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________________ निर्विकल्पता का विचार डॉ० सुपार्श्व कुमार जैन निर्विकल्पता का तात्पर्य है सभी प्रकार के संकल्पों- बनावे, वह आनन्द है। सर्वविधि सम्पूर्ण विकल्पो के हट विकल्पों से रहितता । इसमें मानव का सम्पूर्ण उपयोग स्व जाने पर व्यक्ति को जो निर्विकल्प व अनाकुल अनुभव की ओर उन्मुख होता है, न कि आवश्यकताओ की पूर्ति होता है वह आनन्द है। धर्म की तरह आर्थिक जीवन का हेतु आर्थिक क्रियाओं के क्रियान्वयन की ओर। लष्य भी इसी आनन्द को प्राप्त करना होना चाहिए। मामवीय आवश्यकताए आकाश की तरह असीम एवं मुक्ति के प्रयास मे पोर भी उलझती जाती हुई कफ सागर की तरगों की तरह अमन्त होती है। एक आवश्य- मे पड़ी हई मक्खी के समान इन्द्रिय-विषयाभिलाषी मनुष्य कता भी पूर्ण नहीं हो पाती कि दूसरी अन्य आवश्यकताये द्रव से मुक्ति व सुख-प्राप्ति के लिए जितनी भी क्रियायें सामने खड़ी हो जाती हैं, जिन्हें मानव अपने अल्प जीवन- करता है, वे सब क्रियायें दुख रूप ही होती जाती हैं। काल में सीमित साधनों द्वारा सन्तुष्ट नहीं कर पाता। घी से शान्त न होने वाली प्रज्वलित अग्नि की भांति जितनी भी आवश्यकतायें सन्तुष्ट की जाती है, उससे प्राप्त मनुष्य कभी भी इच्छाओं की सन्तुष्टि से तृप्त नहीं होता। होने वाली सवेदना सुख की भांति आभासित होती है, वह जब इन्द्रिय विषयों से तृप्ति नही होती तो विकल्प उत्पन्न बास्तविक सुख नही है। होते हैं, विकल्पों से आकुलता बढ़ती है और आकुलता से सुख भोर दुःख दोनो ही एंद्रिय है 'ख'-इन्द्रिया, सु= द.ख होता है, अतः आवश्यकताओं को घटाना चाहिए व सुहावना पर्थात् जो इन्द्रियों को सुहावना लगे, उस अनु विषयों की ओर से परांगमुख होना चाहिए। आकुलता भव को सुख कहते हैं। चूंकि इन्द्रियां अशाश्वत है अतः दु.ख की जननी है और निराकुलता सुख की। सविकल्पता इम्ब्रियो का सुहावना लगने का परिणाम या अनुभवने भी आवश्यकता और आकुलता सापेक्ष होती है तो निर्विकल्पता अशाश्वत है तथा इस सुख के अनुभवन में मृगमरीचिका आवश्यक्ता और आकुलता निरपेक्ष । अतः यह सच्चा की तरह आकुलता भरी है जिसे व्यक्ति समझ नही पाता। सुख निर्बाध, शाश्वत और इन्द्रिय-निरपेक्ष होता है। आ० 'दु' का अर्थ है बुरा या असुहावना, अत: इन्द्रियो को जो अमितगति के अनुसार इस ससार में परम सुख निस्पृहत्व बरा या असुहावना लगे, उस प्राप्त अनुभवन को दुःख (इच्छारहितपना) अवस्था है और परम दुःख सस्पृहत्व या कहते हैं । दुःख से छूटने की बात तो सभी कहते है किन्तु इच्छाओ का दास हो जाना है।" इसलिए भ. महावीर भ. महावीर ने सासारिक सुख से भी मुक्ति का विवेचन ने कहा कि प्रत्येक जीव (व्यक्ति) को समस्त चिन्ताओं किया जो निस्सन्देह अद्वितीय है। वस्तुतः सांसारिक सुख को छोड़कर निश्चिन्त होकर अपने मन को परमपद मे पराधीन, नाशवान, दुःख पूर्ण और विपत्ति के कारण है, धारण करना चाहिए। अतः वे आनन्ददायो कैसे हो सकते है ? यही कारण है कि वास्तविक सुख-प्राप्ति हेतु निर्विकल्पता प्राप्त करना म. महावीर ने वास्तविक सुख के अनुभवों से अपरिचित है। निविकल्पता प्राप्ति हेतु अन्तरंग परिग्रहों को घटाना प्राणियों पर दया करके उसके सच्चे मार्ग का अनुसंधान है, इस हेतु वाह्य परिग्रहों को छोड़ना होगा और ऐसा कर उसकी प्राप्ति का उपाय बतलाया है। करने के लिए अपनी आवश्यकताओं को क्रमशः कम करने आनन्द-आ समन्तात् नन्दीति आनन्दः अर्थात जी जाना चाहिए। इस प्रकार भ. महावीर दर्शन में दो उपाय परिणाम या अनुभवन व्यक्ति को सर्व ओर से समृद्धिशाली दृष्टिगोचर होते है
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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