SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बिचारार्थ : नये प्रकाशन पर साधुवाद 0 श्री मुन्नालाल जैन, 'प्रभाकर' वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित 'परम आध्यात्म जाते हैं जैसे यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव को ही परमात्मा तरंगिणी' को देखा बहुत सुन्दर ग्रन्थ है इसके साथ इसकी वोज भूत माना जायगा तब असैनी उसमे बाहर हो प्रस्तावना भी देखी बहुत अच्छी लिखी है। संस्था ने जायेंगे औरअप्राप्य टीका को प्रकाश में लाकर पुण्य का कार्य किया सब जीवों में परमात्मा बनने की शक्ति का अभाव है। प्रस्तावना को वीजमत परमात्मा, धर्म तथा वस्तु मानना पड़ेगा और लक्षण के जीव के एक देश मे रहने से आदि की परिभाषाये पढ़ी तो कुछ समझने में बड़ी कठि- अव्याप्ति दोष आयेगा जबकि पागम में परमात्मा बनने नाई पड़ी क्योकि वे परिभाषाये आगम में कही गई परि. की शक्ति मात्र संशी जीव में ही नहीं अपितु प्रत्येक जीव भाषाओ से मेल खाती नही दिखी और न कही आगम प्रमाण में है अर्थात (२) अतिव्याप्ति दूषण ये है कि अभव्य सज्ञी ही दिखे। परिभाषाएँ किस अपेक्षा से दी है यह खुलासा पंचेन्द्रिय जीव जो मुनि व्रत धारण करके नवमें ग्रीवक तक नहीं है ? उदाहरण के तौर पर कुछ परिभाषायें जैसे- पहुंच जाता है परन्तु वह सम्यग्दर्शन ज्ञान तथा सम्यक (१) परमाध्यात्मतरगिणी की प्रस्तावना पृष्ठ १० चारित्र को प्राप्त नहीं कर सकता और न परमात्मा बन पर जीव वीज भूत परमात्मा की परिभाषा इस प्रकार की सकता जबकि उपर्युक्त लक्षण के अनुसार वह भी शक्ति है-'यद्यपि संज्ञी पंचेन्द्रिय अवस्था से ही पुरुषार्थ चाल व्यक्त कर सकता है। छहढाला में कहा है-'मुनि व्रत हो सकता है-यह जीव वीज भूत परमात्मा है वट के धार अनन्त बार ग्रीवक लो उपजायो। पै निज आतम बीजों की तरह वट वृक्ष बनने की शक्ति को तरह पर. ज्ञान बिना सुख लेश न पायो॥' (जैसा कि प्रस्तावना मात्मा बनने की शक्ति इसमें है जिसको अपने पुरुषार्थ से मे-देकर खुलाहा किया है) यदि सजी पचेन्द्रिय जीव को इसे व्यक्त करना है।' इसका कोई आगम प्रमाण नही ही वीज भून परमात्मा मानेंगे तो अभव्य को भी मोक्ष दिया, जबकि आगम मे मात्र संज्ञी पंचेद्रिय में ही नहीं मानने का प्रसंग आयेगा परन्तु आगम में कहा है अभव्य प्रत्येक जीव में परमात्मा बनने की शक्ति कही है चाहे कभी भी मोक्ष प्राप्त नही कर सकता क्योकि अभव्य मे वह निगोद में हो चाहे किसी भी पर्याय में। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्चारित्र प्रगट करने की प्राचीन आचार्यों ने जो सैद्धान्तिक परिभाषाएं लिखी योग्यता नही । प्रभव्य की परिभाषा में कहा है कि जिस है उनको हम यदि बदलेगे तो जो भाव प्राचार्यों का है वह शक्ति के निमित्त से आत्मा के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, नहीं आ सकेगा। आचार्यों ने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया सम्यग्चारित्र प्रगट होने की योग्यता न हो उसे अभव्यत्व है कि हम उसमे से एक भी शब्द घटा बढ़ा नही सकने गुण कहते हैं । यदि ऐसा करेंगे तो सिद्धान्त का घात हो जायगा, भाव वट के बीजों की तरह बट वृक्ष बनने की शक्ति सज्ञी बदल जायगा अथवा कोई न कोई दोष आ जायगा जो पचेन्द्रिय व अभव्य जीव मे शक्ति होते हुए भी पुरुषार्थ से किसी भी वस्त के लक्षण मे नही होना चाहिए। वे दोष सम्यग्दर्शन, सम्परज्ञान, सम्यग्चारित्र को प्रगट करने की निम्न लिखित है-अव्याप्ति, अतिव्याप्ति तथा असम्भव। योग्यता (अभव्य सज्ञी पंचेन्द्रिय) मे नहीं है जिसके बिना प्रस्तावना में जीव बीज भूत परमात्मा की जो उपर्युक्त तीन काल मे भी (कभी) परमात्मा नही बन सकता ये परिभाषा है उसमें अध्याप्ति, अतिव्याप्ति दोनों दोष पाये अतिश्याप्ति दोष आ गया। सारांश यह निकला प्रत्येक
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy