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धमेकाना
१६ वर्ष ४३, कि० १
अरहनंदि के संदर्भ में वामणी (कोल्हापुर) पार्श्वनाथ मन्दिर में प्राप्त अभिलेख से जानकारी मिलती है (Ep. Ind Vol. III, pp. 211 ) यहा चौधरे कामगा गुण्ड द्वारा निर्मित जैन मन्दिर भी उल्लेखनीय है। नामगादेवी के आग्रह पर नेमगावंड ने तीर्थंकर चन्द्रप्रभ मन्दिर हाविन हेरिडिगे ( 1118 A.D.) मे बनवाया ।
बेलगाँव मे प्राप्त दो अन्य लेखों के अनुसार रहवंश के कार्तवीर्यं चतुर्थ तथा उनके वन्धु मल्लिकार्जुन ने स्वयं उनके मन्त्री वीचण ने एक रट्टु जिनालय स्थापित किया था। उन्होंने इस मन्दिर के प्रधान भट्टारक शुभचन्द्र को शक सं० ११२७ मे कुछ भूमिदान किया था (Ep. Ind Vol. 13, P. 15 ) । ये शुभचन्द्र मूलसंघ के पुस्तकगच्छी मलधारिदेव के शिष्य नेमिचन्द्र के शिष्य थे । बेलगाँव के हल्सी गांव में प्राप्त लेख के अनुसार कदम्बा युवराज काकुत्स्थवर्मा द्वारा श्रुतकीर्ति सेनापति को प्रदत्त दान का उल्लेख है। यह दान सेट ग्राम में किया गया था। फ्लोट मे इसका समय पांचवी शती निर्धारित किया है (Ep Ind Vol. 6, P. 22-24 ).
मध्यकाल के पूर्व भी कोल्हापुर जैन सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में विख्यात रहा है सम्राट खारवेल के बाद दक्षिणापथ मेडन के सातवाहनों का उत्कर्ष हुआ जो द्वितीय शती तक अवस्थित रहा। इस बीच मूलसंघ के पट्टधर आचार्य अर्हवली (38-66 A D.) ने वेध्यानदी के तट पर स्थित महिमानगरी (कोल्हापुर का महिगान गढ़) मे एक विशाल जैन सम्मेलन का आयोजन किया और आवश्यकता प्रतीत होने पर संघ को नन्दि, वीर, अपराजिन, देव, पंचस्तूप सेन, भद्र, गुणधर, सिंह चंद्र, आदि विविध नामों से संघ स्थापित किये (इन्द्रनन्दि श्रुताबार ११-२६)। इन सचों की स्थापना के पीछे धर्मवात्सल्य, एकता और प्रभावना की अभिवृद्धि मुरुष उद्देश्य था ।
कोल्हापुर (बल्लमपुर ) मे प्राप्त एक अन्य दानपण के अनुसार मूलसंघ काकोपल आम्नायी सिनदि मुनि को अलक्तकनगर के जैन मन्दिर के लिए कुछ ग्राम दान दिये गये हैं। दान देने वाले थे पुलकेशी प्रथम के सामन्त सामियार जिन्होंने अनेक जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा कराई
थी और गंगराज माधव द्वितीय तथा अविनीत ने कुछ ग्रामादि द्वारा में दिये थे।
११-१२वीं शती के चिकतुलसोगे के शिलालेखों में ज्ञात होता है कि वहां मूलसंघ का देशीगण भी काफी लोकप्रिय था। इसके दिवाकरनंदि चन्द्र कीर्ति, पूर्णचन्द्र, दामनंदि, तपकीति आदि आचार्य कोल्हापुर के आसपास ही रहते थे। यहां अनेक जैन वसदियां थीं जिन्हें कंगाल्य नरेशों द्वारा संरक्षण प्राप्त था। देशी गरण का प्रमुख गच्छ पुस्तकगच्छ है । हनसोगेर्नल पुस्तकगच्छ का ही एक उपभेद है। इस गण की एक शाखा का नाम गुनेश्वरवलि है जिसके आचार्यगण प्रायः कोल्हापुर के आसपास रहते थे (Ep. Kar. Vol. VIII & IV; जैन शिलालेख संग्रह भाग २, पृ० ३५६-५८ ) । यापनीय संघ भी कोल्हापुर गांव आदि समीपवर्ती स्थानों में लोकप्रिय था। यह बेलगांव स्थित टोड़डवसदि जैन मन्दिर मे प्राप्त एक अभिलेख से प्रमाणित होता है। मलखेड़ के पास नगई (गुलबर्गा) भी प्रसिद्ध दिगम्बर जैन मन्दिर है जो कदाचित् बलात्कारगण का केन्द्र रहा होगा ।
कोल्हापुर से लगभग २०० कि० मी० दूर स्थित बादामी (प्राचीन नाम वातावी) का उदय पश्चिमी चालुक्य वंश के रूप मे पचम शताब्दी मे हुआ । इसका सम्बन्ध विजयादित्य चालुक्य से रहा उसी के वश में उत्पन्न दुविनत ने जयसिंह के माध्यम से वाताची साम्राज्य की वीर डाली। इसका वास्तविक राज्य संस्थापक पुलकेशी प्रथम था जो जैनधर्म का कट्टर भक्त था। उसके सामन्त और सहयोगी भी जैन धर्मावलम्बी थे। उसने ५४२ ई० में अलक्तकनगर में एक जिनालय बनवाया जिसमे उत्कीर्ण शिलालेख मे कनकोपल शाखा के जैनाचार्य सिंहनाद, चितकाचार्य नागदेव पौर जिननदि के नामो का उल्लेख है ऐहोल भी इस काल का प्रमुख जैन केन्द्र रहा है। इसी वस के कीर्तिवर्मन प्रथम ५६५-५६७ A.D.) ने जैनमन्दिर में अभिषेकादि के लिए विपुल दान दिया था। इसी के राज्यकाल मे ५८५ ई० मे जैनाचार्य रविकीर्ति ने ऐहोल के पास मेगुनी मे एक जैन मन्दिर बनवाया था और जैन विद्यापीठ की स्थापना की थी। शायद इसी के शासनकाल मे aapaक नगर में चालुक्यों के लघुव्य