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भद्राकलंककृत लघीयस्त्रय: एक दार्शनिक अध्ययन
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करके, नय के भेदों पर विचार किया गया है। इसमें गम के लिए प्रमाण, नय निक्षेप आदि साधन के रूप में बताया गया है कि द्रव्याथिक और पर्यायाधिक के रूप में माने गये हैं । इन सभी का उक्त अध्याय के प्रथम परिच्छेद मूलनय दो ही हैं। परन्तु नयों का भर्षनय और शब्दनय में प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय परिच्छेद में श्रत के के रूप में भी विभाजन किया जा सकता है। नंगमादि स्याद्वाद और नय के रूप मे दो उपयोगों की चर्चा के नयों को इनवों नय के मूल दो भेदों में विभक्त किया गया साथ अत्यन्त आवश्यक होने के कारण अनेकान्तवाद का है। इस प्रसंग में अकलंक के इस कथन से कि “निश्चय भी प्रतिपादन किया गया है। तत्पश्चात् लघीयस्त्रय और व्यवहार नय द्रव्याधिक और पर्यायापिक नय के के प्रवचन प्रवेश के आधार पर स्याद्वाद, नय, श्रुत, नय आश्रित नय है" निश्चय और व्यवहार की समस्या का के भेद, निक्षेप का स्वरूप भेद एवं उसका प्रयोजन प्रवचन समाधान हो जाता है। इस अध्याय के द्रव्याथिक नय का फल एवं प्रवचन शास्त्र अभ्यास की विधि बादि का नामक द्वितीय परिच्छेद में द्रव्याथिक नय की व्युत्पत्ति, विवेचन किया गया है। स्वरूप, अर्थनय के रूप में उसकी मान्यता आदि के विचार- नि.सन्देह जैन न्याय और दर्शन की पर्याय के रूप में पूर्वक इसके भेद नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजसूत्र नयों अकलंक को यदि माना जाये तो अत्युक्ति नहीं होगी, की मीमांसा अन्य दर्शनों के साथ तुलनात्मक ढंग से प्रस्तुत क्योकि उन्होने ही सर्वप्रथम जैन दर्शन में अन्य दर्शनों में की गई है । "पर्यायाथिक नय" नामक परिच्छेद तृतीय मे विकसित दर्शन और न्याय के समान जैनन्याय और दर्शन पर्यायाथिक नय की परिभाषा उसके भेद, शब्दादि नयों को संस्कृत भाषा मे निबद्ध कर लघीयस्त्रय जैसे महान को पर्यायाथिक नय के अन्तर्गत रखने के कारण शब्दादि सूत्रात्मक ग्रंथों का प्रणयन किया। इन ग्रंथों मे उन्होंने नयों का स्वरूप आदि के प्रतिपादन पूर्वक इस अध्याय के ही परम्परा से प्राप्त चिन्तन को युग के अनुरूप ढांचे में अन्त में नयाभासों का भी विवेचन किया गया है। ढालने के लिए सर्वप्रथम प्रमाण, प्रमेय, नय आदिकी अका
प्रवचन अथवा आगम : "प्रमाणमीमांसा" नामक ट्य परिभाषाएं स्थिर की तथा अन्य परम्पराओं में प्रसिद अष्टम अध्याय के दो परिच्छेदों में विभक्त किया गया है। न्याय और तर्कशास्त्र के ऐसे बीज जो जैन परम्परा में प्रथम परिच्छेद में प्रवचन का स्वरूप, उसकी प्रमाणता नही थे, स्वीकार कर उन्हें आगमिक रूप दिया ; का आधार, विषयवस्तु, अधिगम के उपाय प्रमाण, नय, अन्त मे "उपसहार" है, जिसमें भट्टाकलक द्वारा जैन निक्षेप, श्रुत के उपयोग, प्रवचन का प्रयोजन एव फल आदि न्याय और दर्शन के क्षेत्र में किये गये उनके अवदान का के बारे में लिखा गया है।
सक्षेप मे उल्लेख करते हुए शोध के निष्कर्षों का समावेश मुख्य और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मति, श्रुत आदि के किया गया है। प्रत्यक्ष और परोक्षत्व आदि से सम्बन्धित अकलंक की परिशिष्ट मे सन्दर्भ ग्रन्थ सूची एव भट्टाकलंक विषकुछ ऐसी व्यवस्था थी, जिसके कारण प्रतीत होता है कि यक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ मे प्रकाशित शोध लेखोकी अकलंक को स्वतंत्र रूप में प्रवचन प्रवेश लिखना पड़ा। सूची प्रस्तुत की गयी है। जिसमें उन्होंने परम्परा से प्राप्त चिन्तन को विवेचित भारतीय दर्शनो में ऐतिहासिक दृष्टि से जैन न्याय किया है। इसमें उन्होंने कहा है कि सर्वश, सिद्ध परमात्मा को महत्वपूर्ण स्थान दिलाने वाले भट्टाकलंक प्रथम आचार्य का अनुशासन ही प्रवचन है। आप्त की वाणी प्रवचन है। हैं, जिन्होने अपने तीन प्रकरणों वाले सूत्रशैली में निबद्ध इस दृष्टि से प्रवचन या मागम की प्रमाणता का मुख्य लघु ग्रंथ "लघीयस्त्रय" मे जैन न्याय का ताकिक विवेचन आधार आप्त के गुण सिद्ध होते हैं। प्रवचन की यह किया है। परम्परा अनादिकालीन है और उसका विषय जीब-अजी- अकलंक और उनके लघीयस्त्रय विषयक उपयुक्त वादि के बनेकान्तात्मक स्वरूप का प्रतिपादन है, जिसका अध्ययन के आधार पर हम संक्षेप में कह सकते हैं कि प्रतिपादन स्थाबादपद्धति से किया जाता है। उनके बधि
(शेष पृ० १७ पर)