________________
निविकल्पता का विचार
(१) निवृत्तिमूलक उपाय से त्यागमार्ग या श्रमण- (8) रात्रि मथुन को छोड़कर पूर्णत. ब्रह्मचर्य का मार्ग भी कह सकते हैं। समस्त आवश्यकताओ
पालन करना चाहिए। पूवं परिग्रहों से एक ही झटके मे मो.ममत्व को (१०) आवश्यक धन-सम्पत्ति ब मकान मादि रखकर छोड़कर अरण्यवास स्वीकार करते हुए नजात्म
व्यापारिक कृषि सम्बन्धी कार्य अपने पुत्र को स्वरूप में ही रमण करना निवृत्ति या श्रमण
छोड़कर निश्चिन्त हो जाता। मार्ग है। यह निविकरूपता की प्राप्ति का
(११) आवश्यकता के अनुरूप रखे गये धन-सम्पत्ति से साक्षात कारण या साधन है।
भी अपना स्वामित्व हटा लेना। (२) प्रवृत्तिमूलक उपाय--इसे ग हस्थमार्ग कहते हैं ।
(१२) रिश्तेदारों को तो बात ही क्या उमे अपने घरेलू पापरूप अशुभ कार्यों को छोड़कर शुभ रूप वैधानिक व नैतिक प्रवृत्तियों को व्यावहारिक
व्यापार विवाह आदि मे सम्बन्धित अनुमति जीवन में उतारना । जो एकदम आवश्यकताओं
देना छोड़ते हुए एकान्तबाम करना चाहिए, तथा को नही छोड सकते, उनके लिए सहेज रूप में (१३) सम्पूर्ण वस्त्रादिक का परिग्रह भी छोड़कर क्रमशः निम्न ग्यारह कार्य करना पड़ते हैं जिन्हें
अरण्यवास करना चाहिए और अधिश समय 'प्रतिमा' नाम से कहा गया है :
स्वोपयोग को आत्मोन्मुखी बनाकर निर्विकल्पता (३) सर्वप्रथम व्यक्ति को शराब, मास शहद तथा
को प्राप्त करना चाहिए। भ० महावीर का पांव उदम्बर फलो का भक्षण, सप्तव्यसन एवं
कहना है-जो समस्त विकलो से रहित परम हिंसादि पाचो पापों तथा इनसे सम्बन्धित कार्यों अवस्था को प्राप्त होते हैं वे ही सच्वे सुख का को छोड़ देना चाहिए।
मनुभव करते हैं। (४) वारह प्रकार के आचरण पालना चाहिए । इस इस प्रकार भ. महावीर द्वारा आध्यात्मिक दृष्टि से
प्रकार पापाचरणो से पूर्ण निवृत्ति व शुभाचरण । प्रतिपादित निविकल्पता या पावश्यकताहीनता का विचार मे प्रबृत्ति होने लगती है।
आथिक जगत में अनेको समस्याओं का समाधान करना है (५) अनुकूल व प्रतिकूल संयोगों में साम्यभाव धारण क्योकि निस्पृहत्व भाव से सामाजिक, आर्थिक एवं राज.
करना चाहिए, इससे शारीरिक व आत्मिक नीतिक आदि समस्याओ का स्वतः निराकरण हो जाता ऊर्जा (शक्ति) का ह्रास न होकर केन्द्रीयकरण
है और स्वहित के साथ-साथ परहित मे वृद्धि होती है। होता है।
धर्म, अर्थ, म और मोक्ष रूप पुरुषार्थ-चतुष्टय से यह (६) आठ दिनो में एक बार उपवास रखना इससे
स्पष्ट सिद्ध होता है कि व्यक्ति का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की आत्मिक शाक्त का प्रादुर्भाव होता है और
प्राप्ति होनी चाहिए, न कि अर्थ या काम की प्राप्ति । राष्ट्रीय खाद्याना की समस्या सुलझती है। अर्थ व काम की प्राप्ति यदि धर्ममूलक है तो सुखदायी (-) सारा जीवन उच्न विचार के सिद्धान्त पर चल- होते है अन्यथा नही। इस वास्तविक तथ्य को जानकर
कर पूर्णत: शाकाहारी होना चाहिए। अभक्ष्य प्रतीति कर जब तक गहस्थावस्था मे है तब तक न्याय व
शाक-सब्जियों को भी छोड़ना चाहिए। नीति धर्मपूर्वक कार्य सम्पादित करना चाहिए, अनन्तर (6) रात्रि में खाद्य. स्वाद्य, लेह्य न पेय रूप आहार उपर्युक्त रीति से आवश्यकताओं व परिग्रह को हटाते हुए
का क्रमशः त्याग एव दिन मे मैथुन को छोड़ निर्विकला अवस्था की प्राप्ति हेतु अग्रसर होना चाहिए । देना चाहिए। दिवा में मैथुन भी अकालमरण भ० भहावीर ने स्वयं इस मार्ग का अनुसरण किया और का निमित्त है।
परमपद वो पाया।