर शिवकोटि के बाद जटाचार्य का स्मरण किया है।" आचार्य जिनसेन का समय पूर्व में बतलाया ही जा चुका है । इस प्रकार उक्त सन्मति प्रकरण (सिद्धसेन ) एवं किरार्जुनीयम् (भारवि ) के व० च० के पड़े हुए प्रभाव के लक्ष्य कर तथा जिनसेन द्वितीय के पूर्वाचार्य स्मरणम पर दृष्टिपात करने से यही प्रतीत होता है कि जटासिंहनन्दि विक्रम की सातवी सदी के पूर्व नही हो सकता और इस प्रकार उसकी पूर्वावधि विक्रम की सातवी सदी सिद्ध होती है । निष्कर्ष : उक्त सभी तथ्यो के आधार पर व० च० के रचयिता का समय विक्रम की मातवी सदी से नहीं सदी के मध्य सिद्ध होता है । उद्योतनसूरि के उल्लेखानुसार जटासिंहनन्दि विक्रम की नवीं सदी के पूर्वार्ध का सिद्ध होता है, किन्तु उद्योतनसूरि के काल तक व० च० की जिस प्रकार की सर्वत्र ख्याति फैल चुकी है, यदि उसकी कालावधि ( शेष पृ० २९ पर) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिचारार्थ : नये प्रकाशन पर साधुवाद 0 श्री मुन्नालाल जैन, 'प्रभाकर' वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित 'परम आध्यात्म जाते हैं जैसे यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव को ही परमात्मा तरंगिणी' को देखा बहुत सुन्दर ग्रन्थ है इसके साथ इसकी वोज भूत माना जायगा तब असैनी उसमे बाहर हो प्रस्तावना भी देखी बहुत अच्छी लिखी है। संस्था ने जायेंगे औरअप्राप्य टीका को प्रकाश में लाकर पुण्य का कार्य किया सब जीवों में परमात्मा बनने की शक्ति का अभाव है। प्रस्तावना को वीजमत परमात्मा, धर्म तथा वस्तु मानना पड़ेगा और लक्षण के जीव के एक देश मे रहने से आदि की परिभाषाये पढ़ी तो कुछ समझने में बड़ी कठि- अव्याप्ति दोष आयेगा जबकि पागम में परमात्मा बनने नाई पड़ी क्योकि वे परिभाषाये आगम में कही गई परि. की शक्ति मात्र संशी जीव में ही नहीं अपितु प्रत्येक जीव भाषाओ से मेल खाती नही दिखी और न कही आगम प्रमाण में है अर्थात (२) अतिव्याप्ति दूषण ये है कि अभव्य सज्ञी ही दिखे। परिभाषाएँ किस अपेक्षा से दी है यह खुलासा पंचेन्द्रिय जीव जो मुनि व्रत धारण करके नवमें ग्रीवक तक नहीं है ? उदाहरण के तौर पर कुछ परिभाषायें जैसे- पहुंच जाता है परन्तु वह सम्यग्दर्शन ज्ञान तथा सम्यक (१) परमाध्यात्मतरगिणी की प्रस्तावना पृष्ठ १० चारित्र को प्राप्त नहीं कर सकता और न परमात्मा बन पर जीव वीज भूत परमात्मा की परिभाषा इस प्रकार की सकता जबकि उपर्युक्त लक्षण के अनुसार वह भी शक्ति है-'यद्यपि संज्ञी पंचेन्द्रिय अवस्था से ही पुरुषार्थ चाल व्यक्त कर सकता है। छहढाला में कहा है-'मुनि व्रत हो सकता है-यह जीव वीज भूत परमात्मा है वट के धार अनन्त बार ग्रीवक लो उपजायो। पै निज आतम बीजों की तरह वट वृक्ष बनने की शक्ति को तरह पर. ज्ञान बिना सुख लेश न पायो॥' (जैसा कि प्रस्तावना मात्मा बनने की शक्ति इसमें है जिसको अपने पुरुषार्थ से मे-देकर खुलाहा किया है) यदि सजी पचेन्द्रिय जीव को इसे व्यक्त करना है।' इसका कोई आगम प्रमाण नही ही वीज भून परमात्मा मानेंगे तो अभव्य को भी मोक्ष दिया, जबकि आगम मे मात्र संज्ञी पंचेद्रिय में ही नहीं मानने का प्रसंग आयेगा परन्तु आगम में कहा है अभव्य प्रत्येक जीव में परमात्मा बनने की शक्ति कही है चाहे कभी भी मोक्ष प्राप्त नही कर सकता क्योकि अभव्य मे वह निगोद में हो चाहे किसी भी पर्याय में। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्चारित्र प्रगट करने की प्राचीन आचार्यों ने जो सैद्धान्तिक परिभाषाएं लिखी योग्यता नही । प्रभव्य की परिभाषा में कहा है कि जिस है उनको हम यदि बदलेगे तो जो भाव प्राचार्यों का है वह शक्ति के निमित्त से आत्मा के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, नहीं आ सकेगा। आचार्यों ने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया सम्यग्चारित्र प्रगट होने की योग्यता न हो उसे अभव्यत्व है कि हम उसमे से एक भी शब्द घटा बढ़ा नही सकने गुण कहते हैं । यदि ऐसा करेंगे तो सिद्धान्त का घात हो जायगा, भाव वट के बीजों की तरह बट वृक्ष बनने की शक्ति सज्ञी बदल जायगा अथवा कोई न कोई दोष आ जायगा जो पचेन्द्रिय व अभव्य जीव मे शक्ति होते हुए भी पुरुषार्थ से किसी भी वस्त के लक्षण मे नही होना चाहिए। वे दोष सम्यग्दर्शन, सम्परज्ञान, सम्यग्चारित्र को प्रगट करने की निम्न लिखित है-अव्याप्ति, अतिव्याप्ति तथा असम्भव। योग्यता (अभव्य सज्ञी पंचेन्द्रिय) मे नहीं है जिसके बिना प्रस्तावना में जीव बीज भूत परमात्मा की जो उपर्युक्त तीन काल मे भी (कभी) परमात्मा नही बन सकता ये परिभाषा है उसमें अध्याप्ति, अतिव्याप्ति दोनों दोष पाये अतिश्याप्ति दोष आ गया। सारांश यह निकला प्रत्येक Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नये प्रकाशन पर साघुवाद जीव में शक्ति होते हुए भी अमव्यत्व गुण के होने से बहुत इनको उत्पत्ति का कारण कर्म का अभाव हो जाता है तब तो सजी पंचेन्द्रिय जीव पुरुषार्थ करके सम्यग्दर्शन गुण को यह जीव हमेशा के लिए सुखी हो जाता है। कर्म के अभाव प्राप्त नही कर सकते जो मोक्ष अर्थात् परमात्मा बनने का बिना संसार में कोई भी जीव परम सुखी नही हो सकता मुख्य कारण है। वैसे चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सभी गुण- उस सुख की प्राप्ति धर्म के अर्थात् अपने स्वरूप के आश्रय स्थानवी जीव परमात्मा बनने की योग्यता रखते हैं किन्तु से होती है। इस धर्म का आविष्कार नही होता जैसे मुख्य कारण सम्यग्दर्शन है जिसके बिना परमात्मा बन परमाध्यात्म तरगिणी पृष्ठ १० पर कहा है-'जीव का ही नही सकता । इसके सिवाय क्षपक श्रणी मांडने वाला दुःख कैसे दूर हो इसके लिए जिस विज्ञान का आविष्कार साधु अवश्य ही थोड़े ही काल मे परमात्मा बन जायगा हमा उसी का नाम धर्म है।' धर्म की यह परिभाषा कही इसलिए अभव्य सज्ञी पचेन्द्रिय जीव मे सच्चा पुरुषार्थ नहीं बतायी। कुन्दकुन्दाचार्य ने धर्म की परिभाषा इस करके परमात्मा बनने की योग्यता नहीं है इसलिए ऐसा प्रकार की है 'वस्तु स्वभावो धर्म' अर्थात् वस्तु का जो कहना चाहिए था कि परमात्मा बनने की शक्ति तो प्रत्येक स्वभाव है वही उस वस्तु का धर्म है जीव नामा वस्तु का जीव मे है न कि संज्ञो पचेन्द्रिय जीव में परन्तु उस शक्ति धर्म चेतमत्व जाननपना है पुद्गल का धर्म रूप, रस, गध को व्यक्त करने की योग्यता प्रत्येक संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मे तथा स्पर्श है और उस धर्म का आविष्कार नही होता वह नही है वे ही सज्ञी पचेन्द्रिय जीव व्यक्त कर सकते है तो उसमे स्वता होता है वह धर्म (गुण) वस्तु के आश्रय जिनमे भव्यत्व गुण है अभव्यत्व गुण वाले सशी पचेन्द्रिय बिना नही होता जैसा मोक्ष शास्त्र मे भी कहा है द्रव्या जीव भी नही कर सकते । आगम में सर्वत्र परमात्मा न गुणाः' गुण अर्थात् गुणद्रव्य के बिना नहीं होते। यदि बनने का उपदेश दिया है वहां (भव्य जीवो) को सबोधन धर्म (गुण) का आविष्कार मानेगे तो धर्म के आविष्कार किया है। अभव्य जीवों को कहीं संबोधन नहीं किया से पहिले कोई वस्तु ही न होगी अर्थात् ससार शून्य हो क्योकि उनमे परमात्मा बनने के पुरुषार्थ करने की जायगा जबकि आगम में छ द्रव्यो के समूह को ससार योग्यता ही नहीं। अब यहाँ प्रश्न खड़ा होता है कि फिर कहा है और संसार में ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं जिसका इस जीव को सुख की प्राप्ति कैसे हो? इसको जानने के कोई न कोई धर्म नही धर्म अवश्य होता है धर्म का आवि. लिए हमे पहने सुख की तथा दुःख को परिभाषा समझनी कार नहीं होता। जैसे अग्नि का धर्म उष्णता है उष्णता होगी। उसके लिए प० दौलतराम जी ने कहा है--'आतम के बिना अग्नि का अभाव होता है इन छ द्रष्यो में धर्म, को हित है सुख सो सुख आकुलता बिन कहिए।' अर्थात् अधर्म, आकाश तथा काल ये चार द्रव्य हमेशा से शुद्ध है दुख का स्वरूप आकुलता है तथा आकुलता का अभाव ही बाकी दो द्रव्य जीव और पुदगल इन दो द्रव्यो का प्रनादि सुख है, इसके अतिरिक्त सुख नाम की कोई वस्तु नही है। से एक क्षेत्रावगाह सबन्ध चला आ रहा है इसी लिए इस सुख तो जीव का स्वभाव है लेकिन मोह कर्म का सम्बन्ध दो द्रव्यो को संयोन संबन्ध के कारण अशुद्ध कहा है दोनो जीव के साथ अनादि काल से चला आ रहा है जिसके का सयोग सबन्ध होने पर भी दोनो का अस्तित्व भिन्न-२ निमित्त से इस जोव के अनेक प्रकार के विकृत परिणाम है एक द्रव्य का गुण कहो, स्वभाव कहो या धर्म कहो होते है तथा अनेक प्रकार को पर पदार्थों को ग्रहण करने दूसरे द्रव्य के धर्म रूप नही परिणमता क्योकि प्रत्येक द्रव्य की इच्छाये उत्पन्न होती हैं और जब तक वे इच्छाये पूर्ण में अगुरु लघु गुण विद्यमान है जिसके कारण एक द्रव्य नही होती तब तक यह जीव दुमी रहता है जब कभी दूसरे द्रव्य रूप, एक गुण दूसरे गुण रूप नही परिणमता पुण्य के उदय से कोई इच्छा पूर्ण भी हो जाती है तब यह . और न गणों में कमी देसी होती ऐसा हर जगह आगम जीव सुख का अनुभव करता है परन्तु वह क्षणिक है क्यो मेंकहा है। कि वे इच्छायें अनन्त है एक के बाद एक उत्पन्न होती ही रहती हैं। इसका उत्पन्न होना बन्द ना होता है तब सभी ६ द्रव्यों में पांच द्रव्य तो सुखी दुःखी होते नही Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४३० २ क्योंकि उनमें चेतना (गुण) धर्म होता सुख दुःख का अनुभव नहीं करने की शक्ति है और न श्रनेकान्त नहीं है जिसके कारण और न उनने अनुभव केवल एक जीव अनुभव होता है जिसके कारण वह योग्यता सुख दुख अनु द्रव्य ही ऐसा है जिसको सुख दुख का क्योंकि अकेले जीव में ही चेतना गुण है सुख दुःख का अनुभव करता है और उम भव करने का रण पर द्रव्य का सयोग तथा उसका उदय है, जिसकी कर्म संज्ञा है वह कर्म आठ प्रकार का है जिसमे मोह कर्म दो प्रकार का है एक दर्शन मोह दूसरा चारित्र मोह दर्शनमोह के कारण से परद्रव्यों को आपा तथा अपना मानता है तथा शरीर जो जीव से भिन्न परपदार्थ है उसको भी आपा मानता है और जो नि पिंड है उसको आप नहीं मानता स्त्री, पुत्र, मकान, धन आदि परपदार्थों को अपने मानता है तथा जो जाननपना इसका अपना स्वभाव (धर्म) है उसको अपना नही मानता उसी चारित्रमोह के उदय के कारण पर पदार्थों के परि णमन में इष्ट अनिष्ट कल्पना करता है जिसको राग-द्वेष कहते है यह राग व इस जीव की विकारी पर्याये है जो चारित्रमोह के उदय से उत्पन्न होती और विश रहती हैं इसकी स्थिति एक समय की होती है एक समय के पश्वात् दूसरी पर्याय की उत्पत्ति हो जाती है और पूर्व पर्याय निश जाती है ये विकारी अशुद्ध जीव मे होती है। अशुद्ध जीव कर्म के सम्बन्ध के कण से है न कि राग-द्वेग के कारण ये तो विकारी पर्याये है जो कर्म का सम्बन्ध हटने पर स्वयं ही इनकी उत्रुक जाती है । ये राग-द्वेष द्रव्य (वस्तु) नही है जो किसी के पास कम और किसी के पास ज्यादा हो ये तो पर्याये हैं और इन (पर्याय का कभी भी अभाव नहीं किया जा सकता हा पर्यायों के कारण का अभाव होता है और इन रागद्वेष पर्याय का कारण चारित्रमोह है तथा उन चारित्रमोह का कारण कषायो के अनुसार परणति है कहा भी है'आतम के अहित विषय कषाय इनमें मेरो परणति न जाय। इस परिणति का कारण इच्छा है और उस इच्छा का कारण विपरीत आशय है जो दर्शनमोह के कारण से होता है जिसके कारण आने पर (चितपिंड को आपा न मान कर शरीर को आपा मानता है तथा अपने ज्ञायक (जानन पन ) भाव को अपना न मानकर शरीर, धन, स्त्री, पुत्र आदि को अपने मानता है इसका कारण दर्शन मोह है ऐसा छै ढाले में भी कहा है तथा आगम में अन्य जगह भी कहा है परन्तु परमाध्यात्म तरगिणी पृष्ठ ११ पर 'रागद्वेष (पर्याय) को दुःख कहा है जो आगम में कहीं नहीं कहा।' आगम में तो दुःख का लक्षरण आकुलता बताया है, आकुलता का कारण इच्छा इच्छा का कारण विपरीत आशय ( मिथ्यादर्शन) कहा है और उस मिथ्यात्व के अभाव का कारण तत्त्व विचार में उपयोग को लगाना है जिसके निमित्त से दर्शन मोह का अभाव होता है ऐसे निमित्त नैतिक संबंध बन रहा है जब यह जीव अपने उपयोग को सब तरफ से हटा कर सात तत्वों के स्वरूप के विचार में लगाता है जिससे दर्शन मोह धीरे-धीरे गलित होता रहता है तथा गलित होते होते क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम दशा को प्राप्त हो जाता है तब इसकी विपरीत मान्यता शरीर की आपा और पर पदार्थों का अपना मानना मिट जाता है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान प्रगट हो जाता है और सम्यग्दर्शन के होते ही जो ज्ञान है वही सम्यग्ज्ञान कहलाने लगता है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के होने पर आप (पिड) की आपा मानने लगता है अभी भी चारित्र मोह बाकी रह जाता है जिसके कारण राग-द्वेष उत्पन्न होते है जिनका अभाव अपने स्वरूप का आश्रय लेने से होता है अर्थात् अपने उपयोग को अपनी आत्मा के स्वरूप के जानने में लगाने से होता है और चारित्रमोह के अभाव होने से राग-द्वेष की उत्पत्ति रुक जाती है ऐसा आगम मे कहा है परन्तु अध्यात्म तरगिणी पृ० ११ पर दुःख की परिभाषा आकुलता न कह कर राग-द्वेष कहा है जो आत्मा की विकृत अवस्था ( इष्टानिष्ट कलना है ) जिसके कारण इच्छा उत्पन्न होती है और इन इच्छाओ के पूर्ण न होने से आकुलता होती है वह आकुलता ही दुःख का स्वरूप हैं । पृष्ठ १३ परा-राग-द्वेष शरीर में अर्थात् पर मे अपनापना मानने से होता है यह मानना भी (मिपादृष्टी) जीव की पर्याय है सो मिथ्यादर्शन के उदय Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भये प्रकाशन पर साधुवाद के कारण से होती है । यहा याद रखना चाहिए कि अपना की उत्पत्ति रुक जाती और शुद्ध पर्यायों की उत्पत्ति होने पना मानना तथा राग-द्वेष ये सब पर्याय है और पर्याय लगती है जिनका कारण स्वय ज्ञान गुण है। की उत्पत्ति का कारण पर्याय नही होती पर्यायो की उत्पत्ति लोक ८८६ मे भी कहा है जिस समय ज्ञान होता है के कारण भिन्न-भिन्न है। पर मे अपनापना मानना श्रद्धा उस समय ज्ञान ही होता है राग-द्वेष नहीं होते क्यो एक गुण की अशुद्ध पर्याय है और राग-द्वेष चारित्र गुण की साथ दो पर्याय नही होती ज्ञान पर्याय का कारण ज्ञान बिकारी पर्याय है। ये पर्याये गुणो से पृयक नही की जा गण है तथा रागद्वेष पर्यायों का कारण कर्म है । प्रस्तावना सकती। यदि पर्यायों का अभाव माना जायगा तो गुणो मे वस्तु की परिभाषा में पृ० १५ पर कहा है- वस्तु= का भी अभाव हो जायगा क्योंकि पर्याय गुणो की अव सामान्य --विशेष । सामान्य को वस्तु की मौलिकता स्थाये है और गुणो को कोई न कोई अवस्था हमेशा रहती और विशेष को पर्याय कहा है जिससे भाव होता है कि है और गुणो के समुदाय का नाम ही द्रव्य है गुणों के अभाव मे द्रव्य के अभाव होने का प्रसग आ जायगा। द्रव्य पृथक है और पर्याय पृथक जो कि आगम में 'गगा, पर्ययवद द्रव्य' धाले मोक्ष शास्त्र के लक्षण से मेन नही क्यों जमा घटा दो पृथक्-२ पदार्थों में होता है एक ही द्रव्य खाता । आगम के अनुसार सामान्य और विशेष दोनों ही के गुण और पर्यायों मे नही होता जैसे पृ० ११ मे कहा वस्तु के स्वरूप का वर्णन करने वाली शैलिया है वस्तु के है-'जीवात्मा-रागद्वेष-परमात्मा।' जो पागम के सक्षेप में वर्णन करने वाली सामान्य शैली है और विस्तार विरुद्ध है आगम मे तो द्रव्य का लक्षण सत कहा है और से वर्णन करने वाली विशेष शैली है या सामान्य और उस सत को उत्पाद, व्ययध्रौव्य युक्त सत् कहा। अर्थात् विशेष दो प्रकार के प्रत्येक द्रव्य मे गुण होते है जो गुण द्रव्य की अवस्थाये उत्पन्त होती रहती है और विनशती प्रत्येक द्रव्य मे पाये जाते हैं उन्हे सामान्य गुण कहते है रहती है । ये पर्याय दो प्रकार की होती है शुद्ध और अशुद्ध और जो गुण एक ही द्रव्य मे पाया जाता है दूसरे में नही शुद्ध पर्यायो में द्रव्य स्वय निमित्त होता है और अशुद्ध जिसके कारण से द्रव्यो के भिन्नता की पहिचान होती है पर्यायो मे परद्रव्य-कर्म कारण होता है तथा कारण के ऐसा कथन सर्वत्र जाता है परन्तु सामान्य को वस्तु की विना कार्य नही होता--(अशुद्ध पर्यायो) की उत्पत्ति नहीं मौलिकता तथा पर्याय को विशेप कहा हो ऐसा कही देखने होती । कर्म के अभाव होने से जीवात्मा परमात्मा कह मे नही आया। मो प्रकार से सभी जगह की गई अपनी लाने लगता है मोक्षशास्त्र मे भी कहा है-'ससारिणो परिभाषायें आगम से मेल नहीं खाती और न कहीं आगम मुक्ताश्च' अर्थात् जीव दो प्रकार के है ससारी और मुक्त । प्रमाण ही दिया है। यदि सभी का स्पष्टीकरण दे देते तो कर्म सहित जीव ससारी है और क्रर्म रहित मुक्त (परमात्मा) पाठको को पूरी जानकारी हो जाती। इसलिए जीवात्मा और परमात्मा की परिभाषा जो इस उक्त कुछ प्रसग ऐसे हैं जो अविचारक पाठकों को प्रस्तावना में की है वह आगम के विरुद्ध है । विपरीत दिशा दिखाने में भी सहायक हो सकते है। पचाध्यायी में राग-द्वेष के विषय मे श्लोक न०८८३ में भी राग-द्वेष विकारी पर्यायों को औदयिक भाव कहा हमारी राय मे तो ऐसे मौलिक ग्रन्थ को प्रस्तावना की आवश्यकता ही नहीं थी । आशा है सस्था और प्रस्तावना है जो पर-द्रव्य, मोह कर्म के कारण से उत्पन्न होती है। लेखक दोनों हमारे निवेदन स्वीकार कर आगामी सस्करण कालुष्यं तत्र रागादिर्भावश्चौदायिको यन:, में दोपों का परिहार करेगे। बड़ी खुशी है कि संस्था का बाकाच्चारित्रमोहस्य, दृइमोहस्याथ नान्यथा ।८८३ ध्यान प्राचीन ग्रन्थों के प्रकाशनो पर है। यदि अपना कुछ इनकी उत्पत्ति मोह कर्म के उदय से होती है और न दिया जाय तो प्राचीन सभी ग्रन्य मौलिक हैं -ग्रन्थ मोह कर्म के पृथक हो जाने पर राग-द्वेष (अणुद्ध पर्यागो) प्रकाशन के लिए साधुवाद ! सम्पादकीय.-इस लेख का समाधान पेज २८ पर देख । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मुन्नालाल की शंकाओं का समाधान 0 श्री बाबूलाल जैन श्री मुन्नालाल जी ने परमाध्यात्मतरंगिणी की प्रस्ता- Passion=God, God+Passion = Man अर्थात् वना के कई विषयों को आगमविरुद्ध बताया है। उनका मनुष्य-विषयकषाय = परमात्मा। प० टोडरमल जी ने स्पष्टीकरण किया जाता है : मोक्षमार्ग सातवें अध्याय मे पेज २५८ श्री मुसद्दीलाल जैन १. पेजह से जो विषय चला आ रहा है वहा कहा ट्रस्ट से छ। हआ है, लिखा है कि रागादि मिटाने का है कि प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा होने की सम्भावना श्रद्धान होय सोही श्रद्धान सम्यकदर्शन है, रागादि मिटा. है। पेज १० पर यह कहा है कि जीव बीजभूत परमात्मा वने का ज्ञान सो सम्यकज्ञान भोर रागादि मि सोही है परन्तु उसका पुरुषार्थ सज्ञी पचेन्द्रिय अवस्था से चालू आचरण सम्यक् चारित्र है ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य होता है। उस विषय का आगे-पीछे का वर्णन लेकर है। भगवान कुन्दकुन्द ने 'चारित्रं खलु धम्मो' कहा है विचार करना चाहिए, मात्र बीच की एक लाइन लेने से और मोह क्षोभ से रहित परिणाम सो चारित्र है । मोहतो अर्थ का अनर्थ होगा ही। हमारा तात्पर्य भी जीव क्षोभ के द्वारा राग का ही अभाव बताया है अत: रागादि मात्र से ही है। का अभाव धर्म है। १२वे गुण स्थान के शुरू मे मोह का २. प्रभव्य में भी पारिणामिक भाव है वह चैतन्य- अर्थात् रागादि का अभाव होने पर यथाख्यात चारित्र पना है। अभव्य पारिणामिक भाव की निज रूप श्रद्धा होता है और अनत सुख होता है यह आत्मा १२वे गुणनही करेगा अतः प्रभव्य है। वह बीजभूत तो है परन्तु स्थान के अन मे अरहत परमात्मा हो जाता है। उगने की शक्ति की व्यक्तता नहीं है अर्थात् अभव्य के ४. अपने लिखा अज्ञान से राग-द्वेष नही होते । सच्चा पुरुषार्थ नहीं होगा। समयसार गाथा २७३- ऐसा नही है राग-द्वेष की उत्पत्ति का मूल कारण जीव २७४ में कहा है-अभव्य व्यवहार चारित्र का पालन की अज्ञानता है-जो अपने स्वभाव को न जानकर शरीकरता है तथापि सम्यक्चारित्र को प्राप्त नही करता अत: रादि मे अपनापना मानने से हुई है। मिथ्यात्व के अभाव अज्ञानी है। इसी प्रकार ज्ञान की श्रद्धा न करने से शास्त्र बिना राग-द्वेष का अभाव नही हो सकता। कलश २१७ पढ़ने के गुण का अभाव है। गाथा २७५ के भावार्थ में समयसार की टीका में कहा है कि राग-द्वेष का द्वन्द तब प० जयचन्द जी लिखते है कि "आस्मा के भेद ज्ञान होने तक उदय को प्राप्त होता है जब तक यह ज्ञान ज्ञानरूप की योग्यता न होने से।" अभव्य को व्यवहार नय के नही... इसलिए यह ज्ञान अज्ञान भाव को दूर करके पक्ष का सूक्ष्म के वलीगम्य आशय रह जाता है जो मात्र ज्ञानरूप हो...। सर्वज्ञ जानते है। इससे मालूम होता है कि बीजभूत होते ५. वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। यहां पर आपने हुए भी उसकी व्यक्तता नहीं होती। जिस जीव के सच्चा सामान्य का अर्थ किया है कि जो गुण सब मे पाया पुरुषार्थ होगा उसी के व्यक्तता होगी। देखो द्रव्यसंग्रह जावे वह सामान्य गुण और जो किसी खास द्रव्य मे गाथा १४ की टीका। पाया जावे वह विशेष गुण होता है। यहां पर गुण ३. मुन्नालाल जी का कहना है कि जीवात्मा- का कथन नहीं किया है । वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक रागद्वेष =परमात्मा यह गलत है। श्री वैरिस्टर चम्पत- होती है। सामान्य को विषय करने वाली द्रव्याथिक राय जी ने "की ऑफ नालेज" में लिखा है-Man- दृष्टि है और विशेष को विषय करने वाली पर्यायाथिक Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बी मुन्नालाल की शंकाओं का समाधान दृष्टि है अतः वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक कहो अथवा सामान्य ७. आपने लिखा धर्म का आविष्कार नहीं होता। विशेषात्मक कहो एक ही बात है। यह तो जैन धर्म का यह ठीक है परन्तु वहा यह नहीं लिखा है कि धर्म का प्राण है। बस्तु को ऐसा समझे बिना तो जैनधर्म का आविष्कार किया पर वहां लिखा है धर्म के विज्ञान का रहस्य समझ में भी नहीं आ सकता। कई उदाहरण आविष्कार किया। धर्म के विज्ञान का अर्थ है कि धर्म देकर इसको सावित किया गया है । यही तो इस प्रस्तावना किसे कहते है, धर्म क्या है इसकी जानकारी प्रगट करने का मुख्य विषय है। समयसार कलश १ कोटीका मे प० का तरीका धर्म के विज्ञान का आविष्कार है। जैसे अणु जयचन्द जी लिखते है कि "तातं द्रव्याथिक पर्यायाथिक के विज्ञान का आविष्कार किया का अर्थ यह नही है अणु दोनो नय मे प्रयोजन के वशतं शुद्ध द्रव्याथिक को मुख्य को बनाया परन्तु यह अर्थ है कि जानकारी प्रगट की। करके निश्चय कहै है।" कलश ४ का भावार्थ-"द्रव्य को मुख्य करी अनुभव करावै सो द्रव्याथिक, पर्याय को मुख्य ८. आपने जगह-जगह लिखा है जीव कम की वजह करी अनुभव करावे सो पर्यायाथिक है।" वस्तु ,सामान्य । से दुःखी है, कर्म की वजह से अशुद्ध है सो यह कथन विशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक है। ऐसा ज्ञान है वह व्यवहार नय से है। अशुद्ध निश्चय नय से जीव अपने सम्यक्त्व का साधक है : देखो माइल्लधवल नयचक्र गाथा रागादि भावो की वजह से अशद्ध है और रागादि की २४० पृ. १२६ । वस्तु का सामान्य स्वरूप शुद्ध निश्चयनय वजह से दुःखी है। का विषय है वह ही वस्तु की मौलिकता है। आपके लेख का जवाब ज्यादा विस्तार से नहीं ६. आपने लिखा इच्छा से आकुलता होती है. दिया है। अध्यात्म का बहुत बारोको से चितवन मनन आकुलता है वह दुःख है। सो इच्छा तो राग का ही भेद करने से तत्त्व की लड़ी सुलझती है । इस बात को खुशी है। आप ही लिख रहे है आत्मा के अहित विषय कषाय है कि आपने प्रस्तावना पढ़ी और उस पर विचार किया और आप ही कह रहे हैं कषाय से दुःख नही होता इच्छा इसलिए आपका ग्राभार है। अगर जिज्ञासु दृष्टि से पढ़ी से आकुलता होती है पाकुलता से दुख होता है। जिसके होतो तो ये सब प्रश्न खडे ही न होते । प्रस्तावना क्योकि राग ही नही रहा उसके इच्छा कहा से होगी। राग मे कोई ग्रन्थ नही था इसलिए ग्रन्थो के प्रमाण नही दिये सभी विकार गभित हो जाते है। गये। (पृ० २३ का शेषाश) पर विचार किया जाय, तो ऐसा प्रतीत होता है कि नन्दि का काल विक्रम को आठवी शताब्दि के आसपास उद्योतन सूरि के ३०-४० वर्ष पूर्व वह अपनी रचना कर होना चाहिए। अध्यक्ष, सस्कृत विभाग म०म० चुरा होगा। इस प्रकार हमारा अनुमान है कि जटासिंह महिला महाविद्यालय, आरा सन्दर्भ-सूची १. कुवलयमालाकहा-पृ० ४५०१ । "६. तुलनार्थ-देखे, व० च. सर्ग २६/५२, ५३, ५४, २. पद्मचरितम्--प्राक्कथन पृ०१। ५५, ५७, ५८, ६०, ६३, ६४, ६५, ६६, ३. व० च० हिन्दी प्रस्ताबना-पृ०६ । ७०, ७१ एवं ७२ तथा सन्मति प्रकरण४. तुलनार्थ-देखें वराङ्ग सर्ग ४, कम वर्णन-तस्वार्थ १/६, ९, ११, १२, १७, १८, २१, २२८वा अध्याय व० च० सर्ग ५-१० लोकस्व २५, ५१-५२ तथा ३-४७, ५४-५५ । रूप तत्त्वार्थ ३-४ अध्याय व० च० सर्ग २६ ७. तुलनार्थ- देखे, व० १५/१२२ तथा 'सामयिक पाठ' द्रव्यगुणपर्यायनिर्देश-तत्त्वार्थ-५वां अध्याय, मे सामयिक शब्द की व्याख्या । ३० च० सर्ग ३१ तपवर्णन-तत्त्वार्थ वां ८ व० च० प्रस्तावना-पृ० ६५। ६.१०. वहीं । अध्याय । ११. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परपरा५. तुलनार्थ-देखे, व०च० सर्ग २६/८२-८३ और स्वयम ३/२६४ । स्तोत्र श्लोक १०२-३। १२. हरिवंश पुराण-१/३०/३५ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राम पगारा की जैन प्रतिमाएँ 0 श्री नरेशकुमार पाठक पगारा मध्य प्रदेश के धार जिले मे तहसील मनावर बावडी से प्राप्त तीर्थकर का ऊर्ध्व भाग ही शेष है। के अन्तर्गत एक छोटा-सा ग्राम है। यह इन्दौर से लगभग प्रतिमा कुन्तलित केश राशि से युक्त सिरके पीछे प्रभा१०० कि० मी० की दूरी पर अवस्थित है । इन्दौर से बस मण्डल है, वितान मे विछत्र एवं चार पद्मासन में बैठी द्वारा धामनोद, धरमपुरी से होते हुए, पगारा पहचा जा हुई जिन प्रतिमाओं का अकन है। सकता है। धरमपुरी से यह लगभग ८ कि०मी० उत्तर- जैन प्रतिमा पाद पीठ:--- जैन प्रतिमा पादपीठ से पश्चिम मे अवस्थित है। इस गांव में स्थित टीले का सम्बन्धित शिल्पखण्ड तीन हनुमान मन्दिर से और एकउत्खनन मध्यप्रदेश पुरातत्व एव संग्रहालय विभाग द्वारा एक बावडी एवं गणपति मन्दिर में प्राप्त हा है। इन १९८१-८२ मे कराया गया, जिसमे शुगकाल से लेकर पादपोठों के मध्य मे धर्मचक्र दोनो पार्श्व में हाथी एव मुगल काल तक के अवशेष प्राप्त हुए । पगारा ग्राम एव सिंह आकृतियो का आलेखन है। टोले के आसपास कई जैन प्रतिमाएं रखी हुई है। जिनका जैन प्रतिमा वितान :- जैन प्रतिमा वितान से विवरण निम्नलिखित है : सम्बन्धित शिल्प कृतियों मे ६ बावड़ी से तीन हनुमान जैन शासन देवी पद्मावती: मन्दिर एक-एक टीले एव गणपति मन्दिर से प्राप्त हुए हनुमान मन्दिर से प्राप्त चतुर्भुजी देवी पद्मावती सध है। इन पर बिछत्र, दुन्दभिक, अभिषेक करते हुए हाथी, ललितासन में बैठी हुई निर्मित है। देवी की भुजाओ मे विद्याधर युगल, कायोत्सर्ग तथा पद्मासन मे जिन प्रतिमा दक्षिणाधः क्रम से अक्षमाला सनालपद्म, सनालपद्म एव एव मकर व्यालो का आलेखन है। बायी नीचे की भजा भग्न है। नीचे देवी के वाहन हश जैन शिल्प खण्ड :--जन प्रतिमा शिल्प खण्ड से का अंकन है। दोनो पार्श्व में परिचारिका प्रतिमा बनी सम्बन्धित तीन कलाकृतियां बावड़ी से प्राप्त हुई है। हुई है । वितान में पद्मासन मे जैन तीर्थकर प्रतिमा अकित प्रथम जैन प्रतिमा का दायां भाग है, जिसमें एक कायोहै। देवी करड मुकुट, चक्र कुण्डल, उरोजो को स्पर्श त्सर्ग एव एक पद्मासन मे तीर्थकर प्रतिमा अकित है। दायें करता हुआ हार, केयूर, बलय, मेखला, नूपुर से अलकृत पार्श्व मे चामरधारी एवं मकर व्याल का अंकन है। द्वितीय मे दो जिन प्रतिमा एवं दायी ओर एक लांछन विहीन तीर्थकर प्रतिमाएं-हनुमान मदिर चावरधारी का शिल्यांकन है। के सामने से प्राप्त प्रथम प्रतिमा मे पद्मासन की ध्यानस्प मुद्रा मे तीर्थकर अकित है। वक्ष पर श्रीचन्म का आलेखन ___ तृतीय पर पद्मासन को ध्यानस्थ मुद्रा में जिन प्रति ___ माओ का आलेखन है। है। बायें पावं मे सिर विहीन परिचारिका का विभग " मुद्रा मे अब न है । मूर्ति का सिर व पादपीठ भग्न है। केन्द्रीय संग्रहालय, गूजरी महल, दूसरी प्रतिमा में भी तीर्थकर पद्मामन में अंकित है। ग्वालियर (म०प्र०) (पृ० ३२ का शेपाश) नश्वर मान-प्रतिष्ठा, अभिनन्दन आदि से बचना चाहिए। उनके भी अभिनन्दर ग्रश तैयार हो रहे है। यह समाज हमारा मूल चिन्तन 'आप अकेला अवतरै, मरै अकेला का दुर्भाग्य है जिसे वह सौभाग्य समझकर प्रभूत धन खर्च होय' होना चाहिए। पर क्या करे? आज नो हमाग कर गोगा रहा है ! काश, यही धन जरूरत-मन्दो के काम साधु भी रट लगा रहा है कि मन अभी भरा नही।' आता। --सम्पादक Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा-सोचिए! कि-दिल अभी भरा नहीं ! हमने कही पढ़ा है-"जोगी जोग जुगति क्या करता और परिग्रह समेटते हुए यही रटते रहे कि-'दिल अभी पहिले मन को अपने मार ।" यह प्रसंग शुद्धात्मपद की भरा नहीं।' प्राप्ति के प्रति उद्यत किसी उस योगी को लक्ष्य कर कहा पहिले हमे अपने को देखना होगा-हमें शुद्ध धार्मिक गया है जो बाहर से तो ध्यानमुद्रा मे बैठा हो और जिसका रूा मे ढलना होगा -वीतराग धर्म की वीतरागता की मन इधर-उधर डोल रहा हो । भला, जिसका मन संसार ओर बढना होगा, चाहे वह बढना क्रमशः ही क्यो न हो? को विडम्बनाओ में घूम रहा हो, वह ध्यान कैसे करेगा-- लोग चाहे जो कहें, पर हमारी दृष्टि तो ऐसी बनी है कि आत्मकल्याण कैसे करेगा ? शास्त्रो मे भेद-विज्ञान को जैनधर्म का मूल उद्देश्य, वीतरागता की ओर बढ़ाना मात्र आत्मकल्याण का मार्ग कहा गया है और वह भेद-विज्ञान है-शेष व्रत-नियम, आदान-प्रदान, क्रियाकाण्ड आदि तो शास्त्रज्ञान द्वारा होता है। आज के समय में तो ऐसा साधन हैं जो प्राय अन्य सभी धर्मों में भी होनाधिक देखा जा रहा है कि जिन्होने जीवन भर शास्त्री को पढ़ा मात्रा में है। इस सभी प्रक्रिया पर चिर स्वाध्यायियो व उनमें कोई ही भेद-विज्ञान के पाठ का अनुसरण करत हा विद्वानो का गान जाना चाहिए। वरना, प्रायः शास्त्रो मे अपना जीवन बिताने की बात हम आश्चर्यचकित रह जाते है जब वर्तमान ज्ञानियो करने वाले अधिकांश जन तो भेद-विज्ञान के स्थान पर, तक में आपाधापी की होड देखते है उनमे 'अह' को धन, जायदाद आदि पर कुण्डली मारने ---पर-परिग्रह के पुष्ट करने की प्रवृत्ति देखते है। यहा समालोचनार्थ अभिसंग्रह करने मे लगे है--फिर वह परिग्रह ख्याति, पूजा, नन्दन ग्रन्थ आते रहते है और अभी भी हमे दो अभिनदम सन्मान प्रतिष्ठा अभिनन्दन ग्रन्थ आदि के संग्रह-विकल्परूपो ग्रन्थ समालोचनार्थ मिले है। हम नही समझते कि अभिमे ही क्यो न हो? नन्दन ग्रन्थों को यह परम्परा कब से पड़ी? कैसे पड़ी? हमने कितने ही विद्वानो को कहते सुना है कि क्या और क्यो पडी? हमारे चौबीस तीर्थकर, गणधर आदि करें ? समाज की दशा दिनो-दिन बिगड रही है लोगो को अनेक प्राचीन आचार्य हुए, पर किन्ही का कोई अभिनंदन हम चाहे जितनी बार लम्बे-२ भाषण दें, शास्त्र की गद्दी ग्रन्थ हमारे देखने मे नही आया - यदि हो तो देखें । लोग से शास्त्र सुनाएँ, चर्चाएं करें उन पर कोई असर ही नहीं कहेगे उनके जीवन चरित्र तो उपलब्ध है वे ही उनके अभिहोता। ऐसे ही प्रसंग में हमने एक विद्वान से पूछा कि नन्दन ग्रन्थ है। पर, स्मरण रखना चाहिए कि सभी पडित जी, आप लोगो को कितने समय पर्यन्त धामिक चरित्रों मे सभी के गुण और दोष दोनो का वर्णन के. चर्चाएं सुनाते है ? घण्टे, दो घण्टे, चार घण्टे आदि । यदि गुण है तो गुणरूप मे वणित और दोष है तो दोषरूप आपने तो अपना जीवन ही धार्मिक ग्रन्यों के पढने मे गगा मे वणित । उक्त परिप्रेक्ष्य में वर्तमान अभिनन्दन ग्रन्थो को दिया फिर भी आप स्वयम् कितने धर्म-मार्ग पर नने? चात्र ग्रन्य तो रह नही सकते उनमे तो गुणो की ही यह सोचिए। भरमार रहती है। ऐसे में प्रश्न होता है कि क्या अभि नन्दन-ग्रन्थ के प्राप्तकर्ता सभीजन दोषो से सर्वथा अछुते आश्चर्य है कि हम कुछ काल चर्चा सुनने वालों से हुए या हैं ? यदि हां, तो अभिनन्दन-ग्रन्थों को उचित कहा तो अपेक्षा करें कि वे धर्म-मार्ग पर चलें परन्तु चर्चा पे जा सकता है। पर हम समझते है कि एक भी अभिनन्दन जीवन बिताने पर भी हम अपने धर्म-निर्वाह को न देखे। ग्रन्थ प्राप्तकर्ता ऐसा न होगा जो ताल ठोक कर कह Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, वर्ष ४३, कि० २ अनेकान्त सके कि मुझमें एक भी दोष का आश्रय नहीं था या नही से अधिक बुद्धिमान हैं जो नए-२ ग्रन्यादि रचकर धर्महै। और जब दोष है तो अभिनन्दन के नाम से ग्रन्थ प्रचार में लगे है? या आचार्यों के ग्रन्थों की मनमानी प्रकाशन और उसके आदान-प्रदान का तुक ही कहा? । यदा-तद्वा व्याख्याएँ कर रहे है ? यदि प्रचार ही करना है क्या इसीलिए कि-'कि दिल अभी भरा नहीं।' तो आचार्य पाक्यों का प्रचार कीजिए । उनके शब्दार्थ ही ये तो गृहीता की यश लिप्सा और प्रदाताओ की मोखिक समझाइए, ताकि आगम सुरक्षित रह सके । पर, चापलमी-लत ही हुई जो आँख मीचकर अभिनन्दन ग्रंथ करें क्या? कुछ लोग लेखन को व्यवसाय बनाये है वे पैसे छापे जांग। और कहावत भी चरितार्थ हुई कि 'अन्धा के लिए लिखते है, कुछ यश याति मे डूबे है -'गर तू बांटे रेवड़ी घर ही घर को देय।'-शायद यह भी सत्य नही तेरा तो सदा नाम रहेगा।' जवकि अनन्तो तीर्थकरो, हो कि अभिनन्दनो के प्रकाशन पक्ष-व्यामोह और गुटबन्दी चक्रवतियो आदि के नाम भी मिट गए। सभी जानते है के परिणाम है। 'तू मेरा कर मैं तेरे लिए साधन जुटा- कि दिग्विजय के बाद चक्रवर्ती तक को अपना नाम लिखने ऊंगा आदि।' के लिए एक अन्य नाम मिटाना पड़ता है और पूर्वकाल के प्रश्न यह भी है कि क्या इन ऐसे ग्रन्थो से कोई किसी दिग्विजयी को मिट जाना पड़ता है। धामिक लाभ भी होता है। बहुत से लेख तो कई अभि- यदि गहराई मे न जाय और मोटा-२ विचार ही मन्दन ग्रन्थो मे ऐसे होते है जो इससे पहिले भी अन्यत्र करें-तो निष्कर्ष ऐसा भी निकलता है कि एक अभिनन्दन अल्प-व्यय मे छप चुके होते है। यह भी जरूरी नहीं कि सभी ग्रन्थ मे पचास हजार की राशि का व्यय होना तो साधालेख प्रामाणिक पुरुषों के लिखे और प्रामाणिक ही हो- रण सी बात है और इतनी राशि एकत्रित करना, किसी सभी की अपनी-अपनी मान्यताये होती हैं- सर्वज्ञ या गण- चन्दा व्यवसायी को महा सरल है। रास्ते चलता साधाघर तथा पूर्वाचार्यों की नहीं । अनेक लेख विवादस्थ भी रण आदमी भी इतनी राशि वसूल कर सकता है। हाँ, होते है। सर्वज्ञ ध्वनि दे गए, गणघर गथ गए और पूर्वा. उसमें लोगो को तनिक उछाना देने के गट्स चाहिए । चार्यों ने उनकी व्याख्याएं दी और वे ही प्रामाणिक हैं। सो यहाँ तो बड़े-२ महारथी इस कार्य को करते हैं। उन्हे आम मादमियों के लेख प्रामाणिकता की कोटि मे नही इतनी बड़ी राशि के अप-व्यय की चिंता नहीं। हमे तो आते। ___ दया आती है उन निष्काम सेवी अभिनन्दन गृहीताओं पर हमे स्मरण है कि हमने एक मन्दिर जी मे एक जो अपने गुणगान हेतु जनता का इतना प्रभूत द्रव्य व्यय सज्जन को एक अभिनन्दन ग्रन्थ का वाचन शास्त्र रूप मे करा कर भी अपने को निष्काम सेवी कहलाना चाहते करते और श्रोताओ को सुनते देखा। वाचन के अन्त में हैं। कितनी ही शुभकामनाएं ग्रन्थ मे छप जाती है, सामू'मिध्यातम नाशवे कू' स्तुति भी हुई और लोगों ने ग्रन्थ हिक गणगान भी हो जाते है फिर भी वे समालोचना के को साष्टांग नमस्कार भी किया। गोया, ग्रन्थ कोई अभि- द्वारा प्रशंसा के भूखे रह जाते है। सच ही है कि उनकानन्दन ग्रन्थ न होकर आगम या जिनवाणी हो। ऐसी स्थिति 'दिल अभी भरा नहीं।' मे अभिनन्दन ग्रन्थों के कारण 'कदाचित् भविष्य मे जिन- हम स्मरण करा दे कि हमने पूर्व मे ऐसे लोगों के वाणी का क्या रूप बन जायगा : इसे भी बड़ी गहराई से अभिनंदन प्रथ और अभिनन्दन होते भी देखे है, जिनके धर्म सोचना होगा? इतना ही नही हम तो बार बार नए ग्रंथो, और समाज के प्रति बेजोड़ उपकार रहे, फिर भी जिन्हें टीकाओ, विशेषार्थ और भावार्थों के लिखे जाने का भी अन्तिम दिन दुःख मे ही निकालने पड़े। अभिनन्दनों ने बराबर विरोध करते रहे है और वह इसीलिए कि आचार्यों उनका कोई साथ न दिया--अन्य वैभव के साथ वे भी के मूल ग्रन्थो को आगम माना जाने का चलन लोप न हो यही धरे रह गये । हमारे तीर्थंकर-महापुरुषो की लोक जाय और पडित वाणी ही भविष्य में जिन वाणी न बन सही रही और हमें भी उसी पर चलना चाहिए-झूठी, बैठे, जैसा आज हो चुका है। क्या, लेखक गण पूर्वाचार्यों (शेष पृ० ३० पर) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों से चुने : ज्ञान-कण संकलयिता-श्री शान्तिलाल जैन, कागजी १. तत्त्व तो सात हैं-१. बंध और बघ के कारण, २. (आस्रव), ३. मोक्ष और मोक्ष के कारण, ४. संवर, ५. निर्जरा, ६. जीव और ७. अजीव ।। २. सत्य पाया जाता है बनाया नहीं जाता। ३. शुद्ध दार्शनिक का नारा होता है सत्य सो मेरा, कुदार्शनिक का हो हल्ला होता है मेरा सो सत्य । ४. सुख तो अन्तरङ्ग में रागादिक दोष के अभाव मे है । ५ राग दूर करने की चेष्टा करना रागादि की निवृत्ति नहीं करना। राग में जो कार्य हो उसमे हर्ष-विषाद न ___ करना ही उसके विनाश का कारण है। -वर्णी जी ६. भेदविज्ञान का अनुभव हो, चाहे कषाय का अनुभव हो, बध का कारण अन्तरङ्ग अभिप्राय है। -वर्णी जी ७. जिस समय अविरत सम्यग्दृष्टि विषयानुभव करता है उस समय तथा जिस समय वह स्वात्मानुभव करता है उन दोनों अवस्थाओ में चतुर्थ गुणस्थान ही तो रहता है। -वर्णी जी ८. इस तरफ कुछ नही है और दूसरी तरफ भी कुछ नहीं है तथा जहा-जहा मैं जाता हूं वहा वहां भी कुछ नहीं है। विचार करके देखता हूं तो यह संसार भी कुछ नहीं है । स्वकीय आत्मज्ञान से बढ़कर कोई नही है। -अमृतचद्र सूरि ६. मिथ्यात्व की अनुत्पत्ति का नाम ही तो सम्यग्दर्शन है और अज्ञान की अनुत्पत्ति का नाम सम्यग्ज्ञान तथा रागाकी अनुत्पत्ति यथाख्यातचारित्र और योगानुत्पत्ति ही परम यथाख्यात चारित्र है। वर्णी जी १०. घट के घात से दीपक का घात नही होता । ११. आत्मा में मोक्ष है स्थान मे मोक्ष नहीं । १२. परपदार्थ व्यग्रता का कारण नहीं, हमारी मोह दृष्टि व्यग्रता का कारण है १३. एक वस्तु का अन्य वस्तु से तादात्म्य नही । पदार्थ की कथा छोड़ो। एक गुण का अन्य गुण और एक पर्याय का अन्य पर्याय के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं । -वर्णी जी १४. पर के द्वारा की गई स्तुति-निन्दा पर हर्ष-विषाद करना, अपने सिद्धान्त पर अविश्वास करने के तुल्य है। १५. यः परमात्मा स एवाहं योऽड स परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यः नान्यः कश्चिदिति स्थितिः॥ जो परमात्मा है वही मैं हूं और जो मैं हूं सो परमात्मा है। अतः मैं अपने द्वारा ही उपास्य हं, अन्य कोई नहीं ऐसी ही वस्तु मर्यादा है। १६. अनन्त वीर्य उत्पन्न हो जाने पर भी जब तक मनुष्यायु कर्म की स्थिति शेष है उस समय तक अघातिया कमा ___ का भय नही हो सकता है। १७. अन्तिम तीर्थंकर श्री १००८ महावीर स्वामी के तीर्थ काल मे (१) नमि (२) मतङ्ग (३) सोमिल (४) रामपुत्र (५) सुदर्शन (६) यमलोक (७) वलिक (८) विषाम्बिल (६) पालम्बष्ट (१०) पुत्र । इन दस मुनीश्वरों ने तीव्र उपसर्ग सहन कर केवलज्ञान प्राप्त किया। -द्वादशांग का आठवां अङ्ग कागज प्राति :-श्रीमती अंगूरो देवो मैन (धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली-२ के सौजन्य से Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper af R. No. 10591/62 वीर-सेवा- मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन ६-०० नम् प्रशस्ति संग्रह, भाग १ : संस्कृत और प्राकृत के १७१ प्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित पूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रों की इतिहास विषयक साहित्य - परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । -प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रंश के १२२ प्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह । पचपन प्रत्यकारों के ऐतिहासिक ग्रंथपरिचय और परिशिष्टों सहित सं. पं. परमानन्द शास्त्री | सजिल्द | समातिन्त्र और इष्टोपदेश : मध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित needeगोल मोर दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन *** ... ... BOOK-POST १५-०० ५-५० ३००० 3-80 जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द | कसायपाहुडसुल : मूल ग्रन्थ की रचना भाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर भी यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त - शास्त्री | उपयोगी परिशिष्टों भोर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज धौर कपड़े की पक्की जिल्द । ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित ) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री चैन लक्षणावली (तीन भागों में) : सं० पं० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्रा जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, सात विषयों पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन Jaina Bibliography: Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. ( P. 1942 ) २५०० १२-०० प्रत्येक भाग ४०-०० २-०० Per set 600-00 सम्पादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक श्री पद्मचन्द्र शास्त्री प्रकाशक- बाबूलाल जैन वक्ता, बीर सेवा मन्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिंटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिरका त्रैमासिक अनेकान्त (पत्र प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४३ : कि०३ जुलाई-सितम्बर १६६० इस अंक मेंक्रम विषय १. सीख २. कन्नड़ के जैन साहित्यकार-श्री राजमल जैन ३. भट्टाकलककृत लघी स्त्रय : एक दार्शनिक अध्ययन -श्री हेमन्त कुमार जैन ४. नीति काब्य की अचचित कृति : मनमोदन पचशती डा० गगाराम गर्ग ५. भ० पार्श्वनाथ के उपमर्ग का सही रूप ---क्ष० श्री चितसागर जी महाराज ६. युवाचार्य के निबध पर अभिमत -श्री सुभाष जैन ७. सस्कृत के जन सन्देश काय-कु. कल्पना जैन ८. क्यों करते है लोग सस्थाओ को बदनाम? -श्री सुभाष जैन . राज्य संग्रहालय धुचे ना की सर्वतो दिका मूर्तियां -श्री नरेश कुमार पाठक १०. आत्मोपलब्धि का मार्ग : अपरिग्रह -श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, सम्पादक ११. जरा सोचिए- सपादक १२. मूच्र्छा से मूच्छित को आत्मबोध कहाँ -श्री पद्मचन्द्र शास्त्री आवरण प्रकाशक: वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मूच्र्छा' से मूच्छित को आत्मबोध कहाँ ? पद्मचन्द्र शास्त्री, दिल्ली संवर- निर्जरा के आगमोक्त कारणों- अंतरंग-बहिरंग साधनों को जीवन में उतारना चारित्र की सरल परिभाषा है - 'संसार कारणनिवृत्ति प्रत्यागुर्णस्य ज्ञानबतः कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमः सम्यक् - चारित्रम् ।' तत्त्वचर्चा का प्रयोजन स्व-कल्याण से है और स्व-कल्याण (मोक्ष) संवर- निर्जरा पूर्वक ही होता है । फलत' बाह्य तथा अन्तरंग में संवर- निर्जरा के कारणभूत 'गुप्ति समिति-धर्म- अनुप्रेक्षा- परीषहजय और चारित्र तथा तप को अपनाए बिना सभी चर्चाएँ अधूरी हैं- वे निष्फल भी हो सकती हैं । आत्मा के स्वरूप गुण पर्यायादि की चर्चा करना उसको देखना- दिखाना नही है । आत्मानुभव की बात येनकेन प्रकारेण कदाचित् कथंचित् उसके गुणपर्यायादि चितन में भले ही मानी जा सके । स्मरण रहे - चर्चा करना और चिंतन दोनों पृथक् हैं। चर्चा सर्वथा बाह्य है और चिंतन कथंचित् अंतरग । जहाँ तक आत्मा के गुण- पर्यायों के चितन की बात है, वह चिंतन भी अपरिग्रही ( चारित्री) मन के हो हो सकता है । और हम भी अपरिग्रह की ओर बढने को प्रमुखता देते हैं। पर, कई लोग है कि अपरिग्रह के नाम से विदकते है और भोग भोगते हुए, चर्चा मात्र मे मोक्ष मानते हैं। जब कि आगम में स्पष्ट लिखा है'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग ।' और 'सयतस्यैवागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्व यौगपद्यात्मज्ञान- यौगपद्यं सिध्यति ।' --प्रवच० ३१८० तत्त्वचर्चा के संबंध मे कुछ लोग ऐसी एकांगी मिथ्याधारणा बना बैठे है कि सर्वार्थसिद्धि के देव संयमपालन के बिना, भोग भोगते हुए ३३ सागर आयुपर्यन्त तत्त्वचर्चा करते है और तत्त्वचर्चा के कारण ही वे आगामी भव में मोक्ष पा जाते हैं, आदि । फलतः इस मान्यता के लोग मात्र चर्चा में मोक्ष के स्वप्न देखने लगे हैं - उन्हें परिग्रह त्याग अर्थात् चारित्र की बात काटती जैसी है । पर स्मरण रखना चाहिए कि जैन मान्यता अपरिग्रह पर टिकी हुई है और सर्वार्थसिद्धि विमान की प्राप्ति और वहाँ से चयकर अगले भव में मोक्ष जाना दोनों ही चारित्र (अपरिग्रह की ओर बढ़ने) के कारण से ही है । यदि संयम-विहीन चर्चा से ही मोक्ष होता तो वे देव सर्वार्थसिद्धि से सोधे हो मोक्ष चले जाते होते | उन्हें अगला भव और उसमें दंगम्बरोदीक्षा का संयम ( चारित्र ) धारण करने की आवश्यकता नहीं पड़ती । सभी तीर्थकर भी संयम मार्ग से ही मोक्ष गए है। हमारी दृष्टि से भोगोपभोग की सामग्री (परिग्रह) बढ़ाते हुए कोरी बाह्य चर्चा करना और बाह्यवेश लेकर परिग्रह का संग्रह करना दोनों ही चितनीय है । अपरिग्रह की ओर बढ़ने के पक्षधर होने से हम परिग्रह को कृश कराने वाली तत्त्वचर्चा के पोषक हैं-विरोधी नही । और इसीलिए तत्त्वचर्चा व उसके प्रचार-प्रसार के बहाने श्रावकों और त्यागियों द्वारा भोगोपभोग सामग्रीरूप- धनादि परिग्रह का बढ़ाया जाना, संस्थाओं मठों भवनों आदि का स्वामित्व प्राप्त करना-कराना आदि हमारी मान्यता के विरुद्ध है – कोई इसे माने या न माने । आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० रु० वार्षिक मूल्य : ६) रु०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते है। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो । पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् प्रहम् TIPUR 1/I DITAR परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण सवत् २५१७, वि० सं० २०४७ वर्ष ४३ किरण ३ जुलाई-सितम्बर १९६० सीख मानत क्यों नहिं रे, हे नर सीख सयानो । भयो अचेत मोह-मद पीके, अपनी सुध विसरानी ॥टेक॥ दुखी अनादि कुबोध अवृत तें, फिर तिन सौं रति ठानी। ज्ञान सुधा निज भाव न चाख्यो, पर-परनति मति सानो ॥२॥ भव असारता लख्यो न क्यों जह, नप ह कृमि विट थानी। सधन निधन नृप दास स्वजन रिपु, दुखिया हरि से प्रानी ॥३॥ देह येह गद-गेह नेह इस, हैं बहु विपति निसानी। जड़ मलीन छिनछीन करमकृत, बंधन शिव सुख हानी ॥४॥ चाह ज्वलन इंधन-विधि-वन-घन, आकुलता कुल खानी। ज्ञान-सुधासर-सोखन रवि ये, विषय अमितु मृतु दानी ॥५॥ यों लखि भव तन भोग विरचिकरि, निज हित सुन जिन वानी। तज सब राग 'दौल' अब अवसर, यह जिनचन्द्र बखानी ॥६॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्नड़ के जन साहित्यकार 0 श्री राजमल जैन, जनकपुरी, दिल्ली भारत का राजनैतिक और दार्शनिक साहित्य विशेष- के आविर्भाव से यह साहित्य अत्यन्त पुष्ट हुमा। इसी कर जैन साहित्य एवं दर्शन. इस बात का साक्षी है कि काल मे रन्न, पोन्न, नागचन्द्र इत्यादि श्रेष्ठ कवि उत्पन्न जैन तीर्थंकरों, एवं आचायो ने स्थानीय लोकभाषा को हुए। इस काल का साहित्य अनेक दृष्टियो से बहुत ही अपने उपदेशों एवं सिद्धान्त ग्रन्थो के लिए मुक्त भाव से महत्वपूर्ण है । इस काल को स्वर्ण युग कहना सर्वथा उपप्रयुक्त किया। यही कारण है कि प्राकृत जैन का समा- युक्त प्रतीत होता है। अन्य विद्वानों ने भी इसको स्वर्णनार्थी-सी बन गई है। युग नाम से अभिहित किया है।" कुछ लेखक इस युग को दक्षिण भारत में भी विशेषकर कर्नाटक में महावीर आरम्भ काल और पप (जन कवि) युग में विभाजित कर स्वामी के समय में भी जैनधर्म का प्रचार था। सम्राट् देते हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य के कर्नाटक मे जैन मुनि के रूप में श्रवण जैन युग के बाद कन्नड़ साहित्य मे वीर शैव युग या बेलगोल में तपस्या करने और स्वर्ग गमन के कारण भी बसव युग का प्रारम्भ हुआ ऐसा माना जाता है जो कि वहाँ जैनधर्म का खुब प्रचार हुआ होगा। उस उरदेश के ११६० ई० से १५०० ई० या १६०० ई. तक माना जैन लेखकों, कवियो ने उसी देश की भाषा कन्नड़ मे अपूर्व जाता है। (बसव वीरशैवमत या लिंगायत मत के प्रवर्तक महत्व की रचनाएँ की और प्राकृत भाषा एवं संस्कृत में थे)। भी ग्रथो की रचना की। ___ उपर्युक्त काल के बाद १५वी सदी से १६वी सदी जैन यग या स्वर्णकाल (आरंभ से ११६०ई० तक) तक की कालावधि वैष्णव युग का ब्राह्मण युग या कुमार कन्नड़ भाषा के साहित्य के इतिहास का प्रारम्भ व्यास युग कहलाती है। इसके भी बाद का वर्तमान काल जैन कवियो या लेखकों से होता है। प्रसिद्ध पुरातत्वविद आधुनिक युग निर्दिष्ट किया जाता है। ई० पी० राइस ने अपने कन्नड़ साहित्य के इतिहास मे ऊपर जो जनेतर या आधुनिक युग आदि दिए गए आरम्भ से लेकर ११६० ई० तक के युग को 'जन युग' हैं, उनमे जैनो की लेखनी रुकी नही। वे भी अपनी लेखनी नाम दिग है। इसी कोटि के विद्वान् आर. नरसिंहाचार्य से कन्नड साहित्य को समृद्ध करते रह । ने अपनी रचना 'कविचरिते' (कवियो का इतिहास) मे भाषा की प्राचीनता की दृष्टि से जैन युग प्राची। ईसा की पांचवी शतान्द्री से लेकर बारहवीं शताब्दी के कन्नड़ (हल गन्नड़) काल है। उसमे नोवी शताब्दी से कानड साहित्य के इस युग को जैन युग कहा है। 'कट पहले प्रथ-रचना उपलब्ध नहीं होती। अशोक के प्राकृत और उसका साहित्य' के लेखक श्री एन. एस. दक्षिणामूर्ति शिलालेखों के बाद प्राचीन कन्नड़ में शिलालेख पाए जाते ने भी लिखा है--"१. आरम्भकाल अथवा स्वर्ण युग है। सबसे प्राचीन शिलालेख हल्मिडि शिलालेख (पांचवी (५वी शताब्दी से १२वी शताब्दी तक)-अन्यत्र यह सदी) कहलाता है। उसके बाद छठी सातवी सदी के दिखाया गया है कि कन्नड साहित्य वा आरम्भ स्थल रूप भवणवेलगोल के शिलालेख आते हैं। इनके विषय मे श्री से ५वी शादी माना जा सकता है। ५वी से हवी शताब्दी २० श्री मुगलि ने लिखा है-"श्रवणवेलगोला से प्राप्त तक का साहित्य किस रूप में था, यह निश्चित रूप से अनेक प्राचीन शिलालेखों में साहित्य-सस्कार स्पष्ट है। नही कहा जा सकता। हवी शताब्दी में पंप जैसे महाकवि उनमे जैसे वीररस जगमगा रहा है। वैसे ही शांतरस की Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बूंदे भी झलक रही है।" इसी जैन तीर्थ के एक शिला लेख से ज्ञात होता है कि ओवर्धदेव नामक कवि ने लगभग ६५० ६० में 'दाम' नामक काव्य-कृति का सूज किया था किन्तु यह रचना अभी उपलब्ध नहीं हुई है कन्नड़ भाषा का सबसे प्राचीन उपलब्ध प्रथम हुद्यात्मक ग्रन्थ "कविराजमा" है। जैन धर्मानुयायी राष्ट्रकूट नरेश नृपतुंग अथवा अमोघवर्ष (८१४८७७६०) द्वारा यह रचित बताया जाता है। संस्कृत कवि दण्डी के अलर ग्रन्थ 'काव्यादर्श' को एक मानक ग्रन्थ मानकर इसकी रचना की गई है । यह मुख्यतः अलकार सम्बन्धी ग्रन्थ है जो आज भी आदर के साथ पढ़ा जाता है। किंतु जहाँ दण्डी ने केवल आठ ही रस ( कविता मे ) बताए है यहाँ नृपने "शांतरस" वो भी एक रस माना है। यह निश्चय ही जनधर्म का प्रभाव है। इस ग्रन्थ से कर्नाटक की एक हजार वर्ष प्राचीन भाषा और संस्कृति का सम्यक् ज्ञान होता है। कुछ विद्वान् नरेश नृपतुंग के स्थान पर 'श्रीविजय' को इसका रचयिता मानते है । किन्तु वे भी एक जैन कवि माने गए हैं। प्रसंगवश यह भी उल्लेखनीय है कि राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष के गुरु 'आदिपुराण' के रचयिता आचार्य जिनसेन द्वितीय थे। इसमें कर्नाटक को "सुन्दर देश" और कन्नड़ को "मधुमय कन्नड़" कहा गया है और कर्नाटक को सीमा कावेरी से गोदावरी तक बत लाई गई है । साहित्यकार ३ आचार्य शिवोट है। उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना आ० हरिषेण के 'कथाकोष' के आधार पर तथा कथाओं के उसी क्रम मे की है। उन्होंने प्राकृत गाथायें भी दी है, इस भाषा के शब्दों का भी प्रयोग किया है किन्तु उनकी यह गद्य रचना कन्नड़ साहित्य की सबसे प्राचीन रचना मानी जाती है। कुछ विद्वान् इसका रचना. काल ८२० ई० मानते हैं तो अधिकाश १२० ई० इसका समय मानते हैं। जैनधर्म से संबंधित पारिभाषिक शब्दो जैसे वीतराग श्रुत तथा आगम के अन्तः साध्य के आधार पर भी 'कविराजमार्ग' एक जैन कृति सिद्ध होती है। 'बारायने' कन्नड़ भाषा को सबसे प्राचीन गद्यरचना है। इस कृति के नाम का अर्थ है 'बृहद् आराधना' श्री नाचार्य के अनुसार इसका एक नाम उपसर्ग केवलियों की पथा भी है। इसमें सम्मिलित १६ कथाओं में उन घटनाओं का रोचक, सजीव एवं सरस वर्णन है जिनके कारण कथाओ के नायकों को वैराग्य उत्पन्न हुआ। इसमें जैनधर्म के अनुसार तप, व्रत और लेखन आदि का आश्रय लेकर अपनी नियति बदलने वाले महा पुरुषों का जीवन गाथाएँ हैं। सुकुमार स्वामी चन्द्रगुप्त पूर्वभवी नदिमित्र आदि के जीवन चित्रित है। लेखक कन्नड़ के तीन रत्न कन्नड़ साहित्य में तीन महाकवियो पंप, पोन्न और रन्न को बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त है। वे तीनो इस भाषा के तीन रहन कहलाते है । आदिकवि पंप - दसवी शताब्दी के कन्नड़ मह् कवि पंप का मूल निवासस्थान बेगी मे हुआ था। उनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। उनके पितामह वैदिक धर्मातुयात्री थे किन्तु उनके पिता ने ब्राह्मण रहते हुए भी जनधर्म स्वीकार कर लिया था क्योंकि वह उनकी दृष्टि में श्रेष्ठ था। स्वयं पंप ने इस तथ्य का उल् ख गर्व पूर्वक किया है। पंच ने वैदिक और जैन धाराओं को मिलाने का प्रयत्न अपनी लेखनी से किया जैनधर्म की पुष्टि के लिए उन्होने कन्नड़ में 'आदिपुराण' नामक श्रेष्ठ काव्यकृति की सृष्टि की। इसके लिए उन्होंने जिनसेनाचार्य (द्वितीय) की संस्कृत रचना 'आदिपुराण' से कथानक लिया था । समालोचकों के अनुसार जिनसेनाचार्य में जहाँ पुराणत्व अधिक है वहां पत्र में काव्यत्व अधिक है। आदि पुराण में महाकवि पंप ने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पूर्वभव तथा भरत बाहुबलि आख्यान का निरूपण बड़े सुन्दर ढंग से किया है । किन्तु इन आख्यानों के कारण उनका पुराण समरस नही हो गया है। श्री मुगलि के शब्दों मे "आदिपुराण मे कई ऐसे स्थल हैं जो सस्कृत काव्यों में सामान्यतः नहीं देखे जाते" तथा "अपने इस पुराण के द्वारा, उन्होंने यह सूचित किया प्रतीत होता है कि जैन तत्वों में विश्वधर्म के तत्व निहित हैं ।" पंप ने प्रादिपुराण की रचना ६४९ ई० में लगभग चालीस वर्ष की अवस्था मे की थी। वह रचना 'इतनी प्रौड़ बनी कि उन्हें आदिकवि का स्थान दिला गई। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४,४३,०३ मनेकान्त कन्नड़ भाषा में उन्होंने चंपू शैली का अर्थात् गद्य और पद्य मिश्रित रचना का प्रारम्भ किया। उनकी इस चंपू शैली का परिवर्ती कवियों ने भी अनुकरण किया बर इन सबका का काल पंचयुग' कहलाया। वैसे भी आदि पुराण की गणना कन्नड़ के उत्तम ग्रन्थो में आज भी की जाती है । पंप केवल धार्मिक कवि ही नहीं थे। उन्होंने अप दाता राष्ट्रकूटों के सामंत चालुक्य नरेश की वीरता एवं गुणों का कथन करने के लिए एक लौकिक काव्य 'विक्रमा विजय' अथवा 'पप भारत' की रचना की। इसमें उन्होंने यह दर्शाया है कि अरिकेसरी अर्जुन के समान ही बीर हैं। उन्होंने अपनी सामग्री महाभारत से ली है किंतु उसकी पृष्ठभूमि लेकर 'समस्त भारत' कहने की घोषणा करके भी संक्षेप में महाभारत कहते हुए अरिकेसरी को अर्जुन से अभिन्न बताया है। कथा में परिवर्तन भी उन्होंने किया है जैसे- द्रौपदी को केवल अर्जुन की ही पत्नी बताना आदि। श्री मुगलि ने उनकी रचना का मूल्यांकन करते हुए लिखा है कि- "यास का भारत पम्प की प्रतिभारूपी पारस पत्थर के स्पर्श से सोना हो गया है, एक सरस चित्र बन गया है।" उपर्युक्त दोनों रचनाएँ पम्प ने एक ही वर्ष में सृजित की थी जो कि उन्हे अमरता प्रदान कर गईं । पंप केवल शब्द वीर ही नहीं थे, वे शस्त्रवीर थे। उन्होंने अपने 'पप भारत मे लिखा है-पंप सारी पृथ्वी को कपित कर देने चतुरंग बल के लिए भयंकर थे, वे युद्ध में कभी भयभीत नहीं होने वाले थे। ललित अलंकरण से युक्त रहते थे, मन्मथ के समान रूप वाले तथा अपगत पाप (पापरहित थे।" उन्हें कन्नड़ का कालिदास और ) 'सत्कवि पंप', 'साहित्य सम्राट' कहा जाता है। पंप को अपनी भूमि से भी अपूर्व प्रेम था । कर्नाटक के बनवासी प्रदेश में भ्रमर या कोकिल के रूप में जन्म को भी वे देह धारण की सफलता मानते थे । कन्नड़ मे पपयुग के तीन रत्नों में से दूसरे रत्न हैं पोन्न। ये भी देंगी के ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे और जैनधर्म अंगीकार करने के बाद कर्नाटक आ गए थे । राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय (अकालवर्ष ) ( ९२९-१६०ई०) I के ये राजकवि थे । इन्होंने तीन ग्रंथों की रचना की है१. शांतिपुराण ( सोलहवें तीर्थंकर) का जीवन-चरित्र, २. जिनाक्षरमाला । (जिनेन्द्रदेव की स्तुति) और ३. भुवनैकरामाभ्युदय ( राम कथा ) एक और संस्कृत रचना । । । 'गतप्रत्यागत' भी इन्ही की रचना बताई जाती है। अंतिम दो ग्रंथ इस समय उपलब्ध नहीं है । पोन की उपलब्ध कन्नड़ ना 'शांतिपुराण' है जो कि चंपू शैली में लिखित है कवि के मूल स्थान पुंगनूर ब्राह्मण थे। उनके दो पुत्र । मे नागमण्य नामक एक जैन मस्लप और पुण्यमय थे जो कि बाद में तैलप नामक नरेश के सेनापति बन गए थे। उन्होंने अपने गुरू जिनचन्द्रदेव के निर्वाण के उपलक्ष्य में पोल से शांतिपुराण लिखवाया था। मल्लपय की सुपुत्री 'दानचितामणि' प्रत्तिमब्बे ने शांतिपुराण की ताडपत्रों पर एक हजार प्रतियाँ लिखवाकर सोने एवं रत्नों की जिन प्रतिमाओं सहित कर्नाटक के मन्दिरों को भेंट की थी। इस महिला ने सक्कुंडि में अनेक जिनालय भी बनवाए थे। पोस्न ने जैन धर्मशास्त्र और काव्यशास्त्र का प्रोड़ समन्वय अपने शातिपुराण को 'पुराणचूड़ामणि' कहा है। पोन्न कन्नड़ और सस्कृत दोनों मे रचना करते थे । अकालवर्ष ने उन्हें इसी कारण 'उभयकवि चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित किया था जो भी हो, वे प्राचीन कन्नड़ साहित्य के तीन रत्नों में गिने जाते हैं। रन्न - कन्नड़ के पपयुगीन तीसरे कवि-रश्न हैं । वास्तव में इनका नाम रन्न हो 'रत्न' का बिगड़ा रूप (अपक्ष) जान पड़ता है। ये आधुनिक उत्तरी कर्नाटक के बीजापुर जिले के मुधोल (प्राचीन नाम मृदुवाललु ) नामक स्थान पर मनिहार कुल में हुआ था किन्तु इनकी शिक्षा सुदूर दक्षिण कर्नाटक मे श्रवणबेलगोल में हुई थी और बंकापुर में निवास करने वाले आचार्य अजितसेन इनके गुरु थे। गोमटेश्वर महामूर्ति (श्रवणबेलगोल) की प्रतिष्ठापना करने वाले वीर सेनानी एवं जिनभक्त चामुंड राय ने इन्हें आश्रय दिया था चालुक्य नरेस प्रत्याय (अपर नाम इरियड) के भी ये आबित थे और कवि । रत्न, कवि चक्रवर्ती, कवि तिलक आदि उपाधियों से विभूपित किया था। । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्न के बैन साहित्यकार ५ रन्न की दो प्रमुख रचनाएं हैं-१. अजितपुराण अमर जिनभस चामुण्डराय ने जहाँ श्रवणबेलगोल में ५८ और २. गदायुद्ध या साहस भीम विजय । अजितपुराण फीट ८ इंच ऊंची गोमटेश्वर महामूर्ति की स्थापना कर में दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का जीवन रसपूर्ण काव्यशैली ससार को एक माश्चर्य-वस्तु प्रदान की वहीं शस्त्र के साथ में वर्णित है। कवि ने सगर चक्रवर्ती और उनके पुत्रो की शास्त्र के भी ज्ञाताके रूप मे 'त्रिशष्टि लक्षण महापुराण' कपा मोहक एवं विलक्षण प्रतिभापूर्वक गुंफित की है। दूसरा नाम 'चाउण्डगयपुराण' (हिन्दी मे प्रचलित इस पुराण की रचना रन्न ने ६६३ ई. के लगभग की चामुण्डराय नाम) की कन्नड़ में गद्य-ग्रन्थ के रूप में होगी ऐसा विद्वानों का अनुमान है। इसकी एक विशेषता रचना कर कन्नड़ भाषा के इतिहास में अमरता एवं कोति यह है कि कवि ने तीर्थकर के अनेक भवों का वर्णन न प्राप्त की है। इसमें उन्होंने चौबीस तीथंकरों सहित जैन कर केवल एक ही भव का वर्णन किया है। राजा विमल- मान्यता के श्रेष्ठ (लाका रुषों का जीवन. वाहन का वैराग्य प्रकरण और तीर्थंकर के पांचों कल्या चरित्र लिखा है जिसका आधार स्पष्टतः जिनसेनाचार्य णकों के रसमधुर निरूपण में कवि ने अपनी प्रतिभा का का आदिपुराण और गुणभद्राचार्य का उत्तरपुराण प्रतीत परिचय दिया है। इसी प्रकार चक्रवर्ती सगर और उनके होता है । शस्त्रशूर चामुण्ड राय ने प्रत्येक चरित्र का मंगलसाठ हजार पुत्रों के प्रसंग एवं इस कथानक द्वारा मृत्यु स्मरण आरम्भ मे एक पद्य देकर किया है और शेष चरित्र की अनिवार्यता सम्बन्धी चित्रण भी सबल बन पड़ा है। कन्नड़ मे लिखा है। इसका रचनाकाल ६७८ ई० माना कवितिलक रन्न ने बड़े प्रात्मविश्वास के साथ अपने जाता है। चामुण्ड राय ने 'चरित्रसार' नामक संस्कृत प्रथ पुराण को "पुराणतिलक" कहा है। भी लिखा है जिसमे उन्होंने ध्यान, परीषह, अणुव्रत आदि लोकिक काव्य के रूप मे रन्न ने 'गदायुद्ध' की सृष्टि जैन सिद्धांतों का विवेचन किया है। इनकी लेखन-शैली पंप के भारत से प्रेरणा लेकर की होगी। महाभारत की सरल और रोचक है । उनमें अद्भुत सक्षेपण शक्ति है। इस कथा को माध्यम बनाकर कवि ने यह जताया है कि चामुण्डराय द्वारा लिखित पुराण की प्रसिद्धि गद्य के उसके आश्रयदाता नरेश सत्याश्रय भी उसी प्रकार परा कारण है । वड्डाराधने की खोज से पहले यह पुराण प्राचीन क्रमी है और शत्रुओं का नाश करने में उसी प्रकार सक्षम गद्य का सबसे पुराना ग्रंथ माना जाता था। फिर भी, है जिस प्रकार कि भोम ने अपनी गदा से दुर्योधन का अन्त किया था। कवि ने अपनी इस रचना को 'कृतिरत्न' प्राचीन कन्नड़ के बोलचाल के स्वरूप को जानने के लिए कहा है। इस काव्य की यह विशेषता है कि इसे नाटक यह आज भी एक महत्वपूर्ण कन्नड़-ग्रन्थ है। श्री मुगलि के शब्दों मे-पांच-छ शताब्दियों से कन्नड़ में विकसित के रूप में मचित किया जा सकता है। होते हुए कथागद्य और शास्त्रगद्य के सम्मिश्रण में 'चामुंडअजित पुराण में कवि ने कहा है-"कवियों में रत्नत्रय-पंप, पोन्न और रत्न (रन्न) ये तीनों प्रसिद्ध है। राय पुराण' विशिष्ट है।" ये तीनों 'जिनसमयदीपक' (जैन सिद्धांत के प्रकाशक) हैं। कन्नड़ साहित्य मे नागवर्म नाम के अनेक कवि या इनकी बराबरी कौन कर सकता है ?" कन्नड़ साहित्य के लेखक हुए है। इनमें नागवम (प्रथम) अपनी लौकिक इतिहास लेखकों ने भी इस मूल्यांकन को मान लिया है। कृतियों के लिए सुविख्यात हैं। इनके पिता ब्राह्मण थे किंतु रन्न ने यह भी दावा किया है कि 'वाग्देवी' (सरस्वती) ये जैनधर्म का पालन करने लगे थे। इन्होंने अपने गुरू के भण्डार की मुहर उन्होने तोड़ी और जिस प्रकार मणि- का नाम अजितसेनाचार्य बताया है। गोमटेश्वर महामति धारी सर्प के फण पर स्थित मणि की परीक्षा करने का के प्रतिष्ठापक चामुंडराय का भी इन्हें संरक्षण प्राप्त था। सामय किसी में नहीं होता उसी प्रकार उनकी रचनाओं इनके दो प्रथ हैं-१. छंदोम्बुधि जिसमें कन्नड़ भाषा के का मूल्यांकन कौन कर सकता है। छंदों की श्रृंगार से ओतप्रोत विवेचना है तथा २. कर्नाटक चामण्डराय-समरधुरंधर, मंत्री, सेनापति और कादम्बरी। इसकी रचना बाणभट्ट की कादम्बरी को समक्ष Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ वर्ष ४३, कि. ३ भनेकान्त रखकर की गई है किंतु उसमे कवि ने यथोचित परिवतन में विशेष जानकारी नही है। किंतु उनकी कृति 'पम्परामाकर उसे एक स्वतंत्र रचना बना दिया है। बाणभट्ट ने यण' (दूसरा नाम रामबद्र चरित पुराण) ने इन्हे कन्नड जहाँ केवल गद्य का आश्रय लिया है वहाँ नागवर्म ने गद्य साहित्य में अमर बना दिया है । अभिनव या श्रेष्ठ पम्प और पद्य दोनों का। इनका समय ६६० ई० माना जाता या दूसरे पम्प नाम इन्होने स्वय अपने को ही दिया था किंतु अब वे इसी नाम से विख्यात हैं । जैन 'पउमचरिउ दर्गसिंह की रचना 'पंचतंत्र' है। कन्नड़ में अनूदित। या (पदमपुराण) के आधार पर लिखित रामायण एक लिखित यह रचना विष्णु शर्मा के संस्कृत पचता का सरस काव्य है। उसमे जैन मान्यताएं यथा हनुमान अनवाद नही है बल्कि गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' से चुनी विद्याधर जातीय तथा वानर वशीय थे। सुग्रीव, बालि गई कथाओं के आधार पर बसुनागमट्र द्वारा चित 'पच- आदि की वजाओं पर वार । आदि की ध्वजाओं पर वानर (बंदर) का निशान था; तंत्र'का कामड़ रूपांतर है। वसुनागभट्ट का पचतत्र रावण के दस मह नही थे अपितु जन्म के समय दर्पण में जावा' तीन रूपों में प्रचलित था-दो पद्यात्मक और उसके दम में दिखाई दियो । मक | उसमे जैनधर्म के तत्व रहे होगे तभी दुग- दसियों, सैकड़ों छवियो के रूप में आज भी देखी जा नितमे जैनधर्म के सिद्धांत और पारिभाषिक जा सकती है । इत्यादि, इस रामायण का प्रमुख रस शांत जाते है। उनका पचतत्र गद्य-पद्य मिश्रित है। रस है और जीवन का अतिम लक्ष्य मुक्ति इसके पात्रों के सिंह बाह्मण थे। उनका समय १०३० ३० माना जीवन में प्रतिलक्षित होता है। पम्प रामायण में रावण जाता विद्वानों की राय है कि जैनधर्म के कर्नाटक में भी मानवोचित गुणो से हीन नहीं है । यह रामायण संभउन दिनों प्रभाव के कारण दुर्गसिंह ने वसुनागभट्ट के ग्रंथ वत: कन्नड भाषा में पहली रामायण है। कन्नड में को अपना आधार बनाया। परवर्ती काल में जै। परम्परानुसार अन्य कथाएं भी लिखी कन्नड में ज्योतिष ग्रंथ के अभाव की पूर्ति करने की गई। यथा want गई। यथा षट्पदी की 'कुमुदेन्दु रामायण (लगभग सिविकलोत्तम'श्रीधराचार्य ने 'जातक तिलक'नामक १२७५ ई०), चन्द्रशेखर और पद्मनाभ (१.००-१७५० पस्तक लिखी। इस रचना के अन्तिम पद्य से ज्ञात होता है. नारित है कि उन्होंने 'चंद्रप्रभचरित' का भी सृजन किया था जो 'रामशावतार' उपलब्ध नहीं हो सका है। इसका समर्थन १२६० ई० को 'चामुंडराय पुगण' (१७८ ई०) नयसेन के 'धर्मामत' कृति 'नागकुमारचरित' से भी होता है। (१११२ ई०) तथा नागराज के 'पुण्याश्रव (१३३१ ई.) उमास्वाति के प्रसिद्ध 'तत्वार्थसूत्र' (संस्कृत) की एवं अन्य कृतियो में भी पाई जाती हैं । इस प्रकार कन्नर सन के लेखक है 'दिवाकरनन्दि' इन्होने उसकी में जैन रामायण कथा की धारा भी सबल रूप से प्रवाहित रचना १०६२ ई० के लगभग की होगी ऐमा अनुमान है। रही है। अपने ग्रंथ के प्रारम्भ मे उन्होने प्रतिज्ञा की है कि वे अभिनव पम्प की दूसरी रचना 'मल्लिनाथ पुराण' मंदद्धि जनों के हित के लिए तत्वार्थसूत्र मूल का अर्थ है। इसमें उन्नीसवें तीर्थंकर के जीवन का काव्यमय वर्णन कन्नड़ मे कहेंगे। है। इसकी कथा छोटी है किंतु शांत रस के प्रवाह के ___ 'सुकुमारचरिते' नामक गद्य-पद्य मिश्रित (पू) कारण "वह एक उच्चकोटि की कृति है । वह महाकाव्य काव्य के रचयिता 'शांतिनाथ' ने सुकुमार की कथा के सत्व से युक्त सत्यव्य है।" (श्री मुगलि) कन्नड प्रभावोत्पादक कन्नड़ मे लिखी है । उसका रचनाकाल या साहित्य के इतिहास के लेखक श्री मोगल ने इसके सम्बन्ध कवि का समय १०६८ ई० निर्धारित किया गया है । यह में भी द० रा ० बेन्द्र ने यह मत उद्धृत किया है, "जिन भी एक उत्कृष्ट कृति मानी गई है। (तीर्थ कर) के अलावा बाकी सब काम-पति की श्रृंगारमागचंद्रया अभिनव पम्प-इनके जीवन के विषय सष्टि है, शांत रस के द्वारा ही सच्चे सौंदर्य आनंद और Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्नड़ के मेन साहित्यकार प्रीति की प्राप्ति होती है-यही नागचंद्र का सौदर्य-सूत्र धर्मामत रचना करते समय कवि ने यह संकल्प किया है; मल्लिनाथ पुराण महाकाव्य के सौदर्य युक्त है।" कि वे साधारण जनों की समझ में जैन-दर्शन आ सके, उसका वैराग्य प्रकरण काफी हृदयस्पर्शी बन पड़ा है। इसलिए ठेठ कन्नड़ में लिखेंगे और अपनी कृति में संस्कृत श्री अभिनव पम्प के जीवन-तथ्य अधिक नहीं मिलते। के कठिन शब्दो का प्रयोग नहीं करेंगे क्योकि जिन्हें सस्कृत लगता है उनका जन्म विजयपुर (आधनिक बीजापूर) मे प्रिय है, वे सस्कृत में लिखे। इसका यह अर्थ नहीं है कि हआ था। वे काफी सम्पन्न व्यक्ति थे। वहीं उन्होने वे संस्कृत के विरोधी थे। वे विरोधी थे कठिन सस्कृत 'मल्लिनाथ जिनालय' बनवाया था। उनका नाम व पद्य शब्दो वाली कन्नड़ के। ऐसी भाषा को वे घी और तेल उनके श्रवणबेलगोल आदि अनेक स्थानों के शिलालेखो में का मिश्रण समझते थे। उन्होंने अपने यूग की कन्नड का पाए जाते हैं। उनकी उपाधियां साहित्य विद्याधर, भारती आश्रय सामान्य जनों के हित के लिए लिया। इस प्रकार कर्णपूर आदि थी। ये होयसल नरेश विष्णुवर्धन (१९०४ वे प्राचीन कन्नड़ की भी अपेक्षा समकालीन कन्नड़ के ११४१ ई.) के दरबार मे भी कवि के रूप मे रहे थे। पक्षधर ठहरते हैं। वे जनवादी कथालेखक के रूप में ( विष्णुवर्धन के जैन होने के लिए देखिए 'हलेविड' कन्नड़ साहित्य में अपना एक विशेष स्थान रखते हैं। उन्होंने कन्नड़ कहावतों और मुहावरों का कुशल प्रयोग प्रकरण)। किया है। सरल, सरस, चुभती, हास्यपूर्ण शैली के लिए कवयित्री कंति-कहा जाता है कि ये नागपद्र को कन्नड़ लेखकों में वे एक विशेष स्थान रखते हैं । धर्मामृत समकालीन थी। अभिनव पम्प यदि आधी पंक्ति बोलते का रचना-काल १११२ ई. माना जाता है। विद्वानों का तो वे पंक्ति पूरी कर दिया करती थीं। उनकी समस्या अनुमान है कि इन्होने एक व्याकरण भी लिखा था जो पूर्ति पद्यात्मक रचनाएँ दतकथा का विषय बन गई है। अभी उपलब्ध नही हो सका है।। यह भी कहा जाता है कि नागचंद्र ने प्रण किया कि वे 'कंति' (जैन भिक्षणी या भक्त-महिला के लिए प्रयुक्त गरिएतज्ञ और कवि राजादित्य ने गणित सम्बन्धी अपनी प्रशसा करवा लेगे। छः ग्रंथो की रचना कर ड़ में की है। ये हैं-१. व्यवहार सोनकचा और भिक्षणी ने उनकी गणित जिसमे सहजयराशि, सहजनवराशि आदि का प्रशसा मे पद्य रच दिए थे। जो भी हो, जैन-भिक्षणी की विधान है । २. क्षेत्रगणित, ३. व्यवहारत्न, ४. जैनगणित समस्या-पूर्ति का भी कन्नड़ में स्थान है। यह प्रथम सूत्रटोकोदाहरण में प्रश्न देकर उत्तर पाने का विधान बतकवयित्री 'अभिनव वाग्देवी' की उपाधि से भी विभषित लाया गया है। ५. चित्रपुहुम ग्रथ टीका और सूत्र रूप में है। तथा ६. लीलावती (पद्य) मेंगणित की समस्यायें थीं ऐसा पता चलता है। उदाहरण सहित समझाई गई है। इनकी रचनाएं पद्य में मुनि नयसेन ने कन्नड़ भाषा में 'धर्मामत' की रचना सरल शैली में होने पर भी इन्होने सूत्रों एवं उदाहरणों की है। इस कृति के १४ आश्वास हैं और उनमे १४ का सफल प्रयोग किया है। ये ११२० ई. में विष्णुवर्धन गुणवतो के सरल विवेचन के साथ ही चौदह महापुरुषों के दरबार मे थे ऐसा अनुमान किया जाता है। की कथायें निबद्ध हैं जिन्होंने इनका पालन कर ऐस सिद्धि प्राप्त की। मुनि ने अपनी आम्नाय परम्परा के अनुसार गो (गाय) की व्याधियों, उनसे संबंधित औषधियों, अपनी मुनि-पूर्व अवस्था का परिचय नही दिया है। फिर मंत्रों आदि का विवेचन कोतिवर्म ने अपने ग्रंय 'गोवंच' में भी यह ज्ञात होता है कि ने धारवाड़ जिले के मुलुगुन्द किया है । इनका समय ११२५ ई० अनुमानित है । इनके नामक स्थान के निवासी थे और आचार्य नयसेन उनके पिता चालुक्य नरेश त्रैलोक्यमल थे। उनकी जैन रानी से गये जो कि आचार्य जिनसेन, गुणभद्र आदि की परंपरा इनका जन्म अनुमानित किया जाता है। उन्होने अपनी उपाधियों में 'सम्यक्त्वरत्नाकर' भी गिनाई है। के ये Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८, वर्ष ४३ कि० । अनेकान्त ब्रह्मशिव-का जन्म पोट्रयागेरे में हुआ था। वे शैव मत है कि कवि ने नेमिनाथ का जीवन तो जैन मान्यता थे किन्तु बाद में उन्होंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया था। के अनुमार चित्रित किया है किंतु कौरव-पांडव आदि इनका रचनाकाल ११२५ ई० के लगभग माना जाता है। प्रसंगों में वैदिक (भागवत) परम्परा की सामग्री भी ले इनके दो ग्रंथ हैं -१. समयपरीक्षे और २. त्रैलोक्यचूड़ा- ली है। मणि स्तोत्र । इन्हें कवि 'चक्रवर्ती' की उपाधि भी राज- कवि ने अपने गुरू कल्याण कीति 'साश्चर्यचारित्रसम्मान के रूप में प्राप्त थी। चक्रवर्ती के रूप में उल्लिखित किया है। ग्रंथ से ज्ञात 'धर्मपरीक्षे' में कवि ने कन्नड़ भाषा में शैव, वैष्णव होता है कि तत्कालीन शासक विजयादित्य का मंत्री सक्षम आदि मत-मतान्तरों की चर्चा कर उनके दोष दिखाकर अथवा लक्ष्मण कवि कर्णचार्य का आश्रयदाता था। इन्हें जैनधर्म को श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है। किंतु यह अब 'सम्यक्त्वरत्नाकर', परमजिनमतक्षीरवाराशिचंद्र, गांभीर्यइस समय एक महत्वपूर्ण अथ है। श्री मूगल के अनुसार यह ग्रंथ कन्नड़ मे एक अपूर्व धर्म चर्चा और विडम्बना नागवर्म द्वितीय (लगभग ११४५ ई०) जैन ब्राह्मण का काव्य है और इसमें अपनी सीमा में सरल तत्कालीन थे। ये कवि और आचार्य दोनों रूप में प्रसिद्ध हैं। इन्हें जगत के जीवन का चित्र दिया गया और इसकी विना कविकण्ठाभरण कविकर्णपूर आदि उपाधियां प्राप्त थीं। कई बार कट हो गई है, उसमे साम्प्रदायिक पक्षपात और ये चालुक्य शासक के कटकोपाध्याय (सेना में शिक्षक) असहिष्णता बहत है। किन्तु उसमें साधारण जनों के और कवि जन्म के गुरू थे। इनका एक ग्रंथ जिनपुराण मिथ्या विश्वास और आचारों का ब्योरेवार वर्णन है। भी था जो उपलब्ध नहीं हुआ है। इनका सबसे प्रसिद्ध इस प्रकार वह सामाजिक और धार्मिक जीवन के अध्ययन ग्रथ 'काव्यावलोकन' है जो कि अलकार शास्त्र से संबंधित के लिए एक आम गुट का है। "इस रचना से ही जान है। प० के० भुजबली शास्त्री के अनुसार यह ग्रंथ नपतुंग पड़ता है कि कर्नाटक मे उस समय एक ही परिवार के के कविराजमार्ग से अधिक परिपूर्ण है। "इसके 'शब्दस्मति लोग विभिन्न धर्मों का पालन करते थे। कवि के एक प्रकरण' में कन्नड़ व्याकरण का लालित्यपूर्ण निरूपण है।" पद्य का आशय है। 'पत्नी महेश्वरी' अर्थात् (शैव), पति व्याकरण सम्बन्धी इनका दूसरा ग्रंथ कर्णाटक 'भाषाभूषण' जैन और हाय ! पुत्र तो मार्तण्ड भक्त (सौर सम्प्रदाय) है। यह सस्कृत में है और इसका प्रयोजन संस्कृत के विद्वानों को कन्नड भाषा का परिचय कराना है। इसी __ 'लोक्य चुडामणि स्तोत्र' का दूसरा नाम छत्तीस- प्रकार उन्होंने कन्नड़ काव्यों में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों को रत्नमाले भी है। इसमे कवि ने ३६ छन्दो मे जिनेन्द्र की समझने के लिए संस्कृत-कन्नड़ कोश की रचना की स्तुति करते हुए अन्य मतो का खण्डन किया है। जिसका नाम 'अभिधानवस्तुकोश' है। छदोविचिति नामक कर्णपार्य-का समय मामान्यत: ११४० ई० माना इनकी एक रचना अनुपलब्ध है।। जाता है। ये भी जैन थे। इन्होने अपनी कन्नड रचना वैद्यक प्रथ 'कल्याणकारक' के रचयिता 'सोमनाथ' 'नेमिनाथ पराण' मे तीर्थंकर नेमिनाथ की जीवन-गाथा का समय ११४० या ११४५ ई० अनुमानित किया जाता काव्य-शैली में वणित की है । इस पुराण का प्रधान रस है। उपर्युक्त ग्रंथ आचार्य पूज्यपाद के इसी नाम के सस्कृत शांत ही है किंतु प्रसंगानुमार उसमे शृगार, करुणा, ग्रंथ का कन्नड़ अनुवाद है। उसमे उक्त आचार्य की वीभत्स एव रौद्र रसो की सयोजना भी है। कवि को चिकित्सा पद्धति मे मधु, मद्य और मांस निषिद्ध बताया उपमा विशेष रूप से प्रिय है। संस्कृत कहावतो आदि का गया है तथा ग्रंथ के प्रारम्भ मे चद्रप्रभु और अनेक गुरुषों प्रयोग करके भी कवि ने अपने पुराण को आकर्षक बनाने की स्तुति की गई है। का प्रयत्न किया है। इस पुराण मे कौरव-पाडव, बलदेव- चम्पू शैली में लिखित 'धर्मपरीक्षा' नामक ग्रंथ के वासुदेव आदि के प्रसग भी वर्णित हैं। कुछ विद्वानों का रचयिता 'वृत्तविलास' है जिनका समय ११६०० Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्नड़ के जैन साहित्यकार लगभग अनुमानित किया जाता है। आजायें अमितगति की रचना 'धर्मपरीक्षा' को वृत्तविलास ने कन्नड़ मे रूपांतरित किया है। इसका विषय उपहासात्मक धर्मकथाएं हैं जो कि सुगम और आकर्षक ढंग से कही गई हैं। शैली सरल होने पर भी एक समय कन्नड़भाषियों को जब यह ग्रंथ कठिन लगा तो श्रावकों की प्रार्थना पर तथा श्रवणबेलगोल के भट्टारक चारुकीनि के आदेश पर चढ़ सागर जी ने शा. श. १७७० में सरल कन्नड़ में इसको पुनः प्रस्तुत किया । 1 जैन युग की विशेषताएँ – कन्नड़ साहित्य के आरम्भ काल से लेकर ११६० ई० तक की कालावधि को जैन 'युग कहने का कारण यह है कि उसके बहुसख्य रचनाकार जैनधर्म के अनुयायी थे । जो मुट्ठी भर ब्राह्मण लेखक थे, वे अधिकांशतः संस्कृत मे रचना करते थे । (२) जैन युग या (स्वर्णयुग ) मे धार्मिक, लौकिक और ऐतिहासिक रचनाओ की अधिकता होते हुए भी अनेक विषयों से संबंधित रचनाएं जंन लेखकों की लेखनी से प्रसूत हुई। इनमें व्याकरण, अलकारशास्त्र, वैद्यक, ज्योतिष आदि प्रमुख थे । (३) जैन युग मे एक नई रचना-शैली का प्रादुर्भाव हुआ । इसे चम्पू शंनो या गद्य और पद्य मिश्रित शैली कहते हैं। इसका श्रेय महाकवि पप युग को है। उनका अनुकरण पश्चाद्वर्ती कां ने खूब किया। इस से कारण यह युग 'चपू युग या पप युग' भी कहा जाता है । ( ४ ) इस युग में संस्कृत के विरोध का स्वर मुखरित हुआ ओर कन्नड़ भाषा को उत्तरोत्तर साहित्य की भाषा का दर्जा मिला जिसका श्रेय जैन लेखको को है । उसके तीन महान् जैन लेखक (पप, पोन्न तथा रत्न) कन्नड़ साहित्य के रत्नत्रय कहे जाते हैं । बारहवी सदी का अत आले ते कर्नाटक मे जैनधर्म को आघातो का सामना करना पड़ा। सबसे बड़ी क्षति तमिलनाडु के शैवधर्मी चोल राजाओं के आक्रमणो के कारण हुई। इसी प्रकार रामानुजाचार्य के मत प्रचार के कारण भी जंनधर्म को धक्का लगा। जैनधर्मी गग राजाओ के पतन के कारण राज्याश्रय भी नही रहा । अतः १२वीतेरहवी सदीके विपुल जैन साहित्य नहीं रचा गया। परवर्ती काल में वैष्णव, शैव भक्ति साहित्य की प्रधानता रही। ε वीर शैव काल से जैन लेखक इस युग का वीरशैव साहित्य 'वचन' के रूप में है । इस शब्द से स्वाभाविक रूप से कही गई बात से लिया जाता है। इस साहित्य के प्रमुख प्रेरक थे श्री बसव । इन्होंने जो मत चलाया वह वीरशेयमत कहनाया जैन राजधानी कल्याणी से इन्होंने अपना मत राजा विजन के मंत्री के पद पर रहते हुए एवं बाद मे किया। उनके मत पर जैनधर्म का प्रभाव था। इस तथ्य को आज भी स्वीकारा जाता है। पूना हैदराबाद सड़क मार्ग से जो मार्ग बसवकल्याण (कल्याणी का आजकल का नाम ) की ओर मुड़ता है वहीं तिराहे पर एक पट्ट पर यह लिखा है कि श्री बसव ने अपने मत मे भगवान महावीर की अहिमा और सत्य का अपने उपदेशो मे समावेश किया था। यह पट्ट पर्यटकों के स्वागत के लिए लगाया गया है। श्री बनव ही नहीं, परवर्ती लिंगायत (वीर शैव) वचनकारो पर भी जैनधर्म का प्रभाव देखा जा सकता है । श्री मुगलिने अपने इतिहास में श्री सिम्मलिगे चन्ना का वचन इस प्रकार उद्धृत किया है। "एक आदमी जंगल मे जा रहा था, उसे चारो दिशाओं में बाघ, दावाग्नि, राक्षसी और जगली हाथी पीछा करते हुए दिखाई दिए। उन्हें देखकर डर के मारे उसे यह नहीं सूझा कि किधर जाय । उसे एक सूखा कुआ दिखाई दिया। उसके भीतर झांकने पर यहाँ एक साँप देखकर वह उसमें कूद नहीं सका और चूहे की काटी हुई एक लता को पकड़कर रुक गया। एक मधुउसको काट रही थी, तभी शहद की एक बूंद उसके मुख में टपकी उसका माधुर्य अनुभव करता हुआ वह अपना सारा दुःख भूलकर जीभ से उस शहद का मजा लेता रहा । यह संसार का सुख भी इसी के समान है।" इस प्रकारका चित्र आज भी अनेक जैन मन्दिरों मे देखा जा सकता है । उपर्युक्त युग मे कुछ जैन लेखक पप युग या जैन युग की चपू-शैली में रचना करते रहे जो कि मार्ग-शैली कहलाती थी किंतु कुछ जैन लेखकों ने नवीन शैली को भी अपनाया जो कि देसी शैली कहलाई। इसी प्रकार के उदाहरण ब्राह्मण लेखकों के भी मिलते है। इस युग मे प्राचीन 'कंद' वृत्त के स्थान पर कन्नड़ मे 'रगवे', त्रिपदी और षट्पदी नामक छदो का प्रयोग बढ़ा जिनका जैन लेखको ने भी व्यवहार किया । (क्रमशः ) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टाकलंककृत लघीयस्त्रय : एक दार्शनिक अध्ययन 0 हेमन्त कुमार जैन, वाराणसी भटाकलंक जैन न्याय और दर्शन के एक व्यवस्थापक कथाओ आदि से उनके विराट व्यक्तित्व का पता चलता आचार्य हैं। पूर्व परम्परा से प्राप्त जिस चिन्तन की दार्श- है। महान् शास्त्रार्थी और वाद-विजेता के रूप मे चतुर्दिक निक दष्टि से अदम्य ताकिक समन्तभद्र और सिद्धसेन जैसे उनकी ऐसी ख्याति थी कि विपक्षी मृत्यु तक को वरण महान आचार्यों ने नींव के रूप में प्रतिष्ठापना की थी, कर लेते थे । यही कारण है कि बे जैन वाङ्मय में सकलउमी नींव के ऊपर सकलतार्किकचक्रचूड़ामणि भट्टाकलंक तार्किकच चूडामणि, तर्कभूवल्लभ, महरिक, तर्कशास्त्रने जैन न्याय और तर्कशास्त्र का अभेद्य और चिरस्थायी वादीसिंह, समदर्शी आदि विशेषणो से जाने जाते हैं। प्रमाद खड़ा किया है। उन्होंने अपने समकालीन विकसित प्रथम अध्याय के परिच्छेद प्रथम मे उनके व्यक्तित्व दर्शनान्तरीय विचारधाराओं के गहन अध्ययन पूर्वक अपने से सम्बन्धित इन्हीं विशेषताओं पर, शिलालेख आदि ग्रन्थों में उनकी विस्तृत समीक्षा करके सर्वप्रथम प्रमाण, उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर प्रकाश डाला गया है। प्रमेय, प्रमाता आदि सभी पदार्थों का संस्कृत भाषा मे जीवनवृत्त से सम्बन्धित "लघुहन्व" सन्दर्भ जो कि क्षेपक अत्यन्त सूक्ष्म निरूपण ताकिक शैली से उपस्थित किया के रूप में प्रतीत होता है, उसकी अन्यत्र कहीं पुष्टि नही और सूत्र शेनो में अत्यन्त गढ ऐसे ग्रन्थों का सृजन किया, होती, कथाओं में भी उनका जीवनवृत्त प्राप्त होता है, जो कभी उस समय जैन परम्परा मे चल रही थी। बाद पर इसकी अन्य किसी भी सन्दर्भ से प्रामाणिाता सिर में भट्ट अफलंक के इन ग्रन्यों पर प्रभाचद्र, अनन्नवीयं, नहीं होती। इसी तारतम्य में समीक्षक विद्वानों की उपवादिराज, अभयचद्र जमे आचार्यों ने बृहद् भाष्य ग्रय लब्ध सामग्री के आधार पर अकलंक के समय पर किये लिख डाले। अकलक ने प्रमाण-परिभाषा, उसके फन, गये विचारो का पुनरीक्षण किया गया है। वह इसलिए विषय, मुख्य प्रत्यक्ष, सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, परोक्ष प्रमाणा- आवश्यक हा कि कई विद्वानो ने अकलक का समय बाद न्तर्गत अनुम नादि, जय पराजय व्यवस्था, बाद कथा आदि का निर्धारित करके उनका सम्बन्ध गुरू शिष्य के रूप मे को परिभाषिन करके जैन पार को इसना पस्थिन और गमन्तभद्र से जोड़कर न दर्शन के इतिहास मे भ्रममूलक समद्ध कर दिया था कि उनके बाद आज तक किसी को निष्वषं निकाले है, जो बिल्कुल निराधार है। इसका नवीन चमन की आवश्यकता नही पड़ी। ऐसे महान् ममाधान विभिन्न समयों में लिखे गये आचार्यों द्वारा दार्शनिक की कृतियो मे से एक कृति 'लघीयस्त्रय' के दार्श- अपने ग्रंथो मे अकलक के नाम से एव अकलक की कृतियो निक विवेचन के रूप में लिखा गया यह शोध-प्रबन्ध मेग के अन्तरग परीक्षण से हो जाता है। समय निर्धारण में एक प्रथम एव लघु प्रयत्न है। इममे लघीयस्त्रय के दाशं. "लघुहब्व" नाम वथाओ मे आए "शुभतुंग" का प्रसग निक पक्षों को स्पष्ट करने वाले आठ अध्याय रखे गये हैं। आदि समीक्षको के प्रधान सहायक रहे। जिनको ऐतिजिसका अध्याय क्रम से सक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है। हासिक राजाओ के समय से संगति बैठाकर सभी ने समय निर्धारण के प्रयत्न किये । सम्पूर्ण तथ्यो के अवलोकन के अकलक का कृतित्व एव व्यक्तित्व इतना महान् था बाद यह सत्य प्रतीत होता है कि अकलक का समय आठवी कि लोग उनके नाम को जिन का पर्याय समझने लगे थे। शताब्दी का उत्तरार्ध होना चाहिए। इस प्रकार प्रस्तुत माली माना होना चाहि।। निःसन्देह इनकी कृतियो, शिलालेखो, ग्रन्थान्त सन्दी, अध्याय के प्रथमपरिच्छेद मे अपलक के जीवनवृत्त और काशी हिन्दू विश्व विद्यालय बाराणसो की पी-एच.डी. उपाधि हेतु स्वीकृत १९८६, अप्रकाशित । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टाकलंककृत लघीयस्त्रय: एक दार्शनिक अध्ययन समय का, मूल सामग्री से मिलान कर पुनरीक्षण किया ६. प्रमाण संग्रह। गया है। इन कृतियों के अतिरिक्त स्वरूा संबोधन आदि और बीसवीं शताब्दी के महान समालोचक विद्वान स्व० भी कृतियां हैं, जो उपलब्ध परन्तु विवादग्रस्त मानी जाती डा. महेन्द्र कुमार जैन ने अकलक की कृतियों का अतरग हैं। अनुपलब्ध एवं विवादग्रस्त कतियां बहत्त्रय और एवं बहिरंग रूप से गहन आलोडन किया है। यह ही नही, यायचूलिका मानी जाती हैं । प्रस्तुत परिच्छेद में उपर्युक्त उन्होंने अगाध परिश्रमपूर्वक टीका ग्रंथों से न्याय विनिश्चय सभी कृतियों का अन्तरंग एव बहिरग परिचय संक्षेप मे और सिद्धिविनिश्चय जैसे ग्रथो को खोजकर उनका स्वयं दिया गया है। सम्पादन किया और गवेष्णापूर्ण उनकी भूमिकाये लिखी। मेरा शोध का विषय “भट्टाकलककृत नघीय स्त्रय : लघीयस्त्रय आदि सग्रह के रूप मे समवेत रूप से अकलंक एक दार्शनिक विवेचन" होने के कारण परिच्छेद तृतीय मे के तीन ग्रंथों का भी सम्पादन किया और विद्वत्तापूर्ण लघोयस्त्रय का विशेष परिचय दिया गया है। इसमे भमिका लिखी। हम समझते है उनके बाद वैसे सम्पादन इसके वास्तविक परिमाण निर्धारित वरने के साथ का दिगम्बर परम्परा मे बिल्कुल ही अभाव हो गया। लघीयस्त्रय' के रूप मे ग्रथ के नाम पर विशेष ऊहापोह यह भी हम कह सकते है कि उनके बाद सस्कृत में लिखे पूर्वक विचार किया गया है। अन्तरंग विषय-वस्तु के गये अकलक के ग्रयो का अर्थ न समझने वाले विद्वानों के परिचय के अन्तर्गत प्रवेश और परिच्छेद के कम से प्रमाण, लिए स्व० डा० जैन की कृतियां एवं विभिन्न प्रथों मे नय और प्रवचन के सम्बन्ध में उनके विचारो को रखा लिखी गयी भूमिका ये अकलक, जैनन्याय एवं दर्शन का गया है। हार्द समझने के लिए पर्याप्त है। प्रथम अध्याय के प्रस्तुत "प्रमाणमीमामा की आगमिक परम्परा ज्ञानमीमांसा" इस द्वितीय परिच्छेद में अकलक के ग्रंथो का सक्षिप्त नामक द्वितीय अध्याय के परिच्छेद प्रथम मे तीर्थंकरो से परिचय स्त्र हा जैन के अध्ययन के आधार पर तैयार लेकर अकलक तक प्रमाण के आध्यात्मिक रस की चर्चा किया गया है। इसमें हमने यहाँ कोशिश की है कि उन की गयी है। इसमें हम पाते हैं कि किस प्रकार प्रमाण के कृतियों का वास्तविक परिमाण एवं कृतित्व का प्रमाण भाव में ज्ञान से उसका कार्य किया जाता था। वस्तुत. और अन्तरग परिचय मक्षिप्त रूप में सामने आ जाये। परम्परागत सम्यक् और मिथ्या के रूप मे ज्ञान का वर्गीइस अध्ययन में हमने देखा कि उनको उपलब्ध कृतिया करण एक तरह से प्रमाण और प्रमाणाभास के पूर्वरूप मात्र छः ही प्राप्त होती है। जिनका नामकरण अकलक की सूचना देता है । प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में, परसरा के परवर्ती आचार्यों के द्वारा किया गया जान पडता है, से चले आये ज्ञान के इन दो भेदों को आधार मानकर क्योंकि उन ग्रन्थों का नाम अकलंक का दिया हुआ है, ज्ञानो का किस प्रकार प्रमाणों मे वर्गीकरण हुआ। इसका ऐसी सूचना उनके प्रथो से प्राप्त नहीं होती। वर्णन प्रस्तुन अध्याय के द्वितीय परिच्छेद मे किया गया उनकी सम्पूर्ण कृतियां भाष्य ओर स्वतंत्र इन दो है। जिसमें बताया गया है कि परम्परागत प्रत्यक्ष और रूपों में प्राप्त होती है । कुछ स्वतंत्र कृतियां उनकी ऐसी परोक्ष ज्ञानों के आधार पर बाद के दार्शनिको द्वारा उन्हें हैं, जिन पर उन्होंने स्वय वत्ति या भाष्य लिखा है। स्पष्टरूप मे प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण के रूप मे उनकी उपलब्ध क नया इस प्रकार हैं स्वीकार किया गया। आत्मसापेक्ष प्रत्यक्ष और इन्द्रिय एवं १. तत्वार्थवातिक (वार्तिक एवं उस पर भाष्य)। अतिन्द्रिय सापेक्ष परोक्ष के रूप में विभाजित उस ज्ञान २. अष्टशती (आप्तमीमांसालकार, भाष्य)। गंगा की धारारूपी परम्परा कुन्दकुन्द तक अनवरत रूप ३. लघीयस्त्रय (सवृत्ति)। से प्रवाहित होती रही, परन्तु ज्ञान को प्रमाण रूप मे ४, न्यायविनिश्चय (सवृत्ति)। स्वीकृति देने वाले उमास्वामी और उनके बाद के आचार्यों ५. सिद्धिविनिश्चय (सवृत्ति)। द्वारा अनिन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान को आत्मसापेक्ष ज्ञान के Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, वर्ष ४३, कि०३ अनेकान्त साथ संयुक्त कर लिया गया, बाद में यही प्रमाणों के वर्गी- गयी है। जिसमे इनके स्वल्प एवं अवान्तर भेदों के मिरूपण करण का मुख्य आधार बन गया। के साथ दर्शनान्तरीय मतों की तुलनात्मक समीक्षा की ___ तत्पश्चात् प्रमाण की परिभाषाए गढ़ी गयी और गयी है । इस में इन प्रमाणों के मानने का आधार इनका अकलक तक आते-आते ज्ञान को प्रमाण मानकर उन्होने स्वातंत्र्य आदि विषयो पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया उसमे अनधिगतार्थ, अविसंवादी और व्यवसायात्मक जैसे गया है । अनुमान (प्रत्यभिज्ञान) प्रमाण के अन्तर्गत उसका पदों का समावेश कर प्रमाण की अकाट्य परिभाषा दी। स्वल्प, व्याप्ति का स्वरूप, एकलक्षण का स्वरूप, हेतु का "प्रमाणमीमांसा" प्रस्तुत तृतीय अध्याय के परिच्छद प्रथम स्वरूप एवं उसके भेदादि का तुलनात्मक दृष्टि से विमर्श में इसका ऐतिहासिक सन्दर्भ मे मूल्यांकन किया गया है। उपस्थित किया गया है। तत्पश्चात् अन्त में आगम-श्रुत इसी अध्याय के द्वितीय परिच्छेद मे दर्शनान्तर सम्मत प्रमाण की चर्चा की गयी है । दर्शनान्तर सम्मत उपमान, प्रमुख प्रमाण परिभाषाओं की समीक्षा करके परिच्छेद अर्थापति आदि प्रमाणों का परोक्ष प्रमाण में विभिन्न तृतीय मे प्रमाण के भेदों का भी विवेचन किया गया है। युक्तियों पूर्वक अन्तर्भाव दिखाया गया है। "प्रत्यक्ष प्रमाण" नामक चतुर्थ अध्याय में मुख्य- "प्रमाग का विषय, फल और प्रमाणाभास" के प्रतिप्रत्यक्ष और साव्यवहारिक प्रत्यक्ष के रूप में दो परिच्छेद पादन के लिए अध्याय षष्ठ रखा गया है। इसमे बताया रखे गये हैं। जिसमे सर्वप्रथम प्रत्यक्ष प्रमाण का स्वरूप गया है कि प्रमाण का विषय द्रव्य पर्यायात्मक, उत्पाद, बिशदता का समालोचनात्मक दृष्टि से आकलन करते व्यय, ध्रौप्रयुक्त अर्थ, अनेकान्तात्मक है। इसलिए प्रमाण हुए उनके भेदों की चर्चा की गयी है। तत्पश्चात् मुख्य के विषय की उपलब्धि ऐकान्तिक दृष्टि से नहीं की जा प्रत्यक्ष का स्वरूप एवं अतीन्द्रिय ज्ञान-केवलज्ञान के प्रति- सकती। इस प्रसंग में बौद्धादि गम्य स्वलक्षण, क्षणिकपादनपूर्वक विभिन्न उक्तियों द्वारा यह सिद्ध किया गया वाद, सन्तानवाद, नित्यवाद आदि की समीक्षा की गई है कि सुनिश्चित रूप से सर्वज्ञ के अस्तित्व मे बाधक है। प्रमाण फल में यह सिद्ध किया गया है कि युगपद प्रमाणों का अभाव होने से वह स्वयं ही सिद्ध हैं। "मुख्य सर्वावभामक ज्ञान प्रमाण का फल उपेक्षा क्रमभावि ज्ञान प्रत्यक्ष" नामक इस परिच्छेद मे उपर्युक्त चर्चा के साथ प्रमाण का फल उपेक्षा, हेय एव उपादेय बुद्धि तथा सभी अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानो के सक्षिप्त स्वरूप का भी ज्ञाना-प्रमाण का फल अपने विषय में अज्ञान का नाश है। प्रतिपादन किया है। मति आदि ज्ञानों साक्षात्फल और परम्परा फल का "साव्यवहारिक प्रत्यक्ष" नामक इस अध्याय के द्वितीय संयुक्तिक विवेचनपूर्वक अवग्रहादि भेदों को प्रमाणफल परिच्छेद मे इसके स्वरूप और अवान्तर भेदो की चर्चा व्यवस्था बतायी गई है। इसी अनुक्रम मे प्रमाण फल के की गयी है। इसमे यह बताया गया है कि परम्परा से भिन्नत्व-अभिन्नत्व पर विचार करने के साथ विभिन्न परोक्ष के रूप में स्वीकृत मतिज्ञान मे किस प्रकार शब्द- मतावलम्बियों की प्रमाण फल की व्यवस्था की समीक्षा योजना से पहले प्रत्यक्षत्व है। इसकी एवं इसके भेदों की की गयी है। प्रमाणाभास की चर्चा में प्रमाणाभास का सांव्यवहारिक के भेद इन्द्रिय प्रत्यक्ष एवं अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष __ स्वरूप, भेद, उनके आधार तथा अन्य मतावलम्बियों के के अन्तर्गत समीक्षा की गयी है। मत को किस प्रमाणाभास के अन्तर्गत रखा जाय इत्यादि __ "परोक्ष प्रमाण की परिभाषा एव भेद" नामक पंचम पर विचार किया गया है। अध्याय के प्रथम परिच्छेद मे ऐतिहासिक विनेचनपूर्वक अध्याय सप्तम 'नयमीमांसा" में तीन परिच्छेद हैं। यह दिखाया गया है कि शब्दयोजना होने पर स्मृति, सज्ञा, प्रथम परिच्छेद में सकलादेशी नय की परिभाषा पर विशेष चिन्ता आदि परोक्ष क्यो हो जाते है। तत्पश्चात् द्वितीय रूप से विचार किया गया है। इससे सम्बन्धित विभिन्न परिच्छेद मे स्मरण, प्रत्याभिज्ञान, तर्क, अनुमान और पक्षों-ज्ञाता का अभिप्राय, वक्ता-श्रोता की स्थिति, नय के आगम इन परोक्ष के पांच भेदो की विस्तृत समीक्षा की स्वरूप की ऐतिहासिक दृष्टि, सुनय-दुर्नय आदि पर विचार Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्राकलंककृत लघीयस्त्रय: एक दार्शनिक अध्ययन १३ करके, नय के भेदों पर विचार किया गया है। इसमें गम के लिए प्रमाण, नय निक्षेप आदि साधन के रूप में बताया गया है कि द्रव्याथिक और पर्यायाधिक के रूप में माने गये हैं । इन सभी का उक्त अध्याय के प्रथम परिच्छेद मूलनय दो ही हैं। परन्तु नयों का भर्षनय और शब्दनय में प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय परिच्छेद में श्रत के के रूप में भी विभाजन किया जा सकता है। नंगमादि स्याद्वाद और नय के रूप मे दो उपयोगों की चर्चा के नयों को इनवों नय के मूल दो भेदों में विभक्त किया गया साथ अत्यन्त आवश्यक होने के कारण अनेकान्तवाद का है। इस प्रसंग में अकलंक के इस कथन से कि “निश्चय भी प्रतिपादन किया गया है। तत्पश्चात् लघीयस्त्रय और व्यवहार नय द्रव्याधिक और पर्यायापिक नय के के प्रवचन प्रवेश के आधार पर स्याद्वाद, नय, श्रुत, नय आश्रित नय है" निश्चय और व्यवहार की समस्या का के भेद, निक्षेप का स्वरूप भेद एवं उसका प्रयोजन प्रवचन समाधान हो जाता है। इस अध्याय के द्रव्याथिक नय का फल एवं प्रवचन शास्त्र अभ्यास की विधि बादि का नामक द्वितीय परिच्छेद में द्रव्याथिक नय की व्युत्पत्ति, विवेचन किया गया है। स्वरूप, अर्थनय के रूप में उसकी मान्यता आदि के विचार- नि.सन्देह जैन न्याय और दर्शन की पर्याय के रूप में पूर्वक इसके भेद नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजसूत्र नयों अकलंक को यदि माना जाये तो अत्युक्ति नहीं होगी, की मीमांसा अन्य दर्शनों के साथ तुलनात्मक ढंग से प्रस्तुत क्योकि उन्होने ही सर्वप्रथम जैन दर्शन में अन्य दर्शनों में की गई है । "पर्यायाथिक नय" नामक परिच्छेद तृतीय मे विकसित दर्शन और न्याय के समान जैनन्याय और दर्शन पर्यायाथिक नय की परिभाषा उसके भेद, शब्दादि नयों को संस्कृत भाषा मे निबद्ध कर लघीयस्त्रय जैसे महान को पर्यायाथिक नय के अन्तर्गत रखने के कारण शब्दादि सूत्रात्मक ग्रंथों का प्रणयन किया। इन ग्रंथों मे उन्होंने नयों का स्वरूप आदि के प्रतिपादन पूर्वक इस अध्याय के ही परम्परा से प्राप्त चिन्तन को युग के अनुरूप ढांचे में अन्त में नयाभासों का भी विवेचन किया गया है। ढालने के लिए सर्वप्रथम प्रमाण, प्रमेय, नय आदिकी अका प्रवचन अथवा आगम : "प्रमाणमीमांसा" नामक ट्य परिभाषाएं स्थिर की तथा अन्य परम्पराओं में प्रसिद अष्टम अध्याय के दो परिच्छेदों में विभक्त किया गया है। न्याय और तर्कशास्त्र के ऐसे बीज जो जैन परम्परा में प्रथम परिच्छेद में प्रवचन का स्वरूप, उसकी प्रमाणता नही थे, स्वीकार कर उन्हें आगमिक रूप दिया ; का आधार, विषयवस्तु, अधिगम के उपाय प्रमाण, नय, अन्त मे "उपसहार" है, जिसमें भट्टाकलक द्वारा जैन निक्षेप, श्रुत के उपयोग, प्रवचन का प्रयोजन एव फल आदि न्याय और दर्शन के क्षेत्र में किये गये उनके अवदान का के बारे में लिखा गया है। सक्षेप मे उल्लेख करते हुए शोध के निष्कर्षों का समावेश मुख्य और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मति, श्रुत आदि के किया गया है। प्रत्यक्ष और परोक्षत्व आदि से सम्बन्धित अकलंक की परिशिष्ट मे सन्दर्भ ग्रन्थ सूची एव भट्टाकलंक विषकुछ ऐसी व्यवस्था थी, जिसके कारण प्रतीत होता है कि यक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ मे प्रकाशित शोध लेखोकी अकलंक को स्वतंत्र रूप में प्रवचन प्रवेश लिखना पड़ा। सूची प्रस्तुत की गयी है। जिसमें उन्होंने परम्परा से प्राप्त चिन्तन को विवेचित भारतीय दर्शनो में ऐतिहासिक दृष्टि से जैन न्याय किया है। इसमें उन्होंने कहा है कि सर्वश, सिद्ध परमात्मा को महत्वपूर्ण स्थान दिलाने वाले भट्टाकलंक प्रथम आचार्य का अनुशासन ही प्रवचन है। आप्त की वाणी प्रवचन है। हैं, जिन्होने अपने तीन प्रकरणों वाले सूत्रशैली में निबद्ध इस दृष्टि से प्रवचन या मागम की प्रमाणता का मुख्य लघु ग्रंथ "लघीयस्त्रय" मे जैन न्याय का ताकिक विवेचन आधार आप्त के गुण सिद्ध होते हैं। प्रवचन की यह किया है। परम्परा अनादिकालीन है और उसका विषय जीब-अजी- अकलंक और उनके लघीयस्त्रय विषयक उपयुक्त वादि के बनेकान्तात्मक स्वरूप का प्रतिपादन है, जिसका अध्ययन के आधार पर हम संक्षेप में कह सकते हैं कि प्रतिपादन स्थाबादपद्धति से किया जाता है। उनके बधि (शेष पृ० १७ पर) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीतिकाव्य की अचचित कृति : 'मनमोदन पंचशती' 0 डॉ० गंगाराम गर्ग, भरतपुर प्रसिद्ध दिगम्बर जैन मन्दिर सोनी जी की नसियां अजमेर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध 'मनमोदन पंचशती' अशात कवि छत्रशेष की रचना है। ५०० कवित्त, सवैया और छप्पय छदो मे लिखित इस रचना में दर्शन, धर्म, भक्ति और श्रावकोचित आचार की सूक्तिया बोधगम्य, रोचक और सरल भाषा मे कही गई है। प्रन्थारम्भ में कवि ने तीर्थंकर ऋषभदेव की वदना नो सवैया छंदों में प्रस्तुत करके अगले दस छदो में नवकार मंत्र का महत्व प्रतिपादित किया है। पुद्गल, आत्मा, सम्यक्त्व, पुनर्जन्म, कर्मबन्धन, मोक्ष आदि दार्शनिक विचारो को अधिक बोधगम्य बनाने के लिए कवि ने दृष्टान्त अलकार का व्यापक प्रयोग किया है। परद्रव्य में आसक्त आत्मा के भटकाव की स्थिति मकड़ी, तोता, कुत्ता, पतंग के दृष्टान्तो से स्पष्ट की है और उसे दु.खदायी प्रमाणित किया हैजैसें नद मकरी उगलि निज मुख तार, आपु ही उलझि बहु दु.खी होय मरि है। जैसे मूढ सुक गहि नलिनी को नीचो होय, परि करि ग्रह्यो मानि पीजरा मे पर है। जैसें कांच भोन स्वान भूसि भूसि तजे प्रान, दीपक को हित मांनि पतंग जो बरं है। तैसें यह जीव भलि अपनों स्वभाव, पर वस्तु अपनाय चहु गति दुख भर है।।१२२॥ भूत, वर्तमान, भविष्यत् तीनों कालो में सुखदायी धर्म की उपेक्षा करके विषयों में आसक्ति को कवि बहुत बड़ी मूर्खता मानते हैं। दृष्टान्तमयी शैली मे श्रावको के लिए उनका उद्बोधन इस प्रकार है जैसे कोई मूरख कनिक खेत वारि हेत, काटत कलपट्टम मन मैं सिंहावतो। जैसें कोई विष वेलि पोष पीयूष सीचि, भसम के हेत मूढ़ रतन अलावतो॥ जसें कांच खंड साटै मानिक ठगावै सठ, मोतिन की माला पोत बदले गमावते । तंसें वर्तमान भावी काल सुखदाय धर्म, घाति के अयान मन विष मे लगावतो ॥११॥ श्रावक धर्म में 'रात्रि भोजन त्याग' और 'तप' की महत्ता प्रतिपादित करते हुए नीतिकार ने अहिंसा, अक्रोध, शील, दान, सत्य की अधिक ग्राह्य बतलाया है। शील के महत्व के विषय मे कवि की धारणा है सील ते सरल गुन श्राप हिय वास कर, ___सील ते सुजस तिहुं जग प्रगटत है। सील ते विघन ओघ रोग सोग दूर होय, सील ते प्रबल दोष दुख विघटत है ॥ सील ते सुहाग भाग दिन दिन उदै होय, पूरब करम वध दिननि घटत है। सील सों सुहित सुचि दीसत न आनि जग' सील सब सुखमूल वेद यो रटत है ॥३९८ अपरिग्रह तथा त्याग को प्रधानता देने के कारण जैनाचार मे कृपणता को निंदनीय ठहराया गया है। नीतिकार शेष, निर्दयता, स्तेय, संशय, परनिन्दा, मायाचार, विश्वासघात, कुसंग आदि दुर्गुणों का मूलाधार कृपणता को मानकर उसे त्याज्य ठहराते हैं - हिय न दया, नहीं असत वचन त्याग, परधन परनारि की चाह बढ़ती। मूरछा अपार पर औगन कथन प्यार, लिए मायाचार, हिये लोभ लाग बढ़ती। विसवासघासी, अनाचार पक्षपाती, सदा दुर्जन संघाती उतपाती रीति अड़ती। कृपन कृत घन अदेसक सुभाउ जाको, ताकी करतूति की न ठीक कछू परती ॥१५३॥ जैनदर्शन और जैनाचार के मूल सिद्धान्तों को मधुर Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौतिकाव्य की अर्थाचित कृति 'मनमोदन पंचशती आकर्षक और बोधगम्य शैली मे प्रतिपादित करने के अतिरिक्त छोष ने लोकव्यवहार के महत्वपूर्ण पक्ष भी उजागर किए हैं। 'बाचना' व्यक्ति की वाणी, मन, तन और बुद्धि को कितना तेजहीन कर देती है, इस विषय में छत्रशेष की मान्यता है जो बन गए प्रसूति दूरि बास बसे प्रीति, चित्रा स्वाति गये देह, दिष्ट न परत है । तैसे गुन तेज मन बुद्धि साज सनमान याचना करन दूरि देस विचरत है । गलभंग सुरहीन गाम खेद भय सोच, मरन चहन इस याचक धरत है । याचना सम नहि दीनता जगत अन्य, मृतक समान दिन पूरन करत है ।। १६९ ॥ वायदा करके उसे पूरा न कर सकने के दुष्परिणाम भारतीय चिन्तन परम्परा मे प्रचलित अवश्य हैं किन्तु नीतिकाव्य में क्षेत्र मे ही इन्हे प्रभावक ढंग से प्रस्तुत किया है। वे चाहते है किसी से वायदा करने पर उसकी तुरन्त पूर्ति करना श्रेयस्कर है। भविष्य के लिए किसी के प्रति कोई वायदा थाती रूप मे रखना हानिप्रद हो सकता है तथा अपयश का कारण भी । "दीजिए न वरदान भूलि कभी काहूं ही के, दीजिए तो उतकाल कोस मे न रखिए । कोस रखें पर्छ देन समैं दुख होय, देय न तो श्रौजस श्रवन द्वार चलिये ॥ जो कदाचि देव जोग नसि जाय विभो कहूं, तो वचन व कीचक भूमषिये । पूरब अनेक नृप जसरथ आदि मन, घने पछिताये शेष राखि भूत लखिए ।।१६८॥ कृषि, वाणिज्य, धर्मसाधना विषयक सभी कृत्य अवसरानुकूल ही सम्पन्न होते है ऐसी मान्यता की है— शेष जो किसान कृषि सर्वे कृषि नावन को छोडि कुसमय बीज बोये फल न लहत है । जो बनिक बानिक केस करें आन काज, बानिज विनां धन लाभ को गहत है । तो अयान धर्म समैं धर्म साधन को तजि, सेय विषै सुख बहु संकट सहत है । निज निज समैं सब कारज सफल जान, बुध सर्वे गगन मे उदित रहत है ।। ३१४ किसी भी कार्य को यथावसर करने की तत्परता आवश्यक मानते हुए भी क्षत्रशेष ने जल्दबाजी अथवा 'आकुलता को कोई महत्व नहीं दिया। अवसरानुकूलतायें यदि किसी कार्य की सफलता है तो आकुलता मे उसका बिगाड़ भी। दोनो विपरीत स्थितियो मे समन्वय ही व्यक्ति की चतुराई है। उतावलापन, क्रोध, अदया आदि उदित ही नास करें, का कारण भी है । क्रोध महा रिपु व जैसे दब दारू पैठि है तत छिन है। दयालता मूल उनमूलन कुदाल सम, अदया बबूल द्रुम पोषन को घन है ॥ स्याम सर सोखन को वृषमान तेज सम दुर्गति गमन द्वार दुख द्रुम वन है । अनरच हेत बहू ओगुनि निकेत अति आकुलता खेत त्याग करें बुधजन है || २६७॥ वृद्धावस्था आने पर व्यक्ति स्वजन, परिवार और समाज से उपेक्षा पाते हुए भी उनमे निरन्तर प्रासक्ति रखता है। ऐसे व्यक्ति पर 'धनि तेरी छाती कहकर व्यग्य करते हुए छत्रशेष ने वृद्धावस्था का कुत्सित चित्र प्रस्तुत किया है प्रथम कलेस मूल तन सनबंध तैरं, बात पित्त कफ आदि बहु रोग घर है । पीड़ो क्षुधा तृषा सीत उष्ण कौ न धरै धीर, १५ कुसित कूं गघ अपवित्र मलधर है ॥ सुभ अशुभ मह विवृद्धि पाप कर्मफल, उदं रूप तेरे हर दम दुषकर है । स्वजन सपाती, परमारथ के पाती, अरे धन्नि तेरी छाती येतं परप्रीत वर है ॥ दर्शन एव आचार विषयक नीति तत्त्वो के विशाल ग्रंथ 'मनमोदन पंचशती' के कतिपय उद्धरणों से यह प्रमाति है कि रीतिकाल का अज्ञात कवि शेष रहीम, बुन्द आदि सूक्तिकारों के समान ही भारतीय समाज का प्रकाश स्तंभ है। ११०- रणजीतनगर, भरतपुर Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० पार्श्वनाथ के उपसर्ग का सही रूप D क्षुल्लक चित्तसागर जी, एम. ए., एल-एल. बी. पद्मावती देवी की मति देखने से मन मे कई शंकाएं पृथ्वी से उठाकर खड़ा हो गया। और उन्हें ऊपर पद्मावती उत्पन्न हुई थीं। बिहार में अनेक मन्दिरों मे और अनेक देवी अपनी भक्ति से उन्नत सघन वज्रसदृश तथा जल के तरह की पद्मावती की मूर्तियां देखने को मिली तब शंकाएं द्वारा अभेद फणमंडप तानकर सजग हो गई ॥५॥ यह और पक्की बनीं । मुझे लगता है कि जानबूझकर ही ऐसी अनुवाद ख्यातनामा पंडित पन्नालालजी साहित्याचार्य का मूर्तियां बनवाई गई हैं। और अब वे खूब प्रचलित हो है। इसलिए पूर्ण विश्वसनीय है। इस पाठ मे स्पष्ट है कि गई हैं। इसलिए प्राचीनत्व प्राप्त कर एक आराध्य का धरणेन्द्र ने अपने फणो द्वारा भगवान को उठाया। जब स्थान लेकर बैठ गई हैं। मति में औचित्य और सहीपना आज की बनी मूर्तियों मे धरणेन्द्र दिखता ही नही है। कितना है वह भी विचारणीय है । स्वाध्याय मे अभी तक तीसरा प्रमाण पज्य जानमती माताज पांच-छः प्रमाण मुझे मिले हैं। जो यह मूर्ति के स्वरूप में, का। उन्होंने भगवान पार्श्वनाथ की दो स्तुति बनाई है। गड़बड़ है ऐसा सिद्ध करते हैं। मूल संस्कृत पद्य का हिन्दी अनुवाद निम्न प्रकार से हैप्रथम प्रमाण है भावि-तीर्थकर बनने वाले समर्थ दोनों में भाव एक समान है। वीर ज्ञानोदय प्रथमालाताकिक आचार्य समन्तभद्र स्वामी का, जिसमे पार्श्वनाथ हस्तिनापुर का प्रकाशन "सामायिक" का पृ० ११६ पर भगवान की स्तुति मे शब्द है। अनुवादित श्लोक है। "बृहत्फणा-मण्डल ........"डिदम्बुदो यथा" (२) "हे जिन ! तेरी भक्ति भारवश से धरणेन्द्र झटिति आकर, मल श्लोक अर्थ :-उपसर्ग से युक्त जिन पाश्वाथ तप-उपसर्गकाल मे शिर पर फण को छत्र किया सुखकर । भगवान को धरणेन्द्र नामक नागकुमार देव ने चमकती इसमे धरणेन्द्र ने छत्र किया ऐसा कथन स्पष्ट है। हुई बिजली के समान पीली कान्ति से युक्त बहुत भारी तदुपरान्त इस पुस्तक के पन्ने १११ पर श्लोक है : फणामडल रूपी मडप के द्वारा उस तरह विष्टित कर पुण्योदय से फरणपति आसन कपा, पद्मावती के साथ । लिया था जिस तरह कि काली सध्या के समय बिजली से आकर फण का छत्र किया प्रभु शिर पर बदूं पारसनाथ ।। यूक्त मेघ पर्वत को वेष्टित कर लेता है। श्लोक में जो इममें भी धरणेन्द्र छत्र किया और पद्मावती तो मात्र कुछ किया वह घरणेन्द्र ने किया है। पद्मावती का नाम साथ आई थी ऐसा वर्णन है। निशान नहीं है। जब आज मूति मे धरणेन्द्र अलो। हो चौथे प्रमाण में पडित भूधरदास का पार्श्व पुराण गया है मात्र पद्मावती ही दिखती हैं। (प्रकाशन १७८९) पन्ना १२५ पर कथित है : दूसरा प्रमाण है आचार्य सकल कोनि जी के "पार्श्व तव फेनसे आसन कंपियो, जिन उपकार सकल सुधिकर कियो ! चरित्र" के पृष्ठ ७२५ पर लिखा है- "ऐसा विचार कर तलखिन पद्मावती ले साथ । आयो जहँ निवौं जिननाथ ।।४३ धरणेन्द्र पृथ्वी का भेदन कर अपनी स्त्री के माथ शीघ्र ही करि प्रनाम परदछना दई । हाथ जोरि पद्मावती नई। जिनराज के ममीप जा पहुंचा ।।८२॥ तीन प्रदक्षिणा देकर फनमडप कोनो प्रभु शीस । जलधारा व्याप नहीं ईस ॥४४॥ प्रणेद तथा पपावती ने भगवान को नमस्कार किया। इसमें भी पद्मावती ने कुछ नही किया, मात्र वह ८३।। तदनन्तर धरणेन्द्र शीघ्र ही भगवान की बाधा दूर अपने स्वामी के साथ आई थी। करने के लिए उन्हें देदीप्यमान फणाओं की पक्ति द्वारा पचम प्रमाण :-आचार्य सुधर्मसागरजी द्वारा रचित Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० पाश्वनाथ के उपसर्ग का सही रूप चतुविशति की स्तुति में भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति वर्ग तो थोड़ी सहाय करती है या अनुमोदन देती है। श्लोक नं०१०: किन्तु आश्चर्य है कि ऐसे प्रमाण होते हुए धरणेन्द्र को इस स्तोत्र में भी धरणेन्द्र ने फण किया ऐसा अर्थ भुलाकर पद्मावती को ही प्रमुख व्यक्तित्व अपित किया है। निकलता है : पद्मावती की कई मतियो में पार्श्वनाथ की प्रतिमा देवी छठा प्रमाण : की चोटी जैसी लगती है। क्या देवाधिदेव का यह अपमान दैत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि आयो फनिधार। अवर्णवाद नही है । मुनिराजे आर्यिका से भी ५-, हाथ गयो कमठ शठ मुख करि श्याम, नमो मेरु समान पारसस्वाम। दूर रहे ऐसा विधान होते हुए पद्मावती-सी पर्यायी ने महा -धानतराय व्रती मुनिराज पार्वनाथ को उठाकर अपने सिर पर कैसे इसमें भी पावती का नामनिशान नही है । फनिधर बिठाया और उसमे क्या कोई प्रकार का औचित्य है ? का सातमा प्रमाण है-कलकत्ता से प्रकाशित प० पन्ना- समझ में नही आता, ऐसा भद्दा और विचित्र विकल्प लाल साहित्याचार्य से अनुदित "चौबीस पुगण पन्ना मतिकारो को कैसे आया ? उनका प्रेरक कौन रहा होगा? २३६ (पीछ देखें)। अपने उपकारी पार्श्वनाथ के ऊपर उममे क्या कोई बुद्धिमानी है या स्टंटरूप फरेव कार्य है ? होनेवाला धोर उपसर्ग का वृत्तात जान लिया। तत्क्षण पर सब विचारणीय है। में वे दोनों घटना स्थल पर पहुचे। और उन दोनो ने प्राचीन समय से चलता है इसलिए उसको पूज्य उन्हें अपने ऊपर लिया। और उनके सिर पर फणावली मानना यह भी दलील हृदय को चुभती है । ये प्रमाणो से का छत्र लगा दिया जिससे उनके ऊपर पानी की बूद भी। लगता है कि मति निर्माण मे जानबूझकर ही कुछ गड़बड़ गिर न सकती थी। की गई है। आज पार्श्वनाथ का तो नाम है बोलवाला इसमे मात्र पद्मावती ने फन ताना और भगवान को पद्मावती का है। इनके स्वतन्त्र मन्दिर भी निर्माण हए हैं। उठाया ऐसा वर्णन नही है। जो आज प्रतिमा मे दर्दाशत पद्मावती भवनवासी देवी है जबकि पार्श्वनाथ देवाधिदेव हैं सिद्ध परमात्मा है। नाममात्र पार्श्वनाथ औ. काम दोनो शब्द से दो फण होना चाहिए। किन्तु फण तो पूरा पद्मावती का ? आज भौतिकवाद मे पैसे को परमेश्वर एक है। इसलिए पद्मावती मात्र अनुमोदक ठहरती है। का स्थान ऐमी पूजा भक्ति से प्राप्त हो गया। लोभी, आगम मे लिखा है कि भगवान पर ज्योतिषदेव ने लालची थ वक सही-न-सही [गलत] भेद जानता नहीं है। जब उपसर्ग शुरू किया तो घर णेन्द्र का आमन कसायमान वह तो भक्ति द्वारा धन, वैभव ससारसुख चाहता है, वह हुा । वह अपनी सगनी को लेकर दौड़ता आया और बिना मिथ्यात्व तथा अयोग्य विनय के कारण शक्य नहीं है। पुरुषोचित कार्य करके उसने अपना पुराना उप ।र का किन्तु कौन ऐसे पापी जीवो को बोध करावे मस्तु । बदला चुका कर वापिस चले गए थे। विजयनगर सामान्यतः ऐसे कार्य पुरुषवर्ग ही करते हैं। स्त्री गुजरात (पृ. १३ का शेषांश) लघीयर त्रय भट्टाकलंक का एक महान दार्शनिक ग्रन्थ है, प्रामाणिक अनुवाद हो, जिमसे संस्कृत न जानने वाले जिस पर किया गया मेरा यह दार्शनिक अध्ययन एक लघ समीक्षक जैन न्याय और दर्शन का मूल्यांकन करके भारप्रयास है। हम समझते हैं कि जैन न्याय और दर्शन को तीय न्यायशास्त्र के इतिहास मे भट्टाकलक एव उनके समझने के लिए यही एक ग्रंथ पर्याप्त है । अब आवश्यकता अवदान का निर्धारण कर सके। इस बात की है कि भट्टाकलक के ग्रथों का राष्ट्रभाषा में Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य महाप्रज्ञ के "जैन शासन की एकता : आचार की कसौटी" निबन्ध पर हमारा अभिमत श्री सुभाष जैन महासचिव : वीर सेवा मन्दिर [सम्पादकीय नोट--श्वेताम्बर तेरापंथी साधु महाप्रज्ञ जी द्वारा लिखित उक्त शीर्षक निबंध प्रतिक्रिया, समालोचना निष्कर्ष के लिए वीर सेवा मन्दिर को मिला था। महाप्रज्ञजो के उक्त निबंध का आशय है कि यदि दिगम्बर जैन साधु के मन गुणों को मलगुण न मान, नियमरूप में मान लें। (जो परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते है) तो एकता का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। यानी सभी पथ के श्रावक, सभी पथ के साधुओं को साधुरूप में स्वीकार कर लें, आदि उनके लेख के कुछ प्रसा इस भांति हैं : १. श्वेताम्बर परपरा मे मूलगुण पांच हैं दिगम्बर परम्परा मे मूलगुणों की संख्या अट्ठाईस हैं-यह भेद एक विचिकित्सा उत्पन्न करता है। २. "आचार्य भद्रबाहु ने मुनि स्थल भद्र को वेश्या को चित्रशाला में चतुर्मास बिताने की आज्ञा दी यह व्यक्ति सापेक्ष परिवर्तन है।" ३. भोजन एक ही बार करना, यह नियम है। यदि किसी की सामर्थ्य न हो तो दो बार भोजन करने में क्या बाधा है ? ४. हाथ का पात्र के रूप में उपयोग करना एक सीमा का निर्धारण है। ठीक उमी प्रकार हाथ और पात्र- दोनो का उपयोग करना सीमा का निर्धारण है। ५. यदि पात्र रखना मूर्छा या परिग्रह है तो कमण्डलु रखने मे मूर्छा या परिग्रह क्यो नही ? ६. एक स्थविर मुनि पादुका पहिन सकता है। ७. श्वेताम्बर और दिगम्बर सब मुनि चिकित्सा कराते है । ८. भगवान पार्श्व और भगवान महावीर की परम्परा मे आचार विषयक भेद बहुत था, आदि । उक्त सभी प्रसगो को लेखक ने गहराई से विचार कर अभिमत दिया है। पाठक देखें-सम्पादक] म ससारी जीवन की भचार की कसौटी का माप जिन्हें बदला जा सके । श्रावक के परिग्रह-परिमाण आदि २प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के परिग्रह से के रूप में अनेक व्रत होते हैं और उनमें ग्यारह प्रतिगाओ मुक्तता की मात्रा है। परिग्रह से मुक्तता का साधन का विधान किया गया है-ये सब नियप की कोटि में गगद्वेष का परिहार है। राग-द्वेष के परिहार का आते है । साधु के यम रूप अट्ठाइस मलगुणों मे जो न्यूनामाप आचार से किया जाता है--जिस मात्रा में आचार धिक रूप-नियम की बात करते हैं, वे साध को कोटि में से शद्धि आती है, उसी मात्रा में परिग्रह से मुक्ति न आकर श्रावक की कोटि मे आ सकते हैं, बशर्त उनकी परिलक्षित होती है और हम उसे भौतिक इन्द्रियो से ज्ञात आहार-विहार आदि क्रियायें आगमानुकूल मर्यादित व करते हैं । अन्यथा, वाह्याचार के बिना चाहे जो भी स्वयं शुद्ध हों जैसे ब्रह्मचारी, क्षल्लक, ऐलक आदि के पद । को वीतरागी धोषित कर देगा और उसके निषेध के लिए यद्यपि दर्शनाचार आदि पांचों आचार मुख्य हैं और हमारे पास कोई माप-दण्ड नहीं होगा। इमीलिए प्राचार चरित्राचार मे भी दर्शनाचार मल है। फिर भी महाप्रज्ञ के श्रावक और मुनि जमे दो भेद दिये गये है। प्रत्यक्ष मे जी का संकेत चारित्राचार के विषय पर चर्चा करना मुख्य मुनि परमेष्ठी श्रेगगी मे होने से परिग्रह का भी त्यागी है है। सौ चारित्राचार दो रूपों में है-मुनि रूप और श्रावक और उसके अठाईस मूल गुण है। ये मलगुण आजीवन रूप । मुनि-पद यम रूप है और श्रावक पद नियम रूप । होने से यम ही होते है - ये नियम की कोटि मे नही आते दि० मुनि २८ मूलगुणो के साथ अपनी परम विशुद्धि के लिए Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निबन्ध पर हमारा अभिमत उत्तर गुणों का पालन करता है और ये उतर-गुण मूल- परिग्रह रूप पात्र के समकक्ष मानना घोर अज्ञानता है। गुणों से उत्पन्न होते हैं जैसे मूल से वृक्ष और शाखाएँ उक्तं च-"न विद्यते धर्मोपकरणादते शरीरोपभोगाय उत्पन्न होती हैं। कहा भी है स्वल्पो पि परिग्रहो यस्य सः तथा" । अभि. रा०१/६०० ___ "मूल गुणापेक्षया उत्तरभूताः गुणा वृक्षशाखा इव उत्तर- "संभावना की दृष्टि : संवर्म वस्त्र प्रक्षालन" शीर्षक गुणा:- अभिधान राजेन्द्र २/७६३ अंश श्वेताम्बर साधुणो का उनका अन्तरंग विषय है। फलत :-उत्तरगुणों से मूलगुणों में परिवर्तन लाने इससे हमे प्रयोजन नहीं है। की बात नितान्त भ्रामक और आगम विरुद्ध है और एका- "कसोटी से संयम" शीर्षक मे जो लिखा है, वह ठोक हार जैसे मूलगुण को उत्तरगुण की कोटि में रखना नहीं है । क्योकि आपको नियम विषयक मान्यता ही गलत भी सर्वथा दिगम्बर मान्यता के विरुद्ध है। व भ्रमोत्पादक है। दिगम्बरों मे एकाहार मूलगुण रूप __ब्रह्मचर्य की साधना हेतु भद्रबाहु जैसे आचार्य द्वाग है और आप उसे सामर्थ्य न होने पर दो-तीन बार भोजन स्थल भद्र को वैश्या की चित्रशाला में चातुर्मास बिताने ग्रहण को नियम' मे बांधते है। ‘स्मरण रहे यहा ग्रहण मे की आज्ञा दिये जाने को हम प्रामाणिक नहीं मानते हैं "नियम" शब्द का प्रयोग नहीं है । अपितु 'त्याग' मे है। क्योंकि भद्रबाह परम्परित आचार्य थे उनकी चर्या और कहा भी हैआशा परम्परित और पागमानुकूल होना हमें इष्ट है। "कालपरिच्छित्या प्रत्याख्यानं भवेन्नियमः"- सर्वार्थ. वेण्या की चित्रशाला में रहना लोकनिन्द्य और ब्रह्मचर्यव्रती दिगम्बर परम्परा मे मुनि को औद्देशिक आर का श्रावक तक को वजित है, तब यह कार्य किसी साधु को विधान नही है और ईपिथ-शुद्धि व अपरिग्रह का घातक कैसे इष्ट-सिद्धि करा सकता है ? हमारी दृष्टि से ऐसा होने से पादुका-ग्रहण का भी विधान नहीं है। आदेश अप्रामाणिक है। क्या वर्तमान में कोई आचार्य किसी उन्हें श्रावक गण प्रतीकार योग्य रोग के निवासाधु को वेण्या के घर में चातुर्मास करने की आज्ञा देता रण हेतु, शुद्ध काष्ठादिक औषधियां आहार के समय है या स्वयं चातुर्मास कर सकता है ? देते हैं। वे परीषहजयी होने से अन्यों की भांति "लोभकषायोदयाद्विषयेषु संग: परिग्रहः (मूर्छा)" के साधुओं को यद्वा-तद्वा अभक्ष्य, अज्ञात औषधियों का परिप्रेक्ष्य मे दिगम्बर साधु पूर्ण अपरिग्रही होते हैं और श्रावक प्रयोग नहीं कराते व साधु भी अस्पतालो मे भर्ती नही के घर में उनका एक बार कर-पात्र में आहार लेना भी होते और ना ही अपने आरोग्य प्राप्ति हेतु श्रावको से इसका प्रमाण है। इससे उनकी इन्द्रिय-विषय की लालसा औषधि व उपचार की व्यवस्था की याचना करते हैं । रूप लोभ की निस्पृहता प्रकट होती है जबकि श्वेताम्बर एवं निष्प्रतीकार योग्य रोग से ग्रसित होने पर समाधिसाधओ में इन्द्रिय विषयो में लालसा बढ़ाने वाली पात्र मे मरण की आराधना करते हैं। आहार लाने, उसे वसतिका मे लाकर रखने की प्रवृत्ति है, भगवान महावीर निर्ग्रन्थ व निर्वाण पर्यन्त नग्न थे, उससे अनेक बार आहार लेने की प्रवृत्ति का उदय हुआ यह सभी जैन सम्प्रदाय स्वीकारते है और यह महावीर है। यदि पात्र रूप परिग्रह नहीं होता तो भोगोपभोग रूप का शासनकाल है । फलत. हमें महावीर की परम्परा आहार का संचय न होने से इन्द्रिय विषय का लोभरूप इष्ट है। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि एक तीर्थपूर परिग्रह न होता । इसलिए साधु को कर-पात्र में श्रावक के का शासनपूर्ण होने पर ही दूसरे तीर्थकर का आविघर एक बार आहार लेना ही उचित है और ऐसा अपरि- र्भाव होता है, फलतः महावीर के शासन मे पार्श्वपत्यीय ग्रह ही मुनि की प्रामाणिकता का परिचायक है। सवस्त्र केशी की उपस्थिति व उनके साथ गौतम पण कमण्डल, भोगोपभोग की सामग्री लाने-ले जाने, घर का संवाद बताना अप्रामाणिक और शिथिलाचारियो संचय व खान-पान का साधन न होने से परिग्रह की सज्ञा द्वारा सवस्त्र दीक्षा और अन्य शिथिलताओं के परिपुष्ट में नहीं आता। वह केवल शुद्धि का उपकरण है-उसे करने का छल मात्र है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, वर्ष ४३, कि० ३ बनेकान्त दिगम्बर साधु के २८ मूलगण अपरिवर्तनीय होते हैं, प्रज्ञ के लेख में प्रतिपादित नामधारी साधुओं को परमेष्ठी ऐसा जानते हुए भी महाप्रज्ञ ने दिगम्बर-मान्य यम-रूप के रूप में कैसे स्वीकारेंगे? मल गुणों को नियम की कोटि मे रख कर एकता के नाम यदि महाप्रज्ञ जी शुद्ध हृदय से एकता चाहते हैं तो पर दिगम्बर सिद्धान्त पर सीधा प्रहार किया है-इसका महावीर से परम्परित दिगम्बर साधु को परमेष्ठी रूप में हमें खेद है। महाप्रज शिथिलाचार का पोषण कर रहे हैं स्वीकार करे-कराय: अपने आचार-विचार खान-पान में जो हमें स्वीकार नहीं। वे यह क्यों भूल जाते है कि दिगम्बर आगम-वणित श्रावकाचार का पालन कर, अपने दिगम्बर कभी भी वस्त्र सहित को साधु के रूप मे नही को श्रावक की कोटि मे उद्घोषित करें तब एकता का स्वीकारेंगे और उनके (महाप्रज्ञ क) साधु वस्त्र रहित होने प्रयास सम्भवतः आगे बढ़ सके । को तैयार नहीं होगे। ऐसी स्थिति में साधु-रूप की अपेक्षा, एक सलाह और । महाप्रज्ञ जी दिगम्बर आगमों में दोनों की एकता की बात सर्वया असभव ही नहीं अपितु । नहा आपतु वणित श्रावक और मुनि के आचार का निष्पक्ष भाव एव विसंवाद की चिंगारी है। गहराई से अध्ययन करे-सम्भवतः उनको सम्यक बोध यह सर्वविदित है कि स्थानकवासी साधु श्री कानजी का मार्ग मिल सके। दिगम्बर साधुओ मे २८ मूलगुण स्वामी ने दिगम्बर आचार व आगम से प्रभावित होकर और अन्य उत्तर गुण आत्म-विशुद्धि के लिए ही हैं। प्राजीवन दिगम्बर धर्म का प्रचार-प्रसार किया। इसके साधु की चर्या को अपगम के परिप्रेक्ष्य में ही देखना बावजूद, वे महाप्रज्ञ जी को अपेक्षा विशुद्ध आहार एक चाहिए-तोड़-मरोड़ कर या कोन, कब, कैसा, क्या कर बार लेते हा भी अपने को अवती-श्रावक की कोटि मे रहा है, इस दृष्टि से मूल चर्या को देखना उचित नहीं। मानते थे और सदा निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधुओ को परमेष्ठी हमारा उद्देश्य शिथिलाचार को रोकना होना चाहिए उसे स्वीकार कर उन्हीं के गुणो में भक्ति प्रदर्शित करते रहे। बढ़ावा देना नही। महाप्रज जी को अभी भी कोई जिज्ञासा फिर भी दिगम्बराम्नायियो ने उन्हें व्रतीश्रावक या हो तो हमसे सम्पर्क कर लें। कहा भी है-"आगमचक्न साधू परमेष्ठी के रूप मे स्वीकार नही किया । तब वे महा. साहू।" **************** **************************** धण-धण्ण-वत्थदाणं हिरण्ण-सयणासणाइ छत्ताई। कुद्दाण-विरहरहिया, पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ बोधपा० ४६।। तिल ओसत्तणिमित्तं, सम वाहिरगंथसंगहो णत्थि। पावज्ज हवद एसा, जह भणिया सम्बदरसीहिं ।। बोधपा०.५५॥ 'वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥ एदे खलु मूलगुणा समगाणं जिणबरेहिं पण्णता। तेसु. पमसो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ।' प्रव० ३, ८-९ ॥ Xxxkkkkk******************* Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन सन्देश काव्य संस्कृत साहित्य मे कतिपय परम्पराओ का पल्लवन होता रहा है। इनमे सन्देश काव्य परम्परा भी एक है। कवियों द्वारा किसी को दूत बनाकर विरहणियों के सन्देश को प्रेषित किया गया है | आदि कवि बाल्मीकि ने पवनसुत हनुमान को राम का दूत बनाकर सीता के पास भेजा था । कदाचिद् इसी से कल्पना ग्रहण कर कालिदास ने मेघ को दूत बनाकर किसी यक्ष के द्वारा यक्षिणी के पास सन्देश भिजवाया । यही सन्देश काव्य "मेघदूत" के नाम से प्रसिद्ध हुआ । बस क्या था इसी को आधार बनाकर दूत काव्य अथवा सन्देश काव्य परम्परा चल पड़ी । इस परम्परा का अनुसरण घोयी पवनदूत आदि काव्यों द्वारा किया गया । इस सन्देश काव्य परम्परा को जैन कवियों ने भी अपनाया। जम्बू कवि का द्रदूत पवनदूत से भी प्राचीन काव्य है । अन्य जैन कवियों ने सन्देश काव्य परम्परा का अनुसरण करते हुए अनेक सन्देश काव्य लिखे सन्देश काव्यों की एक दिशा नवीन भावो तथा विषयों के वर्णन की ओर प्रवाहित हुई जैन कवियों ने अपने दर्शन के गूढ़ सिद्धान्तों की अभिव्यन्जना के लिए सन्देश काव्य का आश्रय लिया । प्रेम सन्देश के स्थान पर इन नवीन काव्यो मे आध्यात्मिक उन्नति के विषय मे सन्देश प्रेरित किया गया है । इन सन्देश काव्यो मे जैन दर्शन के आध्यात्मिक तत्व का निरूपण काव्य की सरल भाषा में हुआ है । इनमे सांसारिकता का पुट बहुत कम मिलता है। सांसारिक विषय रागों का वर्णन केवल मात्र आध्यात्मिक तत्व की महता को दर्शाने हेतु ही किया गया है। प्रस्तुत शोधप्रबन्ध "संस्कृत के जैन सन्देश काव्य" भी सन्देश काव्य परम्परा में लिखे गये जैन सन्देश काव्यों के सौन्दर्य विश्ले धन्य करने हेतु लिया गया है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध आठ अध्यायों में विभक्त किया D कु० कल्पना देवी जैन गया है । प्रथम अध्याय के अन्तर्गत सन्देश काव्यो का सामान्य परिचय देते हुए सन्देश काव्य-परम्परा पर प्रकाश डाला गया है । कालिदास द्वारा रचित "मेघदूत" संस्कृत साहित्य की वह अनुपम कृति है जिसके द्वारा सन्देश काव्य परम्परा को सुदृढता प्राप्त हुई है। इसी अनुपम कृति को अपना प्रेरणा खोत मानकर जैन कवियो ने जैन सन्देश काव्य की रचना की । इन काव्यो मे सन्देश काव्य-परम्परा को एक नया मोड दिया गया है। मेघदूत का अनुसरण शीस होने पर भी ये काव्य सांसारिकता एवं मोह-माया को किचित् मात्र स्थान नही देते । तप के द्वारा प्राप्त चरम सत्य को इन काव्यों में विशेष स्थान प्राप्त है । इन्ही विशेषताओं का उल्लेख प्रथम अध्याय मे किया गया है । मोक्ष प्राप्ति की प्रेरणा एवं श्रमण संस्कृति का निर्वाह इन काव्यो की मुख्य विशेषताओं में आते है । इस प्रकार प्रथम अध्याय के अन्तर्गत सन्देश काव्यो का सामान्य परि चय, जैन सन्देश काव्यो का मूल स्रोत एवं विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए प्रस्तुत अध्ययन के विषय क्षेत्र को बताया गया है । द्वितीय अध्याय में जैन सन्देश काव्यो के ग्रन्थो का परिचय एवं संक्षिप्त कथा को प्रस्तुत किया गया है। इन जैन सन्देश काव्यो की कथावस्तु एक ही तत्व पर जोर डालती है और वह है मोक्ष। इन काव्यो का नायक प्रारम्भ में तो सांसारिक सुखो का उपभोग करता है परन्तु किसी कारण वश उसे सांसारिक मोह-माया से विरक्ति हो जाती और वह संसार के भोग विलासों से विरक्त होकर तप मे लीन हो मोक्ष प्राप्ति करता है। जैन सन्देश का का पहला उद्देश्य है जीवन के चरम सत्य मोक्ष से परिचित कराना। समस्त सांसारिक मोह विलास क्षण विध्वंसी है । सच्चा सुख इन सांसारिक बन्धनों का त्याग एव मोक्ष प्राप्ति में है। इसी आध्यात्मिक तथ्य को पाठक जनो Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, वर्ष ४३, कि० ३ प्रनेकान्त समक्ष प्रस्तुत करते हुए इन काव्यों में श्रमण संस्कृति का अमर्त विषय से प्रभावित होकर नायिका समस्त मोह निर्वाह किया गया है। श्रमण संस्कृति से परिचित कराना विलासों का परित्याग कर तप मार्ग का अनुसरण करने इन जैन सन्देश काव्यों का दूसरा उद्देश्य है। मेघदूत के लगती है । क्षमावान होने के कारण नायक अपने मार्ग में सदश ही इन काव्यों में भी सन्देश प्रेषित किया गया है। आई हर बाधा को दूर कर देता है तथा अपने लक्ष्य की परन्तु इनके सन्देशों में विरहव्यवस्था एवं वियोग शृंगार प्राप्ति कर लेता है। परमार्थ तत्व का विश्लेषण करते हुए के साथ-साथ आध्यात्मिकता को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। बताया गया है कि जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष है। केवल नायक-नायिका को आध्यात्मिक उन्नति का सन्देश देते यही एक सत्य है। शेष सभी सांसारिक सुख असत्य हैं। हए सांसारिक चीजो के प्रति मोह को दूर करता है । अत: प्रकृति चित्रण के अन्तर्गत इस अध्याय में प्रकृति को इस अध्याय में जैन सन्देश काव्यो के सन्देशों का विवेचन विभिन्न रूपों में प्रदर्शित किया गया है। आवलम्बन, करते हए वणित सन्देशों के स्वरूप को बताया गया है। उद्वतेपन, मानवीकरण, संश्लिष्ट, उपदेश एव नामपरिविशेषतः इन काव्यों में वणित सन्देशो में आध्यात्मिकता गणन आदि सभी रूपों में जैन कवियों ने प्रकृति का का पुट मिलता है। नायिका के विरह सन्देश को भी कवि चित्रण किया है। ने आध्यात्मिक सन्देश की महत्ता को दशनि हेतु हो चतुर्थ अध्याय में जैन सन्देश काव्यों की शैलीगत प्रस्तत किया है। प्रकृति का प्रतीव सजीव चित्रण यहाँ विशेषताओं का अध्ययन किया गया है। अन्तरंग एवं उपलब्ध है। इसी अध्याय के अन्तर्गत जैन सन्देश काव्या बहिरग दोनों ही दष्टि से विभाजित कर काव्य तत्वो का में प्रयुक्त सूचित पदो को भी दर्शाया गया है । इस प्रकार विश्लेषण किया गया है। अन्तरग तत्त्वों के विश्नेषण द्वितीय अध्याय मे जैन सन्देश काव्य परम्परा का निवाह में रस, ध्वनि एवं गणीभत व्यग्य का विवेचन है। करुण करते इए जैन सन्देश काव्यो के ग्रन्थो का परिचय, संक्षिप्त का पारचय, साक्षप्त एवं शांत रस दोनों का वर्णन इन काव्यों में किया गया कथा, उद्देश्य, सुभाषित, सन्देश एवम् प्रकृति चित्रण को है। गुणीभूत व्यंग्य के प्रान्तर्गत प्रगढ व्यंग्य मन्दिग्ध प्रस्तुत किया गया है। प्रदान व्यङ्ग्य, असुन्दर व्यङ्ग्य एव अस्फुट व्यङग्य का तृतीय अध्याय में जैन सन्देश काव्यों की काव्यगत विवेचन किया गया है । ध्वनि का भी इस अध्याय में पूर्ण विशेषताओं का उल्लेख किया है। इस अध्याय में सत्य, रूपेण विवेचन किया गया है। नेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, क्षमा, त्यागादि आध्यात्मिक मूल्यो का विश्लेषण कर काव्यो यमक आदि अलङ्कारों की सुन्दर योजना की गई है। की पथक्ता एवं मौलिकता को दर्शाया गया है। मोह माधुर्य, औज एवं प्रसाद आदि गुणों को भी इस अध्याय विलासो से दर इन काव्यो का नायक सत्यादि मूल्यों का में FORT किया गया है। ति योग पालन करते हए अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करता है। लक्षण, लक्षणा, रूढि लक्षणा एव व्यन्जना शक्ति प्रादिको मध्य स्वरूप को जैन कवियो ने सच बोलने की अपेक्षा भी स्पष्ट किया गया है। मन्दाक्राता छन्द मे निराद्ध कुछ जीवन के वास्तविक सत्य मोक्ष के रूप मे प्रतिपादित श्लोकों के उदाहरण को इस अध्याय में प्रस्तुत किया गया किया है। नायक सत्यवादी तो है ही साथ ही साथ जीवन है। के चरम सत्य को भी भली भाति जानता है। सत्य के पचम अध्याय मे पात्रों का चरित्र-चित्रण प्रस्तुत है। समान ही क्षमा, दया, अहिंसा आदि तत्वों को भी विशेष चरित्र-चित्रण की दृष्टि से ये जैन सन्देश काव्य अपना स्थान प्राप्त है। इसके अतिरिक्त परमार्थ को इन काव्यों पृथक् महत्व रखते हैं। पार्श्वनाथ जैसे महान चित्रण को मे विशेष महत्व दिया गया है। सत्यादि तत्वों का स्पष्ट चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त शम्बर, नैमिकुमार, रूप नायक के व्यक्तित्व मे स्पष्ट झलकता है। अमूर्त राजुलमति, स्थूलभद्र, कोशा, विजयर्माण एवं वसुन्धरा के विषयो को मतं रूप मे दर्शाना इन काव्यों के कवियो की चरित्र को भी चित्रित किया गया है। पाश्र्वनाथ, नेमिबदि चातर्य का प्रतीक है। शीलदूत काव्य मे शोल जैसे कुमार एवं स्थूल भद्र का चरित्र एक महान "ष के रूप Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जन सन्देश काव्य २३ में चित्रित है। क्षमा, त्याग, अहिंसा, धैर्य आदि इनके का उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है जो तप एवं साधना के द्वारा व्यक्यित्व की मुख्य विशेषताएँ हैं। ये दार्शनिक चिन्तन में प्राप्त किया जाता है। मोक्ष प्राप्ति शान्ति एवं धैर्य के लीन दिखलाई पड़ते है । तपस्वी के रूप में चित्रित इनका द्वारा प्राप्त होती है। इसी कारण जैन सन्देश काव्यों में चित्रण एक ऐसे महान चित्रण के रूप में चित्रित है जो श्रगार रस की अपेक्षा शान्त रम का आधिपत्य है। शान्त तप एव योग साधना मे रत उस आध्यात्मिक तत्व की रस के साथ-साथ इस अध्याय मे ममस्यापूर्ति विधा के प्राप्ति का इच्छक है जिसे मोक्ष कहते है। काव्यान्त में विकास पर भी प्रकाश डाला गया है। समस्यापूति विधा मोक्ष प्राप्त कर नायिका को भी दीक्षा दान देते हैं। यूं तो प्राचीन काल से ही चली आ रही है परन्तु विकसित राजुलमति, कोशा एवं वसुन्धरा को एक विरहणी के रूप रूप से इसे बाद ही में मिला। प्राचीन काल मे मौखिक में प्रस्तुत किया गया है। इन तीनो पात्रों का चित्रण रूप से इम विधा का प्रयोग किया जाता था परन्तु बाद पूर्णतः सांसारिक है। संसार के भोग विलासों में लिप्त में काव्य निर्माण में इस विधा का प्रयोग किया जाने ये प्रिय वियोग से पीड़ित है। सांसारिक भोग विलासों में लगा। मेघदूत के अन्तिम चरणों को लेकर जैन कवियों लिप्त होने पर भी ये पतिव्रता एव आदर्श नारी के रूप में ने समस्यापूर्ति रूप में जैन सन्देश काव्यों की रचना की। काव्य में प्रतिष्ठित है। अपने आदर्शों एवं कर्तव्यों को ये इन काव्यों की यह विशेषता है कि उन्होंने मेघदूत को भली-भांनि जानती है । विजयमरिण का चरित्र पार्श्वनाय अपना आधार मानकर उसके श्लोकों के अन्तिम चरणों आदि के चरित्र से विल्कुल विपरीत है । वह न तो तप मे की समस्यापूर्ति की है। मेघदूत के इनोको में पूर्णतः सांसालोन है और न ही अलौकिक सौन्दर्य (मोक्ष) को प्राप्ति रिक मोह विलासों के दर्शन होते हैं । इन सासारिक भावका इच्छुक है। विजयगणि का चरित्र सासारिक भाव- नाओं को स्पष्ट करने वाली पक्तियों को जैन कवियों ने नाओं से भी लिप्त है यही कारण है कि वह अपनी प्रिया अपने विचारो एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया के वियोग की पीड़ा से पीड़ित रहता है तथा उससे मिलन है जो कि अपने आप में चातुर्य एवं अलोकिक प्रतिभा का की आकांक्षा रखता है। इन सब विभिन्नताओं के होने द्योतक है। शृंगारिक पक्तियो को बड़े ही सुन्दर ढग से पर भी अन्य पात्रों से एक समानता हमे इस चित्रण मे आध्यात्मिकता की ओर मोड़कर इन कवियों ने श्रमण मिलती है और वह है क्षमावान होना । वह अत्यन्त धैर्य- सस्कृति का भी पूर्णरूपेण निर्वाह किया है। समस्यापूर्ति शाली एव क्षमावान प्रकृति का है। इस प्रकार इस अध्याय विधा में दूसरे के द्वारा निर्मित पक्तियों को अपने विचारों मे पात्रो के चरित्र चित्रण को प्रस्तुत किया गया है। में परिवर्तित करने की कुशलता का ही परिचय दिया जाता षष्ठ अध्याय में शान्त रस की अभिव्यंजना एव है और ये कुशलता इन जैन सन्देश कायो मे स्पष्टरूप से समस्यापूर्ति विधा के विकास को प्रस्तुत किया गया है। दृष्टिगोचर है। मेघदून और जैन सन्देश काव्यो का मेघदूत इन काव्यो का प्रेरणा स्रोत रहा है और मेघदून उद्देश्य पथक-पृथक है फिर भी जैन कवियो ने मेघदूत की मे पूर्णतः शृगार रस का राज्य दिखाई पड़ता है किन्तु शृगारिक पंक्तियो की समस्या पूर्ति करते हुए अपने विचारों जैन कवियो ने अपने जैन सन्देश कायो मे शृगार रस के में परिवर्तित कर अपने उद्देश्यों की पूर्ति की है। साथ-साथ शान्त रस की भी अभिव्यजना की है। काव्यो सप्तम अध्याय में जैन सन्देश काव्यों में वर्णित श्रमण का प्रारम्भ तो शृगार रस से होता है परन्तु अन्त शान्न संस्कृति को गित किया गया है। इस अध्याय को रस मे। इस प्रकार शृंगार रस को जैन सन्देश काव्यों में श्रमण संस्कृति एवं जैन आचार धर्म दर्शन दो भागों में शान्त रस में परिवर्तित कर दिया गया है। विरह दग्ध विभक्त किया गया है। श्रमण संस्कृति की प्रमुख विशेषनायिका की उत्तेजित भावनाओ को नायक अत्यन्त सर- ताओं का वर्णन कर प्रस्तुत जन सन्देश काव्यों में इन विषे. लता एव सौम्यता के साथ शान्त करता है तथा संसार के षताओं को वणित किया गया है। जैन सन्देश काव्यों में प्रति उसके क्षणिक भ्रम को दूर कर देता है। इन कामों श्रमण संस्कृति के सभी नियमो एवं मान्यताओ को महस्व Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४, वर्ष ४३; कि० ३ 'अनेकान्त पूर्ण स्थान प्राप्त है। जैन कवियों ने अपने काव्यों मे श्राप सस्कृत साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। एवं दण्ड जैसी किसी प्रथा को वणित नहीं किया है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के सार रूप मे हम यह कह सकते ईश्वर जैसी किसी परोक्ष शक्ति का इन काम्यो मे वर्णन हैं कि जैन सन्देश का अपने आप मे पथक एवं मौलिक नही मिलता । तप, वैराग्य एव सयम को इन काव्यो के विशेषताओं को लेकर चलते हैं। इन काव्यों मे विशेषतः नायक ने अपने जीवन मे सर्वाधिक महत्व दिया है। संस्कृत मोक्ष एवं श्रमण संस्कृति को वणित किया है। इन काव्यों के जन सन्देश काव्यों में चरित्र का विकास अनेक जन्मों के प्रारम्भ मे शृगार रस को प्रतिपादित किया गया है। के बीच हुआ है जो कि श्रमण सस्कृति की एक विशेषता परन्तु काव्यान्त तक आते-ते शृंगार रस शान्त है। इसी अध्याय के अन्तर्गत जैन ग्राचार धर्म दर्शन के रस में परिवर्तित हो जाता है। कायारम्भ मे तो सहदय विभिन्न सिद्धांतो एवं नियमो को प्रस्तुत किया है। आत्मा जन काव्यानन्द की प्राप्ति करते हैं परन्तु काव्य के उत्तकी सत्ता को सिद्ध करते हुए भौतिक स्वरूप के भ्रम को राध में आध्यात्मिक एव सदाचार तत्त्वो को ही स्पष्ट स्पष्ट करने हेतु त्याग, तप, योग आदि को विशष रूप से किया गया है। इन सन्देश काव्यों की रचना मन्दाक्रान्ता वरिणत कर जैन धर्म दर्शन का उल्लेख किया गया है। छंद में हुई है। उपमा, यमक, उत्प्रेक्षा, श्लेष आदि अलंजैन दर्शन के सभी तत्त्व-जीव, अजीव आदि का स्वरूप कारों की सुन्दर योजना की गई है। इन काव्यो मे वेदी इस अध्याय मे नरिणत है। इसके अतिरिक्त जैनाचार के शेली का प्रयोग किया गया है। भाषा प्रसाद गुण, सरस अन्तर्गत श्रावकाचार एवं मुनि-आचार सम्बन्धी सभी एवं सरल है तथा सर्वत्र प्रवाह दृष्टिगोचर होता है पदलानियमो का उल्लेख इस अध्याय में वर्णित है। लित्य को दृष्टि से यत्र-तत्र सुन्दर सुभाषितों का प्रयोग अष्टम अध्याय में उपसंहार के अन्तर्गत प्रस्तुत किया गया है। अत. मस्कृत के जैन सन्देश काव्य भाषाअध्ययन का निष्कर्ष, महत्व एव योगदान को स्पष्ट किया शैली, अलकार, रम, भाव विश्नेषण एव पदलालित्य की गया है। आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट कर मोक्ष प्राप्ति की दृष्टि से पृथक् एव मोलिक स्थान रखते हैं। और प्रेरित करने के कारण इन जैन सन्देश कायो का -धामपुर (नजीबाबाद) - प्रात्म-ज्ञान और संयम की महिमा ~ आत्मा के बारे में जानकारी करना और आत्मा को जानना इसमें मौलिक अन्तर है। आत्मा के बारे में जानना शास्त्रों से, चर्चा चितन से हो जाता है परन्तु आत्मा को जानना आत्मा के साक्षाकार से ही होता है अत: मोक्षमार्ग में आत्मा को जानना जरूरी है। आत्मा को जानने में शास्त्रज्ञा और चर्चा बाहरी माध्यम मात्र हो सकता है । इसलिए मात्र चर्चा और चितवन से पण्डित बन सकता है परन्तु आत्मज्ञान बिना मोक्षमार्गो नहीं हो सकता। इसलिए प्रवचनसार में कहा है कि आगम ज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान और संयम तभी सार्थक है जब साथ में आत्मज्ञान हो। आत्मज्ञान और संयम बिना मोक्षमार्ग केवल मात्र आगम ज्ञान से नहीं होता। जो आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहे उसके लिए आगम ज्ञान सहायक है । जैसा वस्तुतत्त्व का श्रद्धान किया है वैसी ही प्रवृति का होना चारित्र है । अतः सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र बिना न मोक्षमार्ग कभी हआ, न है, न होगा। तीनों को एकता बिना मात्र एक-एक से मोक्षमार्ग मानना भी अज्ञानता है ऐसा राजवातिककार ने कहा है। सर्वार्थसिद्धि की प्राप्ति तो आत्मज्ञानपूर्वक संयम की पूर्णता न होने से हुई परन्तु ३३ सागर तत्त्वचर्चा करने पर भी तोन चौकड़ी टस से मस नहीं हुई । वह तो तभी नष्ट हुई जब मनुष्य पर्याय पाकर संयम की आराधना करी। क्या ११ अंग का पाठी मिथ्यादृष्टि तत्त्वचर्चा और चितवन करने में कोई कसर रखता है क्या? हजारों वर्षों तक चितवन मनन करने पर भी पहला गुणस्थान बना रहता है । महिमा तो आत्मज्ञान और संयम को है जो अन्तरमहूर्त में इसे मोक्ष का पान बना देता है। बाबूलाल जैन कलकत्ता वाले Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों करते हैं लोग संस्थाओं को बदनाम ? (संदर्भ- श्री गणेश ललवानी का लेख : 'तीर्थकर' अगस्त १६६०) तीर्थकर के अगस्त १९६० के अंक में श्री गणेश दिया उसके २०३ अनुच्छेद पर स्पष्ट लिखा हैललवानी द्वारा लिखित वीर सेवा मन्दिर की "The First Part of his Jain Bibliography आलोचना पढकर हादिक दुख होना स्वाभाविक was Published in the year 1945 The Second Part remaining incompleted by him, is now था। श्री ललवानी का लेख पूर्वाग्रही और संस्था । being completed under the guidence of Dr. A. को बदनाम करने हेतु लिखा हआ प्रतीत होता है। N. Upadhaye M.A.D Litt of Mysore Univer. अन्यथा, ललवानी जी अखवारबाजी करने से पूर्व sity." एक बार इस संस्था से भी तथ्य जान लेने का प्रयास दुर्भाग्य से इसी बीच डॉ० उपाध्ये स्वर्गवासी तो करते। हो गए। श्रद्धेय श्री छोटेलाल जैन ने जैन विब्लियोग्राफी ग्रन्थ को प्रकाशन के साथ इण्डैक्स की भी के द्वितीय संस्करण हेतु वर्षों की साधना के पश्चात् आवश्यकता थी, अत: बाबू नन्दलाल जी के सुझाव प्रभूत सामग्री तैयार की। पर खेद है कि वे ग्रन्थ के पर इण्डेक्स बनाने का कार्य डॉ० सत्यरंजन बनर्जी प्रकाशन के पूर्व ही स्वर्गवासी हो गए। उनके को सौप दिया गया। इस कार्य-हेतु डॉ० वनर्जी को पश्चात् उनके भ्राता वाब नन्दलाल जैन ने इसके समय-समय पर भुगतान भी होता रहा। डॉ० बनर्जी संपादन और मुद्रण के साधन जुटाने हेतु अनेकों द्वारा लिखित एक खर्चे के विवरण की छाया प्रति प्रयास किए। अन्ततोगत्वा संपादन कार्य डॉ० आदि आदि सभी विवरण हमारे कार्यालय में सुरक्षित है। नाथ नेमिनाथ उपाध्ये को सौपा गया। अत. ग्रन्थ ___मैं सन् १९८० में संस्था का महासचिव चना की सभी सामग्री संपादन-हेतु डा० उपाध्ये अपने गया। उक्त ग्रन्थ के मुद्रित फर्मों को ग्रन्थरूप देने के साथ कोल्हापुर ले गए और वहीं पर अपने निर्देश लिए प्रारम्भिक परिचय की अनिवार्यता का अनुमें प्रेस-कापी के लिए टंकण आदि का कार्य कराया। भव कर कार्यकारिणी की सहमति से डॉ० बनर्जी ऐसे सभी खर्चों का भुगतान उनको भेजा जाता को प्रारम्भिक परिचय लिखने का आग्रह किया रहा। इस संबंध में डॉ. उपाध्ये के दिनांक २०-1 १२०-१ गया, क्योंकि इण्डैक्स का कार्य भी वे ही कर रहे ६६, १५-७-७० एवं १६-१२ ७० के पत्र और ऐसे थे। उन्हें २७०० रु. का बैंक ड्राफ्ट नं. ६५१९६६ अन्य अनेक पत्रों और भुगतान की पावती सस्था में दि०६-७-८१ पो. एन.बैक का भेजा गया। सुरक्षित है। डॉ० उपाध्ये ने ग्रन्थ के प्रारम्भिक-परिचय तक मझे संबंधित विषय की पृष्ठलिखने हेतु मुद्रित फर्मों को संस्था से उनके भूमि ज्ञात नहीं थी और कार्यकारिणी का डॉ. दिनांक १४-३-७४ के पत्र द्वारा मगवाया और साथ बनर्जी पर अटल विश्वास था। अतः जो भी परिही श्रद्धेय छोटेलाल जी का जीवन परिचय भी मंग- चय डॉ० बनर्जी ने लिखकर भेजा, मैंने उसे उसी वाया। श्री नन्दलालजी ने उनका जो जीवन परिचय रूप में मद्रित करा कर ग्रन्थ का प्रकाशन कर दिया Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६, वर्ष ४३; कि० ३ अनेकान्त और सद्भावना के रूप में ग्रन्थ की प्रति डॉ० बनर्जी जैन में अन्तर नही माना । यदि भेद-भाव होता तो को भी भेज दी । संपादक के रूप में डॉ० बनर्जी का नाम भी सहज - रूप में नहीं चला जाता । जैसे ही ग्रन्थ कार्यकारिणी के समक्ष आया, वस्तुस्थिति जान लेने पर संस्था में सुरक्षित रिकार्ड के अनुसार संपादन में डॉ० उपःध्ये का नाम देना अनिवार्य हो गया । इसकी सूचना डॉ० बनर्जी को दिनांक ३-१२-०२ के पत्र द्वारा दे दी गई। मुझे तो स्वप्न में भी आशा नहीं थी कि डॉ० बनर्जी जैसे उच्चकोटि के विद्वान् मेरी अजानकारी और डॉ० उपाध्ये के स्वर्गवास का अनुचित लाभ उठाकर संपादन का श्रेय स्वयं ओढ़ लेगे 1 वीर सेवा मन्दिर सदैव जैनदर्शन और साहित्य के शोध और खोज के कार्यों में संलग्न रहा है । अनेकों अजैन विद्वानों के सहयोग से संस्था गौरवान्वित होती रही है । संस्था ने साहित्यिक कार्यों में कभी भी जैन-अजैन अथवा दिगम्बर श्वेताम्बर श्री ललवानी का यह कथन भी एकदम असत्य है कि वीर सेवा मन्दिर ने डॉ० भागचन्द्र जैन को मात्र २५ - ३० पृष्ठों के इण्डेक्स हेतु पाच हजार रुपयों का भुगतान किया है। यदि आप उक्त लेख को प्रकाशित करने के पूर्व वस्तुस्थिति से अवगत हो जाते तो आपको हमारा स्पष्टीकरण छापने का कष्ट ही नही उठाना पड़ता । सद्भावनाओं सहित, भवदीय-जैन सुभाष महासचिव - वीर सेवा मन्दिर दरियागंज, नई दिल्ली-२ संपादकीय नोट जैन पत्रकारिता धन्दा या चोंचें लड़ाने लडवाने का कार्य - पीत पत्रकारिता नहीं, स्वस्थ जागरण है और इसमें धर्म और धार्मिक संस्थाओं की निश्छल - सुरक्षा का उत्तरदायित्वनिर्वाह भी समाहित है । फलतः किन्ही विवादित प्रसंगों में लेखक और पत्रकार दोनों के द्वारा पक्षविपक्ष से पूरी जानकारी कर लेना हो स्वस्थ - पत्रकारिता है । वीर सेवा मन्दिर के महासचिव ने उक्त पत्र सम्पादक 'तीर्थकर और उसकी प्रति श्री गणेश ललवानी को भी भेजी है। पत्र के साथ डॉ० उपाध्ये के निर्दिष्ट मूल-पत्रों की छाया प्रतियां भी सलग्न की हैं । इसके सिवाय हमने जन-विब्लियोग्राफी संबंधी उपलब्ध (सुरक्षित) पूरी संचिका और तद्विषयक तत्कालीन कार्यकारिणी के निर्णय भी पढ़े है । निर्विवाद रूप से संपादकत्व डॉ० उपाध्ये का ही सिद्ध होता है । यह सच है कि इण्डेक्स के कार्यभार का उत्तरदायित्व डॉ० सत्यरंजन बनर्जी ने लिया और इस कार्य के हेतु उन्हें समय-समय पर धन का भुगतान भी किया जाता रहा है । इण्डैक्स के अभाव में संस्था को सभी प्रकार की क्षति उठानी पड़ रही है । डॉ० बनर्जी जैसे सम्भ्रान्त विद्वान् से ऐसी अपेक्षा नहीं थी । अब उत्तरदायित्व श्री बनवानी जी का हो जाता है कि वे डॉ० बनर्जी से इण्डेक्स का कार्य सम्पन्न कराकर संस्था को दिलाएं। क्योंकि उनके लेख से स्पष्ट है कि श्री ललवानी जो, डॉ० बनर्जी के काफी नजदीक हैं । सम्पादक Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य संग्रहालय धुबेला की सर्वतोभद्रिका मूर्तियाँ ( श्री नरेश कुमार पाठक सर्वतोभद्रिका या सर्वतोभद्र प्रतिमा का अर्थ है वह दृष्टि से मति १०वी शती ईस्वी की है। प्रतिमा जो सभी ओर से शुभ या मंगलकारी है। अर्थात ब्रकट विद्या सदन गैवा से प्राप्त ११वी शती ईस्वी ऐसा शिल्पकार्य जिम में एक ही शिल्पखण्ड में चारो ओर की सर्वतोभद्रिका (म० ० ४०२ प्रतिमा मे मदिर शिखर चार मतिया निरूपित हो, पहली शती ई० मथुग मे आकृति निर्मित है जिसके ऊपर दो कलश है। चारो ओर इसका निर्माण प्रारम्भ हआ। इन मूर्तियो मे चारो दिशा श्रमश. तीर्थकर आदिनाथ, अजितनाथ, पार्श्वनाथ एव में चार जिन मूर्तियाँ उत्कीर्ण है । ये मूर्तियां या तो एक नेमिनाथ का अकन है'। चारो ओर वितान मे मालाधारी ही जिन की या अलग-अलग जिनो की होती है। ऐसी विद्याधर, त्रिछत्र का अकन है। उनके कार चारो ओर मतियों को चतुबिम्बजिन चौमुखी और चतुर्मुख भी कहा चार-चार जिन प्रतिमाएँ अकित है। पार्श्व में चारो ओर गया है। ऐसी प्रतिमाएं दिगम्बर स्थलो मे विशेष लोक- चावरधारी एव पादपीठ पर प्रत्येक ओर विपरीत प्रिय थी।' सर्वतोभद्रिका प्रतिमाओ को दो वर्गों में बाटा दिशा मे मुख किये सिंह मध्य मे च क पादपीठ पर एक जा सकता है। पहले वर्ग मे ऐसो मूर्तियां है, जिनमे एक पार्श्व मे, क्रमशः यक्षणी चक्रेश्वरी, रोहिणी, पदमावती ही जिन की चार मूर्तियां उत्कीर्ण है। दूसरे वर्ग की मूतियो एवं अम्बिका अंकित है। दूसरे पार्श्व में उपासिकाएँ में चार अलग-अलग जिन मतिया है। राज्य संग्रहालय अकित है। लाल बलुआ पत्थर पर निमित । २०४५२४ धबेला में प्रथम वर्ग की एक एव द्वितीय वर्ग की दो कुल ५२ सें० मी० आवार की प्रतिमा कलचरी कालीन कला तीन सर्वतोभद्रिका प्रतिमा संग्रहित है, जिनका विवरण का उत्कृष्ट कृति है। निम्नानुसार है : वकट विद्या सदन रीवा से ही प्राप्त एक खण्डित ___मऊ-सहानिया जिला छतरपुर से प्राप्त सर्वतोभद्रिका स्तम्भ खण्ड पर (स० ऋ० ४७४) चारों ओर कायोत्सर्ग प्रतिमा के चारों ओर एक-एक तीर्थकर (स० ऋ० १) मुद्रा मे तीर्थक र अकित है। सभी तीर्थकरो के नीचे से पदमासन मे ध्यानस्थ बैठे हुये हैं। इस प्रकार की प्रति- पैर व मह के चेहरे पूर्णत: भग्न हो चुके है। सभी के कानों माओ को किसी भी तरफ से देखा जाय तीर्थकर के दर्शन मे लम्ब कर्णचाप एव वक्ष पर श्रीवत्म चिाह का आलेखन हो जाते है, जिसमे मानव का कल्याण होता है। इसी है। प्रत्येक तीर्थन्कर के पार्श्व मे प्रत्येक प्रोर खण्डित लिये चारो तरफ मूर्तियों वाली प्रतिमाओ को सर्वतो. अवस्था मे चावरधारिणे का अकन है । ऊपर त्रिछत्र की भद्रिका की संज्ञा दी गई है। प्रस्तुत सर्वतोभद्रिका मे आकृति का लघुशिखर बना हुआ है। प्रतिमा काफी क्रमश: आदिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं वद्ध भान खण्डित होने के कारण तीर्थन्करों को पहिचाना नही जा महावीर स्वामी अपने ध्वज लाछन क्रमशः नन्दी, शख, सपं सकता, परन्तु यह स्पष्ट है कि ये चारों प्रतिमाएँ एक ही एवं सिंह सहित अंकित है। सभी के वितान मे छन, तीर्थकर से संबधित होगी। क्योकि इसमे आदिनाथ एव दुन्दभिक मालाधारी विद्याधर युगल, चारो ओर चावर- पार्श्वनाथ का अकन नही है। इन दोनो तीर्थकरो का धारी पादपीठ पर चारो ओर विपरीत दिशा मे मुख अलग-अलग तीर्थकर प्रतिमा होने पर अकन होना अनिकिये सिंह, पादपीठ के नीचे चारो ओर ५-५ कुल २० वार्य होना है । प्रतिमा काफी भग्न अवस्था में हैं । परन्तु सेवक अजलीबद्ध अंकित है । नीचे की कीर्तिमुख अलकरण निर्मित के समय अवश्य ही सुन्दर रही होगी। ६०x२५ बने हये हैं। ८५४४५४४५ सें० मी० आकार की x२० सें. मी. आकार की बलुआ पत्थर पर निर्मित प्रतिमा लाल बलुआ पत्थर पर निर्मित है, कालक्रम की प्रतिमा १२वीं शनी ईस्वी की है। १. तिवारी मारूती नन्दन प्रसाद, "जंन प्रतिमा विज्ञान" वाराणासी १९८१ पृ. १४८ । २. वही पृष्ठ १४६ । ३. दीक्षित स० का० राजकीय संग्रहालय, धुबेला, की मार्गदशिका, भोपाल, संवत् २०१५, पृ० १२ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चितवन के लिए आत्मोपलब्धि का मार्ग : अपरिग्रह आगम में निर्देश है कि चारित्रवान् ज्ञाता हो किसी को ज्ञान देने का अधिकारी है। फलतः आत्मा के विषय मे सवारिषी आरम जाता ही आरम-बोध कराने में समर्थ है । पर आज चारित्र की उपेक्षा कर आत्मा की चर्चा करने वाले कई लोग आत्मा से अनभिज्ञ होने पर भी लोगों को, आत्मा को दर्शाने के भ्रमजाल में फँमा आचार्य कुन्दकुन्द और उनकी वाणी का उपहास कर रहे है। कुन्दकुन्द कहते हैं - "अमानतो अध्ययनावि सो अयातो कह होइ सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणतो ॥" मला जिन जीव को बाह्मज्ञाय से प्रतिभासित होने वाले नश्वर पायों की पहिचान तक नहीं हो पा रही हो, जो स्वयं नश्वर के संग्रह मे लगे हो, धन-संपदा, स्त्री-पुषादि मे राग-भाव के पूंज हो, वे पर को क्या आत्म-दर्शन कराएंगे ? कहा भी है- 'परमाणु मित्तय वि रागादीण दू विज विसो जगदि अप्पाइ एवं सम्यगमधरो वि ॥' जिसके लेशमात्र भी अज्ञानमय रागादि भाव है वह जीव कितना भी ज्ञानी हो तो भी आत्मा को नही जानता और अनात्मा को भी नहीं जानता ऐसे में यह सम्यग्दृष्टी कैसे हो सकता है ? और जब वह सम्यग्दुष्टी नहीं हो सकता तब उसे आत्मा के उपदेश देने का अधिकार भी कहाँ ? आत्मा तो इन्द्रियज्ञानातीत और अरूपी है, उसके ज्ञान की कथा तो छोड़िए, बहिरंग दृष्टि तो बाह्यविषयों की पहिचान मे भी गुमराह हुए हैं। कुछ लोग 'महिसा परमो धर्म का नारा देते हैं पर, दरअसल वे उसके स्वरूप से स्वयं भी गुमराह हैं क्या कभी सोचा आपने कि अहिंसादि पाँच व्रतो और अब्रतो में उनके स्व-स्वलक्षणों के परिप्रेक्ष्य मे आदि के चार (अहिंसा - हिंसा, सत्य-असत्य, अचौर्य-चोयं, ब्रह्मचर्य —— पद्मचन्द्र शास्त्री 'संपादक' अब्रह्म) पर सापेक्षी और पहारिक है क्योकि इन चारों मे प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्षरूप में पर-विकल्प अथवा पर प्रमाद की उपस्थिति अनुपस्थिति परम आवश्यक है । जब तक पर पदार्थ या पर-भाव या विकल्प नही होगा तब तक हिंसा-अहिंसा, मूंड-सत्य, चौर्य-अयोर्य, अब्रह्मब्रह्म किसी की सम्भावना फलित न होगी । अर्थात् हिंस्थ (पर) के होने पर ही हिंसक और हिंसा आदि के भाव फलित होगे - हिस्य (पर) के अभाव मे न हिमक होगा और न हिंसा होगी, सादि और उक्त प्रक्रिया द्रव्य और भाव दोनों रूपों में पप पुण्यो के लिए लागू होती है। और ऐसी स्थिति मे उक्त चारो प्रकार पुण्यपाप पर सापेक्षी होने से स्व-स्वाभाविक धर्म नहीं हो सकते हो, अपरिग्रह धर्म ऐमा धर्म है जो स्व-सापेक्ष व पर-निरपेक्ष है यदि अपरिग्रह होगा तो स्व-एकी होने में ही। 1 फलतः स्थापित होने से अपरिग्रह आत्म-धर्म है और पराश्रित होने से अहिंसादि चारो धर्म लौकिकव्यवहार हैं। यदि आत्मार्थी अपरिग्रह की ओर बढ़ता है। तो वह मार्ग पर है और यदि परिग्रह की ओर बढ़ते हुए आत्मा की चर्चा करता है तो वह अमार्ग पर है। बड़ा अटपटा लगता है जब कोई व्यक्ति बात तो शुद्धात्मा की करता है और शुद्धात्मा के स्वाश्रित मार्ग परिग्रहपरिमाण या अपरिग्रह की उपेक्षा कर परिग्रह के संचय मे जुटा रहता है । आगम में हिंसा के चार भेद कहे हैं और वे हैंसकरुपी हिंसा, आरम्भी हिंसा, उद्योगी दिसा, विरोधी हिंसा । उक्त भेदो के अनुसार अहिंसा के भी चार भेद ठहरते हैं और सभी पर सापेक्ष ही है- सभी पर के सद् भाव में और पर के प्रति प्रयुक्त होगे, फिर चाहे वह हिंसा द्रव्य रूप में हो या भाव-रूप मे । कही भी ऐसा दृष्टि Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रात्मोपलब्धि का मार्ग : अपरिग्रह गोचर नहीं होता कि उक्त चारों स्वापेक्ष हों। भावो मे गुरु आदि की पूजाओं में जो द्रव्य विसजित किए जाते हैं, भी जब प्रमत्तयोग (जो पर है) होगा तभी हिंसादि पाप उनमे भी स्पष्टत: 'जन्म-जरा-मत्यविनाशनाय', मोक्षफल. फलित होगे और जब प्रमत्त योग का अभाव होगा तब प्राप्तये' आदि जैसे निर्देश है। कहीं भी परिग्रह और अहिंसादि रूप फलेंगे। और ये भी सभी जानते हैं कि सांसारिक सुख-प्राप्ति की कामना की झलक नही है। प्रमादों की गणना परिग्रह में की गई है-हिंसा आदि में खेद की बात है कि परिग्रहियो ने इस पवित्र मार्ग को नहीं । अतः ऐसा स्पष्ट है कि हिंसादि जब भी होंगे सदा भी दूषित किया है और उन्होंने इतनी ज्यादती कर दी है परिग्रह (प्रमाद) के योग में होगे और अहिंसादि जब भी कि अपनी सांसारिक स्वार्थपूर्ति के लिए परिग्रही और होंगे परिग्रह (प्रमाद) के अभाव में होंगे। अतः पापों का असंयमी देवी-देवताओं तक को भ० पार्श्वनाथ की वीतमूल परिग्रह है-फलतः, जैनी का ध्यान परिग्रह के सीमित राग प्रतिमा से जोड़ रखा है। जो धरणेन्द्र, पद्मावती करने और क्रमशः उसके पूर्ण त्याग की ओर जाना चाहिए। अपने पूर्वभव के उपकारों का प्रत्युपकार करने भगवान यही एक मार्ग है जो आत्म-दर्शन तक ले जा सकता है। की मुनि अवस्था में आए-उन्हे इन्होने अर्ह-त भगवान शेष व्रत मोक्षमार्ग में उपकारी तो हैं किन्तु परिग्रह को की वीतराग मुद्रा तक से जोड़ लिया और उन्हे फण के आत्मसात् करके नहीं। रूप मे भगवान के सिर पर बिठा दिया है। इनकी अज्ञाजो लोग कहते है कि 'अप्रादुर्भाव खलु रागादीना नता की हद हो गई। ठीक ही है-परिग्रह की कामना भवत्यहिसेति' के परिप्रेक्ष्य में रागादि के अभाव (अपार- प्राणी से कौन-सा घिनौना काम तक नहीं करा लेती? ग्रह) और अहिंसा दोनो मे भेद नहीं है, आदि । ऐसे लोगो अर्थात् सभी कुछ करा सकती है । परिग्रह कामना ने इन्हें को विचारना चाहिए कि यदि अहिंसा और अपरिग्रह भिखारी तक बना दिया। दोनों में अभेद ही था तो आचार्यों ने दोनों की गणना एक बार स्व०बैरिस्टर चम्पतराय जी ने कहा था--प्रथक रूप मे क्यों की? क्या पाप पाँच न होकर "जैन मन्दिरों में भिक्षा मांगने की जरूरत नहीं है, जैन चार ही है या अणुव्रत, महाव्रत पचि न होकर चार हा मन्दिर भिखारियों के लिए नहीं है। जो मोशाभिलाषी है? ऐसे मे तो साधु के २८ मूल गुरण भी घट कर २७ ही हों-निर्ग्रन्थ होना चाहते हों, उन्हीं के लिए जैन मन्दिर रह जायेगे : फलत:-ऐसा ही श्रद्धान करना चाहिए कि लाभकारी हैं। 'सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं', 'धर्मस्य तत्त्व निहितं गुहायाँ' या लेकिन आज इस कथन से प्रायः विपरीत देखने में नान्यथावादिनो जिन:।' आ रहा है। आज कई मन्दिरों में ऐसे भिखारियो की भी फलतः हमें उपदिष्ट तत्त्व के सभाल की व्यवस्था मे भीड़ लगी रहती है, जो वीतराग देव की उपासना मे कम पांचो पापों को भेद रूप ही स्वीकार करना चाहिए। और कुदेवो की उपासना कक्ष मे अधिक इकट्ठे होते रहते जहाँ आचार्यों ने रागादि के अभाव को अहिंसा कहा है हैं। यह सब इनकी परिग्रह लालसा का ही परिणाम है। वहाँ 'अन्नं वै प्राण' की भांति कारण मे कार्य का उपचार यदि इनकी तनिक भी श्रद्धा बीतराग और वीतरागता पर करके कथन किया है-वास्तव मे अपरिग्रह और अहिंसा हो तो ये इधर झांके भी नही । अपितु, दोनों पृथक-पृथक ही हैं और उन दोनो में या सभी व्रतों आश्चर्य यह है कि ये सभी लोग पुण्य-पाप और में अपरिग्रह मूल और मुख्य है । और अपरिग्रह के होते प्रारब्ध को मान रहे है और कह रहे हैं कि भाग्य को कोई ही सर्वपाप स्वयमेव उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस मेट नही सकता, पाप कर्मों की निर्जरा तो वीतराग-परिप्रकार सूर्य के प्रकाश मे अन्धकार । णति से ही होगी आदि; फिर भी ये सरागता की ओर स्मरण रखना चाहिए कि जैनधर्म में निहित सभी दौड़ लगा रहे हैं ? धन-वैभव के भिखारी बने हुए हैं। विधि-विधान और क्रियाकाण्डों के मूल में मनुक्रम से वीत- स्वामी समन्तभद्र कहते हैंरागता और मुक्ति-प्राप्ति का लक्ष्य निहित है। देव-शास्त्र 'यदि पाप निरोधोस्त्यन्य संपदा प्रियोजनम् । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०, वर्ष ४३, कि०३ अनेकांत अथ पापासवोऽस्त्यन्य संपदा कि प्रयोजम् ॥' पंडित जी, मैंने लक्ष्मी के दान करने योग्य तीन-चार यदि पाप का उदय है तो संचित संपदा भी चली। पात्र चने हैं, उनमे आपका नाम प्रथम है। सो आप से ही जायगी, और यदि पुण्य का उदय है तो स्वयमेव आ । श्रीगणेश कीजिए और बोलिए आपको भेंट में कितना जायगी। रुपया दे दूं? मुझे विश्वास है कि आप इन्कार न करेंगे। ___ हमें याद है, वर्षों पहिले जब हम दिल्ली नही आए पंडित जी ने कहा-सेठ जी, आपने भली बिवारीथे, बनारस मे पं० अभयचद जी विदिशा वालो ने एक आपको बहुत-बहुत धन्यवाद । पर, मेरी मजबूरी यह है सेठ जी और एक पंडित जी की वार्ता सुनाई थी। तब कि मेरे पास लक्ष्मी का गुजारा नही हो पाएगा। क्योंकि सस्ता जमाना था-किसो के पास २५-३० हजार रुपये मेरे पास तो लक्ष्मी की सोत सरस्वती है और दोनों के एक साथ रहने मे विसंवाद है। दूसरी बात, मैं सरस्वती हो जाना बड़ी बात थी और ऐसा आदमी बहुत बड़ा सेठ समझा जाता था। ऐसे ही गरीबी की हालत से उठे, चिर को छोड़ नहीं सकता। यह तो निश्चित है कि लक्ष्मी के आ जाने पर मैं स्वभावतः ज्ञान-धर्म को भुला बैठगापरिचित सेठ जी से एक पडित जी ने पूछा-सेठ जी, तृष्णा बढ़ती रहेगी और लक्ष्मी मुझे संसार वासना मे फंसा कुशल तो है ? देगी-मैं मद में लीन हो जाऊँगा। मतः मेरे विचार से सेठ जी बोल-भगवान की कृपा है. आप तो जानते तो जो पहित होगा वह परिग्रह रूप लक्ष्मी का संचय नही ही हैं कि हमारी क्या दशा थो? आज पेट भर लिया तो करेगा और जो संचित करेगा उसकी पडिताई में बट्टा कल की फिकर रहती थी- अब सब मौज है। लगेगा। फलत:-पंडित को सन्तोषी और प्रभावग्रस्त पडित जी बोले-अब तो आप मजे में हैं-सब रहने का प्रयत्न करना चाहिए और सेठों को चाहिए कि चिन्तामो से मुक्त । मौज किए जाइए और भगवान का वे पंडित की इतनी भावना को पूरा करते रहें किभजन । ___'साई इतना दीजिए, जामैं कुटुम्ब समाय । सेठ जी ने कहा--पंडित जी, अब तो केवल एक ही मैं भी भूखा न रहे, अतिथि न भूखा जाय ॥' चिता रहती है कि कदाचित् यह लक्ष्मी रुष्ट होकर हमे और वे ध्यान रखे तो उनका भला, न रखें तो उनका छोड़ न जाय, हम इसे रखते तो सभाल कर कलेजे से भाग्य । पडित को तो सदा निःस्पृहता की ओर बढ़ना लगा कर है। चाहिए। पडित जी बोले- सेठ जी, एक दिन तो इसका वियोग उक्त परिग्रह का प्रसग हम पर्याप्त शिक्षा देता है। होना ही है। यदि लक्ष्मी प्रापको छोड़कर न जायगी तो परिग्रह हमें धर्म-कर्म से भ्रष्ट कराता है। तीर्थकर आदि माप ही इसे छोड़कर चले जाएँगे-संसार की ऐसी ही __महापुरुषो ने इससे विरक्ति ली तब आत्मा मे रह सके रीति है। फिर भी आप चितित न हो-इसका उपयोग और प्रात्मा मे रहना ही धर्म है। बिना परिग्रह की तृष्णा वान-पुण्य में करें, आपको परलोक मे मिल जायगी। के त्याग के आत्मा के गीत गाते रहना-स्वयं को और सेठ जी बोले-बात तो ठीक है, पर आप पात्र तो लोगों को धोखा देना है। इसे खूब विचारें और अपरिग्रह बताइए जिसे हम लक्ष्मी देते रहें। को प्रमुखता दे, जैनत्व को बचाएं। अपरिग्रह वृत्ति के पडित जी ने कहा-पात्र तो आपको ही खोजना विना जैन का चिना असम्भव है। जितने जिन हुए सभी पड़ेगा, सो खोजिए। आपको जरूरतमन्द काफी लोग मिल अपरिग्रह से हुए और उनका प्रचारित धर्म भी अपरिग्रह जाएंगे। बात आई गई हो गई और दोनों अपने-अपने में ही पनप सकेगा। फलत:--मोक्षेच्छु श्रावक को परिग्रहस्थान को चले गये। १५-२० दिनो के बाद सेठ जी उन परिमाण और मुनि को निष्कलक अपरिग्रह को अपनाना पंडित जी के पास पहुंचे और बोले चाहिए। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा-सोचिए ! जैनाचार और विद्वान् : बोझ को अपने कन्धों पर उठा लेते थे। यही कारण था कि उनमें परस्पर गाढ सौहार्य था। कोई ममय था जब जैन-कारो की अपनी अलग धार्मिक क्षेत्र मे सभी का सहयोग र ता था । विशेष छाप होती थी, उसमें पले-पुमे और बडे हए व्यक्ति के धार्मिक अवसरों पर समाज के सभी पुरुष आवाल वृद्ध आचार-विचार से लोग सहज ही जान लेते थे कि अमुक उत्मव, पूजन, विधान आदि मे सम-रूपसे सम्मिलित होकर व्यक्ति जैन है । जैन में सादगी, मन्नोष, दयालुता, सत्य धर्म लाभ लेते थे और मुनिगज, वनी, त्यागी तथा विद्वानो वादिता प्रादि गुण स्वाभाविक स्थान बनाए रखते थे । __ को पूर्ण-सेवा भक्ति करते थे-उनकी वैधवृत्ति करते धार्मिक आचार-विचार मे उने नित्य देव-दर्शन करने व . थे-आहागदि देने में सावधान रहते थे। उनका उपदेश छना पानी पीने का नियम होता था। उसे रात्रि भोजन, सुनते थे-उनसे वन-नियम आदि स्वीकार करके अपना अभक्ष्य-कन्दमूलादि भक्षण व मद्य-पांम-मधु और सप्त व्य जन्म सफल करते थे। इस भाति सभी प्रकार की वैयक्तिक सनों का पूर्ण त्याग विरासत में मिला होता था। जैन धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थाएं सुव्यवस्थित चलती थीअपनी प्रामाणिकता के लिए प्रसिद्ध था। इसलिए उसे धर्म की बढ़वारी होती थी। लोग यथाशक्ति धर्म ग्रन्थों राज दरवार और राजकीय विभागों में पूर्ण सम्मान मिलता का स्वाध्याय करते थे, उनमे कई तो धर्म-विषय के निष्णात था। बड़े-बडे प्रतिष्ठित पदों पर सहज ही उसकी नियुक्ति विद्वान तक बन जाते थे। ऐसे विद्वानो से धर्म प्रभावना होती थी। न्यायालय मे जैन की गवाही को सच माना होती थी और लोगों के धार्मिक संस्कार भी दृढ करने में जाता था। कोई भी जैन किसी अपराधी-सूची में दिखाई सहायता मिलती थी। गुरू गोपालदास बरैया और उनके नही देना या । उक्त सब गुणों के होने में मल कारण जैनों, शिष्य गण इसी श्रेणी मे थे । के सस्कार थे। जैन बालक को जन्म से ही स्वस्थ-सात्विक कालान्तर में जब इधर ज्ञानी मुनिजनों और विद्वानों वातावरण मिलता था और उसकी शिक्षा में स्वस्थ होती का अभाव सा होने लगा तब लोगो मे धर्म के प्रति शिथिथी। लता परिलक्षित होने लगी और इस बीसवी सदी के सामाजिक व्यवस्था में मुखिया या पच के चुनाव के प्रारम्भ में पूज्य पं० गणेश प्रसाद जी वर्णी आदि ने स्थान लिए सर्वसाधारण के हाथ नही उठवाये जाते थे। अपितु स्थान पर पाठशालाए और विद्यालयो के खुलवाने का पक्षपात रहित विश्वास छ प्रामाजिक पुरुष ही किमी यत्न किया और दर्जनो की नीव रखवाई। छोटी स्थानीय प्रामाणिक योग्य पुरुष को बड़े पद पर विठाने का अधिकार चटशालायें कई स्थानों पर पहिले भी चलनी थी उनमें रखते थे। पूरा ध्यान रखा जा। था कि चुनाव बहु· ऊंची पढ़ाई न कराकर बच्चो को सुसंस्कृत बनाया जाता सम्मत न होकर सर्व-सम्मत हो । सभी अवस्याओ मे सर. था। बड़े विद्यालयों के खुलने से ऊँची धार्मिक पढ़ाई की पच या मुखिया का निर्णय मान्य होता था। लोगो मे व्यवस्था बन गई लोग विद्वान बनने लगे। विनम्रता, और आंखो मे लिहाज था। सामाजिक व्यवस्था शिक्षा संस्थाओ की स्थापनायें करते समय सस्थापको का पूरा ध्यान रखा जाता था कि कोई व्यक्ति अभाव- को यह तनिक ख्याल भी न आया हगा कि वर्तमान का पीड़ित न होने पाए या कोई न्याय नीतिमार्ग से च्युत न विद्यार्थी भविष्य मे धार्मिक विद्वान बनकर दर-दर के हो जाय । अवसर प्राने पर सभी लोग मिल-जुल कर याचकों जैसा जीवन व्यतीत करने को मजबूर होगा। वे अभाव-मस्त की सहायता करते थे और मौन-रूप से उसके तो अनुभव करते थे कि ज्ञान का प्रचार-प्रसार स्व-पर Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ वर्ष, ४३, कि० ३ अनेकान्त दोनो को हितकारी होगा- वह ज्ञानी बनकर ज्ञान के बल पर सदा सिरमौर बना रहेगा। वे नहीं जानते थे कि ज्ञानो में भी कायरता का संचार होगा और वह इधर से उदास हो जाएगा और समाज भी धर्म-सेवा के प्रति दगाबाज निकलेगा। इसे समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा जो उक्त परिस्थिति ने विद्यार्थियो को धर्म शिक्षा से उदास कर पाश्चात्य की और मोड़ दिया और विद्यालय ठप्प हो गए। इस प्रकार धर्म और समाज दोनो को हानि का सामना करना पड़ा। कालेजों की शिक्षा के फल-स्वरूप डॉ० व प्रोफेसर आदि आर्थिक दृष्टि से तो मोज मे है पर उनका धार्मिक सस्कारों व समाज से उतना लगाव नही रहा जितना चाहिए उनमे जो कुछ थोड़ा बहुत संपर्क समाज से रखे हुए हैं उनमें अधिकाश तो लौकिकता का निर्वाह ही कर रहे हैं या समाज मे उनकी उपेक्षा है । इस प्रकार समाज अपने में खपने वाले वरिष धर्मश विद्वानों से दिनो दिन शून्य होता जा रहा है । समाज को चाहिए कि वह विद्वानो के लिए नही तो कम से कम धर्म और संस्कारो की रक्षा के लिए ही विद्वान तैयार करे। लेकिन शर्त यह है कि ठोस विज्ञान सम्मान से जी कर ही समाज मे खप सकेगा। आज कल विद्वानों के लिए समाज मे चिन्ता व्याप्त है, इस लिए कुछ लिख दिया है उचित हो तो समाज को इस समस्या के सुलझाने मे प्रयत्नशील होना चाहिए । स्वागत को विडम्बना: स्वागत शब्द बड़ा प्यारा है। ऐसे विरले ही व्यक्ति होंगे जो स्वागत के नाम से खुश न होते हों, मन ही मन जिनके मनो मे गुदगुदी न उठनी हो । प्रायः सभी को इसमें खुशी होती होगी -- भले ही दूसरों का स्वागत होते देख कम और अपना होने पर अधिक । स्वागत अब लोकव्यवहार जंग बन गया है जो नेता, अभिनेता व अन्य जनो के उत्साह बढाने के लिए, उनसे कोई कार्य साधने के लिए भी निभाया सा जाने लगा हैं । खेर, जो भी हो परम्परा चल पड़ी है कोई स्वागत न भी करना चाहे तो उससे स्वागत कराने की गोटी बिठाने की लोग 1 मोटी बिठाए जाते है-कभी न कभी तो सफलता मिल ही जाती है और यदि न मिली तो मिल जायगी । - बड़प्पन का भाव व्यक्ति का स्वभाव-सा बन गया है। लोगों का बड़प्पन साधने के लिए जन सभाओ में ऊंचे मच बनाए जाते है नेताओ को बड़प्पन देने के लिए, मचों पर स्वयं बैठकर अपना बड़प्पन दिखाने के लिए भी । आखिर मच निर्माता इसी बहाने ऊंचे क्यों न बैठे ? या अपने सहकर्मियो को ऊँचा क्यो न बिठाए ? आखिर वे यह जो न कह बैठे कि बड़ा श्राया अपने को ऊँचा बिठा लिया, आदि। सो सब मिल बाँट कर श्रेय लेते है । किसी को कोई एतराज नही होता । आखिर, होते तो सभी एक ली के पट्टे चट्टे जैसे ही है। हमने कई सभाओ मे आँखों से भी देखा है- स्टेज पर अपनो मे अपनो से एक दूसरे को माला पहनते पहिनाते, पहिनवाते हुए। और लोग है कि नीचे बैठे इस ड्रामे को देख खुश होते - ताली बजाते नही अघाते - जैसे वे किसी लका को विजय होते देख रहे हो। पर, हम नही समझ पाए कि इस व्यर्थ की उठा-धरी से क्या कोई लाभ होता है ? - केवल मन की बरबादी के । उस दिन क्षमावाणी पर्व था । हमें एक क्षमा-उत्सव मे जाने का प्रसव या सोहम गए वहाँ लम्बान्चोड़ा ऊंचा स्टेज था जो हमारे पहुचने से पल ही लोगो से भर चुका था । हम जाकर सहज ही (जैसा हमारा स्वभाव है) जनता के साथ नीचे बैठ गये। उत्सव के तत्कालीन प्रबन्धक कई नेताओ ने आग्रह किया कई हमारे हाथो को पकड़ कर हमे उठाने का प्रयत्न भी कियाकार मच पर बिठाने के लिए। पर हम थे कि टस से मस न हुए और नीचे ही बैठे रहे । मंगलाचरण और बालिकाओं द्वारा स्वागत गान गाने के पश्चात् मच पर विराजित कई लोगो को मालायें पहिनाने का क्रम चालू हुआ। अमुक ने अमुक को और अमुक ने अमुक को मालायें पहिनाई। तत्पश्चात् बालने मे हमारा नाम पहिले पुकारा गया। हमने कहा- कैसा पागलपन चल पड़ा है लोगो में 'परस्परं प्रशसन्ति' का आपस मे इकट्ठे होते हैं किसी कार्य को और समय बरबाद कर देते है किन्ही अन्य कार्यो Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३, वर्ष ४३ कि० ३ अनेकान्त में-माला आदि पहिना कर एक दूसरे का गुणगान करने मे रखकर 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' सत्र में । इकट्ठे हुए क्षमावणी मनाने-परस्पर मे एक दूसरे भी है। से क्षमा याचना के लिए। पर स्वप ऊँचे बैठ गए और हमे आज लोग केवल नाम के पीछे पडे है। उन्होने नाम भी ऊँचे बिठाने के आग्रह में पड़ेगा। भला, सोचा कभी की रटन लगा रखी है-रामनामी दुपटटे की तरक्षा आपने कि क्षमा अपने को ऊँचा दिखाकर-बनाकर या ऊँचे कही ऋषभ का नाम प्रचारित करेगे, कही महावीर की बटकर मागी जाती है या नीचा (नम्र) बनकर? हम तो जय बोलगे और कही कुन्दकुन्द के नाम की झडी लगा क्षमा मागने आये है-धनिक उत्सव मे आपे है--समा- देगे। लोगो ने कुन्दकुन्द के नाम को धम मचा दी. देश में नता के भाव मे । इममे तो सभी बराबर होते है या नम्र- चारो ओर उनकी जय-जयकार करने की-उनके गणों भाव में नीचे ? पर, जब नेता नक स्वागत की विडम्बना को भांनि-भांति की व्याख्याएँ कर अपने मन्तव्य प्रचारित में पड उल्टा मार्ग अपना बैठे हो तब जन-माधारण क्या करने को-अपने नाम के लिए। शायद कइयो को इससे करे ? धार्मिक समारोहो में त्यागो-बनियो को तो उच्चामन अच्छा अवसर ओर कौन-मा होगा नाम कमाने का ? पर, उचित है, माना आदि वयं होना युक्तियुक्त है। जबकि इसके माथ ऐसे कितने है जिन्होंने कुन्दकन्द के बनार आज धर्म मे माधारण भी माला और उच्चासन के योग्य आचार का सहस्राश भी पालन किया हो -कन्दमन्दत समझे जाने लगे है । तथ्य क्या है ? जरा सोचिए । अन्तरग-बहिरग परिग्रह का त्याग किया हो। ___ गत दिनो एक विद्वान ने हमे प्रेरणा दी और हमसे नाम की महिमा प्राचार से है : अपेक्षा की कि हम अपनी प्रतिभा का उपयोग प्राचीन लोग रामनामी दुपटटे को ओढते है ताकि दूसरे उसे ग्रन्यो के सम्पादन, अनुवाद आदि मे करे । भला, जब हम पढे और उसके बहाने उनके मुख से राम का नाम निकले। अकिचन हैं तब जिनवाणी को पण्डिनवाणी बनाने की लोगो का श्रद्धान है कि राम का नाम लेने से बैकुण्ठ का दु माहस और पाप क्यो करे ? फिर हमे नाम, यश अथवा टिकिट मिल जाता है-वहा मीट रिजर्व हो जाती है। अनुवादादि द्वारा अर्थ अर्जन करने-कराने में पागम जान महाकवि तुलसीदास ने तो यहाँ तक कह दिया कि का उपयोग भी इष्ट नहीं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि 'तुलसी अपने राम को, रीझ भजो या खीझ । जब हम पूर्वाचार्यों की अपेक्षा उनके सहस्राश भी ज्ञान खेत पडा सब ऊगता, उल्टा मीधा बीज ॥' नही रखते, तब उनकी कृतियों को व्याख्या-अनुवादादि लिखना- उन्हे दूषित करना ही होगा-उनसे अधिक हम यह भी जानते है कि लगातार शीघ्रता मे उच्चा ज्ञाता लिखे तो लिखे । हाँ, हम अपनी समझ से मौखिक रण करने मे राम और मरा दोनो मे अभेद भी हो जाता जा है और लोक मग के नाम से भयभीत होता है। पर, श्रद्धा खुलासा तो कर सकते है ताकि वह रिकार्ड न बने । ऐमी जमी हुई है कि लोग उमी को टीक समझते है और आश्चर्य है कि लोग अपने को आगम-ज्ञाता मान उनके उनके मन मे राम नाम की महिमा समाई हुई है। अनुसार स्वय तो न चले और उनकी व्याख्या या अनवाद जैन मत मे नाम की महिमा तो है, पर वह गुणो के कर दूगर को चलने का मार्ग बताए और यश. प्रजन स्मरण से जडो हई है। णमो अरहताणं बोलने का उतना तथा नाम कमाने की होड़ में कुन्दकुन्दादि के नाम को महत्त्व नही जितना उस उच्चारण के साथ उनमे विद्यमान उछाल जिनवाणी को भी विरूप करे। स्मरण रहे गुणो के स्मरण -- वीतरागभाव के चितवन का। यदि इन उद्धार नाम से नही, आचार और परिग्रह त्याग से दो दोनो के साथ उनके गुणानुरूप आचरण भी हो तब तो सकेगा। जरा सोचिए। 'सोने मे सुहागा' चरितार्थ हो जाय । इसी बात को ध्यान -सम्पादक कागज प्राप्ति . -श्रीमतो अंगूरो देवो जैन (धर्मपत्नो श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली-२ के सौजन्य से Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन जैन ग्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियों का मगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलकृत, जिल्द । .. नग्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण सग्रह। पचपन ग्रन्थ कारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टो सहित। सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १५.०० समाधितन्त्र प्रौर इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, प० परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ३... जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ सख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहसुस : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज मे दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पूष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । ... २५.०० ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक प. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२-०. मैन लक्षणावली (तीन भागों में) : स०प० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग ४०-०. जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : थी पद्मवन्द्र शास्त्री, सात विषयो पर शास्त्रीय तकंपूर्ण विवेचन २.०० Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences) In two Vol. (P. 1942) Per set 600-00 - सम्पादन परामर्शदाता श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पद्मचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-बाबुलाल जैन वक्ता, वीर सेवा मन्दिर के लिए मद्वित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३ ____BOOK-POST -पत्रिका Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिरका मासिक अनकान्त (पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४३ : कि०४ अक्टूबर-दिसम्बर १९६० इस अंक मेंक्रम विषय १. जिनवाणी-महिमा २. कन्नड के जैन साहित्यकार-श्री राजमल जैन ३. अज्ञात जैन कवि हरिसिंह का काम -डा० गगाराम गर्ग ४. आ० अमतचन्द्र का २३वा कलश -श्री मागीलाल जैन ५. सस्कृत जैन काव्यशास्त्री और उनके ग्रन्थ -~-डा० कपूरचन्द जैन ६. महेबा का जैन मन्दिर-श्री नरेश कुमार पाठक ७. उद्देशिक आहार - श्री बाबूलाल जैन ८. केन्द्रीय सग्रहालय गूजरी महल की प्रतिमा -श्री नरेश कुमार पाठक ह जैन की पहिचान . अपरिग्रह _ -श्री पद्म चन्द्र शास्त्री, सम्पादक १०. 'तीर्थड्वर' में प्रकाशित आरोपों का खण्डन -श्री सुभाष जैन ११. पचकल्या कणक प्रतिष्ठाय-सपादक आवरण १२. स्त्रियों द्वारा जिनाभिषेक निषिद्ध है -श्री तेजकुमार गगवाल आवरण प्रकाशक : वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक-प्रतिष्ठाएँ -- पत्र मिला है कि पंचकल्याणकों की बहुतायत ओर उनमें धांधली क्यों? इस विषय पर हम कुछ लिखें। सो हमारी दष्टि से पंचकल्याणकों को परम्परा शास्त्र-सम्मत और पुरानी है और स्थापना-निक्षेप से उचित है। प्रतिष्ठित मूर्ति को निमित्त बनाकर मूर्तिमान के गुणो के चितन में सहायता मिलती है, इसके सहारे स्व में आया जा सकता है, यह सब व्यवहार है। जब तक सांसारिक प्रवृत्ति हे तब तक व्यवहार है-इसे छोड़ा नहीं जा सकता। यही कारण है कि संसारी होने से हो बाह्य में निश्चय के गीत गाने वाले भी इससे अछते नहीं बचे। वे प्रारम्भ से ही निश्चय स्वरूप में रमण के बजाय पूर्णरूप से व्यवहार में फंस बठ और "निमित्त को जटाना नहीं पड़ता, निमित्त को बलात स्वयं उपस्थित होना पडता हे, आदि।" उनके कथन कोरे कथन-मात्र रह गये। फलतः मा दर व मति निर्माण तथा पचकल्याणकों जैसे व्यवहार ने उन पर भो सिक्का जमा लिया भले ही वह लोगों के आकर्षण या अर्थ-अर्जन में रहा हो। आत्मा को दिखाने के गीत गाने वालों द्वारा ऐसे व्यवहार में आना शायद शभचिह्न हो सकता है, यदि कार्य शद्ध भावना से और द्रव्य से अछूता रहकर किया जाय तो। यह तो निश्चय है कि व्यवहार के बिना किसी को न नहीं। संसार में व्यवहार को जटाना और निभाना पड़ेगा. पंचकल्याणक प्रथा भी व्यवहार है और इसका भी विरोध क्यों? विरोध तो आत्म-दर्शन के नाम पर परिग्रह सचय करने वालों और परिग्रह को कसकर पकड़े बेठ आत्मदष्टाओं का होना चाहिए, जो चारित्र से मुख मोड़े बैट है।। हां, विरोध तब भो होना चाहिए जब पचकल्याणकों की आड़ मे धनादि संग्रह के लिए चन्दा और बोलियों की दुषित मनोवृत्ति हो । भय है कि द्रव्य-संचय को ऐमी परम्परा कही भविष्य मे तीर्थकरो के कल्याणकों के स्थान पर, मात्र पंचो (आयोजको) के कल्याण-कतत्व का स्थान हो न ले बैट? क्योंकि आज की अधिकांश प्रतिष्ठाऍ किसी एक व्यक्ति की त्याग और धार्मिक भावना में, मात्र उसी के द्रव्य से संपन्न नही होती -परिग्रह घटाने के भाव मे नहीं होती। अपितु खर्च निकाल कर, बचत के भाव में सामहिक रूप में होती है। प्रतिष्ठाओं में होने वाली अनेको बोलियां इमी का प्रतिफल है। एसी प्रथाए धामिक क्रियाओं को भी द्रव्याश्रित कर डैठी और जिससे माधारण मनष्यों को अभिषेक आदि से भी वंचित रहना पड़ा। हमारे कथन से एकान्त रूप में यह न समझ लिया जाय कि सामहिक आर्थिक सहयोग से होने वाली प्रतिष्ठाओं के हम पूर्ण विरोधी है। जहां प्राचीन सास्कृतिक धरोहरों की रक्षा का प्रश्न है, वहाँ हम इसके समर्थक है। क्योंकि ऐसे महान व्ययसाध्य काय किसी एक व्यक्ति के वश में नही । जसे बावनगजा के उद्धार, देवगढ़-मति उद्धार के कार्य, जिनके प्ररणास्रोत वर्तमान के आचार्य श्री विद्यानन्द जी व श्री विद्यासागर प्रभात महाराज रहे इन कार्या के हम समर्थक है।। हम नये मन्दिरो के भी विरोधी नहीं; पर उनमे नई प्रतिमाओं के स्थान पर प्राचीन प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को विराजित करने के पक्षधर है, जो अन्य क्षेत्रों व मन्दिरा से लाई जा सकती है। ऐसे में वेदीप्रतिष्ठा मात्र से काम चल सकता है। हाँ, एसी व्यवस्था भी होनी चाहिए कि कोई मन्दिर पूजा मे कभी भी अछता न रहे। इसके सिवाय एक प्रश्न और है जो हमे सदा कचोटता रहता है कि कुछ ऐसे प्रतिष्ठाचार्य जिनमें श्रावकाचार-प्रतिमा तक भी न हो; वे प्रतिमा में जिनेश्वर को कैसे स्थापित कर देते है ? पाठक विचारे। –सम्पादक Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम प्रहम् MIUIII. म umar S: 1TIMIR परमागमस्य बोजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वोर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण सवत् २५१७, वि० स० २०४७ वर्ष ४३ किरण ४ अक्टूबर-दिसम्बर १९६० जिनवाणी महिमा नित पीजो धी-धारी। जिनवानि सुधासम जान के, नित पोजो धो-धारी'। वीर-मुखारविन्द तें प्रगटी, जन्म-जरा-गद' टारी। गौतमादि गुरु उर घट व्यापी, परम सुरुचि करतारी ॥१॥ सलिल समान कलित-मलगंजन बुधमन रंजनहारी। भंजन विभ्रमधलि प्रभंजन, मिथ्या जलद निवारी ॥२॥ कल्यानकतरु उपवन धरनो'. तरनी भव-जल तारी। बंध विदारन पनी छनो, मक्ति नसनी सारी ॥३॥ स्व-पन स्वरूप प्रकाशन को यह मान कला अविकारी। मनिमन-कूमदनि-मोदन-शशिभा, शम-सुख सुमन-सुवारी॥४॥ जाको सेवत, बेवत निजपद, नसत अविद्या सारी। तीन लोकपति पूजत जाको, जान विजग हितकारी ॥५॥ कोटि जोमसों महिमा जाकी. कहि न सके पविधारी। 'दौल' अल्पमति केम कहै यह, अधम उधारन हारी ॥६।। १. बुद्धिमान, २. बीमारी, ३. नौका, ४. चांदनी, ५. बगीची, ६. इन्द्र । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतांक से आगे : कन्नड़ के जैन साहित्यकार D श्री राजमल जैन ११५० ई० के शिलालेख मे उत्कीर्ण है । उनके इन भक्तिपूर्ण पद्यों की प्रशंसा परवर्ती दो कन्नड़ कवियो - आचरण और पाप ने अपनी रचनाओ में की है। यह रचना एक सुन्दर कन्नड़ काव्य मानी जाती है। इनकी दूसरी रचना 'निर्वाण लक्ष्मीपति नक्षत्रमालिका' है जिसमे उन्होंने शंकर, विष्णु और बुद्ध को भी स्मरण कर अपनी सहिष्णता का परिचय दिया है । चन्द्रमपुराण के रचयिता अव जैन थे और इनका अग्गव रचना काल ११६० ई० के लगभग माना जाता है। इसमे उन्होंने आठवे तीर्थंकर चंद्रप्रभु का जीवन चरित्र जैन मान्यता के अनुसार किया है। कन्नड़ में चंद्रप्रभु सम्बन्धी यह पहला पुराण है । अनेक भवों का वर्णन कवि ने नही किया है किन्तु कुछ संस्कृत निष्ठ है। इस कारण कायात्मक होते हुए भी कुछ विलष्ट है। इस पुराण की रचना 'साहित्यविद्याविनोद' आदि उपाधिधारी अग्गव ने अपने गुरु श्रुतकीति की प्रेरणा से की थी। परवर्ती के लिए जैसे आपण पार्श्व आदि ने इनकी प्रशंसा की है । कवि श्रावण्ण भारद्वाज गोत्रीय थे किन्तु जैन थे । उन्होंने १. "वर्धमानपुराण और २. श्रीपदाशीति नामक दो रचनायें कन्नड़ में प्रस्तुत की है। वर्धमानपुराण मे आचरण ने चौबीसवे तीर्थंकर महावीर का जीवन-चरित्र कन्नड़ में निबद्ध किया है। इस भाषा में महावीर स्वामी का यह पहला जीवन-परि चय है। आचरण के पिता और उनके मित्र ने यह पुराण प्रारम्भ किया था किन्तु इसको पूर्ण किया आचरण ने । इस कृति मे कवि द्वारा शब्दालकारो की पूर्व छटा है । स्पष्ट ही इसमें शांत रस का प्राधान्य है । इसमे कवि ने तत्कालीन कन्नड़ छंदों यथा रगले, त्रिपदी आदि का भी प्रयोग किया है । पुराण में महावीर के पूर्व भवो का भी नेमिचन्द्र : मार्गशैली (चंपू शैली) में रचना करने वालों में इस युग के प्रथम कवि है "नेमिचन्द्र" इनका समय ११७० ई० या १२०० ई० के लगभग माना जाता है। इनकी दो कृतियां हैं -- १. नेमिनाथ पुराण और २. लीलावति । नेमिनाथ पुराण में कवि ने तीर्थंकर नेमिनाथ की जीवनगाथा लिखी है | प्रसंगवश उसमें श्रीकृष्ण, वसुदेव और कंसवध को भी स्थान मिला है । (स्मरण रहे, श्रीकृष्ण तीर्थंकर नेमिनाथ के चचेरे भाई थे। यह पुराण चंपू शैली में है और कंस वध के बाद ही समाप्त हो गया है. पूरा नहीं हो सका इसलिए इसे 'अर्ध नेमि पुराण' भी कहा जाता है । शायद पूरा पुराण अभी उपलब्ध नही हुआ हो। इसमें अनेक भयो का वर्णन नहीं है किन्तु कृष्ण और कंस वध के प्रकरणों से इसमे रस-विवि धता और काव्यत्व अधिक प्रकट हो सका है। इसी कारण यह एक उच्चकोटि का काव्य माना जाता है। इस पुराण की रचना कवि ने राजा बल्लाल के मंत्री पद्मनाभ की प्रेरणा से की थी। लीलावति एक शृंगार रस प्रधान काव्य है । उसका आदर्श संस्कृत कवि वधु को 'वासवदत्ता' नामक कृति जान पड़ती है। इसके नायक और नायिका स्वप्न में एक-दूसरे को देखते हैं और खोज करते-करते उनका मिलन होता है। नेमकी अनेक उपाधियां प्राप्त थीं जिनमे कविराज कुजर साहित्य विद्याधर और चतुचपत (संस्कृत, प्राकृत, अप' और कन्नड) जैसी उपाधिया सम्मिलित थी । इनका स्मरण अनेक परवर्ती कवियों ने आदर के साथ किया है । बोप्पण पंडित द्वारा रचित धरणबेलगोल के "गोमटेश्वर" की २७ कन्नड़ पद्यों में "स्तुति" वहां के Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मड़ के जैन साहित्यकार वर्णन है। श्रीपदाशीति में आवण्ण ने णमोकार मंत्र या पंचनमस्कार मंत्र की महिमा का भक्तिपूर्ण गान किया है। कवि आचरण को 'वाणीवल्लभ' उपाधि प्राप्त थी । बंधुव - एक ऐसे कवि बारहवी सदी के आसपास हो गए है जिन्होने पुराण और सिद्धांत-कथन दोनो पर लेखनी चलाई है। इनके दो ग्रंथ है- १. हरिवंशाभ्युदय और २. जीवसबोधने पहले ग्रंथ मे बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ का जीवन चरित्र लिखने के साथ ही साथ श्री कृष्ण की कथा भी सीपंकर के पारिवारिक सम्बन्ध के कारण आ जाती है । कवि की शैली लालित्यपूर्ण तथा कल्पनाये आकर्षक हैं । जीवसंबोधने में कवि ने बारह भावनाओं (अनुप्रेक्षाओं) का नीतिबोधक विवेचन बारह परिच्छेदों मे किया है । प्रत्येक परिच्छेद के प्रारम्भ मे कवि एक सिद्धांत का निरूपण करता है और बाद में उसका समर्थन एक कथा से । इस प्रकार यह एक रोचक रचना है। श्री भुजबली के शब्दों में, "अध्यात्म-प्रेमी जैनेतर विद्वान् भी इस ग्रंथ की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं।" उनके बाद के कवियो ने भी बधुवमं की प्रशंसा की है किन्तु उन्होंने अपने से पूर्व के कवियों का स्मरण नहीं किया बल्कि अपनी प्रसा स्वयं की है । उनकी सुन्दर उक्तियां तथा कहावतें भी इसे आकर्षक बनाती है । पार्श्वपंडित ने कन्नड़ भाषा मे 'पार्श्वनाथ पुराण' की रचना की जो कि इस भाषा में पार्श्वनाथ सम्बन्धी पहला पुराण है। इसका रचनाकाल १२२२ ई० माना जाता है। पुराण में कवि ने पार्श्वनाथ और तीर्थंकर पर्याय का जैन परम्परानुसार वर्णन किया है। इस यंत्र काव्य में कवि ने ऋतुओ का मनोहारी वर्णन करने के अतिरिक्त सुन्दर चरित्र-चित्रण किया है। इसमे कमठ का चरित्र विशेषरूप से आकर्षक बन पड़ा है। ये संगीत एवं नृत्य के भी विशेषज्ञ थे यह इनकी रचना से स्पष्ट प्रतिभासित होता है। इन्हें भी कविकुल तिलक, विविधजन मनःपनि पद्ममित्र जैसी उपाधियां प्राप्त थी। अपने ग्रन्थ के प्रारंभ में इन्होने संस्कृत, प्राकृत एवं कन्नड़ के प्रसिद्ध कवियों का स्मरण किया है। 1 1 जन्म - कवि का काल तेरहवी सदी का पूर्वाधं माना जाता है। ये जैन थे और कन्नड साहित्य के इतिहास में इनका स्थान इसी भाषा के आदि कवि पम्प के समान महत्वपूर्ण माना जाता है। इनका सवध अपने युग की प्रसिद्ध साहित्यिक एवं आध्यात्मिक) हस्तियों से था । ये होयसल नरेश वीरवल्लान ननिह के दरबार के प्रमुख व्यक्तित्व थे स्वयं अपने संबंध मे कवि ने लिखा है कि, 'मैं खडा होने पर दण्डाधीश (सेनापति बैठने पर मंत्री और लिखने लगू तो कवि हूं।" उपर्युक्त नरेश से इन्हें कविश्वर्ती की उपाधि प्राप्त हुई थी श्री दक्षिणा मूर्ति के शब्दों में, "कन्नड़ साहित्य-साम्राज्य के तीन ही कवि पवर्ती है- पोन्न, रन्न एवं जन्न | कवि सम्रा अथवा कवि चक्रवर्ती की उपाधि जन्त के लिए सर्वा उपयुक्त है ।" काव्य के अतिरिक्त ये व्याकरण, नाटक तथा अध्यात्म के भी पारंगत विद्वान् थे । इन्हें 'राजविद्वत्कलाहंग' जैसी अनेक उपाधियां प्राप्त थीं इन्होंने कुछ जैन मंदिरों का भी निर्माण कराया था। आर्थिक स्थिति अच्छी होने के कारण इन्होंने अपने को "सौभाग्य संपन्न " कहा है। कवि जन्म की दो रचनायें प्रसिद्ध है१. शेरचरिते (रचनाकाल १२० ई०) उपा २. अनन्तनाथ पुराण (१२३० ई० ) । राजा यशोधर और उसकी रानी अमृतमति की कथा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा तमिल आदि भाषाओं में अनेक लेखकों ने निवद्ध की है उसका मुख्य स्वर वह है कि संगीत कामवासना जगाता है । उसीके कारण मधुर संगीत के गायक किन्तु कुबड़े महावत अष्टावक्र से रानी अमृतगति उससे प्रेम करने लगी थी और जब राजा यशोधर ने यह देख लिया तो उसे वैराग्य हो गया। राजा यशोधर और उसकी माता, भाई बहिन के रूप में जन्म लेते हैं । राजा मारिदत्त उनकी बलि चटिका को देना चाहता है किन्तु इन भाई-बहिन से उनकी पूर्वभव । की कथा सुनकर राजा हिंसापूर्ण बलि का विचार त्याग देता है। इस प्रकार इस कथा में कामवासना और हिमा पूर्ण पशु बलि से विरुचि उत्पन्न की गई है । कथानक परम्परागत होते हुए भी जन्न ने उसमें Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, वर्ष ४३, कि० ४ धनेकान्स प्राण डाल दिए हैं श्रृंगार, रौद्र और शांत रसों का सुन्दर चित्रण करने के साथ ही उन्होंने चरित्र-विषण में अद्भुत सफलता प्राप्त की है। श्री दक्षिणामूर्ति के अनुसार, "स्मरण रखना चाहिए कि जन्न यह कृति उनकी कल्पना की उच्चता, सौदर्यप्रियता, औचित्य निर्व हरण आदि के कारण धर्म या सम्प्रदाय की परिधि लांधकर श्रेष्ठतम काव्य की श्रेणी में आ गई है ।" Cr अनतनाथ पुराण १४वें तीर्थंकर अनन्तनाथ की पुण्य जीवन-गाथा चंपू-शनी में वर्णित है । परपरा के अनुसार विषण करने पर भी कवि ने इस पचयाको मार्मिक एवं आकर्षक तथा जैन सिद्धांतो का कवित्वपूर्ण वर्णन कर इसे भी एक प्रौढ़ काव्य बना दिया है। इसकी रचना बिट के शातीश्वराल में हुई थी। गुणवमं द्विसीय का काल १२३५ ई० के लगभग माना जाता है। इसके आश्रयदाता कार्तवीर्य नरेश के सामंत शांतिवर्म थे । ये जैनधर्मानुयायी थे। इसके अनिरिक्त अन्य तथ्य ध्यान नहीं है। इनकी दो रचनाये-१. "पुष्पदंतपुराण" और २. चंद्र है। पुष्पसपुराण मे तीर्थकर पुष्पदंत की जीवन-गाथा निबद्ध है । इसमें भगवलियां सम्मिलित नहीं की गई है। इसलिए कथानक संक्षिप्स है जो मे प्रति इम काव्य में कवि ने कन्नड़ में प्रचलित कहावतो, अलकारो आदि से सदारा है। इसी प्रकार संस्कृत के 'काकतालीय आदि ग्यायो का भी उन्होंने यथागरम किया है। इस प्रकार उन्होने तीर्थंकर की सक्षिप्त-सी उपलब्ध जीवनी को एक आकर्षक और प्रौढ़ काव्य का रूप दिया है। चन्द्रनाथाष्टक की रचनागुणवर्म ने कोल्हापुर स्थित त्रिभुवनतिलक जिनालय के चंद्रप्रभु की स्तुति के रूप में की है जिसका प्रत्येक पद्य चन्द्रनाथ से प्रारम्भ होता है । इस स्तुति मे ८ पद्य है । कमलभव नामक कवि अपनी रचना "शांतीश्वर पुराण" के लिए विख्यात है। इनका आविर्भाव काल १२३५ ६० अनुमानित है। शांतीश्वरपुराण में कवि ने १६वें तीर्थंकर का शाति नाथ का शांतिदायक जीवन काव्य में गूंथा है जिसमें उन्होंने अपने से पूर्व के कवियों एवं आचायों का स्मरण किया है। इस पुराण मे पुराण काव्य के सभी लक्षण घटित होते है तथा कवि की कल्पना वर्णन चातुर्य आदि गुण प्रतिभासि होते हैं। नेमिनाथपुराण के रचनाकार है कवि महाबल । इनका गोत्र भारद्वाज था । इस पुराण की रचना के बारे मे कवि ने लिखा है कि उन्होने यह पुराण 'श्रुताचार्य आदि की उपस्थिति मे सुनाकर अपने शिष्य लक्ष्म से लिखवाया है। इन्हें 'सहजकविमनोगेहमा णक्यदीप' आदि उपाधियां प्राप्त थी । उपर्युक्त पुराण भी शैली मे रचित है और १६ चतू आश्वासो मे विभक्त है । इस पुराण मे तीर्थंकर नेमिनाथ की जीवन-गाथा निबद्ध है। परंपरानुसार कथन होने पर भी इसमे कवि का पाण्डित्य झलकता है । स्वय कवि ने भी अपने चातुर्य की प्रशसा की है। धर्मनाथपुराण तीर्थकर धर्मनाथ के जीवन को लेकर दो कवियो ने अलग-अलग समय में धर्मनाथपुराण लिखे। ये कवि है बाहु ( लगभग १३५२ ई०) और मधुर (१३८५ ई० ) । बाहुबलिको उपभाषाकवि चक्रवर्ती की उपाधि प्राप्त थी । उनके पुराण को एक प्रोढ़ रचना माना जाता है । मधुर द्वारा रचित धर्मनाथ पुराण के केवल चार आश्वास हो प्राप्त हुए जिनमें कवि की वर्णन-स्वाभावि कता झलकती है। इन्होंने गोम्मटस्तुत्याष्टक की भी रचना की थो । पुराण-लेखन परम्परा का अंत ऐसा लगता है कि चौदहवी शताब्दी के अन्त मे अर्थात् कवि मधुर के बाद कन्नड़ मे लेखकों का प्रिय विषय सीकर-पुराण की रचना ही बन्द हो गई। जैन लेखकों ने चंपू-शैली मानों त्याग दी । और अपने रचना-विषय भी बदल दिए। इस प्रकार शास्त्र और पुराण काव्य की एक परम्परा इस युग के साथ लगभग लुप्त हो गई। विषय के साथ ही छदो के प्रयोग और शैली ( मार्ग या चंपू शैली का प्रयोग कम हो जाना) तथा संस्कृत या कन्नड-संस्कृत के स्थान पर अधिकांश रचनाओ मे कन्नड या देसी शैली का प्रचलन का Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्नड़ के जैन साहित्यकार यूग उपर्युक्त सदियों के बाद कन्नड़ के इतिहास में प्रारंभ उद्धरण लेकर अशुद्धियों को दर्शाना, मार्ग काव्य के प्रयोगो हुआ। को शुद्ध बनाना तथा कुछ नवीन प्रयोगों को भी मान्यता प्रांडग्य-का समय लगभग १२३५ ई० है । इन्होंने देना उनका लक्ष्य था। अपभ्रश को भी उसमे स्थान एक ध्वनिकाय लिखा है जिसका नाम 'कम्चिगर काव' मिला है। अपने पिता द्वारा संकलित काव्यांशों से भी (कवियों का रक्षक) या मदन विजय है । यह काव्य न तो उन्हें सहायता मिली होगी। उनका व्याकरण शुष्क नहीं, तीर्थकर जीवनी है और न ही कोई लौकिक कथा । इसमे सरस है। केशिराज का दावा है कि उनका व्याकरण कवि ने वैदिक प्रथो मे उपलब्ध शिव और कामदेव की "लक्ष्मीदेवी का सू.दर सरस दर्पण और सरस्वती की कथा को जन जामा पहनाया है। काव्य मे वणित है कि द्वितीय दर्पण' है। शिव ने कामदेव के परिवार के सदस्य चन्द्रमा को चुराया श्री सिद्धगोपाल के अनुसार, "हस्तिमल" ने "पूर्व इस पर काम ने बाण चलाकर शिव को अर्धनारीश्वर पुराण" लिखा है जो इस युग का एकमात्र शुद्ध ग्रंथ है। बना दिया । किन्तु कुछ दिनो कामदव अज्ञात रहा । जब इसके सम्बन्ध में विस्तृत जानाारी उपलब्ध नहीं है। उसका सामना क जैन मुनि (धमण) से हुआ तो वह कुमुवंदु रामायण के रचयिता कुमुदेन्दु हैं। इनका थरथर कांपने लगा और उनके चरणो मे नतमस्तक हो समय १२७५ ई. के लगभग माना जाता है। यह षट्पदी गया। इस प्रकार काव्य में यह व्यजित किया है कि काम छद मे (लखी गई है और जैन परम्परा के अनुसार निवद्ध को विरक्ति या तपम्पापूर्ण जीवन द्वारा विजित किया है। विद्वानों की राय है कि इस पर पंप रामायण का जा सकता है और जब एक मुनि में इतनी शक्ति हैं तो काफी प्रभाव तीर्थकर में कितनी शक्ति होगी। रट्ट कवि (लगभग १३०० ई०) ने "रट्टमत या र कन्नड में आंडय्य का स्थान उनकी भाषा शैली के सूत्र" की रचना की है। इन्होने अपने प्रथ का विषय लिए भी है । कन्नड भाषियों के अनुरोध पर उन्होने इस प्राकृतिक घटनाओं-यथा वर्षा, बिजली, भूकप, आकाशीय काव्य की रचना यह दिखाने के लिए की थी कि संस्कृत ग्रह और शकुन आदि को बनाया है। इसका अनुवाद के तत्सम शब्दों का प्रयोग किए बिना शुद्ध या 'ठठ १४वी सदी मे तेलगू मे कवि भास्कर ने किया था। कन्नड में भी काव्य की रचना की जा सकती है। नागराज ने संस्कृत ग्रय पुण्याथव (कथाकोश) का मल्लिकार्जुन (मल्ल और मल्लप्प नाम से भी कन्नड में रूपातर किया जो कि 'पुण्याश्रव कथा' के नाम विख्यात) ने एक अनूठा संकलन तैयार किया जो कि से प्रसिद्ध है। इसकी रचना उन्होंने अपने गुरु की आज्ञा "मूक्ति सुध र्णव' नाम से प्रसिद्ध है। अपने को 'सरस से सगर के निवासियों के कल राणार्थ की थी। इसमे देव, कवि' और 'महाकवि' कहने वाले मल्ल ने इस रचना मे २८ कवियो से २२०० पद्य संकलित किए है जिनमे उनके गुरू स्वाध्याय, सयम, तप आदि गुणो का विवेचन करते अपने पद्य भी सम्मिलित है। ये पद्य समुद्र, ऋतुओ, युद्ध, हुए ५२ पुण्य पुरुषो को कथाए सग्रहीत हैं। इनका शैली देसी है और वर्णन मे स्वाभाविकता एव लालित्य है। यह प्रेम, और चादनी आदि अनेक विषयो के अन्तर्गत सकलित किया है । इस प्रकार यह ग्रथ कन्नड साहित्य के केवल अनुवाद ही नहीं है। इन्हें भी "भारतीभालनेत्र" इतिहास की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इनका और 'सरस्वतीमुखतिलक' जैसी उपाधिया प्राप्त थी जो समय लगभग १२४५ ई. माना जाता है। कि उनकी काव्यशक्ति के कारण ही दी गई होंगी। केशिराज (१५६० ई. के लगभग) उपर्युक्त कवि इनका समय १३३१ ई० के आसपास हैं। इनका स मल्ल के पुत्र थे। इन्होंने 'शब्दमणिदर्पण' नामक एक 'खगेन्द्रमणिवपंरण' नामक वैद्यक ग्रंथ के रचयिता कन्नड व्याकरण की रचना की है । इसके सूत्र पद्य में 'मंगरस या मंगराज' हैं । ये १३६० ई. के आसपास हुए है और वत्रि गद्य में। अपने से पहले के कवियों से हैं। इनका दावा है कि जनता के निवेदन पर उन्होंने इस Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त छंद (गाने योग्य छंद) में ही अपने काव्य 'भरतेश वैभव" की रचना की है। जैन रचनाकारों ने इस काल में चरित्र ग्रंथ (जैसे जीवंधर चरिते ) अधिक लिखे । ६,४३,०४ ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें ओषधियों के साथ ही साथ यंत्र-मंत्रों का भी विधान है। उनका मत है, "औषधियों से आरोग्य, आरोग्य से देह, देह से ध्यान और ध्यान से मोक्ष प्राप्त है। इसीलिए मैं औषधशास्त्र को बतला रहा हूं।" वैद्यक ग्रंथ होते हुए भी उनकी रचना मे काव्योचित गुण है और उनकी शेती आकर्षक है । कन्नड़ में "रत्नकरंड" लिखने का श्रेय "आयतवर्मा" (लगभग १४७० ई०) की है। उन्होंने संस्कृत रत्नकरंड की है। उन्होंने संस्कृत रत्नकरंड श्रावकाचार को आधार बनाकर चपू शैली में रत्नत्रय के सिद्धांतों और कथाओं का आधार बनाकर चपू शैली में रत्नत्रय के द्धांतो और कथाओं का निरूपण किया है। इसी युग के कुछ अन्य लेखकों का सक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है माघनन्वि ने "शास्त्रसार समुच्चय" और " पदार्थ सार' नामक संस्कृत ग्रन्थों की टीका कन्नड़ भाषा मे निबद्ध कीं । वृत्तविलास नामक लेखक ने "धर्मपरीक्षा' (संस्कृत) का कन्नड़ में अनुवाद किया। वैष्णव युग या कुमारव्यास युग कन्नड़ साहित्य के इतिहास में इस युग की अवधि १५वी से १९वी सदी तक निर्धारित की गई है। इसमें वैष्णव साहित्य की प्रधानता रही इसलिए यह वैष्णव युग कहलाता है। कन्नड़ के प्रसिद्ध कवि कुमारण्यास (रचना कन्नड़ भारत ) थे इसलिए यह उनके नाम पर कुमारव्यास युग के नाम से भी जाना जाता है । इस युग मे जैन साहित्य भी आगे बढ़ा किन्तु उसके स्वरूप में परिवर्तन आया। श्री मुनि के शब्दों में "जैन साहित्य" अपने पुराने आडम्बर ओर दिखावे को छोड़कर सरल " काव्य" के रूप में आगे बढ़ा।" यह युग कर्नाटक में विजयनगर साम्राज्य प्रसिद्धि का था । उनके आश्रय से भी कन्नड़ साहित्य खूब फला-फूला। मैसूर के ओडे पर राजवंश के प्रमाद से भी कन्नड़ साहित्य समृद्ध हुआ । जैन कवियों ने इस युग मे नवीन छदो जैसे बट्पदि सोगत्य (कन्नड़ का अपना छद) तथा भामिनी छंदों को अपनाया। मूढविद्री के जैन कवि रत्नाकर वर्णिने सांगत्य पृष्ठभूमि के रूप में यह ध्यान रखना चाहिए कि इस काल में कर्नाटक में जैनो को वैष्णवो और शवों के विरोध का सामना करना पड़ा था और विजयनगर नरेश हरिहरराय दुक्का जैसे शासको ने सांप्रदायिक शांति और सद्भाव के लिए प्रयत्न किए थे। कन्नड़ में "जीवंधरचरिते" के लेखक है कवि "भास्कर" इसकी रचना १४२४ ई० में हुई है ऐसा माना जाता है । इसे उन्होने पेनुगोण्डे के शांतीश्वर जिनालय मे लिखा था । जीवधर की कथा संस्कृत की मूल जंन कथा को लेकर भी उन्होंने इसे अपनी कल्पनाशक्ति और सरस शैली से आकर्षक बना दिया है । श्री मुगवि के अनुसार "जीवन्धरचरित्र" कल्पना के सौष्ठव और शैली के लालित्य से यथाशक्ति अच्छा काव्य बन गया है ।" कल्याणकीति का आविर्भाव समय पंद्रहवी सदी का मध्यकाल है। इनके अनेक ग्रन्थ है-"ज्ञानचद्राभ्युदय" जिसका रचनाकाल १४३६ ई० माना जाता है में कवि ने यह दर्शाया है कि राजा ध्यानचन्द्र ने किस प्रकार अपना कल्याण या । उपर्युक्त कवि की दूसरी प्रसिद्ध रचना "कामनकक्षे" है जो कामकथा से सम्बन्धित है। इनकी अन्य रचनाएं है—अनुप्रेक्षे, जिनस्तुति ओर तत्वभेदाष्टक तथा सिद्धराशि | ये रचनाये भामिनि और षट्पदि छदो में है । बारह भावनाओं का वर्णन "विजयष्ण" ने सांगत्य छंद (गेय छंद) में 'द्वादशानुप्रक्षा' ने किया है। उसका रचनाकाल १४५० ई० माना जाता है । सरल शैली में कन्नड़ में अनुप्रेक्षाओं संबंधी यह रचना कन्नड़ की सम्भवतः प्रथम रचना है। विजयण्ण मूडविद्री के निवासी थे। शिशुमापण का समय १४७२ ६० है इनकी दो । प्रसिद्ध रचनायें हैं- १. "त्रिपुरदहनसांगत्य" तथा २. "अन्जनाचरिते । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्नड़ के जैन साहित्यकार शैवमत में त्रिपुरदहन की कथा प्रसिद्ध है किंतु प्रस्तुत है। इन्होने अपने पिता को 'रण कभिनवविजय' कहा है कवि ने इसको जैन मतानुसार ए नया रूप दिया है। श्री जिनसे वे योद्धा मलम पड़ते हैं। भुजबलि के अनुसार "कवि ने जिनेश्वरदेव को जन्म- इनके छ. ग्रन्थ हैं-.. "जयन काव्य" जिसमें जरा-मरणरूपी त्रिपुरो का संहारा बतलाया है। तदनु- इन्होने भरत चक्रवर्ती के सेनापति जण कुमार की कथा कूल कवि ने मोहासुर को त्रिपुर का राजा, माया को निवद्ध की है। यह मुख्य रूप से शृगार रस प्रधान रचना उमकी रानी; मनुष्य, देव, त्रियं च और नरक गतियों को है जिसमे कल्पना और प्रवाह का सयोजन है । २ सम्यक्त्व चार पुत्र; क्रोध लोभादि को उसका मत्री तथा नानाविध कौमुदी-इसकी कथायें गौतम गणधर द्वारा राजा श्रेणिक कर्मों को उसका परिवार निरूपित किया है । "जिनेश्वर- को सुनाई गई थी। इन्हीं कथाओ से राजा उदिनोदित देव के ललाट पर केवल ज्ञानरूपी तीसरा नेत्र प्रकट होता को सम्यक्त्व एव स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी। नीतिमूलक है जिसके द्वारा त्रिपुर (मोहासुर) सपरिवार पराजित कर उपदेशो के साथ इसमे अनेक उपकथाये पिरोई गई है जो दिया जाता है । परम जिनेश्वर देव ने मोहासुर को मारा सुन्दर बन पडी है। ३. "श्रीशलचरिते" नामक इनके नहीं, बल्कि हाथ-पैर बांधकर उसे अपने चरणों मे झुकाया ग्रय मे श्रीपाल की प्रसिद्ध कथा आकर्षक ढंग से ग्रन्थित और स्वतन्त्र छोड़ दिया। इस प्रकार कवि ने इस काव्य है। ४. "प्रभजनचरिते" नामक अपूर्ण काव्य-ग्रन्थ मे में जिनेश्वरदेव को शिव से अधिक दयाल सिद्ध किया है।" सरस ढग से प्रभजन की गाथा निबद्ध की गई है। ५. __'अन्जनाचरिते' मे कवि ने सती अजना की प्रसिद्ध "नेमिजिनेश सगति" मे तीर्थकर नेमिनाथ का चरित्र कथा विस्तार से एव स्वाभाविक शैली में प्रस्तुत की है। वणित है। उसमे युद्ध का मनोहारी वर्णन है। ६. "सूप बोम्मरस ने (१) सनत्कुम रचरिते और (२) जीवघर शास्त्र" मे कवि ने विभिन्न प्रकार के पाक बनाने की सांगत्य नामक दो रचनाये कन्नड़ में प्रस्तुत की है। इनका विधियां बनाई है । यह स्त्रियोपयोगी है। काल लगभा १४८५ ई० माना जाता है। सनत्कुमार- अभिनववादि विद्यानन्द भी सोलहवी सदी के पूर्वार्ध कथा को नवीन एव स्वाभाविक ढग से प्रवाहपूर्ण शैली में के कवि हैं। इन्हीने अपनी रचना 'कान्यसार' मे ११४० कवि ने निबद्ध किया है। इस कथा मे उन्होने भक्ष्य. पद्यो का सार-सकलन किया गया है। श्री भजबली भोज्य" पदार्थों का वर्णन इतना किया है कि कुछ विद्वान शास्त्री ने लिखा है, "विद्यानंद का 'दशमल्यादि महाशास्त्र' उन्हें भोजनप्रिय अनुमानित करते है। नामक एक ग्रथ मुझे उपलब्ध हुआ है । यह ग्रथ प्राकृत, जीवधर सांगत्य में बोम्मरस ने प्रसिद्ध जीबधर कथा संस्कृत और कन्नड़ भाषा मे लिखित है। इतिहास की को सुन्दर, सरल शैली मे निरूपित किया है। दृष्टि से यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है।" कोरीश्वर-एक और कवि है जिन्होने "जीवधर रत्नाकर वरिण-सोलहवी शताब्दी के मध्यभाग में चरिते" लिखा है जिसका रचनाकाल १५०० ई० के हुए है । वे इस युग के कन्नड़ साहित्य के जाज्वल्यमान लगभग माना जाता है। यह भामिनि षट्पदि मे है और नक्षत्र हैं। वे क्षत्रिय थे और मूडविडी में जन्मे थे। अपूर्ण है। उन्होने वहा के भट्टारक चारुकीति से 'दीक्षा' ली थी। सन् १५५६ ई० मे "नेमन्ना ने "ज्ञानभास्करचरिते" उन्होंने योग में भी कुशलता प्राप्त की थी। उनके रोमास की रचना की। कवि ने उसमे यह प्रतिपादित किया है और मन-परिवर्तन के सम्बन्ध में अनेक दन्तकथायें प्रचकि बाहरी विधि-विधान की अपेक्षा शास्त्रों का अध्ययन- लित हैं। सभव है, वे रंगीले व्यक्तित्व और स्वतत्र विचारों मनन अधिक श्रेयस्कर है। के व्यक्ति रहे हों। वे "रत्नाकरसिद्ध" और "रत्नाकर ___ मंगरस द्वितीय ने "मंगराजनिघंटु" नामक प्रथ की तथा अण्ण" नामों से भी प्रसिद्ध थे। जो भी हो, वे रचना की है। प्रतिभाशाली कवि थे। इसीकारण उन्हें इस युग का मंगरस तृतीय का समय १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध 'कन्नड़ कोकिल' कहा गया है । उनका प्रिय रस शृगार Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८, वर्ष ४३, कि० ४ अनेकान्त था। कुछ विद्वान उन्हें 'शृगार रस का सम्राट्' मानते हैं शांत हुआ तो पुनः जैनधर्म मे दीक्षित हो गए। जिसका परिचय भरतेश वैभव' में प्रचुर मात्रा मे रत्नाकर ने यह काव्य चक्रवर्ती भरत के ।जिसके मिलता है। नाम पर यह देश भारत व लाना है) समन्वयात्मक, वणि की रचनायें हैं-१. त्रिलोक शतक २. अपरा. भव्य एवं अलोकिक जीवन को चित्रित करने के लिए जितेश्वर शतक ३. रत्नाकराधीश्वर शक और सर्वश्रेष्ठ लिखा है। काव्य के प्रारम्भ मे ही उन्होंने कहा है, मा के पास से ही कृति 'भरतेश वैभव' । इनके अतिरिक्त रत्नाकर ने लग "असंख्य राज्य सुखों मे स्नान करके, व गृधा को प्रसन्न भग २००० आध्यात्मिक गीत भी लिखे है जो 'अण्णन करके, जिनप्रोगी बनकर, क्षण भर मे कर्मों का नाश पद गलु' (बड़े भाई के पद) कहलाते है। उनमे से बहुत करके जिन पदवी को प्राप्त करने वाले राजश्रेष्ठ के से आज लोकप्रिय हैं। वैभव की कहानी सुनो।" इस प्रतिज्ञा के अनुसार उन्होने __त्रिलोकशतक मे कबि ने जैन मान्यता के अनुसार भरत को भोगी होते हुए भी योगी, राज्य करते हुए भी सष्टि वर्णन रत्नाकर ने कद नामक पद्य मे किया है। त्यागी या विरक्त, सानारिक होते हुए भी आध्यात्मिवअपराजितेश्वरशतक में पद्यो मे कवि ने नीति, साधक और एक आदर्श राजा तथा मानव के रूप मे हमारे वैराग्य और आत्मानुभूति सम्बन्धी मार्मिक विचार व्यक्त सामने उपस्थित किया है। अपने चरित्रनायक को कहीं किए हैं। भी हीन स्थिति में नहीं दिखाया यहां तक कि बाहुबलि के रत्नाकरशतक की रचना में भी कवि का लक्ष्य नीति प्रमग मे भी । अपनी ६६ हजार रानियो के साथ और या उपदेश है। उसमें भी उनकी ओजस्विनी एव स्वतत्र इन रानियों के जीवन का भी शृगारपूर्ण चित्रण 'भोगचेत्ता वाणी मुखरित हुई है। विजय' नामक अधिकार में किया है। जिसके विषय मे रत्नाकर की सर्वश्रेष्ठ कृति है 'भरतेश वैभव' । श्री मुगवि ने लिखा है, "वही उनकी महान् कवित्व शक्ति इसमे भगवान आदिनाथ के पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत के का परिचायक है और कन्नड़ साहित्य ससार के लिए वैभवपूर्ण जीवन का किन्तु उसके साथ ही उनकी त्यागपूर्ण । नवीन रस सृष्टि है।" जीवन-शैली का कवि ने दस हजार पद्यों में वर्णन किया यह भी स्मरणीय है कि भरत के जीवन को अपनी है। उनक' दावा था कि उन्होने इसे केवल नो माह मे रचना का विषय बनाने में रत्नाकर ने केवल शृगार की पूर्ण किया है। ही प्रधानता मही दर्शाई किन्तु भरत के त्याग और आत्मअपने उपर्युक्त महाकाव्य का प्रारम्भ ही रत्नाकर ने चितन मे लीन व्यक्तित्व को भी उभारकर शांतरस या भरत के राजदरबार मे सगीत-सभा और अध्यात्म चर्चा अध्यात्मरस की भी उतनी ही प्रतिष्ठा की है। अन्तर से पिया है। उन्होने भरत और बाहुबलि युद्ध नहीं केवल इतना ही है कि, "कवि सांसारिक भोग-विलास को बताया बल्कि यह लिखा है कि भरत ने अपने मीठे वचनो आध्यात्मिक विकास का आत्यन्तिक विरोधी नही मानता" से ही बाहुबलि को अपने वश में कर लिया था। तीर्थंकरो तथा "वस्तुतः भोग और त्याग मे अविरोध प्रदशित कर के पंचकल्याणक होते है किन्तु रत्नाकर ने भरत चक्रवर्ती -"भोग और योग के मध्य समन्वय करना ही महाकवि के भी पचकल्याणक बना दिए है। ये हैं--१. भोगविनय रत्नाकर के काव्य का एकमात्र लक्ष्य है।" (श्री २. दिविजय (वणि ने भरत को दयालु विजेता बनाया भुजबलि)। है) अर्ककीतिविजय (जिनसेन का भरत कठोर है) ४. कन्नड साहित्य मे रत्नाकर का एक विशिष्ट स्थान योगविजय और ५. मोक्षविजय । इस प्रकार की नई है। श्री मुगवि के अनुसार, 'भरतेशवैभव' रत्नाकर का कल्पनायें करके रत्नाकर ने परंपरागत भरत-चरित्र को भव्य भावगीत है उनके जीवन-दर्शन का सुन्दर प्रतीक उलट-पुलट कर दिया । इस कारण उन्हें सामाजिक विरोध प्रतीत होता है । कन्नड़ साहित्य ससार मे पम्प, हरिहर का भी सामना करना पड़ा। वीरशैव हो गए जब क्रोध ओर कुमार व्यास के समकक्ष खड़े होने वाले कवि Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्नड़ के जैन साहित्यकार रत्नाकर ही हैं। जनता की वाणी और संगीत ने उनकी 'चन्डम' ने कारकल की गोम्मट महामूर्ति का इतिहास कृति में अपनी सिद्धि प्रदान की है।" और अभिषेक का वर्णन 'कारकल गोमटेश्वरचरिते' में __सोलहवीं सदी के मध्य में "दोडव्य" ने 'चद्रप्रभ- प्रस्तुत किया। चरितम्' की रचना की जिसका आधार आचार्य गुणभद्र सन् १६५० ई० के लगभग हुए 'गुणचन्द' ने छंदों के का उत्तर पुगण है । रचना साधारण मानी जाती है और सम्बन्ध में 'इन्वस्सार' नामक ग्रंथ लिखा। उन्होंने इसमें कवि का समय भी अनुमानित है। संस्कृत छदों के अतिरिक्त अन्तिम अध्याय में कन्नड़ के बाहुबलि का काल १५६० ई० माना जाता है। ये छद और उदाहरण भी दिए है। अपनी रचना 'नागकुमारचरिते' के लिए प्रसिद्धि है जो लगभग १६५० ई० में ही "धरणि पडित" ने दो कि ३७०० पद्यो में है। उन्होंने यह कृति राजा भैरवेन्द्र राजाओं सबधी रचनाएं प्रस्तुत की। ये हैं-१. वरांगतथा भट्टारक ललितकीति की प्रेरणा से लिखी थी। नृपचरिते। यह कथा सस्कृत में प्रसिद्ध है किन्तु धरणि श्री भजलि शास्त्री ने १६वीं सदी के अन्य जैन पडित ने इसे कन्नड के भामिनि षटपदि छद में विस्तारलेखकों का परिचय संक्षेप में दिया है। बह यहाँ उद्धत पूर्वक लिखा। पूर्वक लिखा। २. 'बिज्जल रायचरिते' मे कवि ने कल्याणी किया है--"१६वीं शताब्दी के अन्य जैन काव्य लेखकों के जैन गजा बिज्जल के मत्री और सेनापति बसवण्ण में 'विजयकुमारिक थे' के रचयिता श्रुतकीति,, चन्द्रप्रभ सम्बन्धी इतिहास लिखकर यह दर्शाया है कि बसवण्ण ने षट्पदि के रचयिता दोड्डुणांक, शृंगारप्रधान, 'सुकुमार। पीछा करती सेना से छुटकारा पाने के लिए कुए मे कूद चरिते' के रचयिता परस और 'बजकुमारचरिते' के कर आत्मा कर आत्महत्या कर ली थी। (बसवण्ण ने ही वीरशवमत रचयिता ब्रह्म कवि प्रमुख हैं। ई. सन १६०० में देवी- चलाया था)। त्तम ने 'नानाथरत्नाकर' नाम से और शृगार कवि ने उपर्युक्त समय अर्थात् १६५० ई० के लगभग ही 'कर्णाटक-संजीवन' नाम से दो निघओं को भी रचना 'नूतन नागचन्द्र' ने 'जिनमुनितनय' की रचना की। इस की है। कवि शांतरस ने योगशास्त्रविषक 'योगरत्नाकर' छोटी-सी रचना का प्रत्येक पद्य 'जिनमुनितनय' शब्द से नामक एक सुन्दर योगशास्त्र भी लिखा है।" समाप्त होता है । इसीलिए इसका यह नाम पड़ा। इसमें भट्टाकलंक का समय १६०४ ई० माना जाता है। ये नीति और धर्म की चर्चा है। संस्कृत और कन्नड़ के निष्णात पडित थे। दोनो ही चिदानन्द ने १६०० ई० मे 'मुनिवशाभ्युदय' की भाषाओं पर इनका पूर्ण अधिकार था। ये अपनी 'कर्णा- रचना सांगत्य छंद मे की। इसमे मुनियों तथा गुरुओं की टकशब्दानुशासन' के लिए प्रसिद्ध है। इन्होंने केवल ५६२ परम्परा वर्णित है । इसमें श्रुतकेवली भद्रवाह और मौर्य सूत्रों मे ही सारा व्याकरण लिख डाला है। विशेषता यह __ सम्राट चंद्रगुप्त की दक्षिण-यात्रा का काव्यमय वर्णन है। है कि इन्होंने कन्नड़ भाषा का व्याकरण संस्कृत में लिखा श्री ई० पी० राईस ने कन्नड़ साहित्य के अपने है। अपने व्याकरण पर इन्होंने 'भाषा मंजरी' नामक इतिहास में लिखा है कि लगभग १७०० ई. में 'चन्द्रवत्ति और 'मंजरीमकरट' नामक व्याख्या संस्कृत में प्रस्तुत शेखर' ने 'रामचन्द्रचरिते' का लेखन प्रारम्भ किया जिसे की है। 'पद्मनाभ' ने १७५० ई० में पूर्ण किया। सत्रहवी सदी में कन्नड़ जैन साहित्य में एक नवीन मैसूर नरेश सुम्मडि कृष्णराज के समकालीन 'देवप्रवृत्ति जगी। श्रवणवेलागोल की महामूति गोमटेश्वर चद्र' भी कन्नड़ साहित्य मे सम्माननीय हैं । उन्होने के १६१२ ई० मे हुए महामस्तकाभिषेक का काव्यमय- १८३० ई० मे मंसूर राजघराने की एक महिला के लिए वर्णन "पचवाण" ने १६१४ ई० मे "मजबलीचरिते" के 'राजावली कथे' की रचना की। इसमें उन्होने जैन दर्शन रूप में प्रस्तुत किया। और परपरा के विवेचन के साथ कुछ कवियो की जीवनी उपर्युक्त से सम्भवतः प्रेरणा पाकर १६४६ ई० में (शेष पृ० १४ पर) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञात जैन कवि हरिसिंह का काव्य -डा. गंगाराम गर्ग, भरतपुर दीवान जी मन्दिर भरतपुर के एक गुटके मे अचचित हरिसिंह की दूसरी रचना 'सम्यक्त पच्चीसी' सावन जैन कवि हरिसिंह की रचनाएं मिली हैं । कवि की एक सुदि ११ सवत् १७८३ को 'कवित्त', 'कुण्डलिया', 'दोहा' रचना 'ब्रह्म पच्चीसी' की प्रशस्ति के आधार पर इनका और 'चाल' छद मे लिखी गई । इस ग्रन्थ में उपदेशात्मक साधना स्थल देवगिरी (दौसा जिला जयपूर) तथा रचना शैली को प्रधानता हैकाल संवत् ७८३ के आस-पास का कवि के वशन मोह पिसाची ने छल्यो, आतमराम प्रयान । दौसा निवामी श्री मगनलाल छावडा ने महावीर जयन्ती सम्यक् दरसन जब भयो, तब प्रगट्यो सुभग्यान ॥१४ स्मारिका-६५ में प्रकाशित अपने एक लेख में हरिसिंह असुचि अपावनि देहमनि, ताके सुष हूं लीन । को जयपुर नरेश सवाई जयसिंह का सुयोग्य दीवान कहा भूलि चेतनकरी, रतनय निधि दीन ॥१५ बतलाया है। 'बोध पच्चीमी' की प्रशस्ति के अनुसार हरिसिंह की तीसरी रचना 'बोध पच्चीसी में दर्शन आमेर के राजा जयसिंह के सुयोग्य कर्मचारी 'नन सुख' का प्रभाव और धर्म की महिमा की चर्चा की गई हैसे कवि को आत्मीयता अवश्य प्रमाणित है, किन्तु निर्धारित धरम रमन सीला पुरुष, ताके करम विलाय । रूप में यह नहीं कहा जा सकता कि हरिसिंह सवाई जयसिंह जैसे उदय सूर के, तिमिर पटल मिटि जाय । के दीवान थे अथवा सामान्य कर्मचारी । दोसा कस्बे में छवि देखि भगवान की, मन मैं भयो करार। स्थित 'श्री पार्श्वनाथ जिनालय' में विद्यमान संगमरमर सुर नर फरणपति को विभो, दास सर्व अपार । के खम्भे पर अंकित लेख के अनुमार हरिसिंह के पांच 'सबी' देखि भगवान को, जो हिय मैं मानन्द । छोटे भाई थे-शकर, श्रीचंद, किशोर, नंदलाल, मनरूप भयो कहा महिमा कहूँ, तीन लोक सुख कन्द । और गोपाल । हरिसिंह के फुटकर गीत नेमिनाथ की बारात व हरिसिंह की तीन लघु रचनाए एवं विविध रागनियों वैराग्य तथा ऋषभदेव के जन्मोत्सव से सम्बन्धित हैं। में लिखिन ५. फुटकर पद तथा कुछ गीत प्राप्त हैं। हरिसिंह के प्राप्त ५० पद लगभग सारग, विलावल, हरिसिंह की एक रचना ब्रह्म पच्चीसी' आषाढ़ कृष्णा मलार आदि २२ रागो में लिखे हुए है। प्राप्त पदो मे ११ सवत् १७८३ को दोहा और छप्पय छंदों में लिखी अन्य तीर्थकरों की अयेक्षा ऋषभनाथ एवं नेमिनाथ जी की गई। प्रचारम्भ मे ऋषभदेव और शारदा की वन्दना है। भक्ति विद्यमान हैं । भक्ति के अतिरिक्त इन पदो मे प्रकृति चित्रण ओर नीति तत्व का पूर्ण अभाव है। रसना से ऋषभनाथ के वैभव के प्रति कवि श्रद्धावनत है : छत्र फिर चमर जुगल दिसि जाक, ढर छही पंड आंन, निरन्तर 'जिनवर' की रटन तथा हृदय में प्रभु-भूति के जाकी प्राग्या सब मानिबी। जिनवर, जिनवर, रसना हिय लागी रहत, अंतेवर छिन सहस्त्रतणां भोग रहै, तुहिं छांडि मेरे और न ध्यान । अष्ट सिद्धि नव निधि चहें सोई प्रानियो। निस वासुर चित्त चरण रहत है, चरन रहतमो जियम। इन प्रादि विभो विराग होय कीनों त्याग, सरण तिहारी पाय निहारी, मूरति रमि रही हिय मैं । एकाकी रहत मुनिवर पद टानिबौ। ऐसे हृदै बिराजो मो तन, राम रहै ज्यों सिय में। तात भवि सिव सुषदाई, ब्रह्म रूप लषौ प्रान, करुणासागर गुण रतनागर, दूरि करौ अधिकिय में। भव दुषकारा छाडो सब जांनिबो। 'हरी' परम सुख तुम ही यात पोरन सेऊ बिच मैं । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञात जैन कवि हरिसिंह का काव्य 'नाम स्मरण' सगुण और निर्गुण दोनों ही सम्प्रदाय किन्तु भावात्मक रहस्यवाद सभी जैन भक्त कवियों में के भक्तकवियो का उपासना-तत्व रहा है। जिनभक्त विद्यमान है। जीवात्मा का मूल सम्बन्ध सुमति से है, हरिसिंह श्रमणभक्ति परम्परा के अनुसार प्रभु-दर्शन के किन्तु वह 'कुमति' की बनावटी रूपसज्जा और हावभावों लिए तो लालायित हैं ही; अन्जना और श्रीपाल आदिः को देखकर उसके आकर्षण में फंस जाता है। इस परभक्तों के सम्बल प्रभुनाम का भी जाप करते हैं कीया प्रेम में उसे कोई सुख नही मिल पाता । जीवात्मा प्रभु मेरे बेगि दरसन देह। के परकीया-प्रेम से क्षुब्ध 'सुमत' अपने प्रिय को सन्मार्ग भये आतुरवंत भविकजन, ये प्ररज सुनि लेहु । पर लाने का प्रयत्न करती है। जंन भक्त कवियों ने इह संसार अनंत आतप, हरन को प्रभु मेह। जीवात्मा और सुमति मे 'पति' और 'पत्नी' के रूपकत्व प्रभु दरस तं परखि प्रातम, गये सिबपुर गेह । के नियोजन से मधुर और मर्यादित श्रृंगार की स्रोतनमि तुम जन अंजना से, किये सिव तिय नेह । स्विनी प्रवाहित कर अपने काव्य को बढ़ा सरस बना पातितदषि धीपाल उपरे, नाम के पर चेह। दिया हैइह प्रतीति विचारि मन धरि, कियो निश्चय येह । नैक करी न सम्हार हो प्रभु मेरे। सकल मंगल करन प्रभु जी, 'हरी जपत करेह। कुविजा कुमति लीये तुम ठगि के, मोह ठगोरी डार। ___ 'मन', 'वचन' और 'तन' तीनों का आराध्य में पूर्ण निज घर छाडि बसे पर घर मैं, तहां नहिं सखहि लगार। समर्पण हरिसिंह की भक्ति साधना का लक्ष्य रहा है। बुख देखत कुबिजा सग डोल, ताको वारन पार । उनका कहना है तुम तो खबरि लई नहि मेरी, मेरे को तुम तार । अब हूँ कब प्रभु पद परसौ। एक बेर भो सनमुख होगे, पति त्रिभुवन निरधार । नंन निहारि करों परनामे, मन बच करि हित सौ। निज घर माय प्रख सख विलस, निज पतनी कैलास । भव भव के प्रघ लागे तिनके, भूर उखारी जर सौं। 'हरीसिंह' भए एक परस्पर, वह सुख वच अविचार। सरण राखउ श्री जिन स्वामी, और न मांगों तुमसों। सभी जन भक्त कवियों के काव्य में न्यूनाधिक मात्रा यहै बीनती वास 'हरी' की कृपा करों यह मुझसों। में प्राप्त राजल-विरह की उक्तियां बड़ी मर्मस्पर्शी बन ___ कविवर बनारसीदास के आविर्भाव के साथ दिग० पड़ी है । राजुल विरह से सम्बन्धित हरिसिंह के कई जैन भक्ति में 'अध्यात्म साधना' प्रमुखता पा गई थी। पदों में से एक पद दृष्टव्य हैधानत राय, देवीदास, बुधजन, पार्श्वदास आदि सभी बदन नेम नौ दिखावो, जाकी हूँ बलिहारी। कवियों ने वाह्याचार और वेषभूषा से रहित इस आत्म और न मोहि सुहावरी माई, नैना नेम निहारी। चिन्तन की परम्परा को भी अपने काव्य में स्थान दिया सरण जाय करौ पिय भावरि, प्रघ प्राताप निवारी। था। शुद्धाचार सहित अन्तर्मुखी होकर 'सोऽहम्' की अनु भांजी बहन परोसन मइया, जिमा करौं अब सारी। भूति की ओर उन्मुख होने का निर्देश हरीसिंह ने भी दिया भई उदास जगत सो महया, जिमा करौं अब सारी। रे जिय सोहम् सोहं ध्याय । साहि सर्व मिलि सासा दीनी, गिर पर जाय विपारी। जा ध्याय बसुविध परिमाण, तत छिन मांहि नसाय । केस लौच सोमा तजि तन की, लीयो पाख प्रहारी। सोहं सोहं अजपा जपियं, तजि विकलप दुखदाइ । 'हरीसिंह' निजकीयो काजा, दोऊ भव सुखकारी। गहि संतोष परम रस पूरित, सुख मैं निज लो लाय। मध्यकाल में भक्त रचनाएं प्रस्तुत करने वाले अभ्य सोहं सोहं सोहं सोहं मंत्र अनादि बनाय । जन कवियों के समान हरिसिंह भी अपने उचित स्थान के सदा रहो हिरदै निज मेरे, 'हरी' प्रतुल सुख धाम । अधिकारी हैं। जिनालयों में स्थित वेस्टनो मे छिपे हुए धानतराय अथवा अन्य किसी जैन भक्त कवि में हरिसिंह जैसे अनेक कवियो को प्रकाश देने में जैन समाज साधनात्मक रहस्यवाद के दो-चार पद भले ही मिल जाय, को प्राथमिकता देनी चाहिए । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक चिन्तन: आ० अमृतचंद्र का २३वां कलश श्री एम० एल० जैन, नई दिल्ली समयसार पर आत्मख्याति टीका के अतिरिक्त ताकि तुम तुरन्त ही शरीर के साथ एकत्व मोह को छोड़ अमृतचन्द्र ने समयसार पर अपने काव्य कलश भी सजाए सको।" हैं। उनमें भव्य जीवों के अध्यात्म अभिषेक के लिए काव्य स्वय मरकर स्व-स्वरूप को पहचानने की यह कला का परमोदक भरा है। कसी और कैसे सम्भव है ? क्या शरीर से एकबार जुदा इन कलशों पर वीर सेवा मदिर की देखरेख में हुए हो जाने के पश्चात् आत्मा कुछ देख ब अनुभव कर सकता दो प्रकाशन है है और फिर वापस शव में प्रवेश कर अपने अनुभव का पहला, राजमल की ढूंढारी भाषा का महेन्द्रसेन जैनी लाभ उठा सकता है। द्वारा किया हुआ अाधुनिक भाषा रूपांतर जिसमें बनारसी शुभचन्द्र ने इस मुश्किल को पहचाना और परम दास द्वारा रचित पद्यानुवाद भी यथास्थान दिया गया अध्यात्म तरंगिणी मे कहा कि यह मरण "मायादि प्रकाहै । बनारसीदास की रचना समयसार नाटक नाम से रेण" हो सकता है किन्तु क्या नकली मौत से असली मौत का पता चल सकता यह शका बनी रहती है। प्रचलित है जिस पर राजमल पाडे की बालवोधिनी टीका जयचन्द्र ने समयसार की आत्मख्याति वचनिका में भी मिलती है जो दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट इसका अर्थ किया कि किसी भी प्रकार बड़ा कष्ट कर सोनगढ़ से छपी है। तथा मर कर भी शुद्ध जीव स्वरूप को जानने का उपाय दूसरा शुभचन्द्र की संस्कृत टीका ‘परमाध्यात्म कर । राजमल ने इसी अर्थ को अपनाया किन्तु "बड़ा तरंगिणी' जिसपर जयचंद को ढूंढारी भाषा की जो टीका कष्ट कर तथा" छोड़ दिया। है उसके हिन्दी अनुवाद के साथ । जयचन्द ने ही आत्म ख्याति की उक्त टीका में इसी ये ही कलश समयसार की आत्म ख्याति टीका की कलश के भावार्थ में कहा कि यदि आत्मा दो घड़ी भी तुंढारी वनिका मे भी जयचंद ने यथास्थान उद्धत किये पुदगल से भिन्न अपने स्वरूप को अनुभवे, उसमें लीन हैं। यह ग्रन्थ मुसहोलाल जैन चेरिटेबल, ट्रस्ट नई दिल्ली होकर परीषह के कारण डिगे नहीं तो केवलज्ञान ने प्रकाशित किया है। प्राप्त हो सकता है यह दृष्टव्य है कि इस भावार्थ मे इन कलशो में कलश स० २३ जीव अधिकार इस तथा तरंगिणी की भाषा टीका में जयचन्द ने स्वमरण प्रकार है की बात टाल ही दी और कहा कि शरीर मुर्दा है। हम अयि कथमपि मृत्वा तत्त्व कौतूहली सन् दूसरों के मुर्दे तो रोज देखते हैं किन्तु अपने मुर्दे को मुर्दे के अनुभव, भवमूर्ते पार्श्ववर्ती मुहर्तम रूप नहीं देखते। इससे समस्या हल होने के स्थान पर पृथगथ विलन्नं स्वं समालोका, येन और भी कठिन हो गई। त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्व मोहम् यदि "मत्वा" के स्थान पर कलश मे "मृत" ही होता उक्त कलश का सरल अर्थ है तो यह मर्थ संभव था कि कोई किसी प्रकार मरे, मर जाने "अरे, तत्त्व कौतूहली होकर, किसी भी प्रकार से पर केवल शव मात्र ही रह जाता है। यह बात किसी मर कर मुहूर्त भर के लिए शरीर का पाश्र्ववर्ती हो तब भी मुर्दे के पास मुहुर्त भर ठहरने से पता स्वं को अलग विलास करने वाला देखकर अनुभव कर परन्तु अमतचन्द्र ने ऐसा नहीं किया । "कथमपि मत्वा" Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० प्रमुचनाका २३ "अनुभव" ऐसा क्यों कहा यह जैन विद्वानों के विचार का विषय है । व्याख्या एक समुचित समाधान जो विज्ञान भैरव तंत्र की में तंत्रसूत्र भाग - २ पृष्ठ ६-६२ व १४६ पर दिया है उसके उद्धरण इस विषय में अवलोकनीय हैं"अगर तुम मृत्यु की सोच रहे हो - वह मृत्यु नही जो भविष्य में आयेगी-सी जमीन पर लेट जाओ, मृतवत् हो जाओ, शिथिल हो जाओ और भाव करो कि मैं मर रहा हूँ, कि मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं। यह सोचो ही नही, शरीर के एक-एक अग में, शरीर के एक-एक ततु मे इसे अनुभव करो मृत्यु को अपने भीतर सरकने दो । एक अत्यन्त सुन्दर ध्यान-विधि है । और जब तुम समझो कि शरीर मृत बोझ हो गया है और जब तुम अपना हाथ या सिर भी नहीं हिला सकते, जब लगे कि सब कुछ तय हो गया, तब एकाएक अपने शरीर को देखो तब मन वह नहीं होगा तब तुम देख सकते हो। तव सिर्फ तुम होगे, चेतना होगी । । । मृनवत् अपने शरीर को देखो। तुम्हें नहीं लगेगा कि यह तुम्हारा शरीर है बस एक शरीर है, कोई शरीर ऐसा लगेगा। तुम और तुम्हारे शरीर के बीच का अन्तराल साफ हो जाएगा—स्फटिक की तरह साफ । कोई सेतु नहीं बचेगा। शरीर मृत पड़ा होगा, और तुम साक्षी की तरह खड़े होगे। तुम शरीर मे नही होगे, नहीं होगे । ध्यान रहे, मन के कारण ही अहं भाव उठता है कि मैं शरीर हूं। यह भाव कि मैं शरीर हूँ मन के कारण है। अगर मन न हो, श्रनुपस्थित हो, तो तुम नहीं कहोगे कि मैं शरीर में हूं या शरीर के बाहर हूं। तुम महज होगे; भीतर और बाहर नही होंगे भीतर और बाहर सापेक्ष शब्द है जो मन से संबंधित हैं। तब तुम मात्र साक्षी रहोगे ।" १३ अगर तुम एक क्षण के लिए भी शरीर के बाहर हुए तो उस क्षण में मन नहीं रहेगा । यह अतिक्रमण है । अब तुम शरीर में वापस हो सकते हो, मन में भी वापस हो सकते हो; लेकिन अब तुम इस अनुभव को नही भूल सकोगे । यह अनुभव तुम्हारे अस्तित्व का भाग बन गया है; वह सदा तुम्हारे साथ रहेगा ।" "अंग्रेजी के शब्द "एक्सटेंसी" का यही अर्थ है बाहर बड़ा रहना। एक्सटेसी अर्थात बाहर बड़ा रहना । अग्रेजी मे एक्सर्टसी का प्रयोग समाधि के लिए होता है। और एक बार तुम समझ लो कि तुम शरीर के बाहर हो तो उस क्षण में मन नही रह जाता है। क्योंकि मन ही वह सेतु है जिससे यह भाव पैदा होता है कि मैं शरीर हूं । "आंखें बन्द करो, और अपने भीतरी अस्तित्व को विस्तार से देखो। इस दर्शन का पहला चरण, बाहरी चरण अपने शरीर अपने शरीर को भीतर से, अपने आंतरिक केन्द्र पर खड़े हो जानो और देखो। तब तुम शरीर से पृथक् हो जाओगे; क्योंकि दृष्टा कभी दृश्य नहीं होता है; निरीक्षक अपने विषय से भिन्न होता है । अगर तुम अन्दर से अपने शरीर को समग्रतः देख सको तो तुम कभी फिर इस भ्रम में नहीं पड़ोगे कि मैं शरीर हू। तब तुम सर्वथा पृथक् रहोगे तब तुम शरीर मे रहोगे, लेकिन शरीर नहीं रहोगे । यह पहला हिस्सा है । तब तुम गति कर सकते हो । तब तुम इति करने के लिए स्वतन्त्र हो शरीर से मुक्त होकर, तादात्म्य से मुक्त होकर तुम गति करने के लिए मुक्त हो । अब तुम अपने मन में, मन की गहराइयों में प्रवेश कर सकते हो अब तुम उन नौ पर्तों में, जो भीतर है और अचेतन है, प्रवेश कर सकते हो यह मन की अन्तरस्थ गुफा है । और अगर मन की गुफा में प्रवेश करते हो तो तुम मन से भी पृथक हो जाते हो। तब तुम देखोगे कि मन भी एक विषय है जिसे देखा जा सकता है, और वह जो मन में प्रवेश कर रहा है वह मन से पृथक और भिन्न है । "अन्तस्य प्राणी को विस्तार से देखो" का यही अर्थ है - मन में प्रवेश । शरीर और मन दोनों के भीतर जाना है और भीतर से उन्हें देखना है । तब तुम मात्र साक्षी हो । और इस साक्षी में प्रवेश नही हो सकता है। इसी से यह तुम्हारा अन्तरतम है; यही तुम हो। जिसमें प्रवेश किया जा सकता है, जिसे देखा जा सकता है, वह तुम नहीं हो। जब तुम वहां बा गए जिससे आगे नहीं जाया जा सकता, जिसमें प्रवेश नहीं किया जा सकता, जिसे देखा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, वर्ष ४३ कि० ४ नही जा सकता, तभी समझना चाहिये कि तुम अपने सच्चे स्व के पास अपनी आत्मा के पास पहुचे ।" अनेकान्त इस विवेचन से ऐसा लगता है कि अमृतचन्द्र ने भी जिस मरण प्रक्रिया की ओर संकेत किया है, वह भी एक प्रकार के विशिष्ट ध्यान की विधि है । न वास्तविक मरण से अभिप्राय है न झूठ-मूठ के मरण से । बनारसीदास ने इस कठिनाई को एक तरफ रखा और कवित्त लिखा- ( पृ० ६ का भी दी है । रत्नाकर के जीवन संबंधी तथ्य भी इसमे है । मंसूर के राजाओ की बंशावली भी देवचन्द्र ने दी है । इसका ऐतिहासिक महत्व है । देवचन्द्र की दूसरी रचना 'रामकथावतार' है । इसमे बनारसी कहै भैया भव्य सुनो मेरी सोख, कैहूं भांति कैसेंहूं के ऐसो काजु कीजिए । एक हू मुहूरत मिथ्यात को विघुंस होइ, ग्यान को जगाइ अंस, हस खोजि लीजिए । वाही को विचार वाको ध्यान यहै कौतूहल | यों ही भरि जनम परम रस पीजिए । तजि भव-वास को विलाप सविकार रूप, अंत करि मोह को अनन्त काल जीजिए । - आशा है विद्वज्जन अपना अभिमत स्पष्ट करेंगे । 2. Rice, E. P. Kanarese Literature, The Heritage of India Series, Associated Press, 5, Russell Street, Calcutta, London, Oxford University Press, Calcutta etc., Second edition recised and enlarged, 1921. ३. पं० के० भुजबली शास्त्री - कन्नड़ जैन साहित्य का शेषांष ) उन्होने अभिनव पप ( नागचन्द्र ) से कथा एवं भाव लिए हैं । यह रचना एक चपू काव्य है और सामान्यसार की है। बी १ / ३२४, जनकपुरी, नई दिल्ली-५८ सहायक पुस्तकों की सन्दर्भ-सूची १. मुगवि, रंग श्री - कन्नड़ साहित्य का इतिहास, अनुवादक - सिद्ध गोपाल, प्रकाशक, साहित्य अकादमी नई दिल्ली, प्रथम सकस्करण, १९७१ । इतिहास (खंड) जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ७, प्रकाशक- पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, २२१००५, सन् १९८१ ई० । ४. दक्षिणामूर्ति, एन० एस० कर्नाटक और उसका साहित्य प्रकाशक - मैसूर रियासत हिन्दी प्रचार समिति जयनगर, बेंगलूर- ११, सन् १९६४ ई० । ५. सिद्ध गोपाल - काव्यतीर्थ कन्नड़ बाहित्य का नवीन इतिहास, प्रकाशक, आशा प्रकाशन गृह, करोलबाग, नई दिल्ली-५, सन् १९६४ ई० । -जो कोई भी आएगा उन सभी को मैं दे दूंगा ऐसा उद्देश करके बनाया गया जो अन्न है वह उद्देश्य कहलाता है । जो भी पाखण्डी लोग आएँगे उन सभी को मैं भोजन कराऊँगा ऐसा उद्देश करके बनाया गया भोजन समुद्देश कहलाता है । जो कोई श्रमण अर्थात् आजीवक तापसी रक्तपट- परिव्राजक व छात्रजन आएँगे उन सभी को मैं आहार देऊँगा इस प्रकार से श्रमण के निमित्त बनाया हुआ अन्न आदेश कहलाता है । जो कोई भी निर्ग्रन्थ साधु बाएँगे उन सभी को मैं देऊँगा ऐसा मुनियों को उद्देश कर बनाया गया आहार समादेश कहलाता है । - मूलाचार, आचार वृत्ति ४२६ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहली किरण से प्रागे : संस्कृत जैन काव्यशास्त्री और उनके ग्रन्थ हेमचन्द्र - न केवल जैन काव्यशास्त्रियों अपितु भारतीय काव्यशास्त्रियों में हेमचन्द्र का नाम बड़े आदर और सन्मान के साथ लिया जाता है। बहुत विद्वान् ये और कनिकाल सर्वज्ञ सौभाग्य का विषय है कि हेमचन्द्र के सन्दर्भ मे पर्याप्त सामाग्री यंत्र बिखरी पड़ी है स्वयं उनके ग्रंथो में भी एतद्विषयक पर्याप्त जानकारी प्राप्त है । अन्तःसाक्ष्य के लिए प्रयाश्रप, धानुशासन, त्रिशष्ठिशलाका पुरुष चरित्र आदि महत्वपूर्ण मानदण्ड है। बाह्यसाक्ष्य के लिए शतार्थ काव्य कुमारपाल प्रतिबोध, मोहपराजय पुरातन प्रबन्ध संग्रह प्रभावकारित प्रबन्ध चिन्तामणि, प्रवन्धकोष कुमारपाल प्रवन्ध कुमारपाल चरित आदि महत्वपूर्ण काव्य उपलब्ध हैं । 1 , ן' इन्हीं के आधार पर श्री अलेग्जेण्डर कि लास फान्स ने ई० स० : ८७८ में रसमाला' तथा १८८६ मे बून्हर ने 'लाइफ आफ हेमचंद्र ग्रन्थ लिखा जिसका अनुवाद धी श्री कस्तूरमल वाठिया ने किया है। डा० वि० भा० मुमलगांवकर ने भी 'आचार्य हेमचन्द' नाम से एक सुन्दर कृति का प्रणयन किया है । मुनिजनविजय जी ने कुमारपाल विषयक ग्रन्थों का संकलन प्रकाशित किया है जिसमें इनके सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी मिलती है। सभी में कुछ भिन्नताओं के साथ लगभग समान ही जीवन चरित्र प्राप्त है, जो निम्न प्रकार है । हेमचन्द्र का जन्म अहमदाबाद से ६० मील दक्षिणपश्चिम मेधुका या धुन्धुक नगर मे कार्तिक पूर्णिमा को १०८० ई० को मोदवशी वंग्यकुल के चाचित, पाव के पर हुआ माता का नाम पाहिणी, पाहिनि या चाहिणी या कुलदेवी चामुण्डा और देव मोनस था। आरम्भिक नाम चांगदेव था। मां जैनधर्मावलम्बी पी तथा पिता । 0 डा० कपूरचन्द खतौली चांगदेव होनहार वालक था गुरु देवचन्द्र के घुन्धुका आने पर वे माता और मामा की आज्ञा से दीक्षार्थ ले गये । प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार वह देवचन्द्र की गद्दी पर बैठ गए तब देवचन्द्र माता की आज्ञा से उसे उदयन के पास छोड़ आये बाद में उदयन की चतुराई से पिता को भी अनुमति देनी पडी । चांगदेव अभी आठ वर्ष का थाबन्धकोश के अनुसार पांगदेव ने स्वयं दीक्षा ली। दीक्षोपरांत 'सोमचन्द्र' नाम रखा गया और शरीर से स्वर्ण सदृश तेजस्वी होने से वे हेमचन्द्र कहलाए । अल्पायु में ही शास्त्रीय और व्यावहारिक ज्ञान में पारंगत हो जाने के कारण २१ वर्ष की अवस्था में उन्हें नागपुर में सूरि पद प्राप्त हुआ । अपनी असाधारण प्रतिभा और चरित्रबल से ३६ वर्ष की अवस्था में वे सिद्धराज जयसिंह के सम्पर्क में आए और जयसिह प्रभावित होकर जैन धर्मानुरक्त हो गया । जयसिंह के बाद ११४२ ई० में कुमारपाल राजगद्दी पर बैठा। पहले जयसिंह कुमारपाल को मारना चाहता था । हेमचन्द्र ने उसे उपाश्रय में छिपाकर रक्षा की और कहा था कि तुम नार्गशीर्ष वदी १४ को राज्य पाओगे । कुमारपाल ने कहा मुझे नया यदि ऐसा हुआ तो राज्याधिकारी आप ही होंगे । हेमचन्द्र ने कहा- "हमे राज्य से क्या ? तुम जैन धर्म स्वीकार करना । यही भी वही तब कुछ समयोपरान्त हेमचन्द्र पाटन आए, उदयन से अपने स्मरण न करने की बात सुन उन्होंने कहा कि राजा से कहना आज रात नई रानी के महल में न जाय। रात को बिजली उसी महल पर गिरी। कुमारपाल ने उदयन से हेमचन्द्र द्वारा अपनी रक्षा सुनकर उनके चरणों मे पड़कर कहा- आपने दो बार मेरी जान बचाई अब यह राज्य सम्हालें । हेमचन्द्र ने कहा तुम जैनधर्म स्वीकार करो। कुमारपाल ने धीरे-धीरे ऐसा करने का वचन दिया। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वर्ष ४३, कि० ४ अनेकान्त अपने जीवनकाल मे हेमचन्द्र ने खूब लिखा । वे सर्व- मौलिक कहा है। डा० सुशील कुमार डे भी इसे सार धर्मसहिष्ण थे, सोमनाथ की यात्रा उन्होने को थी अन्त में संग्रह की भावना से प्रसूत मानते हैं। उन्होने हेमचंद्र और ११०२ ई० में उनकी ऐहिक लीला समाप्त हुई। वाग्भट के ग्रन्थों के समीक्षणोपरांत लिखा है - हेमचन्द्र ने व्याकरण, साहित्यकोष, दर्शन सभी "ऐसा प्रतीत होता है कि जैन अनुशासनो का उद्देश्य विषयों पर अपनी अनवरत लेखनी चलाई। उनकी (यद्यपि इनमे जनमत सम्बन्धी कोई भी बात नही है) प्रामाणिक रचनायें निम्न हैं-(१) त्रिषष्टिश्लाका पुरुष विषय का लोकप्रिय सारांश प्रस्तुत करना है। वे किसी चरित्र (२) द्वयाश्रयकाव्य (1) शब्दानुशासन (४) छन्द- विशेष सम्प्रदाय या पद्धति से सम्बन्धित नही हैं । बल्कि अनशासन (५) काव्यानुशासन (६) अभिधान चिन्तामणि उसमें सार-संग्रह की भावना से परम्परागत धारणाओ का (७) अनेकार्थ संग्रह (८) निघण्टु (९) देशोनाममाला अनुकरण किया है ? मुख्य सिद्धांत के प्रकाश मे वे (१०) प्रमाणमीमांसा (११) योगशास्त्र । इनके अतिरिक्त समीक्षात्मक रूप में क्रमबद्ध नही किये गये है।" अनेक स्तोत्र और फुटकर श्लोक हैं। __ तथापि हेमचन्द्र के महत्व को प्रतिपादित करना इस प्रकार छन्दानुशासन और काव्यानुशासन ये दो डा० मुसलगांवकार का कथन है-"हेमचंद्र के समक्ष उनकी काम्यशास्त्रीय कृतियां हैं। छन्दोऽनुशासन का सभी स्तर के पाठक थे अतः उन्होने सूत्र, चुडामणि और प्रकाशन पूना से हुआ है। इसमें संस्कृत, प्राकृत और विवेक वृत्ति लिखी-- मम्मट का काव्य-प्रकाश तो अपभ्रन्श के छन्दों का निरूपण है। छन्दों के उदाहरण क्लिष्ट है, साधारण पाठकों से वह सूगम नहीं, और स्वयं हेमचंद्र विरचित हैं। संस्कृत के काव्य के अतिरिक्त अन्य साहित्य विद्याओ का काव्यानुशासन के तीन भाग हैं। मूलसूत्र अलंकार अध्ययन करने के लिए पाठकों को दूसरे ग्रथ भी देखने चडामणि व्याख्या मोर विवेकवत्ति । तीनों स्वय हेमचंद्र पडते है । हेमचन्द्र का काव्यान शासन इस अर्थ मे परिपूर्ण विरचित हैं । कुल आठ अध्याय हैं जिनमें क्रमश: २५, ग्रन्थ है।" ५६, १०,६, ६, ३२, ५२ तथा १३ सूत्र हैं। व्याख्या अरिसिंह व अमरचन्द : तथा टीका में ५० कवियो तथा ८१ ग्रथो का नामोल्लेख उक्त लेखकद्वय विरचित 'काव्यकल्पलता' (कविहुआ है।' अध्यायानुसार विषय-विवेचन निम्न है। शिक्षा) महत्वपूर्ण काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ है। प्रबधकोष के प्रथम-काव्य-प्रयोजन, हेतु, लक्षण, गुण, दोष एव अनुसार अरिसिंह जिनदत्त सूरि के शिष्य थे, और इन्होंने अलकार-लक्षण, शब्दार्थ स्वरूप मुख्यार्थ, लक्ष्यार्थ, अमरचन्द वो सिद्ध सारस्वत मत्र दिया था।" अरिसिंह ध्यग्यार्थ का निरूपण । द्वितीय-रसो के लक्षण, भेद, आजन्म गृहस्थ रहे जबकि अमरचन्द मुनि । अरिसिंह स्थायी भाव, सात्विक भाव, रसाभास । तृतीय-काव्य- वस्तुपाल के प्रिय कवि थे। इनकी एक अन्य कृति सुकृतदोष, रस-पद-वाक्य, पदवाक्य और अर्थदोष विवेचन । संकीर्तन है, जिसमें ११ सर्ग हैं। इसका रचनाकाल चतुर्थ-तीनगुण । पचम-छह शब्दालकार । षष्ठ-२६ १२२२ ई. है । अतः अरिसिंह को १३वी शती के पूर्वार्ध पर्यालंकार । सप्तम-नायक-नायिका-गुण । अष्टम में में मानना चाहिए । अमरचन्द्र अरिसिंह के शिष्य और काव्यभेदों का विवेचन है। अणदिल पत्तन के समीप बायर के निवासी थे। प्रबन्धहेमचन्द्र ने प्रायः सभी काव्यांगों का विवेचन किया कोष मे उन्हें 'प्रज्ञालचड़ामणि' कहा गया है। इनकी है तथापि उस ग्रन्थ को मौलिक होने का श्रेय नही दिया अन्य उपाधि 'वेणीकृपाणामए थी' इनका समय भी १३वी जाता । इसे एक सुन्दर संग्रह-ग्रन्थ कहा जा सकता है। शती है । अमरचंद्र की अन्य कृतियाँ हैं-(१) चविंशति यद्यपि यह कम विवाद का विषय नही है। डा०पी०वी० जिनेन्द्र संक्षिप्त चरितानि (२) स्यादि शब्द समय काणे ने इसे संग्रहात्मक कहा है। श्री त्रिलोकीनाथ झा (३) काव्य कल्पलता परिमल (उक्त अय की टीका) (४) का भी यही मत है। श्री विष्णुपाद भट्टाचार्य ने इसे काव्यकाव्यलतामंजरी (५) काव्यकल्पाप (६) छन्दो Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत जैन काव्यशास्त्री और उनके ग्रन्थ रत्नावली ( इसकी प्रति उपाध्याय मंगलविजय के पास विजयलक्ष्मी ज्ञानमन्दिर, आगरा में है) (स० का० केवि० में जै०क० का पो०- शास्त्री २५३) (७) अलंकार प्रबोध और (८) सूक्ति रत्नावली । काव्य कल्पलता का अपरनाम कविशिक्षा या कविता रहस्य भी है। ग्रन्थ चार प्रतानों में विभक्त है और प्रत्येक प्रतान में अनेक अध्याय हैं। प्रथम प्रतान में छन्दसिद्धि की विवेचना, द्वितीय में शब्दसिद्धि तृतीय में श्लेषसिद्धि और चतुर्थ में अर्थसिद्धि का विवेचन है। डा० डे इसे कविशिक्षाविषयक ग्रंथ मानते हैं।" देवेश्वर : देवेश्वर या देवेन्द्रकृत 'कविकल्पलता' काव्यकल्पलता को ही आधार बनाकर लिखी गई है। देवेश्वर के पिता का नाम वाग्भट था, जो मालव नरेश के महामात्य थे ।' देवेन्द्र स्वयं स्वीकार करते है कि उन्होंने 'काव्यकल्पलता' को आधार बनाया अतः उनका समय १४वीं शती असमीचीन यही होगा । डा० एस० के० डे० ने ठीक ही लिखा है – 'कविकल्पलता सोधे काव्यकल्पलता के आधार पर लिखी गई है, जिसमे वडे-बड़े उद्धरणो की चोरी की गई है।" अतः इसके पृथक् विवेचन की आवश्यकता नहीं इस पर देवेश्वर, बेचाराम सार्वभौम, रामगोपाल कविरत्न, सूर्यकवि और एक विवेक नामक टीकायें उपध है " रामचन्द्र - गुणचन्द्र : उक्त लेखकद्वय विरचित नाट्यदर्पण भारतीय नाट्प परम्परा का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इनके जन्म स्थानादि के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नही होती पर डा० गुलाबचन्द्र चौधरी ने डा० लालचंद्र गांधी के मतानुसार उनका जन्म १०८८ ई०, ११०४ मे सूरिपद ११७१ में हेमचंद्र का पट्ट और ११७३ ई० में उनकी मृत्यु बताई है।" डा० रामजी उपाध्याय भी इनका यही समय मानते है।" अति काव्यतंत्र, विशीर्ण काव्यनिर्माणतस्य और प्रबन्धशतकर्म उनकी उपाधिया थी । रामचन्द्र नाटककारों में भी अग्रगण्य है उनके – सत्य हरिश्चन्द्र नलविलास, रघुविलास, निर्भय भीमव्यायोग, मल्लिकामकरन्द, कौमुदी मित्रानन्द नाटक प्राप्त हैं, तथा रोहिणीमृगा, रामय १७ अभ्युदय यादवाभ्युदय, वनमाला आदि के नामोल्लेख मिलते हैं।" नाट्यदर्पण मे रामचन्द्र ने गुणचन्द्र को सहभागी बनाया । गुणचन्द्र रामचन्द्र के महाध्यायी और गुरुभाई थे। इसके अतिरिक्त उनका परिचय या कृतियां प्राप्त नहीं होती। प्रबन्धकोष में रामचन्द्र गुणचंद्र को साथी बताया गया है यही यह भी बताया गया है कि हेमचंद्र ने जब बालचंद्र को अपना पट्ट न देकर रामचंद्र को दिया तो बालचंद्र अजयपाल से मिना अजयपाल ने विष देकर कुमारपाल को मार डाला और राजा बन गया तब उसने रामचंद्र आदि को तप्त लोसन पर बिठाकर मार डाला, विहारी को गिरा दिया । " नाट्यदर्पण नामानुरूप नाट्यतत्वों का निदर्शक है । लेखक ने स्वयं विवरण नाम की टीका इस पर लिखी है आरम्भ मे जिनको नमस्कार किया गया है । ग्रन्थ चार भागों में विभक्त है, जिन्हें विवेक नाम दिया गया है। प्रथम विवेक में रूपको की सख्या १२ बताई गई है और उनमे से नाटक का विवेचन किया गया है। नाटक के १२ भेद धार्मिक पृष्ठभूमि पर आधारित है। द्वादशांग वाली के आधार पर ही १२ भेद माने गए है ।" उसका विवेक का नाम 'नाटक निर्णय विवेक' है । द्वितीय विवेक प्रकरणाचे कामरूपनिर्णय' में नामानुरूप ११ रूपकों का वर्णन है। नाट्यदर्पण में नाटिका एव प्रकरणी की रचना रूपक माना गया है। तृतीय विवेक का नाम 'वृत्तिभावाभिनय विचार देते हुए इसमें वृत्तियों का नाम 'सर्वरूपकसाधारणलक्षणनिर्णय' देते हुए सभी हरकों के लिए उपयोगी नाट्य सत्य का विवेचन है । अजितसेन : आचार्य अजितसेन की 'अलंकार चिन्तामणि' और 'शृगारमजरी' ये दो कृतियां प्राप्त होती है। अलकार चिन्तामणि में अदास कृत मुनिसुव्रत काव्य के १/३४, २/३१, २/३२, २३३ श्लोक उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किए गए है, अतः यह स्पष्ट है कि वे अहंदास के पश्चादवर्ती हैं। अद्दास ने आशाधर के नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया है। यह विवादास्पद है कि अर्हदास Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८, वर्ष ४३; कि०४ अनेकान्त आशाधर के साक्षात शिष्य थे या परम्परया पर वे आशा- पुत्र और रामनाम से विख्यात सोमवंशी जैन नरेश घर के पश्चातवर्ती हैं, यह निश्चय है। प्राशाधर ने नाभिराय के पढ़ने के लिए की थी। अपनी अन्तिम कति 'अनगार-धर्मामत-टीका' वि०सं० अ.चि. में पांच परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद के १३०० (१२४३ ई.) में पूर्ण की थी। इस प्रकार १०६ श्लोकों में कविशिक्षा पर प्रकाश डाला गया है प्राशाधर का समय तेरहवी का पूर्वार्ध और अर्हद्दास का द्वितीय मे शब्दालंकार के चित्र, वक्रोक्ति अनुप्रास और १३वी का उत्तरार्ध तगा इसी आधार पर अजितसेन का यमक के चार भेद बताकर चित्रालकार का विस्तार से समय अर्हहास के बाद चौदहवी शती का प्रथम चरण विवेचन है । तृतीय में पुनः वक्रोक्ति आदि का सभेद मानना चाहिए। निरूपण, चतुर्थ मे ७० अर्थालंकारों, पचम मे नव रसों जैन परम्परा में अजित सेन नाम के अनेक आचार्य रीतियों, शब्द-स्वरूप-भेद और शक्तियों के गुण-दोषो हुए हैं, पर अ०चि० के कर्ता दिगम्बराचार्य थे, उनकी और अन्त मे नायक-नायिका भेदों का बड़े विस्तार से गुरु परम्परा आदि के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं निरूपित किया गया है। अनेक मौलिकताओं के कारण मिलता, तथापि आधुनिक शोध मर्मज्ञों के कथन ध्यातव्य यह ग्रन्थ अलकार विषयक ग्रन्थो मे महत्त्वपूर्ण स्थान है। डा. ज्योतिप्रसाद जैन ने लिखा है कि--'अजिरसेन रखता है। यतीश्वर दक्षिण देशान्तर्गत तुलूव प्रदेश के निवासी सेनगण पीगरिगच्छ के मुनि सम्भवतया पावसेन (ज्ञाततिथि विजयवणा: १२७१ ई.) के गुरु, महामेन के सधर्मा या गुरु थे।" विजयवर्णी की 'शृगारार्णव चद्रिका' काव्यशास्त्र डा. नेमिचन्द शास्त्री ने भी उनके सेन सध के आचार्य विषयक महत्वपूर्ण रचना है। इनके व्यक्तिगत जीवन के होने की पुष्टि की है ।" उनवा इम मान्यता का हेत सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। प्रशस्ति से 'भंगारमञ्जरी' का अन्तिम भाग है।"डा. शास्त्री अ.च. पता चलता है कि ये मुनीन्द्र विजयकोति के शिष्य थे। का रचना काल १२५०-१२६० ई० मानते हैं, जो उचित उन्होंने राजा कामराय की प्रशसा की है तथा कर्णाटक प्रतीत नहीं होता । डा. ज्योति प्रसाद जैन १२४०-१२७०।। के गूणवर्मन आदि कवियों का उल्लेख किया है। जिससे ई० मानते है जो मान्य प्रतीत नहीं होता। दोनों विद्वानों पता चलता है कि सम्भवतः ये कर्णाटकवासी रहे होगे। ने अपने तर्क की पुष्टि मे अहंदास को आशाधर का डा० शास्त्री ने लिखा है-११५७ ई० में बंगवाडी साक्षात् शिष्य मानकर मुनिसुव्रत काव्य का काल १२४०, पर वीरनरसिंह शासन करता था उसका एक भाई १२५० ई० माना है और अहंदास के प्रशस्ति-पद्यों को पाठ्य राज था। नरसिंह का पुत्र चन्द्रशेखर १२०८ ई० उद्धत किया है। पर इनसे अहंदास के आशाधर के सम- में पाठ्यराज १२२४ ई० में और उनकी बहन विटलाम्बा कालीन होने की सिद्धि नहीं होती। उन्हें उनके परवर्ती या विट्ठन देवी १२३६ मे राज्यासीन हुई। विलादेवी ही मानना चाहिए । डा. हरनाथ द्विवेदी का भी यही मत का पुत्र कामराय था, जो १२६४ ई० में राज्यासीन हआ। है। हमारी विनम्र सम्मति में अहंदास का समय १२५० विजयवर्णी के कामराय का समकालीन होने से इनका १२६०ई० मानकर अ. चि. का काल कम से कम समय १३वीं शती का अन्तिम चरण मानना चाहिए। १३०० ई. के आसपास मानना चाहिए। उक्त ग्रन्थ के अतिरिक्त उनकी अन्य कोई रचना अजित सेन की अचि. और शृम. दो रचनायें प्राप्त प्राप्त नहीं होती। यह परम्परा प्राप्त विषयों का विवेचन हैं। शृ.म में तीन परिच्छेद हैं । कुछ भण्डारो की सूचियों करती है । जगह-जगह यति भंग है। इस दस परिछेद में यह रायभूप की कृति के रूप मे उल्लिखित है। किन्तु है। विषय-वस्तु निम्नवत् है। वर्गगण फलनिर्णय काव्यग्रन्थ प्रशस्ति से यह स्पष्ट है कि इसके रचयिता आचार्य गत शब्दार्थनिश्चय, रसभावनिश्चय, नायकभेदनिश्चय, अजितसेन है। उन्होने शीलविभूषणा रानी विट्ठलदेवी के दशगुणनिश्चय, रीतिनिश्चय, वृत्तिनिश्चय, शय्यापक Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत जैन काव्यशास्त्री और उनके ग्रन्थ निश्चय, अलंकार निर्णय एवं दोष-गुण निर्णय । इसका होती हैं । काव्यमंडन के अन्त में दी गई प्रशस्ति के अनअपरनाम 'अलंकार संग्रह' भी है। सार यह श्रीमाल वंश के झाझरण सघवी के द्वितीय पुत्र विनयचन्द्रसूरिः बाहण के छोटे पुत्र थे तथा माण्डवगढ़ के राजा होशगशाह इनका 'काव्यशिक्षा' ग्रन्थ उपलब्ध है। इसके अति- के मंत्री थे। राजा भी साहित्य प्रेमी था। उनका समय रिक्त पावनायचरित, मल्लिनाथचरित, मुनिसुव्रतस्वामी काणे महोदय ने १५वीं शती स्वीकार किया है। उक्त चरित. कल्पनिरुक्त. कलिकाचार्यकथा तथा दीपावलीकल्प ग्रन्थों में काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों का सुन्दर विवेचना रचनाएं उपलब्ध होती हैं। रचनाओं के आधार पर पासून्दर : इनका साहित्यिककाल १२२६-८८ ई. स्वीकार किया पद्मसुन्दर 'अकबरसाहिबश्रृंगार दर्पण' की रचना गया है। काव्यशिक्षा मे कविशिक्षाओं का वर्णन है। मुगल सम्राट अकबर को सम्बोधित करते हुए की है। नरेन्द्रप्रभसूरि : इसमें चार उल्लास है और रुद्रकृत शृगारतिलक का अनुनरेन्द्रप्रभसूरि वस्तुपाल के समय के विद्वान् थे । गुरु सरण किया गया है । अकबर के साथ ही इनका समय का नाम नरचन्द्र सूरि था, जिनकी आज्ञा से इन्होने १५५६-१६०५ के मध्य मानना चाहिए। पदमसुन्दर की अलंकार महोदधि की टीका और वृत्ति की रचना १२२५ अन्य रचनाएं है, भविष्यदत्त चरित्र, रायमल्लास्यवय. ई० मे की थी। इनकी अन्य रचनायें 'काकुत्स्थ कलिनाटक' पावनायकाव्य, प्रमाण सुन्दर, सुन्दरप्रकाश, शब्दार्णव, तथा 'वस्तुपाल प्रशस्ति' हैं । वस्तुपाल के साथ ये शत्रुञ्जय शृगारदर्पण, जम्बूचरित, हायनसुन्दर आदि । यात्रा पर गये थे और ३७० पद्यो की प्रशस्ति यात्रा के राजमल्ल : प्रारम्भ तथा अवसान पर लिखी थी। राजमल्ल कृत 'पिङ्गनशास्त्र' छन्दसम्बन्धी रचना माणिक्यचन्द्र: है। राजमल्ल की अन्य कृतियां लाटीसंहिता, जम्बूस्वामीमाणिक्यचन्द्र मम्मट के काव्यप्रकाश के टोकाकार चरित, अध्यात्मकमलमार्तण्ड, पंचाध्यायी हैं। इनका इनकी 'पार्श्वनाथचरित' और 'शान्तिनाथचरित' ये दो रचनाकाल १६०० ई. के आसपास है. अतः जम्बूस्वामी कृतियां और प्राप्त है। ये राजगच्छोय थे। इस गच्छ मे चरित में उल्लेख हैं कि इस ग्रन्थ की रचना आगरा में भरतेश्वर सूरि-वीरस्वामी-निचन्द्रसूरि-सागरचद्र श्री टोडर के आग्रह पर हुई ये टोडर सभवतः अकबर के -माणिक्यचद्र सूरि हए ।ये महामात्य वस्तुपाल के राजस्वमत्री ५ । लाटोसहिता की समाप्ति १५८४ ई. में समकालीन थे। इनका समय १२१० ई० के आसपास हुई थीहै। मुनि जिनविजय ने यही समय माना है। 'श्रीनपतिविक्रमादित्य राज्ये परिणतेसीत । सकेत टीका कदाचित काव्यप्रकाश की प्रथम व्याख्या सहैकचत्वारिंशदरब्दानां शतषोडश।। है । प्रकाशन अनेक स्थानों से हुआ है, पर श्री रसिकलाल -लाहीसंहिता २ ढो० परीख ने राजस्थान प्राच्यविद्या मन्दिर से प्रकाशित पिंगल शास्त्र की रचना भूपाल भारमल्ल के निमित्त काव्यप्रकाश के द्वितीय भाग में सम्भवतः प्रथम बार से नागौर मे हुई । डा. शास्त्री का अनुमान है कि राजआलोचनात्मक और तुलनात्मक विवेचन किया है। मल्ल आगरा से नागौर चले गए थे, मत-भूपाल भारमल्ल महाकविमण्डन : वही के रहने वाले थे। इसमे छन्दों के लक्षण और उदा'अलंकारमण्डन' और 'कविकल्पद्रम' मण्डन की इन हरण प्रस्तुत किए गए है। दो रचनाओ के अतिरिक्त कादम्बरीमंडन, चम्पूमडन, इनके अतिरिक्त अन्य कवि हैंचद्रविजयप्रबन्ध, काव्यमंडन, शृंगारमंडन, संगीतमडन, समयसुन्दरमणि (१५८६-६० ई०) अष्टलक्षार्थी या उपसर्गमडन. सारस्वत मंडन ये रचनायें और उपलब्ध अर्थमावली। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०,वर्ष ४३, कि०४ अनेकास नरसिंहमूरि-रसनिरूपण। अनेक विद्वानों ने लोकप्रिय ग्रन्थों की टोकायें लिखीं धर्मसरि-(१६वी ई०) साहित्य रत्नाकर, १० तरगो मे जिनमें काव्यप्रकाश, काव्यालंकार मादि पर टीकाये बहदो टीकायें इस पर प्राप्त है जिनके लेखक क्रमशः तायत से मिलती हैं। इनके लेखको ने इनमे जैनत्व का मल्लादिलक्ष्मणसूरि और वेंकट सूरि हैं। ___ कोई दृष्टिकोण नहीं अपनाया जो इनकी महानता, उपर्युक्त अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है धर्मनिरपेक्षता और विद्वता का परिचायक है। आवश्यकता कि यद्यपि सख्या की दृष्टि से अल्प ही काव्यशास्त्रीय है सभी ग्रन्यो पर आलोचनात्मक और शोधपरक दृष्टि कतियों का प्रणयन हुआ, पर गुणवत्ता की दृष्टि से वे पीछे से अध्ययन की। शोधाथी और विद्वद्वन्द इस दिशा में नहीं है। इनके अतिरिक्त १५-१६वी शती में अधिकांश अग्रेसर होगे, ऐसी माशा है। सन्दर्भ सूची १. आचार्य हेमचन्द्र : डा. वि. भा. मुसलगांवकर १३. वही, पृष्ठ ६१॥ म. प. हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल १९७१, १४. सस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास : पटना, १० २६३ भाग-२। २. हेमचन्द्राचार्य जीवतचरित: वाठिया. चौखम्बा, १५. वही, पृ० २६५ (भाग-२)। विद्याभवन, वाराणसी १६६७ । १६. सं० का० का इति० : काणे, पृ० ४६८. ३. कुमारपाल चरित्र सग्रह : सपा० जिनविजयमुनि सिंघी १७. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास : भाम छः, पार्श्वनाथ जैन ग्रन्थमाला, बम्बई १९५६ । विद्याश्रम, शोध संस्थान, वाराणसी, पृ० ५७४ । ४. हेमचन्द, पृ० २०२ १८. मध्यकालीन सस्कृत नाटक : डा० रामजी उपाध्याय, ५. वही पृ०४३ पृ० १५७। ६. वही, पृ० १०४ १९. उनके विस्तृत परिचय के लिए देखें मेरा-'सस्कृत ७. सस्कन काव्यशास्त्र का इतिहास : अनु० इलबचन्द्र जैन नाटक और नाटककार' शीर्षक लेख, परिषद् शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, पृष्ठ पत्रिका २२/२ । २५६। २०. प्रबन्धकोष, पृष्ठ ६८। ८-६. वही पादटिप्पण, पृष्ठ २५६ २१. नाट्यदर्पण : प्रका० साहित्य भंडार मेरठ, भूमिका १०. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास : अनु० मायाराम पृ० ११ । शर्मा, बिहार, हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पटना, १६७३, २२. जैन सन्देश-शोधांक, मथुरा, १८ दि. १६५८ ई० । भाग-दो, पृष्ठ-२२१। २३. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, ११. प्राचार्य हेमचन्द्र , पृष्ठ-११७ । ____सागर, भाग ४, पृ० ३१ । १२. प्रबन्धकोष : सम्पा० जिन विजय सिंधी, जैन विद्या २४. "श्री सेन गणाग्रगण्य तपोलक्ष्मीविराजित सेनदेव पीठ १९३५, पृष्ठ-६१ यतीश्वर विरचितः" वही १०-३० । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महेबा का जैन मन्दिर D नरेश कुमार पाठक मध्य प्रदेश के छतरपुर जिला की बोगांव तहसील में पाषाण पर निर्मित प्रतिमा का आकार २४x७४५ छतरपुर नौगांव मार्ग पर १६वें कि०मी० पर मऊ सहा- सेंमी. है। नियो गाँव है। यहा से ५ कि. मी. पर महेबा गाँव है। सुपार्श्वनाथ मंदिर के प्रदक्षिणा पथ में रखी सातवें इस गांव को बुन्देलखण्ड केशरी महाराजा छत्रशाल ने सुपार्श्वनाथ पांच सर्प फण नाग मोलि धारण किये हैं। १७वी, १८वी शताब्दी में बसाया था। गांव के अन्दर इस प्रतिमा पर संवत् ११४१ (ईस्वी सन् १०८४) अकित इसी कालखण्ड का जैन मदिर स्थित है। है। प्रतिमा का आकार २६४७४७ सेंमी. है। मदिर बुन्देला स्थापत्य कला का बना हुआ है। चन्द्रप्रभ-मदिर के गर्भगृह मे रखो आठवे तीर्थकर मदिर के गर्भगह के अन्दर संगमरमर की निमिन दो चन्द्रप्रभ पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा मे बैठे हुए हैं। पादचावरधारी प्रतिमा एक १८x१६४६ सें०मी० प्राकार पीठ पर उनका ध्वज लाछन चंद्र का अंकन है एवं संवत् की पीतल की अभिलिखित प्रतिमा रखी है। इसमे अभि- १८८३ (ईस्वी सन् १८२६) अभिलेखित है। प्रतिमा का लेखित पाषाण की पार्श्वनाथ एव चन्द्रप्रभ की प्रतिमा आकार ५०x४०४१८ सेमी है। रखी हुई है। प्रदक्षिणापथ में तीर्थकर वादिनाथ, अजित पाश्वनाथ-इस मदिर से तेइसवें तीर्थंकर की दो नाथ, सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ एवं लाछन विहीन तीर्थकर . प्रतिमा रखी है। प्रथम मंदिर के प्रदक्षिणा पथ में रखी की प्रतिमा रखी है। यहाँ को कुछ प्रतिमाओ पर प्राम पार्श्वनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा मे अकित है । सिर महेवा, रियासत चरखारी का उल्लेख भी मिलता है । के ऊपर सप्तफणों से युक्त नाग मौलि का अकन है। परियहां पर दो मेरू शिखर मीनारनमा निर्मित किए गए हैं। कर मे भक्त परिचारक, दो कायोत्सर्ग एवं दो पद्मासन में जिसके प्रथम स्तर में चारों तरफ हाथी के मुख बनाकर जिन प्रतिमा अकित है। मूर्ति का आकार १६४७४३ होदा को बनाया गया है। हाथी की गर्दन के पास जैन से०मी० है। तीर्थंकर पद्मासन में बैठे हुए हैं । इसके ऊपर स्तम्भ के दूसरी मदिर गर्भगृह से पाश्र्वनाथ की प्रतिमा के सिर चार भाग किए है । प्रत्येक दिशा में एक-एक तीर्थकर है। के ऊपर सप्तफण नाग मौलि है। प्रतिमा पर सवत् इस प्रकार कुल १६+४२० तीर्थ करों का अंकन है। १८४२ (ईस्वी सन् १७८५) उत्कीर्ण है। संगमरमर शिखर पर उल्टा कमल, कलश, पुष्प आदि का निर्माण पत्थर पर निमित प्रतिमा का आकार ५०-३०-१६ किया गया है। मदिर से प्राप्त जन प्रतिमाओं का विव- से०मी० है । रण इस प्रकार है : ___लांछन विहीन तीर्गकर-मदिर के प्रदक्षिणा पथ से प्रादिनाथ-मंदिर के प्रदक्षिणा पथ मे प्रथम तीर्थकर दो प्रतिमा प्राप्त हुई है। प्रथम कायोत्सर्ग मुद्रा मे अकित जिन्हें ऋषभनाथ भी कहते है। कायोत्सर्ग मुद्रा में शिला लांछन विहीन तीर्थंकर के दोनों ओर चावरधारी, विताब पष्ट्रिका पर खड़े है, तीर्थकर के परिवार में दो कायोत्सर्ग मे दुन्दभिक, अभिषेक करते हुए गजराज का अकन है। एवं ६ पद्मासन में जिन प्रतिमा अकित है। मूर्ति का परिकर में दोनो पोर दो-दो कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन आकार १६४११४५ सें.मी. है। प्रतिमा अंकित है। प्रतिमा का आकार २२४१२४६ अजितनाथ-मंदिर के प्रदक्षिणापथ में द्वितीय सेमी. है। तीर्थकर अजितनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित दूसरी कष्ण पाषाण पर निमिन लांछन विहीन है। दोनों पार्श्व में त्रिभग मुद्रा में एक-एक चावरधारी तीर्थकर पपासन को ध्यानस्थ मुद्रा मे निर्मित है। इस एवं नीचे एक-एक भक्त बैठा हा है। पादपीठ पर प्रतिमा पर संभवतः सवत् १०२५(ईस्वी सन् ६६८) तिथि प्रजितनाय का ध्वज लांछन गज (हाथी) अकित है। कृष्ण अकित है। प्रतिमा का आकार १८x१०४५ से.मी. है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देशिक आहार 0 श्री बाबूलाल जैन अभी तक समाज में यही मान्यता है कि मुनि के रागरहित योगी उसके लिए दूसरे के द्वारा किए, अथवा पात्र के उद्देस से अगर आहार बनाया जावेगा तो कराये तथा अनुमोदि हुए आहारादिको से कदाचित बध जो पात्र आहार लेगा वह उद्दिष्ट आहार ग्रहण के दोष को प्राप्त नहीं होता। का भागी होगा अतः गृहस्य अपने लिए आहार बनावे णवकोटि कम्म सुद्धो पच्छा पुवो य सपदिय काले। और उसी में से पात्र को आहार दान देवे । दूसरी तरफ पर मुह दुःख निमित्त वज्झदि जदि पत्थि णिवाण । गृहस्थ कहना है कि जब हम गर्म पानी नहीं पीते, बिना तीन काल में नव कोटि शुद्ध भोजन को जो मुनि नमक का भोजन नही करते और शुद्ध भोजन नहीं करते लेता है सो पीछे, पहले व वर्तमान में नव कोटि शुद्ध है तब जो कुछ भी बनाया जाता है वह मुनि अथवा पात्र के और यदि वह दूसरों के सुख व दुख का निमित्त हो और विए ही बनाया जाता है उसे हालत मे उद्दिष्ट भोजन का इस निमिन होने के कारण वह शुद्ध भोजी कर्म बध को ग्रहण साधु के होगा ही। बहुत बार इस बारे में चर्चा भी प्राप्त करे तो उसको निर्वाण का लाभ नही हो सकता। हुई परन्तु समाधान नहीं निकला। इस लेख को इसी समयसार का गाथा २६८-२६६ की जयसेनाचार्य विषय पर विचार करने के लिए लिखा जा रहा है। की टीका का भावार्थ यह भी आचार्यों ने लिखा है कि गहस्थ अपने लिए "कोई दातार पत्र को दान देने के लिए ऐसी कल्पना आहार नही बनाता वह तो पात्र दान के लिए ये ही करे कि मै पात्र के लिए अमुक-अमुक भोजन बनाऊ तो र पात्रदान के लायक बनाता है और पात्र को देने के उस नोजन को ओह शक आधा कर्म कहते हैं । इस आधा बाद जो बच जाता है उसमे वह और उतके आश्रित लोग कर्म के होते हुए भी मुनि शांत भाव से उस भोजन को खाकर सतुष्ट हो जाते है । क्योकि गृहस्थ पात्र के लिए कर ले तो मुनि के उस भोजन कृत बध का अभा आहार बनाता है इसलिए उसके पुण्य का बध ही होता जबकि अपना कल्पना के कारण दातार अवश्य उस दोष है अगर वह अपने लिए भोजन बनावे तो पाप का बध । का भागी है । यहा यह अभिप्राय है कि भोजन के पीछ हो। और क्योकि मुनि ने बनाया नहीं बनवाया नही और पहल या भाज अनुमोदना नही करी, मन से, काय से अतः मूनि कोई विषय मन, वचन, काय से कृतकाारत अनुमोदनारूप नो दोष का भागी नही है । अगर गृहस्थ के उद्देसक परि- विकल्पो से राहत शुद्ध आहार होता है अर्थात् मुनि अमुक णामो का दोष मुनि को लगने लगे तो मुनि को कभी मोक्ष आहार होने के विषय मन, वचन, काय से (वय करना, की प्राप्ति न हो । दूसरे के परिणामों का फल दूसरे कैसे कराना व उसकी अनुमोदना कुछ भी विकल्प नहीं करते. भोगेगा। इससे यही साबित होता है कि उद्दिष्ट का अर्थ इसीरो उन मुनियों के दूसरे गृहस्थी के द्वारा लिए हुए यही होना चाहिए कि मुनि बताये नही, बनवावे नही, आहार आदि के सम्बन्ध मे माँ का बध नही होता ओर बनाने की अनुमोदना भी करे नही, मन से वचन से क्योकि बध परिणामों के आधीन है।" काय से तब मुनि उस बनाने के आरम्भ के बंध को प्राप्त अगर मुनि करने, कराने और अन मोदना के भाव नही होता । इसलिए श्रावक पात्र के लिए पात्र के योग्य मर, वचन, काय से करे तो कर्मों से जरूर बंधेगा। भोजन बनावे तो कोई दोष नहीं है। जैसा ऊपर में लिखा है श्रावक तो आरम्भ करना इस बारे मे आगम प्रमाण इस प्रकार योगसार ही है अपने लिए भोजन बनायेगा ही। परन्तु वह पात्र प्राकृत अमितगति आचार्य कृत अध्याय ४ गाथा २०। । के उद्देश्य से बनावे तो पुण्य का ही बध हो पाप का नही आहारादिभिरन्येन कारितैर्मोदित. कृतः हो। इसलिए श्रावक भी लाभ मे रहा और मुनि महाराज तदर्थ बध्यते योगी निरोगी न कदाचन । के बध हा नही । विद्वान लोग इस बारे में विचार करे। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केन्द्रीय संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर में संरक्षित छठे तीर्थंकर पद्मप्रभ की प्रतिमाएं 7 नरेश कुमार पाठक पद्मप्रभवर्तमान अवसर्पिणी के छठे जिन है। कौशांबी के शासक धर ( या धरण) इसके पिता और सुसीमा इनकी माता थी। जैन परम्परा मे उल्लेख है कि गर्भकाल मे माता को पद्म की शैय्या पर सोने की इच्छा हुई थी तथा नवजात बालक के शरीर की प्रभा भी पद्म के समान थी इसी कारण बालक का नाम पद्मप्रभ रखा गया । राजपद के उपभोग के बाद पद्मप्रभ ने दीक्षा ली और छ: माह की तपस्या के बाद कौशाम्बी के सहस्त्राम्र वन मे त्रियगु (या वट) वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त हुआ । पद्मप्रभ का लांछन पद्म है और यक्ष-यक्षी कुमुम और अच्युता (या श्यामा-या मानसी) है । दिगम्बर परम्परा मे यक्षी का नाम मनोवेगा है । मूर्त अङ्कतों मे पद्मप्रभ की पारंपरिक यक्ष-यक्षी कभी निरूपित नही हुए । केन्द्रीय संग्रहालय गुजरी महल ग्वारियर में पद्मवन की दो प्रति मायें संग्रहीत है, जिसका विवरण इस प्रकार है :--- बुद्ध प्रतिमा के प्रभामण्डल से समानता रखता है । जिसमे दो विद्याधर हार फूल लिए एक समान है । केवल पीछे लगे वृक्ष से 'अन्तर स्पष्ट होता है । इस प्रतिमा का पादपीठ साधारण है, परन्तु दो पूर्ण विकसित कमल दण्ड नीचे से खंडित अवस्था में है । दोनों तरफ चांबरधारिणी पूजक आराधना करते हुए अंकित है । कमलदण्ड से ऐसा प्रदर्शित होता है कि यह मूर्ति पद्मप्रभ की हो सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन जैन मूर्तियों के पादपीठ पर चिह्न या लांछन रहता था। लगभग ५वी शती ई० की इस जैन प्रतिमा को एम. आर. ठाकुर ने जैन तीर्थंकर लिखा है। मुद्रा दूसरी प्रतिमा ग्वालियर दुर्ग से प्राप्त पद्मासन (सं० क्र० ११६) की ध्यानस्थ मुद्रा मे निर्मित है । प्रतिमा सिरविहीन एवं दो खंडों में है । दो मिहों पर भारित पादपीठ के मध्य पद्मप्रभ का लाछन पद्म तथा उनकी पूजा बेसनगर ( विदिशा ) से प्राप्त (स० क्र० ३३ ) करते हुए स्त्री-पुरुष स्थित है। सिंहों के दोनो ओर दायें कायोत्सर्ग मे निर्मित इस प्रतिमा की मुखाकृति लुप्त यक्ष पुष्प बाये यक्षी मनोवेगा का अङ्कन है । पादपीठ के सी हो गई है। फिर भी योग मुद्रा की शान्ति चेहरे पर नीचे दो पद्मासन मे जिन प्रतिमाओ का आलेखन है । स्पष्ट जाहिर होती है एवं वेश राशि पर अलग से सामान्य चौकी पर विक्रम संवत् १५५२ ( ईस्वी सन् १४९२) का रूप से प्रचलित हल्का सा उष्णीण है । हाथ सीधे नीचे आलेख उत्कीर्ण है जिसे एस०के० दीक्षित ने महाराजा लटके हुए है जो कनाई से टूटे हुए है। मूर्ति का प्रभा- मानसिंह तोमर के राज्यकाल की माना है। एस० आर० मंडल गोलाकार पंक्तियो से अलकृत है जो सारनाथ की ठाकुर ने इसे जैन तीर्थंकर लिखा है ।" सन्दर्भ - सूची १. त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र (हेम चंद्र कृत) अनु० ५. हेलेन एम० जानसन, गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज उड़ीसा ३, ४, ३८, ५१ । २. जैन कला एवं स्थापत्य ( खण्ड ३, धमलानद घोप, सम्पादित भारतीय ज्ञानपीठ ) १६७५ पृष्ठ ६०४ । ३. तिवारी मारुति नन्दन प्रसाद "जैन प्रतिमा विज्ञान" वाराणसी, १६८१ पृष्ठ १०० । ४. कुमार स्वामी ए० के० हिस्ट्री आफ इंडियन एण्ड इण्डोनेसियन आर्ट १६६५ पृष्ठ XLII. गुप्तकाल में जैन मूर्तियों के विकास मे प्रतिमा लांडनो मे केवल श्री वत्स लाछन ही नहीं मिलते बल्कि छोटे-छोटे यक्ष-यक्षों के रूप में शासन देवताओ का अङ्कन मिलता है, शुक्ला डी० ए० जैन एण्ड बुधिष्ट आक्नोग्राफी आर्किटेक्चर II पृष्ठ ११. ६ ठाकुर एस० आर० कंटलाग आफ स्कपचर्स आर्कोलाजीकल म्यूजियम ग्वालियर एम० बी० पृष्ठ-४ क्रमांक १२ । ठाकुर एस० आर० पूर्वोक्त पृष्ठ २० क्रमांक ४ । ७ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन की पहिचान : अपरिग्रह । 'परम्परव्यतिकरे सति येनाऽन्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम् -' परस्पर में मिले हुए अनेको मे जो हेतु किसी एक की स्वतन्त्ररूपता को लक्षित कराता है वह उस जुदे पदार्थ का लक्षण होता है। जैसे अग्नि का लक्षण उष्णता अग्नि को पानी से जुदा बताने में हेतु है। समार मे जैन, बौद्ध, वैष्णव, शैव, मुस्लिम, सिख आदि अनेको मत-मतान्तर प्रचलित है उन सबकी पृथक्-पृथक् पहिचान कराने के उनके अपने-अपने लक्षण निश्चित है, जिनमे उनकी पृथक् पहिचान होती है। यह बात निर्विरोध है कि जैनों की पहिचान कराने मे 'अपरिग्रह' मुख्य हेतु है यह हेतु जैनों का अन्यों से व्यवच्छेद कराता है— जैनो की पृथक् पहिचान कराता है । साधारणतया अपरिग्रह के सिवाय अन्य शेष घर्मो अहिंसादि में वह शक्ति नहीं जो वे जैनो का अन्य मतान्तरो से सर्वथा व्यवच्छेद कराने में सर्वथा समर्थ हो सकें । यतः अपरिग्रह के सिवाय अन्य अहिंसादि शेष धर्म अन्य सभी साधारण मत मतान्तरों मे होनाधिक रूपों में पाये जाते हैं । अत: जैनों में उनका अस्तित्व तात्त्विक पहिचान के रूप में विशेष महत्व नहीं रखता और ना ही उनमे से कोई धर्म औरों से जैनों को अलग पहिचान कराने में समर्थ ही है । तथा जैनों की हर क्रिया मे पूर्ण अपरिग्रहत्व की भावना निहित है। यहां तक कि जैन का अस्तित्व भी अपरिग्रह पर आधारित है । यतः - 'जैन' शब्द के निष्पन्न होने मे 'जिन' की मुख्यता है । जो 'जिन' का है वह 'जैन' है। यहां जीतने से तात्पर्य मोह, राग-द्वेषादि पर वैभाविक भाव अर्थात् कर्मों के जीतने से है । क्योंकि ये मोहादि पर-भाव स्वयं भी परिग्रह हैं और परिग्रह के मूल भी हैं । हमने श्रावक व मुनियो की दैनिकचर्या को पढा है और उनके प्रारम्भिक कृत्यों को देखा है । नित्य-नियम सामायिक आदि के लक्षणो मे भी अपरिग्रह भावना की पद्मचन्द्र शास्त्री 'सम्पादक' कारणता विद्यमान है अर्थात् जब तक रागादि-परिग्रह के प्रति उदासीन भाव नहीं होगा तब तक सामायिक न हो सकेगी। जहा पर परिग्रह से निवृत्ति और स्व यानी अपरिग्रहत्वरूप निर्विकार स्व-परिणाम में ठहराव है वहीं सामायिक है और वह ही आत्मा की शुद्धि में कारण है । जब तक जीव की पर-प्रवृत्ति बनी रहेगी, चाहे वह प्रवृत्ति अहिंसादि में ही क्यों न हो ? वह बन्ध का ही कारण होगी । क्योकि अहिंसादि धर्म पर अपेक्षाकृत है, पर के आसरे से हैं। स्व-परिणाम 'अपरिग्रह' रूप होने से बन्ध का कारण नही । अहिंसादिक सामाजिक धर्म हैं और अपरिग्रह आत्मिक धर्म है जिसका 'जिन' और जैन से तादात्म्य सम्बन्ध है । युग के आदि प्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर भ० महावीर तक चोबीस तीर्थकर और अरहन्त अवस्था व मुक्ति को प्राप्त असंख्य सिद्ध अपरिग्रही होने से ही पूर्णता को पा सके । एक भी दृष्टान्त ऐसा नही है जिससे परिग्रही का मुक्त होना सिद्ध हो सके । जैनों मे जो दिगम्बर, श्वेताम्बर जैसे दो भेद पड़े हैं वे परिग्रह और अपरिग्रह के कारण ही पड़े है । ऐसा मालूम होता है कि जिन्होंने अपरिग्रह पर समन्तः और सूक्ष्म दृष्टि रखी वे दिगम्बर और जिन्होने अपरिग्रह पर स्थूल, एकांगी बाह्य-दृष्टि रखी वे श्वेताम्बर हो गए । स्मरण रहे जहां दिगम्बर अन्तरंग-बहिरंग सभी प्रकार के परिग्रह त्याग पर सूक्ष्म रूप मे जोर देते है, वहां श्वेताम्बर बाह्य परिग्रह को गोण कर केवल अन्तरग परिग्रह को मुख्यता देते है और इसीलिए उनमें स्त्री और वस्त्र मुक्ति को मान्यता दी गई है। यदि इन भेदों के होने मे अहिंसादि को लेकर मतभेद की बात होती तो उसका कही तो कैसे भी उल्लेख होता - जैसा कि नहीं है। दोनों में हो अहिसादि चार धर्मों के लक्षणों और उनके रूपों की मान्यता Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन की पहिचान : अपरिग्रह २५ में एकरूपता है। यदि भेद है तो परिग्रह और अपरिग्रह परिग्रह-राग-द्वेषादिक रूप पर-भावों में दौडता है अर्थात के लक्षणों को लेकर ही है। वह स्व से बेखबर हो जाता है और पुण्य-पापरूप या दोनों सम्प्रदायों में दो नोक बड़े प्रसिद्ध हैं। उनमें ससारवर्द्धक पर पदार्थों में वृत्ति को ले जाता है। ऐसे दिगम्बर-सम्प्रदाय में शास्त्र वाचन के प्रारम्भ में पढ़ा जाने जोव को उन परिग्रह -कर्मबन्धकारक त्रियाओं से सर्वथा वाला मंगलश्लोक पूर्ण अपरिग्रही होने के रूप में नग्न हटकर पुनः अपने शुद्ध अपग्ग्रिही आत्मा मे आने के लिए दिगम्बराचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य को नमस्कार करता है प्रतिक्रमण का विधान किया गया है। इसमें पर प्रवत्ति जब कि श्वेताम्बरों में इस श्लोक का रूप सवस्त्र (दिग- का सर्वथा निषेध और स्व-प्रवृत्त (जो शुद्ध यानी अपरिम्बरों की दृष्टि में परिग्रही) आचार्य स्थूलभद्र को नमस्कार ग्रह रूप है) मे आने का विधान है। रूप में है । तथाहिदिगम्बरों मे (२) प्रत्याख्यान : जो जीव पर से स्व मे आ गया, मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमोगरणी । वह पुनः पर मे न जाने को कटिबद्ध हो, यानी पुन: परिमंगल कुन्दकुन्दार्यों जैनधमोऽस्तु मगलम् ॥ ग्रहरूप-कर्मबन्धकारक क्रियाओ मे न जाने में सावधान श्वेताम्बरों मे-- हो? इससे उसका आगामी ससार-परिग्रह यानी कममगलं भगवान वीरो मगलं गौतमोप्रभु । बन्ध रूप ससार रुकेगा। मंगलं स्थूलभद्रार्यों जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ (३) सामायिक : प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान में उक्त श्लोकों से यह भी ध्वनित होता है कि महावीर सन्नद्धजीव सम-समता भाव मे स्थिर होने में समर्थ हो और गौतमगणधर के पर्याप्त समय बाद तक अभेद रहा सकेगा। क्योंकि समता का शुद्ध-आत्मा से अट सम्बन्ध और बाद में अपरिग्रह, परिग्रह के आधार पर नग्न और है। समता का भाव है-किसी अन्य के प्रति शभ या सवस्त्र साधु के भिन्न-भिन्न नामो से श्लोक प्रचलित अशुभरूप पर भावों का मर्वथा त्याग । क्योकि शूभ और किया गया, जो कुन्दकुन्द और स्थूलभद्र के रूप में हमारे अशुभ भाव चाहे वे विभिन्न जीवो मे एक जैसे ही क्यो न सामने है । श्लोकों मे महावीर और गौतम के नाम यथा- हो बन्ध कारक होगे, जब कि सच्ची सामायिक मे आस्रव वत एक रूप है। इसी के आधार पर दिगम्बर भी वबन्ध दोनो का सर्वथा अभाव यानी आत्मा के अपरिसवस्त्र को निर्ग्रन्थ-गुरु के रूप में नमस्कार नहीं करते। ग्रही होने का पूर्ण उद्देश्य है। इसी सामायिक से ध्यान और वसा मंगलाचरण भी नहीं करते जैसा अब कोई-कोई और कर्मक्षय को बल मिलता है। इस प्रकार जंन की करने लगे हैं। जो ठीक नही है। सभी प्रवृत्तिया अपरिग्रहत्व की ओर मुड़ी हुई हैं जब कि ___अपरिग्रह धर्म अध्यात्मरूप भी है जो आत्मा के पर- अहिंसादि अन्य धर्मों मे पर का अवलम्ब अपेक्षित है। भिन्न-नग्न-शुदस्वरूप को दर्शाता है। इसी अपरिग्रही ध्यान के विषय मे भी कुछ लिखना है। ध्यान की प्रक्रिया रूप की प्राप्ति के लिए जिन शासन मे प्रतिक्रमण, प्रत्या- आज जोरों से प्रचारित है और उसमे पर-प्रवृत्ति ही विशेष ख्यान और सामायिक के विधान है। प्रतिक्रमण का अर्थ लक्ष्य बनी हुई है। होता है-आत्मा के प्रति आना। प्रत्याख्यान का अर्थ अपरिग्रहत्व से तात्पर्य है-मात्र 'स्व' और ऐमे 'स्व' होता है-पुनः 'पर' में न जाना और सामायिक का अर्थ से जिसमे-परिग्रह का विकल्प ही न हो। अरहन्तहोता है-अपने में स्थिर होना । यह जो कहा जा रहा है तीर्थकर अपरिग्रही-पूर्ण दिगम्बर हैं 'स्व' मे विराजमान कि अशुभ से हटकर शुभ मे आना आदि, सो सब व्यवहार और 'स्व' रूप में स्थित भी। ज्ञान रूप आत्मा के सिवाय ही है। उनका स्व-तत्त्व अन्य कुछ नही-वे ज्ञाता दृष्टा कहलाते (१) प्रतिक्रमण : परिग्रह से आवृत प्राणी पुन:-पुनः हैं सो भी परकीय दृष्टि से ही। क्योकि उनमे पर की Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वर्ष ४३, कि०४ अनेकान्त कल्पना को अवकाश ही नही होता। जो पदार्थ उनके ज्ञान होने से पर-परिग्रह है-जिनसे आत्मा की अनन्त शक्ति मे प्रतिविम्बित होते हैं वे भी अपनी, पदार्थ को सत्ता मात्र पाच्छादित होती है । में ही प्रतिविम्बित होते है; केवली के ज्ञान से उन पदायाँ हम यहां जैन मान्य उस परिग्रह की बात कर रहे हैं की सा का तादात्म्य नहो; मात्र ज्ञेय-ज्ञायक भाव है जिसमे जनत्व व्याप्त होकर निवास करता है और जिससे और वह भी माहारी है ! कोकि रव वस्तु किसी विकल्प जीवित रहता है। परिग्रह की बढ़वारी करत जैनी बने या क्थन की चीज नही, मात्र अनुभव को चीज है- रहने का प्रयत्न करना मुर्दे में हवा देकर उसे जीवित सर्वथा अनभर की। आश्चर्य है कि उक्त वस्तु-स्थिति मे मानने जैसा है। मृत-शरीर वायु से फूल सकता है, हिल भी हम स्वत्व-दिगम्बरत्व-अपरिग्रहत्व के अर्थ से अजान भी सकता है। पर वह हिलना उसका जीवित होना नहीं है और दिगम्बरत्व या अपरिग्रहत्व को मात्र बाह्य-शरी होता; मात्र पोद्गलिक क्रिया होती है। ऐसे ही परिग्रह रादि के आधार पर पहिचानने में लगे हुए है; मात्र की बवारी के प्रति जागत जीव की बाह्य-पर क्रियाएँ निर्वस्त्र को दिगम्बर मान रहे है और उसे अपरिग्रही कह भी जैनत्व को साधिका नहीं। क्योकि सारा का सारा रहे हैं। खैर, कोई हर्ज नही; हम निर्वस्त्र को अपरिग्रहीत की दीनता से नित या दिगम्बर मानते रहे पर, वस्त्र का भाव अवश्य हृद- परिग्रहहीनता अहिमा में आती हो, सत्य या अचीर्य यंगम करें : वस्त्र (बेष्टन) आवरण का द्योतक है जो ग्रादि मे आती हो। यदि अहिसादि के मूल मे अपरिग्रह असलियत को आच्छादित करता है; उसे प्रकट नही होने की भावना नही तो सब व्यर्थ है। और यहा अपरिग्रहत्व देता । उक्त भाव मे स्व-रूप मे भिन्न सभी दशाये वस्त्र से से तात्पर्य राग-द्वेषादि कषायो के कृश करने से और बाह्यआच्छादित जैसी हैं। सवस्त्र रूप ही है। इसी आच्छादन संग्रह की मर्यादा और त्याग आदि से है। स्मरण रखना करने वाले सत्त्व को जैन-दर्शन में परिग्रह नाम से सम्बो चाहिए कि सब व्रत-क्रियाय आदि भी तभी सार्थक हैं जब धित किया गया है और इसमे मुक्त रहने का पाठ दिया वे अपरिग्रह की भावना और अपरिग्रही-क्रियाओ से अपरिगया है। इस दर्शन में अरिग्रही को पूज्य माना गया है ग्रह की पुष्टि के लिए हो। क्योंकि वही निर्दोष है और वह ही स्व-स्वभावी सर्वज्ञ हमारी भूल रही है कि हम अन्य व्रत आदि की दशा में स्थित होने में समर्थ है। कहा भी है-'यस्तु न क्रियाओं को (वह भी दिखावा रूप में) जैनत्व का रूप देने निर्दोषः स न सर्वज्ञः। आवरण रागादयोदोषास्तेभ्यो में आमवत रहे है और अपरिग्रह की आमक्ति से नाता निष्क्रान्तत्वं हि निर्दोषत्वम् ।'.. जो निर्दोष नहीं है वह । तोड़े हए है। आज देश का जन-जन दुखी है वह भी सर्वज्ञ नहीं है और रागादि अन्तरग व धनादि बहिरंग परिग्रह की ज्यादती या लौकिक अनिवार्य पूर्तियो के अभाव आवरणो-परिग्रहो से रहित होना ही निपिपना है। में दुखी है। हिंसादि सभी प्रवृत्तिया भी परिग्रह से तथा और जैनः म म शुद्धात्मा को ही निर्दोष कहा है-'स परिग्रह की बढ़वारी के लिए ही की जा रही है। आश्चर्य त्वमेवासि निर्दोषो युक्ति शास्त्रावरोधि व.क।' इसी है कि सरकार ने भी परिग्रह की बढवारी को किन्हीं अपनिर्दोषता को लक्ष्य कर १८ दोषो को भी स्थूल रूप में राघो की परिधियो में नहीं बाधा। भारतीय दण्डसहिता दर्शाया गया है में हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील के लिए जैसे दण्ड निर्धा'छहतण्डभोरुरोसो रागो मोहो चिता जरा रुजा मिच्च ।। रित है, वैसे परिग्रह की बढ़वारी की रोक के लिए सायद स्वेदं खेदं मदो रइ विम्हियरिणद्दा जणु ग्वेगो॥ हा कोई धारा हा। यदि सरकार ने जैन मल-सस्कृति -नियमसार ६।। अपरिग्रहत्व से नाता जोड़ा होता-ऐसी कोई धारा निर्धाजम्बूदीवपत्ति और द्रव्यसग्रह टीका आदि में भी रित की होती जो परिग्रह परिमाण पर बल देती हातीइन दोषो का खुलासा है और ये सभी दोष स्व-स्वभाव न अति-परिग्रहियो के लिए दन्ड विधान करती होती तो देश Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन को पहिचान : अपरिग्रह २७ को त्रास से काफी हद तक छटकारा मिला होता। तब और फिर उसके निरोध को संवर कहा है। और इसी न हर कोई हर किसी के भाग पर कब्जा करता होता प्रसंग मे नवम अध्याय में हो तप को संवर और निर्जरा और न हो टैक्सों की चोरी आदि जैसी बातें ही आई होती। दोनों का कारण कहा है। और ध्यान की गणना तपों में व्यक्ति को संचय सीमा निश्चित होती और परिवार भी कराई है। इसका भाव यही है कि प्रसग में ध्यान बही तदनुसार निर्धारित-परिमारण में संग्रह कर पाते । इमसे (निगेव) है जो संवर-निर्जरा ये कारण हो। ऐसे में ध्यान एक घर संपदा से अनाप-शनाप भरा और दूसरा सम्पदा के शुभ-अशुभ या आर्त-रौद्र जमे भेदो वो इसमे स्थान ही से सर्वथा खाली न होता। जैसा कि वर्तमान में चल रहा कहां है जो उन्हे इस ध्यान में शामिल किया जा सके या है और जो जनसाधारण को परेशानी का कारण बन रहा प्रसंगगत ध्यान (चितानिरोग) को शुभ-अशभ के आसन है । अस्तु । मे कारण माना जा सके। वे दोनो ओर निचली दशा के यहां हम यह भी कहना उचित समझते है कि जिस मनोगत भाव-आर्त-रौद्र तो आस्रव ही हैं। ध्यान को तत्त्वार्थ सूत्र के नवम अध्याय के २७वे सूत्र इसके सिवाय ध्यान के फल का जो वर्णन है और जो द्वारा दर्शाया गया है वह ध्यान भी अपरिग्रह मूलक और स्वामी वर्णन है उससे भी स्पष्ट पता चलता है कि प्रसंग संवरनिर्जरा का साधक ही है। दूसरे रूप में यह भी कह में ध्यान संवर-निर्जरा काही कारण है और वह मिथ्यासकते हैं कि-अपरिग्रहत्व और वह ध्यान समकाल भावी दष्टि के नही होता । इसीलिए धवला मे ध्यान के दो ही और एक है। वसा ध्यान तभी होगा जब अपरिग्रहत्व भेद कहे है-धय॑ध्यान और शुक्लध्यान । मोह की दोगा-विना अपरिग्रहत्व के ध्यान कैसा? प्रसग गत सर्वोपशमना करने से धर्म ध्यान को और शेष घातिध्यान के लक्षण में 'अपने मे रह जाना' ध्यान है और वही। अघाति का क्षय करने से शुक्ल ध्यान को ध्यान की श्रेणी पूर्ण अपरिग्रहत्व है। जैसा कि ध्यान में होता है या होना में रखा गया। यहां इतना विशेष समझना चाहिए किचाहिए। क्योंकि ध्यान और अपरिग्रहत्व दोनो में अन्यत्व दोनों ही ध्यानों में 'आप मे रह जाना' हो सर्वथा इष्ट पने का अभाव होने से संवर-निर्जरा है। जबकि अन्य है-कायवाग्मन की क्रिया करने से तात्पर्य नहीं। 'अट्रचिताओं से हटकर मन का एक ओर लक्ष्य होने में भी वीमभेयभिण्णमोहणी रस्मसन्यवसमा-वट्टाण सलं पुत्तविचितन रूप क्रिया विद्यमान होने से आस्रव है- 'काय दक्क वीवार सुवज्झाण। कोहमव्वुवसमो पुण धम्मज्झाणवांग्मनः कर्मयोगः' स आस्रवः ।' भले ही मन एकाग्र हो फलं । 'लिणगादिकम्माणं णिम्मलविणासफलमेपत्तविदक्क जाय-वह चिन्तन क्रिया तो करेगा ही। और जहां चितन ... अवाचीरज्झाणं ।' रूप क्रिया होगी वहां आस्रव होगा ही। मन की क्रिया -धव. १३, ५, ४, २ः पृ. ८०-८१ (चिन्तन) का नाम ही तो पिता है। जो निर्जरा-प्रसग 'अधाइ कम्म चउक्कविणास (च उत्थसक्कज्झाणफल) गत ध्यान के लक्षण से मेल नही खाता। प्रसंग मे तो उसी वही पृ० ८८ । ण च णवपयत्थविसयरुइ-पच्च सदाहि ध्यान से तात्पर्य है जो संवर निर्जरा में हतु हा। हम पुनः विणज्झाण मभवदि । वही प्र०६५ । स्मरण करा दें कि मन का कार्य चिंतन है और चितन अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय की सर्वोपसमना होने पर कर्म होने से आस्रव है। इस विषय में किसी समझोते को उसमें उसमें स्थित रखना पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक शुक्ल खोज कर अन्य निर्णय सर्वथा अशक्य है। ध्यान का फल है। सभी जानते हैं कि पूज्य उमास्वामी जी ने तत्वार्थसूत्र चार अघातिया कर्मों का विनाश चतुर्थ शुक्ल ध्यान के छठवें अध्याय से आठवें अध्याय तक आस्रव-बन्ध का का फल है। नवपदार्थों की रुचि (श्रद्धा) के बिना ध्यान और नवम अध्याय में सवर-निर्जरा का वर्णन किया है। नहीं हो सकता अर्थात् सम्यग्दष्टि ही ध्यान का अधिइनमें पहिले उन्होंने मन-वचन-काय की क्रिया को आस्रव कारी है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८, बर्ष ४३, कि०४ बनेकान्त सत्र मे ध्यान के स्वामी के निर्देश से तो यह और भी कार ने स्पष्ट रूप में सकेत दिया है कि निरोध तुच्छाभाव स्पष्ट हो जाता है कि प्रसंग में आचार्य को ध्यान का नही अपितु भावान्तर रूप है। 'अभावो निरोध इति घेता वही लक्षण इष्ट था जिसके द्वारा संबर-निर्जरा होकर न,""""विवक्षार्थविषयावगमस्वभावसामथ्र्यापेक्षया सदेमोक्ष प्राप्त होता हो। यदि आचार्य को उक्त प्रसंग में वेति ।'-उत्कृष्ट ध्यान की अवस्था में आत्मा को लक्ष्य आस्रवरूप मन की क्रिया (एकानव रूप ही सही) अर्थ बनाकर चिन्ता (मन की क्रिया) का निरोध किया जाता अभीष्ट होता तो वे सूत्र मे 'उत्तम सहननस्य' पद को भी है और वहां आत्मा का लक्ष्य आत्मा ही होता है-अन्य स्थान न देते। क्योकि चितवन रूपी ध्यान तो साधारण नही। यह भी ध्यान रहे कि इस उत्कृष्ट ध्यान के प्रसंग सभी संहनन वालों और मिथ्यादष्टियो तक को भी सदा में 'अग्र' शब्द भी आत्मावाची है। आचार्य यह भी कहते काल रहता है। हैं कि ध्यान स्व-वृत्ति (आत्म-वृत्ति) होता है-इसमें बाह्य जब हम ध्यान के लक्षण-सूत्र पर विचार करते हैं तो पिताआ स निवृत्ति हाता है-अङ्गतीत्यग्रम सूत्र में एकाग्र चिंतनिरोध, ऐसा पद भी मिलता है। द्रव्याथ तय कस्मिन्नात्मन्यग्रे चिन्तानिरोधो ध्यानम् । ततः इसमे 'एकाग्र चिता' से विदित होता है कि एकाग्र-एक स्व-वात्तत्वात् बाह्यध्येय प्राधान्यापेक्षा निवतिता भवति ।' को मुख्य लक्ष्य कर उसका चितवन करना ध्यान है। जरा -इससे यह भी फलित होता है कि जहां अग्रशब्द अर्थ वाची है अर्थात् जहां द्रव्य-परमाण या भाव-परमाणु या सोचिए, जब एक वस्तु मुख्य कर ली तब वहाँ अन्य वस्तु के प्रवेश को अवकाश ही कहां रहा? यदि अन्य को अव अन्य किसी अर्थ मे चित्तवृत्ति को केन्द्रित करने को 'ध्यान' काश (स्थान) है तो एकाग्रपना कैसे ? एकाग्र होने का अर्थ नाम से कहा गया है; वहा 'ध्यान' शब्द का लक्ष्य शक्ल ही यह है कि जिसमे अन्य का विकल्प हट गया हो। और ध्यान के दो पायों तक सीमित है। जब अन्य स्वाभाविक हट गया तब 'निरोध शब्द ही व्यर्थ एक बात और ध्यान एक तप है और तप शब्द से पह जाता है। ऐसे में यदि आचार्य ऐसा कहते कि 'एकाग्र आत्म-लक्ष्य के सिवाय अन्य का परिहार इष्ट है। इसी चिता ध्यानम्' तब भी काम चल सकता था। इससे मन भाव में इच्छा निरोध को तप नाम दिया गया हैकी क्रिया (एकाग्र प्रवृत्ति) को बल भी मिल सकता था। 'तिम्णं रयणाणभाविभावठुमिच्छा निरोहो।' और चारों धर्मध्यान भी ध्यान की परिभाषा मे आ जाते। -० १३, ५, ४, २२, ५४ फिर यदि आचार्य को कहना ही था तो वे 'निरोध' के 'समस्तभावेच्छात्यागेन स्व-स्वरूपे प्रतपनं, विजयनं तपः।' स्थान पर रोध' शब्द से भी काम चला सकते थे। क्योंकि -प्रव० सा० ता० वृ० ७६।१०००।१२ सूत्र ग्रंथ में वैयाकरण लोग आधी मात्रा के कम होने पर उक्त इच्छानिरोध मे म्व और पर के भेद का सकेत भी 'पूत्रोत्सव मन्यन्ते वैयाकरणाः' । ऐसा मालूम होता है भी नही है जिससे कि स्व की इच्छा को भी ग्राह्य माना कि यहां सवर-निर्जरा सम्बन्धी ध्यान के प्रसग में आचार्य जा सके। यहां तो ऐमा हो मानना पड़ेगा कि ध्यान में श्री को एक का चितवन और अन्य चितवन का रोध' ऐमा सभी प्रकार की इच्छाओ (मन को क्रियाओं) का अभाव अर्थ इष्ट नहीं था, इसलिए उन्होने रोध के स्थान पर ही आचार्य को इष्ट है और वे आत्मा में आत्मा के होने 'निरोध' शब्द का प्रयोग किया और निरोध का अर्थ है- को ही उत्कृष्ट घ्यान मानते हैं जो अपरिग्रहरूप है। निःशेषेण पूर्णरूपेण रोध। सभी प्रकार से सभी रीति की किन्ही मनीषियों ने हमे ‘एक पदार्थ को मुख्य बना क्रियाओं का रोध। कर उसके चिन्तन मे (मन का) रोध करना-मन को 'निरोध' को तच्छाभाव मान उसके निराकरणार्थ ठहरा लेना ध्यान है' ऐसा अर्थ भी बतलाया है यानी कर हो करने में लगे लोगों को राजवातिक- मत में निरोध का अर्थ मन का स्थापित करना है। ऐसे Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन को पहिचान : अपरिप्रह मनीषियों को धवला मे आये 'निरोध' शब्द के अर्थ पर जाय कि वे सर्वथा अव्यवहार्य और जीव की दशा की विचार करना चाहिए। और यह भी सोचना चाहिए कि अनिश्चिति में कारण है तो मन को लगाने की क्रिया से आस्रव होगा या सवर-निर्जरा? वेमियाभावी जना निरोध के अर्थ को इस भांति साधारणत: 'ध्यान' शब्द ऐसा है जो जन साधारण स्पष्ट किया गया है-'को जोग गिरोहो? जोग विणासो। में चिता या चितन के अर्थ में प्रमिट_fam वयारेगा जोगो चिन्ता, तिस्स एयग्गेण णिरोही विणासा इसलिए लोग इस शब्द को विचार करने जैसे अर्थ में लगा जम्मि तं ज्झामिदि।' -वही पृ० ८५-८६ बैठते हैं। लोगो को समझना चाहिए कि यदि सर्वथा योगको निरोध क्या है ? योग का विनाश । उपचार विचार-चिन्तन हो ध्यान होता तो आचार्य शक्ल ध्यान से चिन्ता का नाम योग है ? उस चिन्ता का एकाग्ररूप से की ऊपरी श्रेणियो मे विचार का बहिष्कार न करते जैसा जिसमें विनाश हो जाता है वह ध्यान है । किसी (एफ की कि उन्होंने किया है। वे कहते हैं-'अवीचारं द्वितीयं ।' को चिन्ता में लगे रहना, प्रसग गत ध्यान नही और ना 'दूसरा एकत्ववितर्क नामा शुक्ल ध्यान विचार रहित है ही उस चिन्ता में लगे रहने मे, उससे सवर और निर्जग (तीसरा और चौथा शुक्ल ध्यान भी विचार रहित ही है। यदि संवर निर्जरा है भी तो वह अन्य प्रवृत्ति से विज्ञपुरुष इस बात को भली भांति जानते है किनिवृत्ति मात्र के कारण और उसी अनुपात मे है ध्यान विचारोऽर्थ व्यजनयो सक्रान्तिः। अर्थ और व्यजन में (क्रिया) से नहीं: वहां ध्यान नाम तो मात्र उपचार है। विचारों की पलटनी दशा सक्रान्ति कहलाती है और ऊपर के पूरे विवेचन से स्पष्ट होता है कि धवला निर्दिष्ट वीचार व विचार दोनो शब्द एकार्थक है यानी जब यह दो ध्यानों के प्रकाश में ध्यान वही है जो संवर-निर्जरा का जीव अर्थ का विचार करते-करते कभी पर्याय पर चला हेत हो? सि० च० नेमीचन्द्राचार्य जी ने जो 'दुविह पि जाता है और कभी अर्थ पर चला जाता है तब उस पलटने मोक्खहे' रूप में दो ध्यानो को प्ररूपित किया है उनमें की दशा को संक्रान्ति कहा जाता है। और वह ऊपरी 'पणतीस सोलछप्पणच दुदुगमेग' तथा पिण्डस्थ, पदस्थ, अवस्थाओ में नहीं है। अब सोचिए ! कि जब मन का रूपस्थ जैसे परावलम्बी ध्यानो को मोक्षमार्ग मे परम्परित अर्थ चिन्तन है और चिन्तन मे पलटना अवश्यम्भावी है। कारण होने से गवहार-ध्यानरूप और 'बहिरमन्तरकि- यदि पलटना नहीं तो चिन्तन कैसा? वह तो कटस्थपना रियारोहो' और रूपातीत जैसे स्वावलम्बी ध्यान को ही है और यदि मन कटस्थ है तो वह मन कैसा? फिर निश्चय ध्यान रूप कहा है। यदि हम विचारें तो धवला- यदि मन सक्रान्ति नहीं करता तो वहां कौन सी क्रिया कार के शब्दों से यह बात सर्वथा मेल खाती जैसी दिखती करता है वह क्रिया 'आस्रव' क्यो नही ? जब कि आचार्य ने मन, वचन या काय की क्रिया को आस्रव कहा है ? प्रम्तोमुहत्तमेत्तं चिन्तावत्थाणमेगवत्थुम्हि । उक्त सभी परिस्थितियो से हम इसी निष्कर्ष पर छामस्थाणं झाण 'जोगारगरोहो' जिणाणं तु ॥ (उद्धत) पहुंचते हैं कि-उक्त ध्यान में मन लगाना नहीं पड़ता, एक वस्तु मे अन्तर्मुहुर्तकाल चिन्ता अवस्थानरूप ध्यान अपितु मन को हटाना पड़ता है और इस मन को हटाना छपस्थों का ध्यान है और योगनिरोध रूप निश्चय ध्यान ही-पर से निवृत्ति करना ही अपरिग्रह है और जैन दर्शन अर्हन्त भगवान का ध्यान है आदि । को यही निवृत्ति इष्ट है । फलत:-इस मायने में उत्कृष्ट ऊपर के प्रसंग से यह भी स्पष्ट है कि जिन्हें आतं ध्यान और अपरिग्रह दोनो एक ही श्रेणी मे ठहरते हैं और और रौद्र ध्यान के नामों से सम्बोधित किया जा रहा है ऐसा किए बिना 'तपसा निर्जरा च' सूत्र की सार्थकता भी के सम्यग्दृष्टी के लिए न तो व्यवहार ध्यान है और ना ही नही बनती और जिन-दशा तथा मुक्ति भी नहीं निश्चय की परिभाषा में आते हैं। अपितु यह कहा बनती। 00 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तीर्थंकर' में प्रकाशित आरोपों का खण्डन डा० नेमिचन्द जी जैन, संपादक "तीर्थंकर" ६५, पत्रकार कालोनी, इन्दौर (तोर्थंकर दिसम्बर ६० अङ्क में प्रकाशित श्री ललवानीजी के आरोपों का वीर सेवा मन्दिर द्वारा खण्डन ) आपने श्री गणेश ललवानी और डा० भागचन्द जैन भास्कर द्वारा वीर सेवा मन्दिर जैसी प्रतिष्ठित संस्था के प्रति मिथ्या आरोपी वाले पत्र अगस्त १० व अक्टूबर १० के अर्कोों में प्रकाशित किये और वीर सेवा मन्दिर से वस्तुस्थिति भी जानने की कोशिश नही की ! उन दोनों पत्रों के उत्तर में वीर सेवा मन्दिर द्वारा दिये गये उत्तर को विलम्ब से प्रकाशित करने का कारण हमें आपने यह लिखा कि श्री ललवानी जी के उत्तर के साथ ही प्रकाशित करेंगे, किन्तु श्री ललवानी जी का तथ्य विहीन एवं आपत्तिजनक उत्तर हमसे वस्तुस्थिति जाने बिना ही आपने प्रकाशित कर दिया। यह सौतेला बर्ताव तीर्थंकर के सम्मानित सम्पादक की स्वस्थ पत्रकारिता तो वश पत्रकारिता के साधारण मानदण्डो से भी नीचे है। पता नहीं श्री ललवानी जी एक पेशेवर उजरत प्राप्त वकील की तरह डा० बनर्जी के पक्ष में आधारविहीन तर्कों से सत्य को झुठलाने का असफल प्रयत्न क्यों कर रहे हैं ? उनके पूर्व पत्र में वीर सेवा मन्दिर पर दिगम्बर जैन संस्था होने और डा० बनर्जी के बगाली होने से उनके नाम को हटाने का ऐसा विनीता आरोप है जो ललवानी जी की संकीर्ण व विकृत मानसिकता एवं पूर्वाग्रह ग्रस्त भावना का द्योतक है। यह भी सम्भव है कि श्री ललवानी जी श्वेतावर आम्नाय के होने के नाते एक प्रतिष्ठित दिगम्बर जैन संस्थान को बदनाम करने की कुभावना उनके हृदय के किसी कोने में रही हो । जैसा कि मैंने पहले उत्तर में लिखा था, पुनः स्पष्ट करना अपना दायित्व मानता हू विद्वान की जाति या धर्म उसकी विद्वता है और ऐसे सभी विद्वानों का वीर सेवा मन्दिर सदैव आदर-सम्मान करता है और करता रहेगा । विद्वान की जाति या धर्म उसको विद्वता में आड़े नहीं आती, अन्यथा डा० बनर्जी का नाम सम्पादक के स्थान पर इस बिब्लियोग्राफी के प्रारम्भ में सहज रूप में मुद्रित नहीं हो जाता। "सीपंकर" के अगस्त १० के अंक में प्रकाशित ललवानी जी के मिथ्या आरोपों में एक आरोप यह भी था कि डा० भागचन्द जैन को मात्र २५-३० पृष्ठों के इन्डेक्स का पांच हजार रुपया दिया गया, वीर सेवा मन्दिर द्वारा उक्त आरोप का खण्डन करने तथा डा० जैन का पत्र पढ़ने के बाद अब वह दिसम्बर के अंक मे प्रकाशित अपने पत्र में अपने उक्त आरोप को असत्य मानते हुए लिखते है कि "मुझे हार्दिक छेद है कि सत्य कुछ और निकला। मैंने यह जानकारी डा० बनर्जी से प्राप्त की और उन्होंने नन्दलाल जी से ।" इस प्रकार ललवानी जी का यह दावा स्वत: झूठा साबित होता है कि उन्होंने जो भी लिखा, पूर्ण जानकारी के साथ लिखा । बनर्जी, जिनकी सूचना उन्होंने स्वयं असत्य बतायी है, के आधार पर एक मिथ्या आरोपों को अखबार में प्रकाशित करा रहे हैं। यह उनकी दूषित मानसिकता को दर्शाता है। हमे खेद है कि ललवानी जी उन्हीं डा० प्रतिष्ठित संस्था को बदनाम करने के लिए श्री ललवानी जी ने संस्था के प्रकाशित उत्तर में श्रद्धेय छोटेलाल जी के भ्राता श्री नन्दलाल जी द्वारा उपलब्ध कराई गयी उनकी जीवनी के २०वें अनुच्छेद के अंग्रेजी भाषा में उद्धृत शब्दश. अंशों की जानबूझ कर अनदेखी की है, क्योंकि यही अंश उनके सभी आरोपों को एकदम असत्य सिद्ध करने में सक्षम हैं। मैं उसी अंश का हिन्दी अनुवाद उनकी जानकारी के लिए यहां दे रहा हू "उनकी जैन बिब्लियोग्राफी का प्रथम खण्ड १६४५ मे प्रकाशित हुआ । अब उनके द्वारा अधूरा रह जाने से दूसरा खण्ड मैसूर विश्वविद्यालय के डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.डी. लिट् के निर्देशन में पूरा हो रहा है ।" Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तीर्थंकर' में प्रकाशित भारोपों का लण्डन ३१ श्री नन्दलाल जो द्वारा दी गयी उक्त सूचना से स्पष्ट है कि ग्रन्थ का सम्पादन डा० उपाध्ये ने किया है। यदि डा० बनर्जी ग्रन्थ का सम्पादन करते तो भी नन्दलाल जी उनके नाम का उल्लेख अवश्य करते । श्री नन्दलाल जी के चले जाने से उनकी लिखित सामग्री तो नही मर जाती । श्री ललवानी जी का यह कहना कि डा० उपाध्ये के पास केवल टाइप कराने के लिए मैटर भेजा गया था, कितने आश्चर्य की बात है कि श्री नन्दलाल जी कलकत्ता महानगरी मे थे और वीर सेवा मन्दिर राजधानी दिल्ली मे है। दोनों नगरों में मुद्रण यंत्र और टकन कर्ता एक से एक बढ़िया उपलब्ध थे, तब नन्दलाल जी ने कोल्हापुर केवल टाइप के लिए ही सामग्री को भेजा, क्या डा० उपाध्ये का टंकन कालेज था ? इस प्रकार को खोखली दलीलें देना वकील का ही काम है और कुछ नहीं । श्री ललवानी जी स्वयं लिख रहे हैं- "ग्रन्थ वीर सेवा मन्दिर छपवा रहा है, डा० बनर्जी नहीं ।" स्पष्ट है कि जिस प्रकार का पत्र व्यवहार वीर सेवा मन्दिर और डा० बनर्जी के बीच मे इन्डेक्स के सम्बन्ध में हुआ है, यदि डा० बनर्जी को ग्रन्थ सम्पादन का कार्य सोपा होता तो इस प्रकार पत्रों का आदान-प्रदान अवश्य हुआ होता । ललवानी जी डा० बनर्जी को लिखा ऐसा एक पत्र तो दिखाए जिससे यह साबित होता हो कि वीर सेवा मन्दिर ने ग्रथ सम्पादन का कार्य डा० बनर्जी को दिया हो। डा० बनर्जी ने अपना सम्पादकत्व साबित करने हेतु अपने ३०-११-८२ के पत्र के साथ डा० उपाध्ये के पत्र दिनांक २७-६६८ की फोटो प्रति सस्था को भेजी थी, जिसमें डा० उपाध्ये ने डा० बनर्जी से सम्पादन कार्य आरम्भ करने के पूर्व कुछ शकाओं के उत्तर की अपेक्षा की थी उस पत्र का हिन्दी अनुवाद यहां दे रहा हूं। "जब मैं कलकत्ता में था, मैंने छोटेलाल जी द्वारा छोडो गयी बिब्लियोग्राफी की सामग्री का निरीक्षण किया। मैं सोचता हूं कि आप इस कार्य मे जब-तब उसे सम्बद्ध रहे है । अब यह तय है कि यह शीघ्र ही प्रकाशित हो । नीचे लिखे बिन्दुओं पर आपकी क्या राय है ? १. जैसा कि आपने देखा है सामग्री की क्या स्थिति है ? २. क्या यह सामग्री आवश्यक काट-छांट एवं मामूली संशोधन के साथ प्रेस में दी जा सकती है ? ३. आप भारत निश्चित रूप से कब वापस आ रहे हैं ? ४. इस कार्य के प्रकाशन मे आप किस प्रकार मदद कर सकते है ? ५. क्या भारत वापस आकर आप इस कार्य हेतु आवश्यक समय दे सकेंगे ? मैं आपके तफसील से उत्तर के लिए आमारी हूगा, धन्यवाद ।" डा० बनर्जी ने उक्त पत्र के उत्तर में ऐसा कोई प्रतिवाद नही किया कि यह सब कुछ पूछ कर क्या करेंगे ? सम्पादन तो उन्होने स्वय कर ही रखा है, ना ही इस विषय मे कोई जानकारी डा० बनर्जी ने वीर सेवा मन्दिर को दी । सम्पादन के पूर्व एक निष्ठावान विद्वान होने के नाते ग्रन्थ के सम्बन्ध में डा० बनर्जी से सूचना प्राप्त करना डा० उपाध्ये की सदाशयता का प्रमाण है क्योंकि डा० उपाध्ये जानते थे कि डा० बनर्जी श्री छोटेलाल जी से सबद्ध रहे है । श्री ललवानी जी का यह कथन कितना हास्यास्पद लगता है कि डा० उपाध्ये के सभी पत्रों से सम्पादन करना साबित नहीं होता, जबकि उन पत्रो मे उन्होंने सारी सामग्री को व्यवस्थित करके, टंकण करा कर क्रम से रखकर संशोधन भी किये हैं। उनके हाथों सम्पादित वह पाहुलिपि आज भी संस्था के रिकार्ड में देखी जा सकती है। ललवानी जी का यह आरोप भी निरर्थक है कि डा० बनर्जी ठगे गये हैं । ठगा तो वीर सेवा मन्दिर गया है, जैसा कि मैं पहले लिख चुका हू मेरी अजानकारी, डा० उपाध्ये व नन्दलाल जी और सस्था के तत्कालीन महासचिव महेन्द्रसैन जैनी के निधन का लाभ उठाकर सम्पादन का श्रेय स्वय डा० बनर्जी ने ओढ़ लिया । विस्मय की बात तो यह है कि श्री ललवानी जी इस ठगी मे पीठ पत्रकारिता के माध्यम से दलाली का काम करने की चेष्टा कर रहे है। उन्होने दिसम्बर, ६० अङ्क मे सुझाव दिया है, "अच्छा तो यही रहेगा १०,००० रु० देकर वीर सेवा मन्दिर इसे (आधे अधूरे इंडेक्स को खरीद से " जबकि यह इन्डेक्स वीर सेवा मन्दिर की सम्पत्ति है। पता नही उजरत प्राप्त वकील Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२, वर्ष ४३, कि० ४ अनेकान्त के तौर पर यह सुझाव उनका है अथवा डा० बनर्जी ने यह रकम सुझाने के लिए उन्हें अधिकृत किया है ? डा. बनर्जी ने तो स्वय २४.८-७८ के पत्र में लिखा है कि बिब्लियोग्राफी के इन्डक्स बनाने तथा आरम्भिक परिचय लिखने के लिए जो धन ६०० रु. की राशि नन्दलाल जी से ली है वह कार्ड और लिपिक का खर्च है । कुल खर्च २००० रु० का अनुमान है । उन्होने आगे इसी पत्र में यह भी लिखा है कि मैंने अपनी कोई फीस (उजरत) नहीं ली है और ना ही कभी लंगा, क्योंकि यह कार्य श्री छोटेलाल जी के प्रति प्यार का श्रम है। इस प्रकार डा० बनी तथा उनके वकील के रूप में परवी कर रहे श्री ललवानी जी के वक्तव्यों में विरोधाभास परिलक्षित होता है। डा बनर्जी ने अपने लंदन प्रवास से २४.७-७७ के पत्र में स्पष्ट लिखा है, "मैंने अब ग्रन्थ के इन्डक्स और दो शब्द लिखने का उत्तरदायित्व ले लिया है।" डा. बनर्जी ने अपने पत्र २०.११-७८ में वीर सेवा मन्दिर द्वारा भेजे गये १००० रु. के चक की पावती देते हुए लिखा था--"मैं इंडैक्स का कार्य इस वर्ष के अन्त तक पूरा करने का पूर्ण रूप से प्रयल कर रहा हूं।" वह किसी न किसी बहाने से समय बढाते गये। संस्था द्वारा बहुत आग्रह करने पर डा. बनर्जी ने अपने २५-३-७६ के पत्र में सुझाव दिया-आप बिना इन्डैक्स के ग्रन्य प्रकाशित कर दे, साथ ही घोषणा कर है कि इन्डेक्स शीघ्र ही प्रकाशित होगा। "इसके बाद डा. बनर्जी ने सूचना दी कि इन्डक्स के सभी कार्ड तैयार हो गये हैं, थोड़ा पुननिरीक्षण का कार्य शेष है। आप कार्ड दिल्ली मंगाकर इन्डेक्स प्रकाशित कर दे। कार्ड सस्था में लाये गये, किन्तु कार्य अपूर्ण होने के कारण पुनः डा. बनर्जी को कार्य पूरा करने हेतु भेज दिये गये। इसके बाद डा. बनर्जी ने संस्था के सभी तार, टेलेक्स व पत्रों का हवाला देकर अपने पत्र ३.४.८१ में वर्ष के अन्त तक कार्य पूरा करने का आश्वासन दिया तथा काम शीघ्र हो सके, इसके लिए एक सहायक की मांग की। संस्था के तत्कालीन अध्यक्ष साह अशोककुमार जैन से हुई वार्ता के अनुसार सहायक के खर्च हेतु सस्था से २७०० रुपया बैक ड्राफ्ट से भेजा गया, किन्तु इंक्स पूरा करके उन्होंने नहीं लौटाया जबकि इसके पूर्व भी जो खर्चा उन्होने मागा, उन्हें दिया जाता रहा है। डा. बनर्जी यह अच्छी तरह जानते थे, जैसाकि ललवानी जी ने भी "तीर्थकर" के अगस्त अक मे लिखा है, "दो हजार पृष्ठो के इस विशाल ग्रन्थ से बिना इन्डक्स के कुछ निकाल पाना असम्भव सा है, अत: विरजन इससे लाभान्वित नही हो पा रहे हैं।" यद्यपि ललवानी जी के इस कथन का आशय वीर सेवा मन्दिर का अपयश करना है, किन्त सच तो यह है कि आठ वर्ष बीत जाने पर भी इन्डक्स के प्रकाशित न होने की हानि वीर सेवा मन्दिर ही भोग रहा है. डा० बनी नही । इस ग्रन्थ के प्रकाशन मे सस्था की एक विशाल धनराशि व्यय हो चुकी है । ग्रंथ के समुचित उपयोग न होने से संस्था द्वारा व्यय की गयी पूर्ण राशि का उत्तरदायित्व डा० बनर्जी का है। इन्डक्स को परान करना डा. बनर्जी का यह व्यवहार श्रद्धेय छोटेलाल जी के प्रति अन्याय है, अर्थात इसे अमर्यादित व्यवहार को संज्ञा दी जायेगी। हमें आशा है कि ललवानी जी धोखाधडी का खेल छोड़कर डा० बनर्जी से उन का दायित्व पूरा करायेगे । इससे डा० बनर्जी के सम्मान की रक्षा तो होगी ही, अपितु संस्था का आर्थिक हानि तथा अकारण बदनामी से बचाया जा सकेगा और विद्वत्जन श्रद्धेय छोटेलाल जी के श्रम का लाभ उठा सकेंगे। यह सचना देना भी मेरा कर्तव्य है कि सम्बन्धित विषय पर कार्यकारिणी में गहन विचार-विमर्श हआ हैकि डा. बनर्जी इन्डैक्स का कार्य पूरा कर दे तो इन्डैक्स खण्ड मे सम्पादक के रूप में उन्हीं का नाम जायेगा और जो उचित उजरत वह चाहेंगे, कमेटी उस पर विचार करेगी और वह उजरत उचित सम्मान के साथ उन्हें दी जायेगी। -सुभाष जैन महासचिव : वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रियों द्वारा जिनाभिषेक होना निषिद्ध है श्री तेजकुमार गंगवाल कुछ समय पूर्व दिगम्बर आम्नाय मे भट्टारको का एक छत्र राज्य था। इनमे कुछ उदासीन प्रवृत्ति के धारी थे तो कुछ ऐश्वर्य के लोभी भी रहे। जो ऐश्वर्य के लोभी रहे उन्होने भगवान महावीर से चले आ रहे शुद्ध आम्नाय मे राग की मिलावट कर दी। तथा धर्म के नाम पर स्वच्छद प्रवत्तियो का प्रचार-प्रसार प्रारम्भ हो गया जैसे पचामतअभिषेक, स्त्री पूजन आदि । दक्षिण में ऐश्वर्य के लोभी भट्टारको द्वारा जो धर्म के स्वरूप को विकृत किया तो उनका अन्न भी हो गया किन्तु पचामृत अभिषेक, स्त्री प्रक्षाल, स्त्री पजन सरीखी विकृनिया आज भी चल रही है जो शुद्धा. म्नाय के विपरीत है। जहा तक उत्तर भारत का प्रश्न है यहा पर इस प्रकार की प्रवृत्तिया नही रही हैं कि स्त्रियो से प्रक्षाल करवाई जावे वे मूतियो को स्पर्श करे तथा पंचामत अभिषेक करे आदि । किन्तु कुछ वर्षों में इस प्रथा को प्रचलित करने तथा बढावा देने में कतिपय, आचार्य तथा त्यागियो के प्रयत्न प्रधान कारण रहे है। आज भी अगर हम देखे तो जगह-जगह शुद्ध आम्नाय के ही मन्दिर अधिकतर मिलते है । बुन्देलखण्ड को तो शुद्ध आम्नाय का तीर्थ क्षेत्र कहा जा सकता है। स्त्रियो मे एक विशेषता पाई जाती है जो भी रूढ़िया अथवा गलत मान्यताएं अधक्षद्धा से उनके हृदय मे घर कर लेती है फिर उनका भविष्य चाहे जो हो वे उससे हटती नही है परिणाम यह है कि आज हमारे घरों मे कुदेवी देवनाओ की पजन, आराधना करी व करवाई जाती है। (माता पूजना, ठटा खाना, पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि)। जब महिलामो में यह प्रचारित किया जाने लगा कि मूनि का अभिषेक करना धर्म है ऐसा करते रहने से स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति होती रहती है तो अन्य गलत परम्पराओ मे एक यह प्रथा भी जुट गई और त्यागी वर्ग व अन्यों द्वारा इमे पोत्साहन दिया जाने लगा। आज घर-घरमे मदिरजी बन गये है प्रतिमाएं विराजित हो गई है साथमे तो चलती रहती है जरा विचार तो करो कि १००८ श्री जिनेंद्र देव के प्रतिविम्ब की शोभा, जो वीतरागता को प्रगटता समवगरण समान मन्दिर जी मे होती है क्या अन्य किसी जगह हो सकती है कदापि नही। मन्दिरजी मे . वेदी पर, सिंहासन पर जो गोभा श्री जिनेन्द्र देव की प्रतिमा की होती है उममे विनय होता है, वीन राग छबी दर्शनीथ होती है । जीवो को मोक्षमार्ग में कारण होती है। क्या यही शोभा, विनय, बीत रागता साथ में रखने से, अलमारी में बद रखने से काष्ठ चौकी आदि पर जब चाहे विराजित कर दिया चाहे उठा लिया मा होने से होगी? नही, कदापि नही होगी अविनय तो होता ही है माथ में जिनेन्द्रदेव के अवर्णवाद स, मिथ्यात्व से अनत समार का अध भी हाता है। अर भाई मूति अरहंत भगवान का साक्षात प्रतिविम्ब है। गधोदक को प्रादर से मात्र अपने मस्तक पर लगाने के बजाय छोटा जाता है, शरीर पर मला जाता है परों में आकर गधोदक गिरता है क्या इसी का नाम विनय है। विचार तो करिए स्त्रियों को मुनिराज के साशं करने का स्पष्ट तया निषेध है तो प्रतिमा म्पर्श की बान एवं अभिषेक करना स्वत: निषिद्ध हो जाता है साथ ही पर पुरुष स्पर्श का प्रमग आता है इमसे शील में दोष लगता है। (क्रमश ) आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० २० वाषिक मूल्य : ६) २०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे विद्वान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते है। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन जैन ग्रन्य-प्रशस्ति सग्रह, भाग 1 : संस्कृत और प्राकृत के 171 अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण महित अपूर्व सग्रह, उपयोगी 11 परिशिष्टो पोर पं० परमानन्द शास्त्रों की इतिहास-विषयक माहित्य. परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, सजिल्द / ... जैन न्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग 2 : अपभ्रश के 122 अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण संग्रह। पनपन ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक प्रथ-परिच पोर परिशिष्टो सहित / स. प. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द / 15.00 समषितन्त्र पोर इष्टोपवेश : अध्यात्म , 50 परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्य : श्री राजकृष्ण जैन ... 3.00 जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या 74, सजिल्द / '7-00 कसायपाहडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह मौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे / सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के 1000 से भी अधिक पृष्ठों मे। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द / ... . ... 2500 ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : सपादक प. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री 12-0. मैन लक्षणावली (2 भागों में) : स०प० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्रा प्रत्येक भाग 40... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग . थी पद्म चन्द्र शास्त्री, मात विषयो पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन 2-00 Jaina Bibliography : Shri Chhotel al Jain, (An universal Encyclopaedia of Jain___References.) In two Vol. (P. 1942) Per set 600-00 सम्पादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, मम्पादक : श्री पद्मचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीर मेवा मन्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूमोलमपुर, दिल्ली-५३ -प्रिन्टेड -पत्रिका बक-पैकिट--