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________________ २०, वर्ष ४३, कि० ३ बनेकान्त दिगम्बर साधु के २८ मूलगण अपरिवर्तनीय होते हैं, प्रज्ञ के लेख में प्रतिपादित नामधारी साधुओं को परमेष्ठी ऐसा जानते हुए भी महाप्रज्ञ ने दिगम्बर-मान्य यम-रूप के रूप में कैसे स्वीकारेंगे? मल गुणों को नियम की कोटि मे रख कर एकता के नाम यदि महाप्रज्ञ जी शुद्ध हृदय से एकता चाहते हैं तो पर दिगम्बर सिद्धान्त पर सीधा प्रहार किया है-इसका महावीर से परम्परित दिगम्बर साधु को परमेष्ठी रूप में हमें खेद है। महाप्रज शिथिलाचार का पोषण कर रहे हैं स्वीकार करे-कराय: अपने आचार-विचार खान-पान में जो हमें स्वीकार नहीं। वे यह क्यों भूल जाते है कि दिगम्बर आगम-वणित श्रावकाचार का पालन कर, अपने दिगम्बर कभी भी वस्त्र सहित को साधु के रूप मे नही को श्रावक की कोटि मे उद्घोषित करें तब एकता का स्वीकारेंगे और उनके (महाप्रज्ञ क) साधु वस्त्र रहित होने प्रयास सम्भवतः आगे बढ़ सके । को तैयार नहीं होगे। ऐसी स्थिति में साधु-रूप की अपेक्षा, एक सलाह और । महाप्रज्ञ जी दिगम्बर आगमों में दोनों की एकता की बात सर्वया असभव ही नहीं अपितु । नहा आपतु वणित श्रावक और मुनि के आचार का निष्पक्ष भाव एव विसंवाद की चिंगारी है। गहराई से अध्ययन करे-सम्भवतः उनको सम्यक बोध यह सर्वविदित है कि स्थानकवासी साधु श्री कानजी का मार्ग मिल सके। दिगम्बर साधुओ मे २८ मूलगुण स्वामी ने दिगम्बर आचार व आगम से प्रभावित होकर और अन्य उत्तर गुण आत्म-विशुद्धि के लिए ही हैं। प्राजीवन दिगम्बर धर्म का प्रचार-प्रसार किया। इसके साधु की चर्या को अपगम के परिप्रेक्ष्य में ही देखना बावजूद, वे महाप्रज्ञ जी को अपेक्षा विशुद्ध आहार एक चाहिए-तोड़-मरोड़ कर या कोन, कब, कैसा, क्या कर बार लेते हा भी अपने को अवती-श्रावक की कोटि मे रहा है, इस दृष्टि से मूल चर्या को देखना उचित नहीं। मानते थे और सदा निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधुओ को परमेष्ठी हमारा उद्देश्य शिथिलाचार को रोकना होना चाहिए उसे स्वीकार कर उन्हीं के गुणो में भक्ति प्रदर्शित करते रहे। बढ़ावा देना नही। महाप्रज जी को अभी भी कोई जिज्ञासा फिर भी दिगम्बराम्नायियो ने उन्हें व्रतीश्रावक या हो तो हमसे सम्पर्क कर लें। कहा भी है-"आगमचक्न साधू परमेष्ठी के रूप मे स्वीकार नही किया । तब वे महा. साहू।" **************** **************************** धण-धण्ण-वत्थदाणं हिरण्ण-सयणासणाइ छत्ताई। कुद्दाण-विरहरहिया, पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ बोधपा० ४६।। तिल ओसत्तणिमित्तं, सम वाहिरगंथसंगहो णत्थि। पावज्ज हवद एसा, जह भणिया सम्बदरसीहिं ।। बोधपा०.५५॥ 'वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥ एदे खलु मूलगुणा समगाणं जिणबरेहिं पण्णता। तेसु. पमसो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ।' प्रव० ३, ८-९ ॥ Xxxkkkkk*******************
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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