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जैन को पहिचान : अपरिप्रह
मनीषियों को धवला मे आये 'निरोध' शब्द के अर्थ पर जाय कि वे सर्वथा अव्यवहार्य और जीव की दशा की विचार करना चाहिए। और यह भी सोचना चाहिए कि अनिश्चिति में कारण है तो मन को लगाने की क्रिया से आस्रव होगा या सवर-निर्जरा? वेमियाभावी
जना निरोध के अर्थ को इस भांति साधारणत: 'ध्यान' शब्द ऐसा है जो जन साधारण स्पष्ट किया गया है-'को जोग गिरोहो? जोग विणासो। में चिता या चितन के अर्थ में प्रमिट_fam
वयारेगा जोगो चिन्ता, तिस्स एयग्गेण णिरोही विणासा इसलिए लोग इस शब्द को विचार करने जैसे अर्थ में लगा जम्मि तं ज्झामिदि।'
-वही पृ० ८५-८६ बैठते हैं। लोगो को समझना चाहिए कि यदि सर्वथा योगको निरोध क्या है ? योग का विनाश । उपचार विचार-चिन्तन हो ध्यान होता तो आचार्य शक्ल ध्यान से चिन्ता का नाम योग है ? उस चिन्ता का एकाग्ररूप से की ऊपरी श्रेणियो मे विचार का बहिष्कार न करते जैसा जिसमें विनाश हो जाता है वह ध्यान है । किसी (एफ की कि उन्होंने किया है। वे कहते हैं-'अवीचारं द्वितीयं ।' को चिन्ता में लगे रहना, प्रसग गत ध्यान नही और ना 'दूसरा एकत्ववितर्क नामा शुक्ल ध्यान विचार रहित है ही उस चिन्ता में लगे रहने मे, उससे सवर और निर्जग (तीसरा और चौथा शुक्ल ध्यान भी विचार रहित ही है। यदि संवर निर्जरा है भी तो वह अन्य प्रवृत्ति से विज्ञपुरुष इस बात को भली भांति जानते है किनिवृत्ति मात्र के कारण और उसी अनुपात मे है ध्यान विचारोऽर्थ व्यजनयो सक्रान्तिः। अर्थ और व्यजन में (क्रिया) से नहीं: वहां ध्यान नाम तो मात्र उपचार है। विचारों की पलटनी दशा सक्रान्ति कहलाती है और ऊपर के पूरे विवेचन से स्पष्ट होता है कि धवला निर्दिष्ट वीचार व विचार दोनो शब्द एकार्थक है यानी जब यह दो ध्यानों के प्रकाश में ध्यान वही है जो संवर-निर्जरा का जीव अर्थ का विचार करते-करते कभी पर्याय पर चला हेत हो? सि० च० नेमीचन्द्राचार्य जी ने जो 'दुविह पि जाता है और कभी अर्थ पर चला जाता है तब उस पलटने मोक्खहे' रूप में दो ध्यानो को प्ररूपित किया है उनमें की दशा को संक्रान्ति कहा जाता है। और वह ऊपरी 'पणतीस सोलछप्पणच दुदुगमेग' तथा पिण्डस्थ, पदस्थ, अवस्थाओ में नहीं है। अब सोचिए ! कि जब मन का रूपस्थ जैसे परावलम्बी ध्यानो को मोक्षमार्ग मे परम्परित अर्थ चिन्तन है और चिन्तन मे पलटना अवश्यम्भावी है। कारण होने से गवहार-ध्यानरूप और 'बहिरमन्तरकि- यदि पलटना नहीं तो चिन्तन कैसा? वह तो कटस्थपना रियारोहो' और रूपातीत जैसे स्वावलम्बी ध्यान को ही है और यदि मन कटस्थ है तो वह मन कैसा? फिर निश्चय ध्यान रूप कहा है। यदि हम विचारें तो धवला- यदि मन सक्रान्ति नहीं करता तो वहां कौन सी क्रिया कार के शब्दों से यह बात सर्वथा मेल खाती जैसी दिखती करता है वह क्रिया 'आस्रव' क्यो नही ? जब कि आचार्य
ने मन, वचन या काय की क्रिया को आस्रव कहा है ? प्रम्तोमुहत्तमेत्तं चिन्तावत्थाणमेगवत्थुम्हि ।
उक्त सभी परिस्थितियो से हम इसी निष्कर्ष पर छामस्थाणं झाण 'जोगारगरोहो' जिणाणं तु ॥ (उद्धत)
पहुंचते हैं कि-उक्त ध्यान में मन लगाना नहीं पड़ता, एक वस्तु मे अन्तर्मुहुर्तकाल चिन्ता अवस्थानरूप ध्यान अपितु मन को हटाना पड़ता है और इस मन को हटाना छपस्थों का ध्यान है और योगनिरोध रूप निश्चय ध्यान
ही-पर से निवृत्ति करना ही अपरिग्रह है और जैन दर्शन अर्हन्त भगवान का ध्यान है आदि ।
को यही निवृत्ति इष्ट है । फलत:-इस मायने में उत्कृष्ट ऊपर के प्रसंग से यह भी स्पष्ट है कि जिन्हें आतं ध्यान और अपरिग्रह दोनो एक ही श्रेणी मे ठहरते हैं और और रौद्र ध्यान के नामों से सम्बोधित किया जा रहा है ऐसा किए बिना 'तपसा निर्जरा च' सूत्र की सार्थकता भी के सम्यग्दृष्टी के लिए न तो व्यवहार ध्यान है और ना ही नही बनती और जिन-दशा तथा मुक्ति भी नहीं निश्चय की परिभाषा में आते हैं। अपितु यह कहा बनती।
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