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जैन की पहिचान : अपरिग्रह
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'परम्परव्यतिकरे सति येनाऽन्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम् -' परस्पर में मिले हुए अनेको मे जो हेतु किसी एक की स्वतन्त्ररूपता को लक्षित कराता है वह उस जुदे पदार्थ का लक्षण होता है। जैसे अग्नि का लक्षण उष्णता अग्नि को पानी से जुदा बताने में हेतु है। समार मे जैन, बौद्ध, वैष्णव, शैव, मुस्लिम, सिख आदि अनेको मत-मतान्तर प्रचलित है उन सबकी पृथक्-पृथक् पहिचान कराने के उनके अपने-अपने लक्षण निश्चित है, जिनमे उनकी पृथक् पहिचान होती है। यह बात निर्विरोध है कि जैनों की पहिचान कराने मे 'अपरिग्रह' मुख्य हेतु है यह हेतु जैनों का अन्यों से व्यवच्छेद कराता है— जैनो की पृथक् पहिचान कराता है । साधारणतया अपरिग्रह के सिवाय अन्य शेष घर्मो अहिंसादि में वह शक्ति नहीं जो वे जैनो का अन्य मतान्तरो से सर्वथा व्यवच्छेद कराने में सर्वथा समर्थ हो सकें । यतः अपरिग्रह के सिवाय अन्य अहिंसादि शेष धर्म अन्य सभी साधारण मत मतान्तरों मे होनाधिक रूपों में पाये जाते हैं । अत: जैनों में उनका अस्तित्व तात्त्विक पहिचान के रूप में विशेष महत्व नहीं रखता और ना ही उनमे से कोई धर्म औरों से जैनों को अलग पहिचान कराने में समर्थ ही है । तथा जैनों की हर क्रिया मे पूर्ण अपरिग्रहत्व की भावना निहित है। यहां तक कि जैन का अस्तित्व भी अपरिग्रह पर आधारित है । यतः -
'जैन' शब्द के निष्पन्न होने मे 'जिन' की मुख्यता है । जो 'जिन' का है वह 'जैन' है। यहां जीतने से तात्पर्य मोह, राग-द्वेषादि पर वैभाविक भाव अर्थात् कर्मों के जीतने से है । क्योंकि ये मोहादि पर-भाव स्वयं भी परिग्रह हैं और परिग्रह के मूल भी हैं ।
हमने श्रावक व मुनियो की दैनिकचर्या को पढा है और उनके प्रारम्भिक कृत्यों को देखा है । नित्य-नियम सामायिक आदि के लक्षणो मे भी अपरिग्रह भावना की
पद्मचन्द्र शास्त्री 'सम्पादक'
कारणता विद्यमान है अर्थात् जब तक रागादि-परिग्रह के प्रति उदासीन भाव नहीं होगा तब तक सामायिक न हो सकेगी। जहा पर परिग्रह से निवृत्ति और स्व यानी अपरिग्रहत्वरूप निर्विकार स्व-परिणाम में ठहराव है वहीं सामायिक है और वह ही आत्मा की शुद्धि में कारण है । जब तक जीव की पर-प्रवृत्ति बनी रहेगी, चाहे वह प्रवृत्ति अहिंसादि में ही क्यों न हो ? वह बन्ध का ही कारण होगी । क्योकि अहिंसादि धर्म पर अपेक्षाकृत है, पर के आसरे से हैं। स्व-परिणाम 'अपरिग्रह' रूप होने से बन्ध का कारण नही । अहिंसादिक सामाजिक धर्म हैं और अपरिग्रह आत्मिक धर्म है जिसका 'जिन' और जैन से तादात्म्य सम्बन्ध है ।
युग के आदि प्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर भ० महावीर तक चोबीस तीर्थकर और अरहन्त अवस्था व मुक्ति को प्राप्त असंख्य सिद्ध अपरिग्रही होने से ही पूर्णता को पा सके । एक भी दृष्टान्त ऐसा नही है जिससे परिग्रही का मुक्त होना सिद्ध हो सके ।
जैनों मे जो दिगम्बर, श्वेताम्बर जैसे दो भेद पड़े हैं वे परिग्रह और अपरिग्रह के कारण ही पड़े है । ऐसा मालूम होता है कि जिन्होंने अपरिग्रह पर समन्तः और सूक्ष्म दृष्टि रखी वे दिगम्बर और जिन्होने अपरिग्रह पर स्थूल, एकांगी बाह्य-दृष्टि रखी वे श्वेताम्बर हो गए । स्मरण रहे जहां दिगम्बर अन्तरंग-बहिरंग सभी प्रकार के परिग्रह त्याग पर सूक्ष्म रूप मे जोर देते है, वहां श्वेताम्बर बाह्य परिग्रह को गोण कर केवल अन्तरग परिग्रह को मुख्यता देते है और इसीलिए उनमें स्त्री और वस्त्र मुक्ति को मान्यता दी गई है। यदि इन भेदों के होने मे अहिंसादि को लेकर मतभेद की बात होती तो उसका कही तो कैसे भी उल्लेख होता - जैसा कि नहीं है। दोनों में हो अहिसादि चार धर्मों के लक्षणों और उनके रूपों की मान्यता