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उद्देशिक आहार
0 श्री बाबूलाल जैन अभी तक समाज में यही मान्यता है कि मुनि के रागरहित योगी उसके लिए दूसरे के द्वारा किए, अथवा पात्र के उद्देस से अगर आहार बनाया जावेगा तो कराये तथा अनुमोदि हुए आहारादिको से कदाचित बध जो पात्र आहार लेगा वह उद्दिष्ट आहार ग्रहण के दोष को प्राप्त नहीं होता। का भागी होगा अतः गृहस्य अपने लिए आहार बनावे णवकोटि कम्म सुद्धो पच्छा पुवो य सपदिय काले। और उसी में से पात्र को आहार दान देवे । दूसरी तरफ पर मुह दुःख निमित्त वज्झदि जदि पत्थि णिवाण । गृहस्थ कहना है कि जब हम गर्म पानी नहीं पीते, बिना तीन काल में नव कोटि शुद्ध भोजन को जो मुनि नमक का भोजन नही करते और शुद्ध भोजन नहीं करते लेता है सो पीछे, पहले व वर्तमान में नव कोटि शुद्ध है तब जो कुछ भी बनाया जाता है वह मुनि अथवा पात्र के और यदि वह दूसरों के सुख व दुख का निमित्त हो और विए ही बनाया जाता है उसे हालत मे उद्दिष्ट भोजन का इस निमिन होने के कारण वह शुद्ध भोजी कर्म बध को ग्रहण साधु के होगा ही। बहुत बार इस बारे में चर्चा भी प्राप्त करे तो उसको निर्वाण का लाभ नही हो सकता। हुई परन्तु समाधान नहीं निकला। इस लेख को इसी समयसार का गाथा २६८-२६६ की जयसेनाचार्य विषय पर विचार करने के लिए लिखा जा रहा है। की टीका का भावार्थ
यह भी आचार्यों ने लिखा है कि गहस्थ अपने लिए "कोई दातार पत्र को दान देने के लिए ऐसी कल्पना आहार नही बनाता वह तो पात्र दान के लिए ये ही करे कि मै पात्र के लिए अमुक-अमुक भोजन बनाऊ तो
र पात्रदान के लायक बनाता है और पात्र को देने के उस नोजन को ओह शक आधा कर्म कहते हैं । इस आधा बाद जो बच जाता है उसमे वह और उतके आश्रित लोग कर्म के होते हुए भी मुनि शांत भाव से उस भोजन को खाकर सतुष्ट हो जाते है । क्योकि गृहस्थ पात्र के लिए कर ले तो मुनि के उस भोजन कृत बध का अभा आहार बनाता है इसलिए उसके पुण्य का बध ही होता जबकि अपना कल्पना के कारण दातार अवश्य उस दोष है अगर वह अपने लिए भोजन बनावे तो पाप का बध ।
का भागी है । यहा यह अभिप्राय है कि भोजन के पीछ हो। और क्योकि मुनि ने बनाया नहीं बनवाया नही और पहल या भाज अनुमोदना नही करी, मन से, काय से अतः मूनि कोई विषय मन, वचन, काय से कृतकाारत अनुमोदनारूप नो दोष का भागी नही है । अगर गृहस्थ के उद्देसक परि- विकल्पो से राहत शुद्ध आहार होता है अर्थात् मुनि अमुक णामो का दोष मुनि को लगने लगे तो मुनि को कभी मोक्ष आहार होने के विषय मन, वचन, काय से (वय करना, की प्राप्ति न हो । दूसरे के परिणामों का फल दूसरे कैसे कराना व उसकी अनुमोदना कुछ भी विकल्प नहीं करते. भोगेगा। इससे यही साबित होता है कि उद्दिष्ट का अर्थ इसीरो उन मुनियों के दूसरे गृहस्थी के द्वारा लिए हुए यही होना चाहिए कि मुनि बताये नही, बनवावे नही, आहार आदि के सम्बन्ध मे माँ का बध नही होता ओर बनाने की अनुमोदना भी करे नही, मन से वचन से क्योकि बध परिणामों के आधीन है।" काय से तब मुनि उस बनाने के आरम्भ के बंध को प्राप्त अगर मुनि करने, कराने और अन मोदना के भाव नही होता । इसलिए श्रावक पात्र के लिए पात्र के योग्य मर, वचन, काय से करे तो कर्मों से जरूर बंधेगा। भोजन बनावे तो कोई दोष नहीं है।
जैसा ऊपर में लिखा है श्रावक तो आरम्भ करना इस बारे मे आगम प्रमाण इस प्रकार योगसार ही है अपने लिए भोजन बनायेगा ही। परन्तु वह पात्र प्राकृत अमितगति आचार्य कृत अध्याय ४ गाथा २०। । के उद्देश्य से बनावे तो पुण्य का ही बध हो पाप का नही
आहारादिभिरन्येन कारितैर्मोदित. कृतः हो। इसलिए श्रावक भी लाभ मे रहा और मुनि महाराज तदर्थ बध्यते योगी निरोगी न कदाचन । के बध हा नही । विद्वान लोग इस बारे में विचार करे।