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१८, वर्ष ४३; कि०४
अनेकान्त
आशाधर के साक्षात शिष्य थे या परम्परया पर वे आशा- पुत्र और रामनाम से विख्यात सोमवंशी जैन नरेश घर के पश्चातवर्ती हैं, यह निश्चय है। प्राशाधर ने नाभिराय के पढ़ने के लिए की थी। अपनी अन्तिम कति 'अनगार-धर्मामत-टीका' वि०सं० अ.चि. में पांच परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद के १३०० (१२४३ ई.) में पूर्ण की थी। इस प्रकार १०६ श्लोकों में कविशिक्षा पर प्रकाश डाला गया है प्राशाधर का समय तेरहवी का पूर्वार्ध और अर्हद्दास का द्वितीय मे शब्दालंकार के चित्र, वक्रोक्ति अनुप्रास और १३वी का उत्तरार्ध तगा इसी आधार पर अजितसेन का यमक के चार भेद बताकर चित्रालकार का विस्तार से समय अर्हहास के बाद चौदहवी शती का प्रथम चरण विवेचन है । तृतीय में पुनः वक्रोक्ति आदि का सभेद मानना चाहिए।
निरूपण, चतुर्थ मे ७० अर्थालंकारों, पचम मे नव रसों जैन परम्परा में अजित सेन नाम के अनेक आचार्य
रीतियों, शब्द-स्वरूप-भेद और शक्तियों के गुण-दोषो हुए हैं, पर अ०चि० के कर्ता दिगम्बराचार्य थे, उनकी
और अन्त मे नायक-नायिका भेदों का बड़े विस्तार से गुरु परम्परा आदि के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं
निरूपित किया गया है। अनेक मौलिकताओं के कारण मिलता, तथापि आधुनिक शोध मर्मज्ञों के कथन ध्यातव्य
यह ग्रन्थ अलकार विषयक ग्रन्थो मे महत्त्वपूर्ण स्थान है। डा. ज्योतिप्रसाद जैन ने लिखा है कि--'अजिरसेन
रखता है। यतीश्वर दक्षिण देशान्तर्गत तुलूव प्रदेश के निवासी सेनगण पीगरिगच्छ के मुनि सम्भवतया पावसेन (ज्ञाततिथि विजयवणा: १२७१ ई.) के गुरु, महामेन के सधर्मा या गुरु थे।"
विजयवर्णी की 'शृगारार्णव चद्रिका' काव्यशास्त्र डा. नेमिचन्द शास्त्री ने भी उनके सेन सध के आचार्य विषयक महत्वपूर्ण रचना है। इनके व्यक्तिगत जीवन के होने की पुष्टि की है ।" उनवा इम मान्यता का हेत सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। प्रशस्ति से 'भंगारमञ्जरी' का अन्तिम भाग है।"डा. शास्त्री अ.च. पता चलता है कि ये मुनीन्द्र विजयकोति के शिष्य थे। का रचना काल १२५०-१२६० ई० मानते हैं, जो उचित उन्होंने राजा कामराय की प्रशसा की है तथा कर्णाटक प्रतीत नहीं होता । डा. ज्योति प्रसाद जैन १२४०-१२७०।।
के गूणवर्मन आदि कवियों का उल्लेख किया है। जिससे ई० मानते है जो मान्य प्रतीत नहीं होता। दोनों विद्वानों पता चलता है कि सम्भवतः ये कर्णाटकवासी रहे होगे। ने अपने तर्क की पुष्टि मे अहंदास को आशाधर का डा० शास्त्री ने लिखा है-११५७ ई० में बंगवाडी साक्षात् शिष्य मानकर मुनिसुव्रत काव्य का काल १२४०, पर वीरनरसिंह शासन करता था उसका एक भाई १२५० ई० माना है और अहंदास के प्रशस्ति-पद्यों को पाठ्य राज था। नरसिंह का पुत्र चन्द्रशेखर १२०८ ई० उद्धत किया है। पर इनसे अहंदास के आशाधर के सम- में पाठ्यराज १२२४ ई० में और उनकी बहन विटलाम्बा कालीन होने की सिद्धि नहीं होती। उन्हें उनके परवर्ती या विट्ठन देवी १२३६ मे राज्यासीन हुई। विलादेवी ही मानना चाहिए । डा. हरनाथ द्विवेदी का भी यही मत का पुत्र कामराय था, जो १२६४ ई० में राज्यासीन हआ। है। हमारी विनम्र सम्मति में अहंदास का समय १२५०
विजयवर्णी के कामराय का समकालीन होने से इनका १२६०ई० मानकर अ. चि. का काल कम से कम समय १३वीं शती का अन्तिम चरण मानना चाहिए। १३०० ई. के आसपास मानना चाहिए।
उक्त ग्रन्थ के अतिरिक्त उनकी अन्य कोई रचना अजित सेन की अचि. और शृम. दो रचनायें प्राप्त प्राप्त नहीं होती। यह परम्परा प्राप्त विषयों का विवेचन हैं। शृ.म में तीन परिच्छेद हैं । कुछ भण्डारो की सूचियों करती है । जगह-जगह यति भंग है। इस दस परिछेद में यह रायभूप की कृति के रूप मे उल्लिखित है। किन्तु है। विषय-वस्तु निम्नवत् है। वर्गगण फलनिर्णय काव्यग्रन्थ प्रशस्ति से यह स्पष्ट है कि इसके रचयिता आचार्य गत शब्दार्थनिश्चय, रसभावनिश्चय, नायकभेदनिश्चय, अजितसेन है। उन्होने शीलविभूषणा रानी विट्ठलदेवी के दशगुणनिश्चय, रीतिनिश्चय, वृत्तिनिश्चय, शय्यापक