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________________ परिचय एवं काल निर्णय (ग) कोप्पल ग्राम में प्राप्त शिलालेख, जिसकी चर्चा पूर्व में ही की जा चुकी है, उसमे जटासिंहनन्दि का स्पष्ट उल्लेख है ।' पुरातत्ववेत्ताओं ने उसे ईसा की १० वी सदी का शिलालेख है किन्तु प्रो० उपाध्ये ने विविध तर्कों के आधार से उसे जटासिंहनन्दि के स्वर्गारोहण के सौ-दो सौ वर्षों के बाद उत्कीर्ण किये जाने का निर्णय किया है। उपाध्ये के तर्कों का चूंकि अभी तक खण्डन नही किया जा चुका है इससे प्रतीत होता है कि विद्वानों को उनका निर्णय मान्य है और इस प्रकार इस शिलालेख के अनुसार जटासिंहनन्दि का समय वि० स० ८३५ के पूर्व ही सम्भव है, बाद में नही । इस प्रकार उक्त तीनो तथ्यों के आधार पर जटासिंहनन्दि की उत्तरावधि वि० सं० ८३५ सिद्ध होती है। पूर्वावधि : (घ) कवि के जीवन अथवा रचनाकाल की पूर्वावधि के निश्चय के लिए भी कोई ठोस प्रमाण नही मिल सके है, क्योंकि कवि ने स्वय ही न तो अपने किसी गुरु का उल्लेख किया है और न ही किसी पूर्ववर्ती ग्रन्थकार, राजा, महाराजा, समकालीन नगरसेठ प्रथवा अपने किसी आश्रयदाता का ही उल्लेख किया है। इस कारण पूर्वावधि के निर्धारण में अनेक कठिनाइयाँ है, फिर भी कुछ ऐसे साधन है, जिनके आधार पर पूर्वावधिविषयक कुछ अनुमान किये जा सकते है। ऐसे साधनो में सर्वप्रथम व०च० में वर्णित सैद्धान्तिक आचारात्मक एवं दार्शनिक विषयो को लिया जा सकता है । जासिंहनन्दि ने व० च० मे सैद्धान्तिक दृष्टि से जहाँ आचार्य उमास्वाति रचित रचनाओं का आश्रय ग्रहण किया है, वही समन्तभद्र के स्वयम्भू स्तोत्र के कुछ श्लोको का कुछ अनुकरण भी किया है।" इसी प्रकार व० च० के कुछ दार्शनिक वर्णन प्रसंग सिद्धसेनकृन सन्मति प्रकरण के तुलनीय हैं। साथ ही सामयिक पाठ आदि की व्याख्या संस्कृत के "सामयिक पाठ" नामक ग्रन्थ के सदृश है ।" कुछ विद्वानों के अनुसार संस्कृत का सामयिक पाठ पांचवीं सदी के आचार्य "पूज्यपाद" कृत है ।" इन समकक्षताओं को देखकर यह अनुमान तो किया जा सकता है कि जटा ११ सिंहनन्दि के समक्ष पूर्वोक्त उमास्वाति, समन्तभद्र, कुन्दकुन्द, पूज्यपाद एव सिद्धसेन कृत रचनाएँ अवश्य रही होगी किन्तु दुर्भाग्य यह है कि उक्त आचार्यों का समय भी अद्यावधि विवादास्पद ही बना हुआ है। फिर भी उक्त आचार्यों में से सिद्धसेन, जिनके 'सन्मति प्रकरण' के अनेक स्थल व० च० के वर्णनो से अधिक मेल खाते हैं, उक्त सभी आचार्यों में परवर्ती सिद्ध होते है। प्रो० उपाध्ये प्रभृति विद्वानो ने उनका समय ईसा की सातवी सदी का अनुमान किया है।" (ङ) व० च० का महाकवि भारविकृत किरातर्जुनीम के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने से विदित होता है कि किरातार्जुनीयम् के स्थापत्य का व० च० पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। किरातार्जुनीयम् के छन्द वैविध्य ने तो उसे प्रभावित किया ही है, साथ ही युद्ध एव वस्तु-वर्णन भी उसके समकक्ष हैं। महाकवि भारवि का समय वि० सं० की सातवी सदी का पूर्वार्ध लगभग निश्चित ही है ।" (च) आचार्य जिनसेन - द्वितीय ने सिद्धसेन, समन्तभद्र, यशोभद्र, प्रेमचन्द्र श्रौर शिवकोटि के बाद जटाचार्य का स्मरण किया है।" आचार्य जिनसेन का समय पूर्व में बतलाया ही जा चुका है । इस प्रकार उक्त सन्मति प्रकरण (सिद्धसेन ) एवं किरार्जुनीयम् (भारवि ) के व० च० के पड़े हुए प्रभाव के लक्ष्य कर तथा जिनसेन द्वितीय के पूर्वाचार्य स्मरणम पर दृष्टिपात करने से यही प्रतीत होता है कि जटासिंहनन्दि विक्रम की सातवी सदी के पूर्व नही हो सकता और इस प्रकार उसकी पूर्वावधि विक्रम की सातवी सदी सिद्ध होती है । निष्कर्ष : उक्त सभी तथ्यो के आधार पर व० च० के रचयिता का समय विक्रम की मातवी सदी से नहीं सदी के मध्य सिद्ध होता है । उद्योतनसूरि के उल्लेखानुसार जटासिंहनन्दि विक्रम की नवीं सदी के पूर्वार्ध का सिद्ध होता है, किन्तु उद्योतनसूरि के काल तक व० च० की जिस प्रकार की सर्वत्र ख्याति फैल चुकी है, यदि उसकी कालावधि ( शेष पृ० २९ पर)
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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