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जैन की पहिचान : अपरिग्रह
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में एकरूपता है। यदि भेद है तो परिग्रह और अपरिग्रह परिग्रह-राग-द्वेषादिक रूप पर-भावों में दौडता है अर्थात के लक्षणों को लेकर ही है।
वह स्व से बेखबर हो जाता है और पुण्य-पापरूप या दोनों सम्प्रदायों में दो नोक बड़े प्रसिद्ध हैं। उनमें ससारवर्द्धक पर पदार्थों में वृत्ति को ले जाता है। ऐसे दिगम्बर-सम्प्रदाय में शास्त्र वाचन के प्रारम्भ में पढ़ा जाने जोव को उन परिग्रह -कर्मबन्धकारक त्रियाओं से सर्वथा वाला मंगलश्लोक पूर्ण अपरिग्रही होने के रूप में नग्न हटकर पुनः अपने शुद्ध अपग्ग्रिही आत्मा मे आने के लिए दिगम्बराचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य को नमस्कार करता है प्रतिक्रमण का विधान किया गया है। इसमें पर प्रवत्ति जब कि श्वेताम्बरों में इस श्लोक का रूप सवस्त्र (दिग- का सर्वथा निषेध और स्व-प्रवृत्त (जो शुद्ध यानी अपरिम्बरों की दृष्टि में परिग्रही) आचार्य स्थूलभद्र को नमस्कार ग्रह रूप है) मे आने का विधान है। रूप में है । तथाहिदिगम्बरों मे
(२) प्रत्याख्यान : जो जीव पर से स्व मे आ गया, मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमोगरणी ।
वह पुनः पर मे न जाने को कटिबद्ध हो, यानी पुन: परिमंगल कुन्दकुन्दार्यों जैनधमोऽस्तु मगलम् ॥
ग्रहरूप-कर्मबन्धकारक क्रियाओ मे न जाने में सावधान श्वेताम्बरों मे--
हो? इससे उसका आगामी ससार-परिग्रह यानी कममगलं भगवान वीरो मगलं गौतमोप्रभु । बन्ध रूप ससार रुकेगा। मंगलं स्थूलभद्रार्यों जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
(३) सामायिक : प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान में उक्त श्लोकों से यह भी ध्वनित होता है कि महावीर सन्नद्धजीव सम-समता भाव मे स्थिर होने में समर्थ हो और गौतमगणधर के पर्याप्त समय बाद तक अभेद रहा सकेगा। क्योंकि समता का शुद्ध-आत्मा से अट सम्बन्ध और बाद में अपरिग्रह, परिग्रह के आधार पर नग्न और है। समता का भाव है-किसी अन्य के प्रति शभ या सवस्त्र साधु के भिन्न-भिन्न नामो से श्लोक प्रचलित अशुभरूप पर भावों का मर्वथा त्याग । क्योकि शूभ और किया गया, जो कुन्दकुन्द और स्थूलभद्र के रूप में हमारे अशुभ भाव चाहे वे विभिन्न जीवो मे एक जैसे ही क्यो न सामने है । श्लोकों मे महावीर और गौतम के नाम यथा- हो बन्ध कारक होगे, जब कि सच्ची सामायिक मे आस्रव वत एक रूप है। इसी के आधार पर दिगम्बर भी वबन्ध दोनो का सर्वथा अभाव यानी आत्मा के अपरिसवस्त्र को निर्ग्रन्थ-गुरु के रूप में नमस्कार नहीं करते। ग्रही होने का पूर्ण उद्देश्य है। इसी सामायिक से ध्यान और वसा मंगलाचरण भी नहीं करते जैसा अब कोई-कोई और कर्मक्षय को बल मिलता है। इस प्रकार जंन की करने लगे हैं। जो ठीक नही है।
सभी प्रवृत्तिया अपरिग्रहत्व की ओर मुड़ी हुई हैं जब कि ___अपरिग्रह धर्म अध्यात्मरूप भी है जो आत्मा के पर- अहिंसादि अन्य धर्मों मे पर का अवलम्ब अपेक्षित है। भिन्न-नग्न-शुदस्वरूप को दर्शाता है। इसी अपरिग्रही ध्यान के विषय मे भी कुछ लिखना है। ध्यान की प्रक्रिया रूप की प्राप्ति के लिए जिन शासन मे प्रतिक्रमण, प्रत्या- आज जोरों से प्रचारित है और उसमे पर-प्रवृत्ति ही विशेष ख्यान और सामायिक के विधान है। प्रतिक्रमण का अर्थ लक्ष्य बनी हुई है। होता है-आत्मा के प्रति आना। प्रत्याख्यान का अर्थ अपरिग्रहत्व से तात्पर्य है-मात्र 'स्व' और ऐमे 'स्व' होता है-पुनः 'पर' में न जाना और सामायिक का अर्थ से जिसमे-परिग्रह का विकल्प ही न हो। अरहन्तहोता है-अपने में स्थिर होना । यह जो कहा जा रहा है तीर्थकर अपरिग्रही-पूर्ण दिगम्बर हैं 'स्व' मे विराजमान कि अशुभ से हटकर शुभ मे आना आदि, सो सब व्यवहार और 'स्व' रूप में स्थित भी। ज्ञान रूप आत्मा के सिवाय ही है।
उनका स्व-तत्त्व अन्य कुछ नही-वे ज्ञाता दृष्टा कहलाते (१) प्रतिक्रमण : परिग्रह से आवृत प्राणी पुन:-पुनः हैं सो भी परकीय दृष्टि से ही। क्योकि उनमे पर की