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नौतिकाव्य की अर्थाचित कृति 'मनमोदन पंचशती
आकर्षक और बोधगम्य शैली मे प्रतिपादित करने के अतिरिक्त छोष ने लोकव्यवहार के महत्वपूर्ण पक्ष भी उजागर किए हैं। 'बाचना' व्यक्ति की वाणी, मन, तन और बुद्धि को कितना तेजहीन कर देती है, इस विषय में छत्रशेष की मान्यता है
जो बन गए प्रसूति दूरि बास बसे प्रीति, चित्रा स्वाति गये देह, दिष्ट न परत है । तैसे गुन तेज मन बुद्धि साज सनमान याचना करन दूरि देस विचरत है । गलभंग सुरहीन गाम खेद भय सोच, मरन चहन इस याचक धरत है । याचना सम नहि दीनता जगत अन्य, मृतक समान दिन पूरन करत है ।। १६९ ॥ वायदा करके उसे पूरा न कर सकने के दुष्परिणाम भारतीय चिन्तन परम्परा मे प्रचलित अवश्य हैं किन्तु नीतिकाव्य में क्षेत्र मे ही इन्हे प्रभावक ढंग से प्रस्तुत किया है। वे चाहते है किसी से वायदा करने पर उसकी तुरन्त पूर्ति करना श्रेयस्कर है। भविष्य के लिए किसी के प्रति कोई वायदा थाती रूप मे रखना हानिप्रद हो सकता है तथा अपयश का कारण भी ।
"दीजिए न वरदान भूलि कभी काहूं ही के,
दीजिए तो उतकाल कोस मे न रखिए । कोस रखें पर्छ देन समैं दुख होय,
देय न तो श्रौजस श्रवन द्वार चलिये ॥ जो कदाचि देव जोग नसि जाय विभो कहूं, तो वचन व कीचक भूमषिये । पूरब अनेक नृप जसरथ आदि मन,
घने पछिताये शेष राखि भूत लखिए ।।१६८॥ कृषि, वाणिज्य, धर्मसाधना विषयक सभी कृत्य अवसरानुकूल ही सम्पन्न होते है ऐसी मान्यता की है—
शेष
जो किसान कृषि सर्वे कृषि नावन को छोडि
कुसमय बीज बोये फल न लहत है । जो बनिक बानिक केस करें आन काज,
बानिज विनां धन लाभ को गहत है । तो अयान धर्म समैं धर्म साधन को तजि,
सेय विषै सुख बहु संकट सहत है । निज निज समैं सब कारज सफल जान,
बुध सर्वे गगन मे उदित रहत है ।। ३१४ किसी भी कार्य को यथावसर करने की तत्परता आवश्यक मानते हुए भी क्षत्रशेष ने जल्दबाजी अथवा 'आकुलता को कोई महत्व नहीं दिया। अवसरानुकूलतायें यदि किसी कार्य की सफलता है तो आकुलता मे उसका बिगाड़ भी। दोनो विपरीत स्थितियो मे समन्वय ही व्यक्ति की चतुराई है। उतावलापन, क्रोध, अदया आदि
उदित ही नास करें,
का कारण भी है । क्रोध महा रिपु व जैसे दब दारू पैठि है तत छिन है। दयालता मूल उनमूलन कुदाल सम,
अदया बबूल द्रुम पोषन को घन है ॥ स्याम सर सोखन को वृषमान तेज सम
दुर्गति गमन द्वार दुख द्रुम वन है । अनरच हेत बहू ओगुनि निकेत
अति आकुलता खेत त्याग करें बुधजन है || २६७॥ वृद्धावस्था आने पर व्यक्ति स्वजन, परिवार और समाज से उपेक्षा पाते हुए भी उनमे निरन्तर प्रासक्ति रखता है। ऐसे व्यक्ति पर 'धनि तेरी छाती कहकर व्यग्य करते हुए छत्रशेष ने वृद्धावस्था का कुत्सित चित्र प्रस्तुत किया है
प्रथम कलेस मूल तन
सनबंध तैरं,
बात पित्त कफ आदि बहु रोग घर है । पीड़ो क्षुधा तृषा सीत उष्ण कौ न धरै धीर,
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कुसित कूं गघ अपवित्र मलधर है ॥ सुभ अशुभ मह विवृद्धि पाप कर्मफल,
उदं रूप तेरे हर दम दुषकर है । स्वजन सपाती, परमारथ के पाती,
अरे धन्नि तेरी छाती येतं परप्रीत वर है ॥ दर्शन एव आचार विषयक नीति तत्त्वो के विशाल ग्रंथ 'मनमोदन पंचशती' के कतिपय उद्धरणों से यह प्रमाति है कि रीतिकाल का अज्ञात कवि शेष रहीम, बुन्द आदि सूक्तिकारों के समान ही भारतीय समाज का प्रकाश स्तंभ है। ११०- रणजीतनगर, भरतपुर