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निबन्ध पर हमारा अभिमत
उत्तर गुणों का पालन करता है और ये उतर-गुण मूल- परिग्रह रूप पात्र के समकक्ष मानना घोर अज्ञानता है। गुणों से उत्पन्न होते हैं जैसे मूल से वृक्ष और शाखाएँ उक्तं च-"न विद्यते धर्मोपकरणादते शरीरोपभोगाय उत्पन्न होती हैं। कहा भी है
स्वल्पो पि परिग्रहो यस्य सः तथा" । अभि. रा०१/६०० ___ "मूल गुणापेक्षया उत्तरभूताः गुणा वृक्षशाखा इव उत्तर- "संभावना की दृष्टि : संवर्म वस्त्र प्रक्षालन" शीर्षक गुणा:- अभिधान राजेन्द्र २/७६३
अंश श्वेताम्बर साधुणो का उनका अन्तरंग विषय है। फलत :-उत्तरगुणों से मूलगुणों में परिवर्तन लाने इससे हमे प्रयोजन नहीं है। की बात नितान्त भ्रामक और आगम विरुद्ध है और एका- "कसोटी से संयम" शीर्षक मे जो लिखा है, वह ठोक हार जैसे मूलगुण को उत्तरगुण की कोटि में रखना नहीं है । क्योकि आपको नियम विषयक मान्यता ही गलत भी सर्वथा दिगम्बर मान्यता के विरुद्ध है।
व भ्रमोत्पादक है। दिगम्बरों मे एकाहार मूलगुण रूप __ब्रह्मचर्य की साधना हेतु भद्रबाहु जैसे आचार्य द्वाग है और आप उसे सामर्थ्य न होने पर दो-तीन बार भोजन स्थल भद्र को वैश्या की चित्रशाला में चातुर्मास बिताने ग्रहण को नियम' मे बांधते है। ‘स्मरण रहे यहा ग्रहण मे की आज्ञा दिये जाने को हम प्रामाणिक नहीं मानते हैं "नियम" शब्द का प्रयोग नहीं है । अपितु 'त्याग' मे है। क्योंकि भद्रबाह परम्परित आचार्य थे उनकी चर्या और कहा भी हैआशा परम्परित और पागमानुकूल होना हमें इष्ट है। "कालपरिच्छित्या प्रत्याख्यानं भवेन्नियमः"- सर्वार्थ. वेण्या की चित्रशाला में रहना लोकनिन्द्य और ब्रह्मचर्यव्रती दिगम्बर परम्परा मे मुनि को औद्देशिक आर का श्रावक तक को वजित है, तब यह कार्य किसी साधु को विधान नही है और ईपिथ-शुद्धि व अपरिग्रह का घातक कैसे इष्ट-सिद्धि करा सकता है ? हमारी दृष्टि से ऐसा होने से पादुका-ग्रहण का भी विधान नहीं है। आदेश अप्रामाणिक है। क्या वर्तमान में कोई आचार्य किसी उन्हें श्रावक गण प्रतीकार योग्य रोग के निवासाधु को वेण्या के घर में चातुर्मास करने की आज्ञा देता रण हेतु, शुद्ध काष्ठादिक औषधियां आहार के समय है या स्वयं चातुर्मास कर सकता है ?
देते हैं। वे परीषहजयी होने से अन्यों की भांति "लोभकषायोदयाद्विषयेषु संग: परिग्रहः (मूर्छा)" के साधुओं को यद्वा-तद्वा अभक्ष्य, अज्ञात औषधियों का परिप्रेक्ष्य मे दिगम्बर साधु पूर्ण अपरिग्रही होते हैं और श्रावक प्रयोग नहीं कराते व साधु भी अस्पतालो मे भर्ती नही के घर में उनका एक बार कर-पात्र में आहार लेना भी होते और ना ही अपने आरोग्य प्राप्ति हेतु श्रावको से इसका प्रमाण है। इससे उनकी इन्द्रिय-विषय की लालसा औषधि व उपचार की व्यवस्था की याचना करते हैं । रूप लोभ की निस्पृहता प्रकट होती है जबकि श्वेताम्बर एवं निष्प्रतीकार योग्य रोग से ग्रसित होने पर समाधिसाधओ में इन्द्रिय विषयो में लालसा बढ़ाने वाली पात्र मे मरण की आराधना करते हैं। आहार लाने, उसे वसतिका मे लाकर रखने की प्रवृत्ति है, भगवान महावीर निर्ग्रन्थ व निर्वाण पर्यन्त नग्न थे, उससे अनेक बार आहार लेने की प्रवृत्ति का उदय हुआ यह सभी जैन सम्प्रदाय स्वीकारते है और यह महावीर है। यदि पात्र रूप परिग्रह नहीं होता तो भोगोपभोग रूप का शासनकाल है । फलत. हमें महावीर की परम्परा आहार का संचय न होने से इन्द्रिय विषय का लोभरूप इष्ट है। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि एक तीर्थपूर परिग्रह न होता । इसलिए साधु को कर-पात्र में श्रावक के का शासनपूर्ण होने पर ही दूसरे तीर्थकर का आविघर एक बार आहार लेना ही उचित है और ऐसा अपरि- र्भाव होता है, फलतः महावीर के शासन मे पार्श्वपत्यीय ग्रह ही मुनि की प्रामाणिकता का परिचायक है। सवस्त्र केशी की उपस्थिति व उनके साथ गौतम पण
कमण्डल, भोगोपभोग की सामग्री लाने-ले जाने, घर का संवाद बताना अप्रामाणिक और शिथिलाचारियो संचय व खान-पान का साधन न होने से परिग्रह की सज्ञा द्वारा सवस्त्र दीक्षा और अन्य शिथिलताओं के परिपुष्ट में नहीं आता। वह केवल शुद्धि का उपकरण है-उसे करने का छल मात्र है।