________________
अनेकान्त
छंद (गाने योग्य छंद) में ही अपने काव्य 'भरतेश वैभव" की रचना की है। जैन रचनाकारों ने इस काल में चरित्र ग्रंथ (जैसे जीवंधर चरिते ) अधिक लिखे ।
६,४३,०४
ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें ओषधियों के साथ ही साथ यंत्र-मंत्रों का भी विधान है। उनका मत है, "औषधियों से आरोग्य, आरोग्य से देह, देह से ध्यान और ध्यान से मोक्ष प्राप्त है। इसीलिए मैं औषधशास्त्र को बतला रहा हूं।" वैद्यक ग्रंथ होते हुए भी उनकी रचना मे काव्योचित गुण है और उनकी शेती आकर्षक है ।
कन्नड़ में "रत्नकरंड" लिखने का श्रेय "आयतवर्मा" (लगभग १४७० ई०) की है। उन्होंने संस्कृत रत्नकरंड की है। उन्होंने संस्कृत रत्नकरंड श्रावकाचार को आधार बनाकर चपू शैली में रत्नत्रय के सिद्धांतों और कथाओं का आधार बनाकर चपू शैली में रत्नत्रय के द्धांतो और कथाओं का निरूपण किया है। इसी युग के कुछ अन्य लेखकों का सक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है
माघनन्वि ने "शास्त्रसार समुच्चय" और " पदार्थ सार' नामक संस्कृत ग्रन्थों की टीका कन्नड़ भाषा मे निबद्ध कीं ।
वृत्तविलास नामक लेखक ने "धर्मपरीक्षा' (संस्कृत) का कन्नड़ में अनुवाद किया।
वैष्णव युग या कुमारव्यास युग
कन्नड़ साहित्य के इतिहास में इस युग की अवधि १५वी से १९वी सदी तक निर्धारित की गई है। इसमें वैष्णव साहित्य की प्रधानता रही इसलिए यह वैष्णव युग कहलाता है। कन्नड़ के प्रसिद्ध कवि कुमारण्यास (रचना कन्नड़ भारत ) थे इसलिए यह उनके नाम पर कुमारव्यास युग के नाम से भी जाना जाता है । इस युग मे जैन साहित्य भी आगे बढ़ा किन्तु उसके स्वरूप में परिवर्तन आया। श्री मुनि के शब्दों में "जैन साहित्य" अपने पुराने आडम्बर ओर दिखावे को छोड़कर सरल " काव्य" के रूप में आगे बढ़ा।" यह युग कर्नाटक में विजयनगर साम्राज्य प्रसिद्धि का था । उनके आश्रय से भी कन्नड़ साहित्य खूब फला-फूला। मैसूर के ओडे पर राजवंश के प्रमाद से भी कन्नड़ साहित्य समृद्ध हुआ ।
जैन कवियों ने इस युग मे नवीन छदो जैसे बट्पदि सोगत्य (कन्नड़ का अपना छद) तथा भामिनी छंदों को अपनाया। मूढविद्री के जैन कवि रत्नाकर वर्णिने सांगत्य
पृष्ठभूमि के रूप में यह ध्यान रखना चाहिए कि इस काल में कर्नाटक में जैनो को वैष्णवो और शवों के विरोध का सामना करना पड़ा था और विजयनगर नरेश हरिहरराय दुक्का जैसे शासको ने सांप्रदायिक शांति और सद्भाव के लिए प्रयत्न किए थे।
कन्नड़ में "जीवंधरचरिते" के लेखक है कवि "भास्कर" इसकी रचना १४२४ ई० में हुई है ऐसा माना जाता है । इसे उन्होने पेनुगोण्डे के शांतीश्वर जिनालय मे लिखा था । जीवधर की कथा संस्कृत की मूल जंन कथा को लेकर भी उन्होंने इसे अपनी कल्पनाशक्ति और सरस शैली से आकर्षक बना दिया है । श्री मुगवि के अनुसार "जीवन्धरचरित्र" कल्पना के सौष्ठव और शैली के लालित्य से यथाशक्ति अच्छा काव्य बन गया है ।"
कल्याणकीति का आविर्भाव समय पंद्रहवी सदी का मध्यकाल है। इनके अनेक ग्रन्थ है-"ज्ञानचद्राभ्युदय" जिसका रचनाकाल १४३६ ई० माना जाता है में कवि ने यह दर्शाया है कि राजा ध्यानचन्द्र ने किस प्रकार अपना कल्याण या ।
उपर्युक्त कवि की दूसरी प्रसिद्ध रचना "कामनकक्षे" है जो कामकथा से सम्बन्धित है। इनकी अन्य रचनाएं है—अनुप्रेक्षे, जिनस्तुति ओर तत्वभेदाष्टक तथा सिद्धराशि | ये रचनाये भामिनि और षट्पदि छदो में है ।
बारह भावनाओं का वर्णन "विजयष्ण" ने सांगत्य छंद (गेय छंद) में 'द्वादशानुप्रक्षा' ने किया है। उसका रचनाकाल १४५० ई० माना जाता है । सरल शैली में कन्नड़ में अनुप्रेक्षाओं संबंधी यह रचना कन्नड़ की सम्भवतः प्रथम रचना है। विजयण्ण मूडविद्री के निवासी थे।
शिशुमापण का समय १४७२ ६० है इनकी दो । प्रसिद्ध रचनायें हैं- १. "त्रिपुरदहनसांगत्य" तथा २. "अन्जनाचरिते ।