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________________ युवाचार्य महाप्रज्ञ के "जैन शासन की एकता : आचार की कसौटी" निबन्ध पर हमारा अभिमत श्री सुभाष जैन महासचिव : वीर सेवा मन्दिर [सम्पादकीय नोट--श्वेताम्बर तेरापंथी साधु महाप्रज्ञ जी द्वारा लिखित उक्त शीर्षक निबंध प्रतिक्रिया, समालोचना निष्कर्ष के लिए वीर सेवा मन्दिर को मिला था। महाप्रज्ञजो के उक्त निबंध का आशय है कि यदि दिगम्बर जैन साधु के मन गुणों को मलगुण न मान, नियमरूप में मान लें। (जो परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते है) तो एकता का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। यानी सभी पथ के श्रावक, सभी पथ के साधुओं को साधुरूप में स्वीकार कर लें, आदि उनके लेख के कुछ प्रसा इस भांति हैं : १. श्वेताम्बर परपरा मे मूलगुण पांच हैं दिगम्बर परम्परा मे मूलगुणों की संख्या अट्ठाईस हैं-यह भेद एक विचिकित्सा उत्पन्न करता है। २. "आचार्य भद्रबाहु ने मुनि स्थल भद्र को वेश्या को चित्रशाला में चतुर्मास बिताने की आज्ञा दी यह व्यक्ति सापेक्ष परिवर्तन है।" ३. भोजन एक ही बार करना, यह नियम है। यदि किसी की सामर्थ्य न हो तो दो बार भोजन करने में क्या बाधा है ? ४. हाथ का पात्र के रूप में उपयोग करना एक सीमा का निर्धारण है। ठीक उमी प्रकार हाथ और पात्र- दोनो का उपयोग करना सीमा का निर्धारण है। ५. यदि पात्र रखना मूर्छा या परिग्रह है तो कमण्डलु रखने मे मूर्छा या परिग्रह क्यो नही ? ६. एक स्थविर मुनि पादुका पहिन सकता है। ७. श्वेताम्बर और दिगम्बर सब मुनि चिकित्सा कराते है । ८. भगवान पार्श्व और भगवान महावीर की परम्परा मे आचार विषयक भेद बहुत था, आदि । उक्त सभी प्रसगो को लेखक ने गहराई से विचार कर अभिमत दिया है। पाठक देखें-सम्पादक] म ससारी जीवन की भचार की कसौटी का माप जिन्हें बदला जा सके । श्रावक के परिग्रह-परिमाण आदि २प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के परिग्रह से के रूप में अनेक व्रत होते हैं और उनमें ग्यारह प्रतिगाओ मुक्तता की मात्रा है। परिग्रह से मुक्तता का साधन का विधान किया गया है-ये सब नियप की कोटि में गगद्वेष का परिहार है। राग-द्वेष के परिहार का आते है । साधु के यम रूप अट्ठाइस मलगुणों मे जो न्यूनामाप आचार से किया जाता है--जिस मात्रा में आचार धिक रूप-नियम की बात करते हैं, वे साध को कोटि में से शद्धि आती है, उसी मात्रा में परिग्रह से मुक्ति न आकर श्रावक की कोटि मे आ सकते हैं, बशर्त उनकी परिलक्षित होती है और हम उसे भौतिक इन्द्रियो से ज्ञात आहार-विहार आदि क्रियायें आगमानुकूल मर्यादित व करते हैं । अन्यथा, वाह्याचार के बिना चाहे जो भी स्वयं शुद्ध हों जैसे ब्रह्मचारी, क्षल्लक, ऐलक आदि के पद । को वीतरागी धोषित कर देगा और उसके निषेध के लिए यद्यपि दर्शनाचार आदि पांचों आचार मुख्य हैं और हमारे पास कोई माप-दण्ड नहीं होगा। इमीलिए प्राचार चरित्राचार मे भी दर्शनाचार मल है। फिर भी महाप्रज्ञ के श्रावक और मुनि जमे दो भेद दिये गये है। प्रत्यक्ष मे जी का संकेत चारित्राचार के विषय पर चर्चा करना मुख्य मुनि परमेष्ठी श्रेगगी मे होने से परिग्रह का भी त्यागी है है। सौ चारित्राचार दो रूपों में है-मुनि रूप और श्रावक और उसके अठाईस मूल गुण है। ये मलगुण आजीवन रूप । मुनि-पद यम रूप है और श्रावक पद नियम रूप । होने से यम ही होते है - ये नियम की कोटि मे नही आते दि० मुनि २८ मूलगुणो के साथ अपनी परम विशुद्धि के लिए
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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