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________________ भ० पाश्वनाथ के उपसर्ग का सही रूप चतुविशति की स्तुति में भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति वर्ग तो थोड़ी सहाय करती है या अनुमोदन देती है। श्लोक नं०१०: किन्तु आश्चर्य है कि ऐसे प्रमाण होते हुए धरणेन्द्र को इस स्तोत्र में भी धरणेन्द्र ने फण किया ऐसा अर्थ भुलाकर पद्मावती को ही प्रमुख व्यक्तित्व अपित किया है। निकलता है : पद्मावती की कई मतियो में पार्श्वनाथ की प्रतिमा देवी छठा प्रमाण : की चोटी जैसी लगती है। क्या देवाधिदेव का यह अपमान दैत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि आयो फनिधार। अवर्णवाद नही है । मुनिराजे आर्यिका से भी ५-, हाथ गयो कमठ शठ मुख करि श्याम, नमो मेरु समान पारसस्वाम। दूर रहे ऐसा विधान होते हुए पद्मावती-सी पर्यायी ने महा -धानतराय व्रती मुनिराज पार्वनाथ को उठाकर अपने सिर पर कैसे इसमें भी पावती का नामनिशान नही है । फनिधर बिठाया और उसमे क्या कोई प्रकार का औचित्य है ? का सातमा प्रमाण है-कलकत्ता से प्रकाशित प० पन्ना- समझ में नही आता, ऐसा भद्दा और विचित्र विकल्प लाल साहित्याचार्य से अनुदित "चौबीस पुगण पन्ना मतिकारो को कैसे आया ? उनका प्रेरक कौन रहा होगा? २३६ (पीछ देखें)। अपने उपकारी पार्श्वनाथ के ऊपर उममे क्या कोई बुद्धिमानी है या स्टंटरूप फरेव कार्य है ? होनेवाला धोर उपसर्ग का वृत्तात जान लिया। तत्क्षण पर सब विचारणीय है। में वे दोनों घटना स्थल पर पहुचे। और उन दोनो ने प्राचीन समय से चलता है इसलिए उसको पूज्य उन्हें अपने ऊपर लिया। और उनके सिर पर फणावली मानना यह भी दलील हृदय को चुभती है । ये प्रमाणो से का छत्र लगा दिया जिससे उनके ऊपर पानी की बूद भी। लगता है कि मति निर्माण मे जानबूझकर ही कुछ गड़बड़ गिर न सकती थी। की गई है। आज पार्श्वनाथ का तो नाम है बोलवाला इसमे मात्र पद्मावती ने फन ताना और भगवान को पद्मावती का है। इनके स्वतन्त्र मन्दिर भी निर्माण हए हैं। उठाया ऐसा वर्णन नही है। जो आज प्रतिमा मे दर्दाशत पद्मावती भवनवासी देवी है जबकि पार्श्वनाथ देवाधिदेव हैं सिद्ध परमात्मा है। नाममात्र पार्श्वनाथ औ. काम दोनो शब्द से दो फण होना चाहिए। किन्तु फण तो पूरा पद्मावती का ? आज भौतिकवाद मे पैसे को परमेश्वर एक है। इसलिए पद्मावती मात्र अनुमोदक ठहरती है। का स्थान ऐमी पूजा भक्ति से प्राप्त हो गया। लोभी, आगम मे लिखा है कि भगवान पर ज्योतिषदेव ने लालची थ वक सही-न-सही [गलत] भेद जानता नहीं है। जब उपसर्ग शुरू किया तो घर णेन्द्र का आमन कसायमान वह तो भक्ति द्वारा धन, वैभव ससारसुख चाहता है, वह हुा । वह अपनी सगनी को लेकर दौड़ता आया और बिना मिथ्यात्व तथा अयोग्य विनय के कारण शक्य नहीं है। पुरुषोचित कार्य करके उसने अपना पुराना उप ।र का किन्तु कौन ऐसे पापी जीवो को बोध करावे मस्तु । बदला चुका कर वापिस चले गए थे। विजयनगर सामान्यतः ऐसे कार्य पुरुषवर्ग ही करते हैं। स्त्री गुजरात (पृ. १३ का शेषांश) लघीयर त्रय भट्टाकलंक का एक महान दार्शनिक ग्रन्थ है, प्रामाणिक अनुवाद हो, जिमसे संस्कृत न जानने वाले जिस पर किया गया मेरा यह दार्शनिक अध्ययन एक लघ समीक्षक जैन न्याय और दर्शन का मूल्यांकन करके भारप्रयास है। हम समझते हैं कि जैन न्याय और दर्शन को तीय न्यायशास्त्र के इतिहास मे भट्टाकलक एव उनके समझने के लिए यही एक ग्रंथ पर्याप्त है । अब आवश्यकता अवदान का निर्धारण कर सके। इस बात की है कि भट्टाकलक के ग्रथों का राष्ट्रभाषा में
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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