________________
जैन को पहिचान : अपरिग्रह
२७
को त्रास से काफी हद तक छटकारा मिला होता। तब और फिर उसके निरोध को संवर कहा है। और इसी न हर कोई हर किसी के भाग पर कब्जा करता होता प्रसंग मे नवम अध्याय में हो तप को संवर और निर्जरा और न हो टैक्सों की चोरी आदि जैसी बातें ही आई होती। दोनों का कारण कहा है। और ध्यान की गणना तपों में व्यक्ति को संचय सीमा निश्चित होती और परिवार भी कराई है। इसका भाव यही है कि प्रसग में ध्यान बही तदनुसार निर्धारित-परिमारण में संग्रह कर पाते । इमसे (निगेव) है जो संवर-निर्जरा ये कारण हो। ऐसे में ध्यान एक घर संपदा से अनाप-शनाप भरा और दूसरा सम्पदा के शुभ-अशुभ या आर्त-रौद्र जमे भेदो वो इसमे स्थान ही से सर्वथा खाली न होता। जैसा कि वर्तमान में चल रहा कहां है जो उन्हे इस ध्यान में शामिल किया जा सके या है और जो जनसाधारण को परेशानी का कारण बन रहा प्रसंगगत ध्यान (चितानिरोग) को शुभ-अशभ के आसन है । अस्तु ।
मे कारण माना जा सके। वे दोनो ओर निचली दशा के यहां हम यह भी कहना उचित समझते है कि जिस मनोगत भाव-आर्त-रौद्र तो आस्रव ही हैं। ध्यान को तत्त्वार्थ सूत्र के नवम अध्याय के २७वे सूत्र
इसके सिवाय ध्यान के फल का जो वर्णन है और जो द्वारा दर्शाया गया है वह ध्यान भी अपरिग्रह मूलक और
स्वामी वर्णन है उससे भी स्पष्ट पता चलता है कि प्रसंग संवरनिर्जरा का साधक ही है। दूसरे रूप में यह भी कह
में ध्यान संवर-निर्जरा काही कारण है और वह मिथ्यासकते हैं कि-अपरिग्रहत्व और वह ध्यान समकाल भावी
दष्टि के नही होता । इसीलिए धवला मे ध्यान के दो ही और एक है। वसा ध्यान तभी होगा जब अपरिग्रहत्व भेद कहे है-धय॑ध्यान और शुक्लध्यान । मोह की दोगा-विना अपरिग्रहत्व के ध्यान कैसा? प्रसग गत सर्वोपशमना करने से धर्म ध्यान को और शेष घातिध्यान के लक्षण में 'अपने मे रह जाना' ध्यान है और वही।
अघाति का क्षय करने से शुक्ल ध्यान को ध्यान की श्रेणी पूर्ण अपरिग्रहत्व है। जैसा कि ध्यान में होता है या होना
में रखा गया। यहां इतना विशेष समझना चाहिए किचाहिए। क्योंकि ध्यान और अपरिग्रहत्व दोनो में अन्यत्व
दोनों ही ध्यानों में 'आप मे रह जाना' हो सर्वथा इष्ट पने का अभाव होने से संवर-निर्जरा है। जबकि अन्य
है-कायवाग्मन की क्रिया करने से तात्पर्य नहीं। 'अट्रचिताओं से हटकर मन का एक ओर लक्ष्य होने में भी
वीमभेयभिण्णमोहणी रस्मसन्यवसमा-वट्टाण सलं पुत्तविचितन रूप क्रिया विद्यमान होने से आस्रव है- 'काय
दक्क वीवार सुवज्झाण। कोहमव्वुवसमो पुण धम्मज्झाणवांग्मनः कर्मयोगः' स आस्रवः ।' भले ही मन एकाग्र हो
फलं । 'लिणगादिकम्माणं णिम्मलविणासफलमेपत्तविदक्क जाय-वह चिन्तन क्रिया तो करेगा ही। और जहां चितन ...
अवाचीरज्झाणं ।' रूप क्रिया होगी वहां आस्रव होगा ही। मन की क्रिया
-धव. १३, ५, ४, २ः पृ. ८०-८१ (चिन्तन) का नाम ही तो पिता है। जो निर्जरा-प्रसग
'अधाइ कम्म चउक्कविणास (च उत्थसक्कज्झाणफल) गत ध्यान के लक्षण से मेल नही खाता। प्रसंग मे तो उसी
वही पृ० ८८ । ण च णवपयत्थविसयरुइ-पच्च सदाहि ध्यान से तात्पर्य है जो संवर निर्जरा में हतु हा। हम पुनः विणज्झाण मभवदि । वही प्र०६५ । स्मरण करा दें कि मन का कार्य चिंतन है और चितन
अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय की सर्वोपसमना होने पर कर्म होने से आस्रव है। इस विषय में किसी समझोते को उसमें
उसमें स्थित रखना पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक शुक्ल खोज कर अन्य निर्णय सर्वथा अशक्य है।
ध्यान का फल है। सभी जानते हैं कि पूज्य उमास्वामी जी ने तत्वार्थसूत्र चार अघातिया कर्मों का विनाश चतुर्थ शुक्ल ध्यान के छठवें अध्याय से आठवें अध्याय तक आस्रव-बन्ध का का फल है। नवपदार्थों की रुचि (श्रद्धा) के बिना ध्यान और नवम अध्याय में सवर-निर्जरा का वर्णन किया है। नहीं हो सकता अर्थात् सम्यग्दष्टि ही ध्यान का अधिइनमें पहिले उन्होंने मन-वचन-काय की क्रिया को आस्रव कारी है।