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२६ वर्ष ४३, कि०४
अनेकान्त
कल्पना को अवकाश ही नही होता। जो पदार्थ उनके ज्ञान होने से पर-परिग्रह है-जिनसे आत्मा की अनन्त शक्ति मे प्रतिविम्बित होते हैं वे भी अपनी, पदार्थ को सत्ता मात्र पाच्छादित होती है । में ही प्रतिविम्बित होते है; केवली के ज्ञान से उन पदायाँ हम यहां जैन मान्य उस परिग्रह की बात कर रहे हैं की सा का तादात्म्य नहो; मात्र ज्ञेय-ज्ञायक भाव है जिसमे जनत्व व्याप्त होकर निवास करता है और जिससे और वह भी माहारी है ! कोकि रव वस्तु किसी विकल्प जीवित रहता है। परिग्रह की बढ़वारी करत जैनी बने या क्थन की चीज नही, मात्र अनुभव को चीज है- रहने का प्रयत्न करना मुर्दे में हवा देकर उसे जीवित सर्वथा अनभर की। आश्चर्य है कि उक्त वस्तु-स्थिति मे मानने जैसा है। मृत-शरीर वायु से फूल सकता है, हिल भी हम स्वत्व-दिगम्बरत्व-अपरिग्रहत्व के अर्थ से अजान
भी सकता है। पर वह हिलना उसका जीवित होना नहीं है और दिगम्बरत्व या अपरिग्रहत्व को मात्र बाह्य-शरी
होता; मात्र पोद्गलिक क्रिया होती है। ऐसे ही परिग्रह रादि के आधार पर पहिचानने में लगे हुए है; मात्र की बवारी के प्रति जागत जीव की बाह्य-पर क्रियाएँ निर्वस्त्र को दिगम्बर मान रहे है और उसे अपरिग्रही कह भी जैनत्व को साधिका नहीं। क्योकि सारा का सारा रहे हैं। खैर, कोई हर्ज नही; हम निर्वस्त्र को अपरिग्रहीत
की दीनता से नित या दिगम्बर मानते रहे पर, वस्त्र का भाव अवश्य हृद- परिग्रहहीनता अहिमा में आती हो, सत्य या अचीर्य यंगम करें : वस्त्र (बेष्टन) आवरण का द्योतक है जो ग्रादि मे आती हो। यदि अहिसादि के मूल मे अपरिग्रह असलियत को आच्छादित करता है; उसे प्रकट नही होने की भावना नही तो सब व्यर्थ है। और यहा अपरिग्रहत्व देता । उक्त भाव मे स्व-रूप मे भिन्न सभी दशाये वस्त्र से
से तात्पर्य राग-द्वेषादि कषायो के कृश करने से और बाह्यआच्छादित जैसी हैं। सवस्त्र रूप ही है। इसी आच्छादन
संग्रह की मर्यादा और त्याग आदि से है। स्मरण रखना करने वाले सत्त्व को जैन-दर्शन में परिग्रह नाम से सम्बो
चाहिए कि सब व्रत-क्रियाय आदि भी तभी सार्थक हैं जब धित किया गया है और इसमे मुक्त रहने का पाठ दिया वे अपरिग्रह की भावना और अपरिग्रही-क्रियाओ से अपरिगया है। इस दर्शन में अरिग्रही को पूज्य माना गया है ग्रह की पुष्टि के लिए हो। क्योंकि वही निर्दोष है और वह ही स्व-स्वभावी सर्वज्ञ
हमारी भूल रही है कि हम अन्य व्रत आदि की दशा में स्थित होने में समर्थ है। कहा भी है-'यस्तु न
क्रियाओं को (वह भी दिखावा रूप में) जैनत्व का रूप देने निर्दोषः स न सर्वज्ञः। आवरण रागादयोदोषास्तेभ्यो
में आमवत रहे है और अपरिग्रह की आमक्ति से नाता निष्क्रान्तत्वं हि निर्दोषत्वम् ।'.. जो निर्दोष नहीं है वह ।
तोड़े हए है। आज देश का जन-जन दुखी है वह भी सर्वज्ञ नहीं है और रागादि अन्तरग व धनादि बहिरंग
परिग्रह की ज्यादती या लौकिक अनिवार्य पूर्तियो के अभाव आवरणो-परिग्रहो से रहित होना ही निपिपना है।
में दुखी है। हिंसादि सभी प्रवृत्तिया भी परिग्रह से तथा और जैनः म म शुद्धात्मा को ही निर्दोष कहा है-'स
परिग्रह की बढ़वारी के लिए ही की जा रही है। आश्चर्य त्वमेवासि निर्दोषो युक्ति शास्त्रावरोधि व.क।' इसी
है कि सरकार ने भी परिग्रह की बढवारी को किन्हीं अपनिर्दोषता को लक्ष्य कर १८ दोषो को भी स्थूल रूप में
राघो की परिधियो में नहीं बाधा। भारतीय दण्डसहिता दर्शाया गया है
में हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील के लिए जैसे दण्ड निर्धा'छहतण्डभोरुरोसो रागो मोहो चिता जरा रुजा मिच्च ।।
रित है, वैसे परिग्रह की बढ़वारी की रोक के लिए सायद स्वेदं खेदं मदो रइ विम्हियरिणद्दा जणु ग्वेगो॥
हा कोई धारा हा। यदि सरकार ने जैन मल-सस्कृति -नियमसार ६।।
अपरिग्रहत्व से नाता जोड़ा होता-ऐसी कोई धारा निर्धाजम्बूदीवपत्ति और द्रव्यसग्रह टीका आदि में भी रित की होती जो परिग्रह परिमाण पर बल देती हातीइन दोषो का खुलासा है और ये सभी दोष स्व-स्वभाव न अति-परिग्रहियो के लिए दन्ड विधान करती होती तो देश