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संस्कृत के पूर्व मध्यकालीन जैनकवि जटासिंहनन्दि : परिचय एवं काल-निर्णय
किसी भी व्यक्ति के कार्यों का वर्णन वैशिष्ट्य एवं उसके गुणों का संकीर्तन तो सुलभ है किन्तु स्वयं मे उन प्रेरक तत्वों को समाहित करना दुर्लभ-सा प्रतीत होता है :
गुणानां व विशालानां सत्काराणां च नित्यशः । कर्तारः सुलभाः लोके विज्ञातारस्तु दुर्लभाः ॥ मैंने अधिकांशतः कवियो के रचनात्मक कार्यों का अध्ययन किया तथा उसके माध्यम से ज्ञान-विज्ञान की बातों को स्वय में तथा अन्य लोगों में प्रसारित प्रचारित करने का प्रयास किया किन्तु किसी भी कवि की वर्णन शैली एवं वर्ण्यविषय ने मुझे उतना प्रभावित नही किया जितना जैन कवि जटासिंहनन्दि ने। इस कवि की निष्काम सेवा ने बरबस मुझे उसके कर्तृत्व एवं व्यक्तित्व को उद्भासित करने के लिए उत्प्रेरित कर दिया है ।
संस्कृत के जैन साहित्य के इतिहास के अध्ययन प्रसग मे ही नही विश्वसाहित्य के अध्ययन प्रसंग मे भी महाकवि जटासिंहनन्दि का नाम बड़े आदर के साथ लिया जा सकता है । दक्षिण भारतीय जैन कवि समन्तभद्र, देवनन्दि पूज्यपाद, नागपर्व, पुलकरिकेसोम, सदाक्षरदेव, आदि की प्रमुखता के साथ-साथ महाकवि जटासिंहनन्दि की प्रमुखता अपने आप मे अद्वितीय एवं अलोकिक है । इस कवि की एकमात्र रचना वराङ्गचरितम् ही अद्यावधि उपलब्ध है । मेरे अध्ययन का स्रोत डॉ० ए० एन० उपाध्ये द्वारा सपादित ग्रन्थ है । सर्वप्रथम तो कवि की जीवन वृत्ति ने ही मुझ पर अमिट छाप छोड़ी, क्योकि उस कृति के आद्यो पान्त अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उसने आत्मख्याति से दूर रहकर शुद्ध साधक-साधु वृत्ति से एकान्त-साहित्य साधना की है तथा अपने ग्रन्थ मे उसने
डॉ० कमल कुमारी, आरा
ऐसा कोई भी साक्ष्य प्रस्तुत न किया है, जिससे अगली पीढ़ी ग्रन्थकार का नाम भी जान सके उस महापुरुष की यह निरपेक्ष-वृत्ति किसी भी साहित्यिक रसिक को सहज श्रद्धापूर्वक आकर्षित कर मकती है। कलापक्ष एवं भावपक्ष की दृष्टि से तो उक्त कृति उत्कृष्ट कोटि की है ही, समकालीन भारतीय संस्कृति, इतिहास एवं भूगोल की दृष्टि से भी वह एक प्रामाणिक कृति है ।
वैसे प्राव्य शास्त्रागारो मे भारतीय विद्या की अमूल्य निधि भरी पड़ी है । १३-१८वीं सदी से प्राच्य भारती के देश-विदेश के सुधी विद्वानों का ध्यान उस ओर आकर्षित हुआ और उनके प्रयासो से अनेक ग्रन्थरत्नों का उद्धार हुआ, किन्तु जितना साहित्य अभी प्रकाश मे श्राया है उसका सहस्रगुणा भाग अद्यावधि अन्धकारछन्नावस्था मे ही है और वह उद्धारको की प्रतीक्षा कर रहा है । जटासिंहनन्दि के सही उद्धारक डा० ए० एन० उपाध्ये ही हैं जिनकी पैनी दृष्टि ने आज वैसे महाकाव को जिसकी रचना को लोग भ्रमवश रविषेण की समझ बैठे थे, ढूंढ निकाला ।
वि०स० १६८५ तक इस कवि के विषय मे किसी को कोई भी जानकारी नही थी । सर्वप्रथम पं० नाथूराम जी प्रेमी ने जब आचार्य रविषेण कृत पद्मचरितम् का प्रकाशन किया तथा उसकी भूमिका मे जिनसेन ( प्रथम ) कृत हरिवंशपुराण की प्रशस्ति के पूर्वाचार्य स्मरण-प्रसंग मे प्राप्त वराङ्गचरित का उल्लेख किया, तो साहित्यजगत् में प्रसन्नता की एक लहर उत्पन्न हो गई, किन्तु प्रेमी जी ने उक्त व० च० को भ्रमवश रविषेण कृत बत लाया। डा० उपाध्ये ने एतद्विषयक गहरी छान-बीन की तथा प्रेमी जी के उक्त मत का मात्र खण्डन ही नही किया,