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'तीर्थंकर' में प्रकाशित भारोपों का लण्डन
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श्री नन्दलाल जो द्वारा दी गयी उक्त सूचना से स्पष्ट है कि ग्रन्थ का सम्पादन डा० उपाध्ये ने किया है। यदि डा० बनर्जी ग्रन्थ का सम्पादन करते तो भी नन्दलाल जी उनके नाम का उल्लेख अवश्य करते । श्री नन्दलाल जी के चले जाने से उनकी लिखित सामग्री तो नही मर जाती । श्री ललवानी जी का यह कहना कि डा० उपाध्ये के पास केवल टाइप कराने के लिए मैटर भेजा गया था, कितने आश्चर्य की बात है कि श्री नन्दलाल जी कलकत्ता महानगरी मे थे और वीर सेवा मन्दिर राजधानी दिल्ली मे है। दोनों नगरों में मुद्रण यंत्र और टकन कर्ता एक से एक बढ़िया उपलब्ध थे, तब नन्दलाल जी ने कोल्हापुर केवल टाइप के लिए ही सामग्री को भेजा, क्या डा० उपाध्ये का टंकन कालेज था ? इस प्रकार को खोखली दलीलें देना वकील का ही काम है और कुछ नहीं ।
श्री ललवानी जी स्वयं लिख रहे हैं- "ग्रन्थ वीर सेवा मन्दिर छपवा रहा है, डा० बनर्जी नहीं ।" स्पष्ट है कि जिस प्रकार का पत्र व्यवहार वीर सेवा मन्दिर और डा० बनर्जी के बीच मे इन्डेक्स के सम्बन्ध में हुआ है, यदि डा० बनर्जी को ग्रन्थ सम्पादन का कार्य सोपा होता तो इस प्रकार पत्रों का आदान-प्रदान अवश्य हुआ होता । ललवानी जी डा० बनर्जी को लिखा ऐसा एक पत्र तो दिखाए जिससे यह साबित होता हो कि वीर सेवा मन्दिर ने ग्रथ सम्पादन का कार्य डा० बनर्जी को दिया हो।
डा० बनर्जी ने अपना सम्पादकत्व साबित करने हेतु अपने ३०-११-८२ के पत्र के साथ डा० उपाध्ये के पत्र दिनांक २७-६६८ की फोटो प्रति सस्था को भेजी थी, जिसमें डा० उपाध्ये ने डा० बनर्जी से सम्पादन कार्य आरम्भ करने के पूर्व कुछ शकाओं के उत्तर की अपेक्षा की थी उस पत्र का हिन्दी अनुवाद यहां दे रहा हूं।
"जब मैं कलकत्ता में था, मैंने छोटेलाल जी द्वारा छोडो गयी बिब्लियोग्राफी की सामग्री का निरीक्षण किया। मैं सोचता हूं कि आप इस कार्य मे जब-तब उसे सम्बद्ध रहे है । अब यह तय है कि यह शीघ्र ही प्रकाशित हो । नीचे लिखे बिन्दुओं पर आपकी क्या राय है ? १. जैसा कि आपने देखा है सामग्री की क्या स्थिति है ? २. क्या यह सामग्री आवश्यक काट-छांट एवं मामूली संशोधन के साथ प्रेस में दी जा सकती है ? ३. आप भारत निश्चित रूप से कब वापस आ रहे हैं ? ४. इस कार्य के प्रकाशन मे आप किस प्रकार मदद कर सकते है ? ५. क्या भारत वापस आकर आप इस कार्य हेतु आवश्यक समय दे सकेंगे ? मैं आपके तफसील से उत्तर के लिए आमारी हूगा, धन्यवाद ।" डा० बनर्जी ने उक्त पत्र के उत्तर में ऐसा कोई प्रतिवाद नही किया कि यह सब कुछ पूछ कर क्या करेंगे ? सम्पादन तो उन्होने स्वय कर ही रखा है, ना ही इस विषय मे कोई जानकारी डा० बनर्जी ने वीर सेवा मन्दिर को दी । सम्पादन के पूर्व एक निष्ठावान विद्वान होने के नाते ग्रन्थ के सम्बन्ध में डा० बनर्जी से सूचना प्राप्त करना डा० उपाध्ये की सदाशयता का प्रमाण है क्योंकि डा० उपाध्ये जानते थे कि डा० बनर्जी श्री छोटेलाल जी से सबद्ध रहे है ।
श्री ललवानी जी का यह कथन कितना हास्यास्पद लगता है कि डा० उपाध्ये के सभी पत्रों से सम्पादन करना साबित नहीं होता, जबकि उन पत्रो मे उन्होंने सारी सामग्री को व्यवस्थित करके, टंकण करा कर क्रम से रखकर संशोधन भी किये हैं। उनके हाथों सम्पादित वह पाहुलिपि आज भी संस्था के रिकार्ड में देखी जा सकती है।
ललवानी जी का यह आरोप भी निरर्थक है कि डा० बनर्जी ठगे गये हैं । ठगा तो वीर सेवा मन्दिर गया है, जैसा कि मैं पहले लिख चुका हू मेरी अजानकारी, डा० उपाध्ये व नन्दलाल जी और सस्था के तत्कालीन महासचिव महेन्द्रसैन जैनी के निधन का लाभ उठाकर सम्पादन का श्रेय स्वय डा० बनर्जी ने ओढ़ लिया । विस्मय की बात तो यह है कि श्री ललवानी जी इस ठगी मे पीठ पत्रकारिता के माध्यम से दलाली का काम करने की चेष्टा कर रहे है। उन्होने दिसम्बर, ६० अङ्क मे सुझाव दिया है, "अच्छा तो यही रहेगा १०,००० रु० देकर वीर सेवा मन्दिर इसे (आधे अधूरे इंडेक्स को खरीद से " जबकि यह इन्डेक्स वीर सेवा मन्दिर की सम्पत्ति है। पता नही उजरत प्राप्त वकील