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'तीर्थंकर' में प्रकाशित आरोपों का खण्डन
डा० नेमिचन्द जी जैन,
संपादक "तीर्थंकर"
६५, पत्रकार कालोनी, इन्दौर
(तोर्थंकर दिसम्बर ६० अङ्क में प्रकाशित श्री ललवानीजी के आरोपों का वीर सेवा मन्दिर द्वारा खण्डन ) आपने श्री गणेश ललवानी और डा० भागचन्द जैन भास्कर द्वारा वीर सेवा मन्दिर जैसी प्रतिष्ठित संस्था के प्रति मिथ्या आरोपी वाले पत्र अगस्त १० व अक्टूबर १० के अर्कोों में प्रकाशित किये और वीर सेवा मन्दिर से वस्तुस्थिति भी जानने की कोशिश नही की ! उन दोनों पत्रों के उत्तर में वीर सेवा मन्दिर द्वारा दिये गये उत्तर को विलम्ब से प्रकाशित करने का कारण हमें आपने यह लिखा कि श्री ललवानी जी के उत्तर के साथ ही प्रकाशित करेंगे, किन्तु श्री ललवानी जी का तथ्य विहीन एवं आपत्तिजनक उत्तर हमसे वस्तुस्थिति जाने बिना ही आपने प्रकाशित कर दिया। यह सौतेला बर्ताव तीर्थंकर के सम्मानित सम्पादक की स्वस्थ पत्रकारिता तो वश पत्रकारिता के साधारण मानदण्डो से भी नीचे है।
पता नहीं श्री ललवानी जी एक पेशेवर उजरत प्राप्त वकील की तरह डा० बनर्जी के पक्ष में आधारविहीन तर्कों से सत्य को झुठलाने का असफल प्रयत्न क्यों कर रहे हैं ? उनके पूर्व पत्र में वीर सेवा मन्दिर पर दिगम्बर जैन संस्था होने और डा० बनर्जी के बगाली होने से उनके नाम को हटाने का ऐसा विनीता आरोप है जो ललवानी जी की संकीर्ण व विकृत मानसिकता एवं पूर्वाग्रह ग्रस्त भावना का द्योतक है। यह भी सम्भव है कि श्री ललवानी जी श्वेतावर आम्नाय के होने के नाते एक प्रतिष्ठित दिगम्बर जैन संस्थान को बदनाम करने की कुभावना उनके हृदय के किसी कोने में रही हो । जैसा कि मैंने पहले उत्तर में लिखा था, पुनः स्पष्ट करना अपना दायित्व मानता हू विद्वान की जाति या धर्म उसकी विद्वता है और ऐसे सभी विद्वानों का वीर सेवा मन्दिर सदैव आदर-सम्मान करता है और करता रहेगा । विद्वान की जाति या धर्म उसको विद्वता में आड़े नहीं आती, अन्यथा डा० बनर्जी का नाम सम्पादक के स्थान पर इस बिब्लियोग्राफी के प्रारम्भ में सहज रूप में मुद्रित नहीं हो जाता।
"सीपंकर" के अगस्त १० के अंक में प्रकाशित ललवानी जी के मिथ्या आरोपों में एक आरोप यह भी था कि डा० भागचन्द जैन को मात्र २५-३० पृष्ठों के इन्डेक्स का पांच हजार रुपया दिया गया, वीर सेवा मन्दिर द्वारा उक्त आरोप का खण्डन करने तथा डा० जैन का पत्र पढ़ने के बाद अब वह दिसम्बर के अंक मे प्रकाशित अपने पत्र में अपने उक्त आरोप को असत्य मानते हुए लिखते है कि "मुझे हार्दिक छेद है कि सत्य कुछ और निकला। मैंने यह जानकारी डा० बनर्जी से प्राप्त की और उन्होंने नन्दलाल जी से ।" इस प्रकार ललवानी जी का यह दावा स्वत: झूठा साबित होता है कि उन्होंने जो भी लिखा, पूर्ण जानकारी के साथ लिखा । बनर्जी, जिनकी सूचना उन्होंने स्वयं असत्य बतायी है, के आधार पर एक मिथ्या आरोपों को अखबार में प्रकाशित करा रहे हैं। यह उनकी दूषित मानसिकता को दर्शाता है।
हमे खेद है कि ललवानी जी उन्हीं डा० प्रतिष्ठित संस्था को बदनाम करने के लिए
श्री ललवानी जी ने संस्था के प्रकाशित उत्तर में श्रद्धेय छोटेलाल जी के भ्राता श्री नन्दलाल जी द्वारा उपलब्ध कराई गयी उनकी जीवनी के २०वें अनुच्छेद के अंग्रेजी भाषा में उद्धृत शब्दश. अंशों की जानबूझ कर अनदेखी की है, क्योंकि यही अंश उनके सभी आरोपों को एकदम असत्य सिद्ध करने में सक्षम हैं। मैं उसी अंश का हिन्दी अनुवाद उनकी जानकारी के लिए यहां दे रहा हू
"उनकी जैन बिब्लियोग्राफी का प्रथम खण्ड १६४५ मे प्रकाशित हुआ । अब उनके द्वारा अधूरा रह जाने से दूसरा खण्ड मैसूर विश्वविद्यालय के डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.डी. लिट् के निर्देशन में पूरा हो रहा है ।"