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________________ केन्द्रीय संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर में संरक्षित छठे तीर्थंकर पद्मप्रभ की प्रतिमाएं 7 नरेश कुमार पाठक पद्मप्रभवर्तमान अवसर्पिणी के छठे जिन है। कौशांबी के शासक धर ( या धरण) इसके पिता और सुसीमा इनकी माता थी। जैन परम्परा मे उल्लेख है कि गर्भकाल मे माता को पद्म की शैय्या पर सोने की इच्छा हुई थी तथा नवजात बालक के शरीर की प्रभा भी पद्म के समान थी इसी कारण बालक का नाम पद्मप्रभ रखा गया । राजपद के उपभोग के बाद पद्मप्रभ ने दीक्षा ली और छ: माह की तपस्या के बाद कौशाम्बी के सहस्त्राम्र वन मे त्रियगु (या वट) वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त हुआ । पद्मप्रभ का लांछन पद्म है और यक्ष-यक्षी कुमुम और अच्युता (या श्यामा-या मानसी) है । दिगम्बर परम्परा मे यक्षी का नाम मनोवेगा है । मूर्त अङ्कतों मे पद्मप्रभ की पारंपरिक यक्ष-यक्षी कभी निरूपित नही हुए । केन्द्रीय संग्रहालय गुजरी महल ग्वारियर में पद्मवन की दो प्रति मायें संग्रहीत है, जिसका विवरण इस प्रकार है :--- बुद्ध प्रतिमा के प्रभामण्डल से समानता रखता है । जिसमे दो विद्याधर हार फूल लिए एक समान है । केवल पीछे लगे वृक्ष से 'अन्तर स्पष्ट होता है । इस प्रतिमा का पादपीठ साधारण है, परन्तु दो पूर्ण विकसित कमल दण्ड नीचे से खंडित अवस्था में है । दोनों तरफ चांबरधारिणी पूजक आराधना करते हुए अंकित है । कमलदण्ड से ऐसा प्रदर्शित होता है कि यह मूर्ति पद्मप्रभ की हो सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन जैन मूर्तियों के पादपीठ पर चिह्न या लांछन रहता था। लगभग ५वी शती ई० की इस जैन प्रतिमा को एम. आर. ठाकुर ने जैन तीर्थंकर लिखा है। मुद्रा दूसरी प्रतिमा ग्वालियर दुर्ग से प्राप्त पद्मासन (सं० क्र० ११६) की ध्यानस्थ मुद्रा मे निर्मित है । प्रतिमा सिरविहीन एवं दो खंडों में है । दो मिहों पर भारित पादपीठ के मध्य पद्मप्रभ का लाछन पद्म तथा उनकी पूजा बेसनगर ( विदिशा ) से प्राप्त (स० क्र० ३३ ) करते हुए स्त्री-पुरुष स्थित है। सिंहों के दोनो ओर दायें कायोत्सर्ग मे निर्मित इस प्रतिमा की मुखाकृति लुप्त यक्ष पुष्प बाये यक्षी मनोवेगा का अङ्कन है । पादपीठ के सी हो गई है। फिर भी योग मुद्रा की शान्ति चेहरे पर नीचे दो पद्मासन मे जिन प्रतिमाओ का आलेखन है । स्पष्ट जाहिर होती है एवं वेश राशि पर अलग से सामान्य चौकी पर विक्रम संवत् १५५२ ( ईस्वी सन् १४९२) का रूप से प्रचलित हल्का सा उष्णीण है । हाथ सीधे नीचे आलेख उत्कीर्ण है जिसे एस०के० दीक्षित ने महाराजा लटके हुए है जो कनाई से टूटे हुए है। मूर्ति का प्रभा- मानसिंह तोमर के राज्यकाल की माना है। एस० आर० मंडल गोलाकार पंक्तियो से अलकृत है जो सारनाथ की ठाकुर ने इसे जैन तीर्थंकर लिखा है ।" सन्दर्भ - सूची १. त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र (हेम चंद्र कृत) अनु० ५. हेलेन एम० जानसन, गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज उड़ीसा ३, ४, ३८, ५१ । २. जैन कला एवं स्थापत्य ( खण्ड ३, धमलानद घोप, सम्पादित भारतीय ज्ञानपीठ ) १६७५ पृष्ठ ६०४ । ३. तिवारी मारुति नन्दन प्रसाद "जैन प्रतिमा विज्ञान" वाराणसी, १६८१ पृष्ठ १०० । ४. कुमार स्वामी ए० के० हिस्ट्री आफ इंडियन एण्ड इण्डोनेसियन आर्ट १६६५ पृष्ठ XLII. गुप्तकाल में जैन मूर्तियों के विकास मे प्रतिमा लांडनो मे केवल श्री वत्स लाछन ही नहीं मिलते बल्कि छोटे-छोटे यक्ष-यक्षों के रूप में शासन देवताओ का अङ्कन मिलता है, शुक्ला डी० ए० जैन एण्ड बुधिष्ट आक्नोग्राफी आर्किटेक्चर II पृष्ठ ११. ६ ठाकुर एस० आर० कंटलाग आफ स्कपचर्स आर्कोलाजीकल म्यूजियम ग्वालियर एम० बी० पृष्ठ-४ क्रमांक १२ । ठाकुर एस० आर० पूर्वोक्त पृष्ठ २० क्रमांक ४ । ७
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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