SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृत जैन काव्य शास्त्री और उनके ग्रन्थ डॉ० कपूरचन्द्र जैन, खातौली काव्य-सौन्दर्य की परख करने वाला शास्त्र 'काम्य- को आज्ञा दी। काव्यपुरुष ने अठारह भागों में विभक्त शास्त्र कहा जाता है। यद्यपि इसके लिए विभिन्न कालों काव्यविद्या का उपदेश अपने शिष्यो को दिया किन्तु इस में काव्यालंकार', 'अलंकार शास्त्र', 'साहित्यशास्त्र', आख्यान को प्रामाणिक नही माना जा सकता । 'क्रियाकल्प' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है, किन्तु सर्वाधिक भारतीय ज्ञान विज्ञान के उद्गमस्थान वेदो मे भी प्रचलित नाम काव्यशास्त्र ही है। काव्यशास्त्र के बीज पाये जाते है वहां उपमा रूपकादि इस शास्त्र के उद्गम के विषय मे कुछ निश्चित अलकार का उल्लेख हुआ है। निरुक्त तथा व्याकरण कह पाना सम्भव नहीं है। भारतीय परम्परा आचार्य वेदाङ्गो मे उपमा का विवेचन आया है। पाणिनि की भरत से इसका आरम्भ मानती है । राजशेखर कृत काव्य- अष्टाध्यायी तथा पातञ्जलि के महाभाष्य में भी अलकार मीमांसा में वरिणत एक पौराणिक आरव्यायिका के अनुसार का वर्णन आया है, तथापि यहा काव्यशास्त्र का क्रमबद्ध भगवान श्रीकण्ठ शिव ने इस काव्यविद्या का उपदेश और सुश्लिष्ट शास्त्रीय निरुपण प्राप्त नहीं होता। भरत परमेष्ठी वैकुण्ठादि चौसठ शिष्यों को किया था। उनमें से ही इसका शास्त्रीय और क्रमबद्ध निरुपण आरम्भ हुआ। से प्रथम शिष्य स्वयम्भू-ब्रह्मदेव ने इस विद्या का द्वितीय भरत का समय ई० पू० द्वितीय शती से ई० की द्वितीय बार उपदेश अपनी इच्छा से उत्पन्न शिष्यो को किया इन शती के बीच डॉवाँडोल है। तदनन्तर भामह, दण्डरुद्र, शिष्यों में सरस्वतीपुत्र काव्यपुरुष भी एक था । ब्रह्मा ने बामन, अभिनवगुप्त, मम्मट, विश्वनाथ पण्डितराज उसे भः, भवः और स्वर्गलोक में काव्यविद्याप्रचार करने जगन्नाथ आदि उल्लेखनीय वाव्यालोचक हुए । इस प्रकार (१० १७ का शेषांष) भारतीय काव्यशास्त्रीय परम्परा सुदृढ़ और विस्तृत रही जनसंख्या के आधार पर यह कहा जा सकता है कि महा- है। राष्ट्र में जैनों की संख्या सभी प्रदेशों से अधिक है। लग जैन साहित्य की भाषा प्राकृत है, इसी भाषा में मूल भग दस लाख जैन यहां हैं। प्रतिशत की दृष्टि से महा आगम और सिद्धान्त ग्रन्थ सुरक्षित हैं। दार्शनिक ग्रन्थों राष्ट्र में २६.४२ संस्था है । बम्बई, बेलगाव और कोल्हा है बेला और कोल्डा की भी प्रान में कमी नहीं है। साथ ही कथा, उपन्यास पुर मे ही लगभग सात लाख जैन है । इसके बाद सांगली जैसा ललित साहित्य भी इस भाषा मे पर्याप्त मात्रा में ठाणा, नासिक, जलगांव शोलापुर, नागपुर, पूना, आदि उपलब्ध होता है । तथापि काव्यशास्त्र विषयक ग्रन्थो की शहरों का नाम आता है। महाराष्ट्र इस दृष्टि से एक इसमें अत्यन्त कमी है। छन्द विषयक तो ४.६ ग्रन्थ उपमहत्त्वपूर्ण प्रदेश कहा जा सकता है जहां जैन संस्कृति आज लब्ध हैं, पर अलंकार विषयक एक ही ग्रन्थ अब तक भी सर्वाधिक पुष्पित फलित दिखाई दे ही है। अभी प्रकाश में आया है। इसका पृथक्-पृथक् क्षेत्र में मूल्याकन शेष है। साहित्य, 'अलंकार दप्पण' नामक इस लषु ग्रन्थ को प्रकाश में कला, संस्कृति आदि विविध दृष्टियो से इस तथ्य पर लाने का श्रेय प्राचीन पोथियो के महान्वेषक अन्वेषकाचार्य विचार किया जाना अपेक्षित है। यहां हमने स्थामाभाव स्व० अगरचन्द्र नाहटा को है । उन्होंने जैसलमेर के ग्रन्थ के कारण मात्र एक झलक प्रस्तुत की है। भण्डार से इसकी ताडपत्रीय प्रति प्राप्त कर अपने भातृ00 पुत्र श्री भंवरलाल नाहटा से संस्कृत छाया और हिन्दी
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy