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नये प्रकाशन पर साघुवाद
जीव में शक्ति होते हुए भी अमव्यत्व गुण के होने से बहुत इनको उत्पत्ति का कारण कर्म का अभाव हो जाता है तब तो सजी पंचेन्द्रिय जीव पुरुषार्थ करके सम्यग्दर्शन गुण को यह जीव हमेशा के लिए सुखी हो जाता है। कर्म के अभाव प्राप्त नही कर सकते जो मोक्ष अर्थात् परमात्मा बनने का बिना संसार में कोई भी जीव परम सुखी नही हो सकता मुख्य कारण है। वैसे चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सभी गुण- उस सुख की प्राप्ति धर्म के अर्थात् अपने स्वरूप के आश्रय स्थानवी जीव परमात्मा बनने की योग्यता रखते हैं किन्तु से होती है। इस धर्म का आविष्कार नही होता जैसे मुख्य कारण सम्यग्दर्शन है जिसके बिना परमात्मा बन परमाध्यात्म तरगिणी पृष्ठ १० पर कहा है-'जीव का ही नही सकता । इसके सिवाय क्षपक श्रणी मांडने वाला दुःख कैसे दूर हो इसके लिए जिस विज्ञान का आविष्कार साधु अवश्य ही थोड़े ही काल मे परमात्मा बन जायगा हमा उसी का नाम धर्म है।' धर्म की यह परिभाषा कही इसलिए अभव्य सज्ञी पचेन्द्रिय जीव मे सच्चा पुरुषार्थ
नहीं बतायी। कुन्दकुन्दाचार्य ने धर्म की परिभाषा इस करके परमात्मा बनने की योग्यता नहीं है इसलिए ऐसा प्रकार की है 'वस्तु स्वभावो धर्म' अर्थात् वस्तु का जो कहना चाहिए था कि परमात्मा बनने की शक्ति तो प्रत्येक
स्वभाव है वही उस वस्तु का धर्म है जीव नामा वस्तु का जीव मे है न कि संज्ञो पचेन्द्रिय जीव में परन्तु उस शक्ति
धर्म चेतमत्व जाननपना है पुद्गल का धर्म रूप, रस, गध को व्यक्त करने की योग्यता प्रत्येक संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मे
तथा स्पर्श है और उस धर्म का आविष्कार नही होता वह नही है वे ही सज्ञी पचेन्द्रिय जीव व्यक्त कर सकते है
तो उसमे स्वता होता है वह धर्म (गुण) वस्तु के आश्रय जिनमे भव्यत्व गुण है अभव्यत्व गुण वाले सशी पचेन्द्रिय
बिना नही होता जैसा मोक्ष शास्त्र मे भी कहा है द्रव्या जीव भी नही कर सकते । आगम में सर्वत्र परमात्मा
न गुणाः' गुण अर्थात् गुणद्रव्य के बिना नहीं होते। यदि बनने का उपदेश दिया है वहां (भव्य जीवो) को सबोधन
धर्म (गुण) का आविष्कार मानेगे तो धर्म के आविष्कार किया है। अभव्य जीवों को कहीं संबोधन नहीं किया
से पहिले कोई वस्तु ही न होगी अर्थात् ससार शून्य हो क्योकि उनमे परमात्मा बनने के पुरुषार्थ करने की
जायगा जबकि आगम में छ द्रव्यो के समूह को ससार योग्यता ही नहीं। अब यहाँ प्रश्न खड़ा होता है कि फिर
कहा है और संसार में ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं जिसका इस जीव को सुख की प्राप्ति कैसे हो? इसको जानने के
कोई न कोई धर्म नही धर्म अवश्य होता है धर्म का आवि. लिए हमे पहने सुख की तथा दुःख को परिभाषा समझनी
कार नहीं होता। जैसे अग्नि का धर्म उष्णता है उष्णता होगी। उसके लिए प० दौलतराम जी ने कहा है--'आतम
के बिना अग्नि का अभाव होता है इन छ द्रष्यो में धर्म, को हित है सुख सो सुख आकुलता बिन कहिए।' अर्थात्
अधर्म, आकाश तथा काल ये चार द्रव्य हमेशा से शुद्ध है दुख का स्वरूप आकुलता है तथा आकुलता का अभाव ही
बाकी दो द्रव्य जीव और पुदगल इन दो द्रव्यो का प्रनादि सुख है, इसके अतिरिक्त सुख नाम की कोई वस्तु नही है।
से एक क्षेत्रावगाह सबन्ध चला आ रहा है इसी लिए इस सुख तो जीव का स्वभाव है लेकिन मोह कर्म का सम्बन्ध
दो द्रव्यो को संयोन संबन्ध के कारण अशुद्ध कहा है दोनो जीव के साथ अनादि काल से चला आ रहा है जिसके
का सयोग सबन्ध होने पर भी दोनो का अस्तित्व भिन्न-२ निमित्त से इस जोव के अनेक प्रकार के विकृत परिणाम
है एक द्रव्य का गुण कहो, स्वभाव कहो या धर्म कहो होते है तथा अनेक प्रकार को पर पदार्थों को ग्रहण करने
दूसरे द्रव्य के धर्म रूप नही परिणमता क्योकि प्रत्येक द्रव्य की इच्छाये उत्पन्न होती हैं और जब तक वे इच्छाये पूर्ण
में अगुरु लघु गुण विद्यमान है जिसके कारण एक द्रव्य नही होती तब तक यह जीव दुमी रहता है जब कभी
दूसरे द्रव्य रूप, एक गुण दूसरे गुण रूप नही परिणमता पुण्य के उदय से कोई इच्छा पूर्ण भी हो जाती है तब यह .
और न गणों में कमी देसी होती ऐसा हर जगह आगम जीव सुख का अनुभव करता है परन्तु वह क्षणिक है क्यो
मेंकहा है। कि वे इच्छायें अनन्त है एक के बाद एक उत्पन्न होती ही रहती हैं। इसका उत्पन्न होना बन्द ना होता है तब सभी ६ द्रव्यों में पांच द्रव्य तो सुखी दुःखी होते नही