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नीतिकाव्य की अचचित कृति : 'मनमोदन पंचशती'
0 डॉ० गंगाराम गर्ग, भरतपुर
प्रसिद्ध दिगम्बर जैन मन्दिर सोनी जी की नसियां अजमेर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध 'मनमोदन पंचशती' अशात कवि छत्रशेष की रचना है। ५०० कवित्त, सवैया और छप्पय छदो मे लिखित इस रचना में दर्शन, धर्म, भक्ति और श्रावकोचित आचार की सूक्तिया बोधगम्य, रोचक और सरल भाषा मे कही गई है।
प्रन्थारम्भ में कवि ने तीर्थंकर ऋषभदेव की वदना नो सवैया छंदों में प्रस्तुत करके अगले दस छदो में नवकार मंत्र का महत्व प्रतिपादित किया है। पुद्गल, आत्मा, सम्यक्त्व, पुनर्जन्म, कर्मबन्धन, मोक्ष आदि दार्शनिक विचारो को अधिक बोधगम्य बनाने के लिए कवि ने दृष्टान्त अलकार का व्यापक प्रयोग किया है। परद्रव्य में आसक्त आत्मा के भटकाव की स्थिति मकड़ी, तोता, कुत्ता, पतंग के दृष्टान्तो से स्पष्ट की है और उसे दु.खदायी प्रमाणित किया हैजैसें नद मकरी उगलि निज मुख तार,
आपु ही उलझि बहु दु.खी होय मरि है। जैसे मूढ सुक गहि नलिनी को नीचो होय, परि करि ग्रह्यो मानि पीजरा मे पर है। जैसें कांच भोन स्वान भूसि भूसि तजे प्रान, दीपक को हित मांनि पतंग जो बरं है। तैसें यह जीव भलि अपनों स्वभाव, पर वस्तु अपनाय चहु गति दुख भर है।।१२२॥
भूत, वर्तमान, भविष्यत् तीनों कालो में सुखदायी धर्म की उपेक्षा करके विषयों में आसक्ति को कवि बहुत बड़ी मूर्खता मानते हैं। दृष्टान्तमयी शैली मे श्रावको के लिए उनका उद्बोधन इस प्रकार है
जैसे कोई मूरख कनिक खेत वारि हेत, काटत कलपट्टम मन मैं सिंहावतो। जैसें कोई विष वेलि पोष पीयूष सीचि, भसम के हेत मूढ़ रतन अलावतो॥
जसें कांच खंड साटै मानिक ठगावै सठ, मोतिन की माला पोत बदले गमावते । तंसें वर्तमान भावी काल सुखदाय धर्म, घाति के अयान मन विष मे लगावतो ॥११॥
श्रावक धर्म में 'रात्रि भोजन त्याग' और 'तप' की महत्ता प्रतिपादित करते हुए नीतिकार ने अहिंसा, अक्रोध, शील, दान, सत्य की अधिक ग्राह्य बतलाया है। शील के महत्व के विषय मे कवि की धारणा है
सील ते सरल गुन श्राप हिय वास कर, ___सील ते सुजस तिहुं जग प्रगटत है। सील ते विघन ओघ रोग सोग दूर होय, सील ते प्रबल दोष दुख विघटत है ॥ सील ते सुहाग भाग दिन दिन उदै होय,
पूरब करम वध दिननि घटत है। सील सों सुहित सुचि दीसत न आनि जग'
सील सब सुखमूल वेद यो रटत है ॥३९८
अपरिग्रह तथा त्याग को प्रधानता देने के कारण जैनाचार मे कृपणता को निंदनीय ठहराया गया है। नीतिकार शेष, निर्दयता, स्तेय, संशय, परनिन्दा, मायाचार, विश्वासघात, कुसंग आदि दुर्गुणों का मूलाधार कृपणता को मानकर उसे त्याज्य ठहराते हैं -
हिय न दया, नहीं असत वचन त्याग, परधन परनारि की चाह बढ़ती। मूरछा अपार पर औगन कथन प्यार, लिए मायाचार, हिये लोभ लाग बढ़ती। विसवासघासी, अनाचार पक्षपाती, सदा दुर्जन संघाती उतपाती रीति अड़ती। कृपन कृत घन अदेसक सुभाउ जाको,
ताकी करतूति की न ठीक कछू परती ॥१५३॥ जैनदर्शन और जैनाचार के मूल सिद्धान्तों को मधुर