SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८, बर्ष ४३, कि०४ बनेकान्त सत्र मे ध्यान के स्वामी के निर्देश से तो यह और भी कार ने स्पष्ट रूप में सकेत दिया है कि निरोध तुच्छाभाव स्पष्ट हो जाता है कि प्रसंग में आचार्य को ध्यान का नही अपितु भावान्तर रूप है। 'अभावो निरोध इति घेता वही लक्षण इष्ट था जिसके द्वारा संबर-निर्जरा होकर न,""""विवक्षार्थविषयावगमस्वभावसामथ्र्यापेक्षया सदेमोक्ष प्राप्त होता हो। यदि आचार्य को उक्त प्रसंग में वेति ।'-उत्कृष्ट ध्यान की अवस्था में आत्मा को लक्ष्य आस्रवरूप मन की क्रिया (एकानव रूप ही सही) अर्थ बनाकर चिन्ता (मन की क्रिया) का निरोध किया जाता अभीष्ट होता तो वे सूत्र मे 'उत्तम सहननस्य' पद को भी है और वहां आत्मा का लक्ष्य आत्मा ही होता है-अन्य स्थान न देते। क्योकि चितवन रूपी ध्यान तो साधारण नही। यह भी ध्यान रहे कि इस उत्कृष्ट ध्यान के प्रसंग सभी संहनन वालों और मिथ्यादष्टियो तक को भी सदा में 'अग्र' शब्द भी आत्मावाची है। आचार्य यह भी कहते काल रहता है। हैं कि ध्यान स्व-वृत्ति (आत्म-वृत्ति) होता है-इसमें बाह्य जब हम ध्यान के लक्षण-सूत्र पर विचार करते हैं तो पिताआ स निवृत्ति हाता है-अङ्गतीत्यग्रम सूत्र में एकाग्र चिंतनिरोध, ऐसा पद भी मिलता है। द्रव्याथ तय कस्मिन्नात्मन्यग्रे चिन्तानिरोधो ध्यानम् । ततः इसमे 'एकाग्र चिता' से विदित होता है कि एकाग्र-एक स्व-वात्तत्वात् बाह्यध्येय प्राधान्यापेक्षा निवतिता भवति ।' को मुख्य लक्ष्य कर उसका चितवन करना ध्यान है। जरा -इससे यह भी फलित होता है कि जहां अग्रशब्द अर्थ वाची है अर्थात् जहां द्रव्य-परमाण या भाव-परमाणु या सोचिए, जब एक वस्तु मुख्य कर ली तब वहाँ अन्य वस्तु के प्रवेश को अवकाश ही कहां रहा? यदि अन्य को अव अन्य किसी अर्थ मे चित्तवृत्ति को केन्द्रित करने को 'ध्यान' काश (स्थान) है तो एकाग्रपना कैसे ? एकाग्र होने का अर्थ नाम से कहा गया है; वहा 'ध्यान' शब्द का लक्ष्य शक्ल ही यह है कि जिसमे अन्य का विकल्प हट गया हो। और ध्यान के दो पायों तक सीमित है। जब अन्य स्वाभाविक हट गया तब 'निरोध शब्द ही व्यर्थ एक बात और ध्यान एक तप है और तप शब्द से पह जाता है। ऐसे में यदि आचार्य ऐसा कहते कि 'एकाग्र आत्म-लक्ष्य के सिवाय अन्य का परिहार इष्ट है। इसी चिता ध्यानम्' तब भी काम चल सकता था। इससे मन भाव में इच्छा निरोध को तप नाम दिया गया हैकी क्रिया (एकाग्र प्रवृत्ति) को बल भी मिल सकता था। 'तिम्णं रयणाणभाविभावठुमिच्छा निरोहो।' और चारों धर्मध्यान भी ध्यान की परिभाषा मे आ जाते। -० १३, ५, ४, २२, ५४ फिर यदि आचार्य को कहना ही था तो वे 'निरोध' के 'समस्तभावेच्छात्यागेन स्व-स्वरूपे प्रतपनं, विजयनं तपः।' स्थान पर रोध' शब्द से भी काम चला सकते थे। क्योंकि -प्रव० सा० ता० वृ० ७६।१०००।१२ सूत्र ग्रंथ में वैयाकरण लोग आधी मात्रा के कम होने पर उक्त इच्छानिरोध मे म्व और पर के भेद का सकेत भी 'पूत्रोत्सव मन्यन्ते वैयाकरणाः' । ऐसा मालूम होता है भी नही है जिससे कि स्व की इच्छा को भी ग्राह्य माना कि यहां सवर-निर्जरा सम्बन्धी ध्यान के प्रसग में आचार्य जा सके। यहां तो ऐमा हो मानना पड़ेगा कि ध्यान में श्री को एक का चितवन और अन्य चितवन का रोध' ऐमा सभी प्रकार की इच्छाओ (मन को क्रियाओं) का अभाव अर्थ इष्ट नहीं था, इसलिए उन्होने रोध के स्थान पर ही आचार्य को इष्ट है और वे आत्मा में आत्मा के होने 'निरोध' शब्द का प्रयोग किया और निरोध का अर्थ है- को ही उत्कृष्ट घ्यान मानते हैं जो अपरिग्रहरूप है। निःशेषेण पूर्णरूपेण रोध। सभी प्रकार से सभी रीति की किन्ही मनीषियों ने हमे ‘एक पदार्थ को मुख्य बना क्रियाओं का रोध। कर उसके चिन्तन मे (मन का) रोध करना-मन को 'निरोध' को तच्छाभाव मान उसके निराकरणार्थ ठहरा लेना ध्यान है' ऐसा अर्थ भी बतलाया है यानी कर हो करने में लगे लोगों को राजवातिक- मत में निरोध का अर्थ मन का स्थापित करना है। ऐसे
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy