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________________ भ० पार्श्वनाथ के उपसर्ग का सही रूप D क्षुल्लक चित्तसागर जी, एम. ए., एल-एल. बी. पद्मावती देवी की मति देखने से मन मे कई शंकाएं पृथ्वी से उठाकर खड़ा हो गया। और उन्हें ऊपर पद्मावती उत्पन्न हुई थीं। बिहार में अनेक मन्दिरों मे और अनेक देवी अपनी भक्ति से उन्नत सघन वज्रसदृश तथा जल के तरह की पद्मावती की मूर्तियां देखने को मिली तब शंकाएं द्वारा अभेद फणमंडप तानकर सजग हो गई ॥५॥ यह और पक्की बनीं । मुझे लगता है कि जानबूझकर ही ऐसी अनुवाद ख्यातनामा पंडित पन्नालालजी साहित्याचार्य का मूर्तियां बनवाई गई हैं। और अब वे खूब प्रचलित हो है। इसलिए पूर्ण विश्वसनीय है। इस पाठ मे स्पष्ट है कि गई हैं। इसलिए प्राचीनत्व प्राप्त कर एक आराध्य का धरणेन्द्र ने अपने फणो द्वारा भगवान को उठाया। जब स्थान लेकर बैठ गई हैं। मति में औचित्य और सहीपना आज की बनी मूर्तियों मे धरणेन्द्र दिखता ही नही है। कितना है वह भी विचारणीय है । स्वाध्याय मे अभी तक तीसरा प्रमाण पज्य जानमती माताज पांच-छः प्रमाण मुझे मिले हैं। जो यह मूर्ति के स्वरूप में, का। उन्होंने भगवान पार्श्वनाथ की दो स्तुति बनाई है। गड़बड़ है ऐसा सिद्ध करते हैं। मूल संस्कृत पद्य का हिन्दी अनुवाद निम्न प्रकार से हैप्रथम प्रमाण है भावि-तीर्थकर बनने वाले समर्थ दोनों में भाव एक समान है। वीर ज्ञानोदय प्रथमालाताकिक आचार्य समन्तभद्र स्वामी का, जिसमे पार्श्वनाथ हस्तिनापुर का प्रकाशन "सामायिक" का पृ० ११६ पर भगवान की स्तुति मे शब्द है। अनुवादित श्लोक है। "बृहत्फणा-मण्डल ........"डिदम्बुदो यथा" (२) "हे जिन ! तेरी भक्ति भारवश से धरणेन्द्र झटिति आकर, मल श्लोक अर्थ :-उपसर्ग से युक्त जिन पाश्वाथ तप-उपसर्गकाल मे शिर पर फण को छत्र किया सुखकर । भगवान को धरणेन्द्र नामक नागकुमार देव ने चमकती इसमे धरणेन्द्र ने छत्र किया ऐसा कथन स्पष्ट है। हुई बिजली के समान पीली कान्ति से युक्त बहुत भारी तदुपरान्त इस पुस्तक के पन्ने १११ पर श्लोक है : फणामडल रूपी मडप के द्वारा उस तरह विष्टित कर पुण्योदय से फरणपति आसन कपा, पद्मावती के साथ । लिया था जिस तरह कि काली सध्या के समय बिजली से आकर फण का छत्र किया प्रभु शिर पर बदूं पारसनाथ ।। यूक्त मेघ पर्वत को वेष्टित कर लेता है। श्लोक में जो इममें भी धरणेन्द्र छत्र किया और पद्मावती तो मात्र कुछ किया वह घरणेन्द्र ने किया है। पद्मावती का नाम साथ आई थी ऐसा वर्णन है। निशान नहीं है। जब आज मूति मे धरणेन्द्र अलो। हो चौथे प्रमाण में पडित भूधरदास का पार्श्व पुराण गया है मात्र पद्मावती ही दिखती हैं। (प्रकाशन १७८९) पन्ना १२५ पर कथित है : दूसरा प्रमाण है आचार्य सकल कोनि जी के "पार्श्व तव फेनसे आसन कंपियो, जिन उपकार सकल सुधिकर कियो ! चरित्र" के पृष्ठ ७२५ पर लिखा है- "ऐसा विचार कर तलखिन पद्मावती ले साथ । आयो जहँ निवौं जिननाथ ।।४३ धरणेन्द्र पृथ्वी का भेदन कर अपनी स्त्री के माथ शीघ्र ही करि प्रनाम परदछना दई । हाथ जोरि पद्मावती नई। जिनराज के ममीप जा पहुंचा ।।८२॥ तीन प्रदक्षिणा देकर फनमडप कोनो प्रभु शीस । जलधारा व्याप नहीं ईस ॥४४॥ प्रणेद तथा पपावती ने भगवान को नमस्कार किया। इसमें भी पद्मावती ने कुछ नही किया, मात्र वह ८३।। तदनन्तर धरणेन्द्र शीघ्र ही भगवान की बाधा दूर अपने स्वामी के साथ आई थी। करने के लिए उन्हें देदीप्यमान फणाओं की पक्ति द्वारा पचम प्रमाण :-आचार्य सुधर्मसागरजी द्वारा रचित
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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