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महाराष्ट्र में जैन धर्म
नामक उपराजा की पत्नी ने प्रकाण्ड जैन दार्शनिक भट्ट उनके अस्तित्व को समाप्त नहीं किया जा सका। मुसअकलंक को जन्म दिया। बादामी की प्रसिद्ध गुफाओं लिम आक्रमण भी उत्तरकाल में हुए उस पर, फिर भी वह का निर्माण भी इसी समय हुआ प्रौढ़ संसत में लिखी अपने अस्तित्व को बचाए रखने में सक्षम रहा। रविकीति को प्रशस्ति निश्चित ही संस्कृत साहित्य की मराठी के विकास में प्राकृन का योगदान बहुत आधिक अनुप देन है। अकलंक देव संघ के आचार्य थे और रहा है। मराठी साहित्य का भी प्रारम्भ जैन कवियो से विक्रमादित्य साहसतुग के गुरु थे। इसी वश के विजया हुआ है। उन्होने १६६१ ई० में इस क्षेत्र मे अधिक कार्य दित्य द्वितीय (६६७-७३३ ई.) के शिलालेख मे जैन तीर्थ किया है। जिनदस, गुणदास, मेघराज, कामराज, सूरिराज, क्षेत्र कोप्पण का उल्लेख है। आचार्य अकलंक के सधर्मा गुणनंदि, पुष्पमागर, महीचन्द्र, महाकाति, जिनसेन, देवेन्द्रपुष्पसेन और उनके शिष्य विमलचन्द्र तथा कुमारनंदि कीर्ति, कललप्फा, भामापन आदि जैन साहित्यकारों ने और अकलंक के प्रथम टीकाकार बृहत् अनन्तवीयं भी मराठी मे साहित्य तैयार किया है। यह साहित्य अधिकाश इसी राजा के आश्रयकाल में रहे है। इसी राजा ने शंख- रूप में अनुवादित दिखाई देता है। जिनालय पुलिगेरे जैन मन्दिर आदि के लिए भी पुष्कल जनजातियों के सर्वेक्षण से पता चलता है कि महादान दिया। यह वश जैनधर्म का संरक्षक-सा रहा है। राष्ट्र में उनके ब. च जैनधर्म काफी लोकप्रिय रहा है।
कल्याण के चालुक्य सम्राट भवन कमल्ल का १०७१ जनकलार, कास.र आदि कुछ ऐसी जनजातियां यहा है जो ई० का एक शिलालेख नान्देड के पास तडखेल ग्राम में एक समय जैनधर्म में परिवर्तित हुई थी पर कदाचित् उन्हें मिला निसके अनुसार सेनापति कालिमप्प तथा नागवर्मा ढंग से अपनाया नहीं जा सका और फलत: वे वैदिकधर्म ने निकलक जिनालय को भूमि, उद्यान आदि अर्पित किये की ओर पुनः मक गई। यद्यपि उनके आचार-विचार मे थे। इसी वश के सम्राट त्रिभुवनमल्ल के समय (१०७८ आज भी जैनधर्म की झलक दिखाई देती है फिर भी हम ई०) एक अभिलेख सोलापुर के समीप अक्कलकोट में उन्हें जैन कहने में संकोच करते है। यदि इन जनजातियों मिला है जिसमे जैनमठ के लिए भूमिदान देने का उल्लेख बीच जैनधर्म का चिराग जलता और वे एक जैन जाति के है। चालुक्यो के प्रतिस्पर्धी मालवा के परमार वंशीय राजा रूप स्वीकार कर लिए जाते तो संख्या पर काफी असर भोज के सामन्त यशोवर्मन द्वारा कल्कलेश्वर के जिन- होता । साथ ही उनका जीवनस्तर भी बढ़ जाता। मन्दिर को प्रदत्त दाम का वर्णन कल्याण (बम्बई के पास) महाराष्ट्र में जैन समाज विदर्भ, मराठावाड़ा, पश्चिम मे प्राप्त एक ताम्रशासन में मिलता है।
महाराष्ट्र और दक्षिण महाराष्ट्र में बटा हुआ है। वर्तमान इस प्रकार महाराष्ट्र में जैनधर्म ई० पू० तृतीय-चतुर्थ में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो सम्प्रदाय संयुक्त रूप से शती मे लेकर मध्ययुग तक अविकल हा दे लोकप्रिय हा महाराष्ट्री संस्कृति के अग बन गये है। दिगम्बर संप्रदाय है। जैन कला और साहित्य के विविध आयाम इस काल- यहा का मूल संप्रदाय दिखाई देता है। केतकर के 'महाखण्ड में दिखाई देते है। एलोरा की गुफाओ की कलात्म- राष्ट्री जीवन' ग्रन्म से भी यह तथ्य उद्घाटित होता है। कता और व्यापकता इतिहास की अनुपम देन है। अनेक ग्रामीण भाग में उनकी संख्या अधिक है। कृषि और गरण- च्छो की स्थापना और उनके विकास का श्रेय भी व्यापार उनके प्रमुख व्यवसाय है। वैदिक संस्कृति से महाराष्ट्र को जाता है। जैनाचार्यों का भी यह कर्मक्षेत्र मिलता-जुलता उनका आचार हो गया है फिर भी सांस्कृरहा है । भट्टारक सम्प्रदाय का भी विकास यहां उल्लेख- तिक धरोहर को मम्हाले हुए है अत: उनकी स्वतत्र पहिनोय है । मध्ययुग में ही यहां ग्रन्थ भण्डारो की स्थापना चान भी बनी हुई है। ज्ञानेश्वरी तथा महानुभाव साहित्य पौर भित्तिचित्रों की सरचना हुई है। शैव, वैष्णव और में जैनों का मगम्मान उल्लेख हुआ है। मराठी सतो पर लिंगायत सम्प्रदायों के हिंसक व्यवहार से यद्यपि महाराष्ट्र जैरधर्म का प्रभाव स्पष्टतः दिखाई देता है। १९११ की में जैनधर्म को अनेक घातक संघात सहने पड़े है, फिर भी
(मेष पृ० १८ पर)
पाहा