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________________ संस्कृत मैन काव्य शास्त्री और उनके प्रम्य अनुवाद कराकर 'मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ' में प्रका- प्रेमातिशय के अन्तर्गत ही मानना चाहिए।' शित कराया था। रसिक, प्रेमातिशय, द्रव्योत्तर, क्रियोत्तर, गुणोत्तर इस ग्रन्थ में कुल १३४ गाथायें है, कर्ता का कोई उपमारूपक आदि अलकार अन्य अलंकार-ग्रन्थों मे नही पता नहीं चलता अलंकार सम्बन्धो विवरण के आधार पर पाये जाते। यह भी ना पाये जाते। यह भी नहीं कहा जा सकता कि कवि ने ८वी से ११वी शती के मध्य लिखित और १३वीं शती के इनकी उदभावना स्वयं की है या किसी प्राचीन अलंकारपूर्वाध में प्रतिलिखित होने का अनुमान श्री नाहटा ने ग्रन्थ के अनुकरण पर ऐसा लिखा है। शोधार्थियों को उस लगाया है।' जैसलमेर के जैन भण्डार में उसकी प्रति ओर दत्तावधान होकर प्राकृत अलंकार शास्त्र पर शोध प्राप्त होने से लेखक का जैन होना असमीचीन नहीं है। करना चाहिए। कवि ने सर्वप्रथम श्रुतदेवता को नमस्कार किया है, प्राकृत के अन्य छन्दग्रन्थों में उल्लेखनीय है-- तदनन्तर काव्य में अलंकार के औचित्य और उद्देश्य का १. वृत्तजातिसमुच्चय विरहांक ६-८वी शती वर्णन करते हुए कहा है २. कविदर्पण अज्ञात १३वी शती 'सव्वाइ कम्वाइ सघाइ जेण होति भव्वाइं । ३. गाहालक्खरण नन्दिताढ्य १०वी शती तमलकार भणिमोऽलकार कुकवि-कव्वाणं ।। ४. छन्दकोष रत्नेशेखरसूरि १४वीं शती अच्चंतसुन्दर पिहु निरलंकार जणम्मि कीरते। ५ छन्दकन्दली कविदर्पण का कामिणि-मुह व कव्व होइ पसण्णपि विच्छाअ॥ अज्ञात टीकाकार (अ. द. २-३) ६. प्राकृतपंङ्गल संग्रह १४वीं शती अर्थात् कुकवि के भी काव्यो को सुशोभित करने वाला ७. स्वयम्भूछन्द स्वयम्भ वी शती' अलंकार है और जैसे सुन्दर स्त्री का मुख निरलकार होवे जैन संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने अपने काव्यों मे यत्र पर अत्यन्त सुन्दर और विमल होने पर भी शोभारहित तत्र काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तो का प्रतिपादन किया है और होता है, वैसे ही प्रसाद गुण युक्त होने पर भी निरलकार स्वतंत्र रूप से भी ग्रन्थ लिखे हैं। आचार्य जिनसेन ने काव्य शोभा रहित होता है। 'काव्य' की व्युत्पति और परिभाषा करते हुए लिखा आगे ५ पद्यों में वर्णनीय ४० अलकारो के नाम हैगिनाये हैं, अनन्तर प्रत्येक अलंकार के लक्षण और उदा 'कवेर्भावोऽथवा कर्म काव्यं तज्ज्ञनिरुच्यते । हरण प्रस्तुत किये गये हैं। किन्ही के मात्र लक्षण और तत्प्रतीतामग्राम्य सालङ्कारमनाकुलम् ॥ किन्ही के उदाहरण काव्य को न्यनता-घोतक हैं। उल्लि स्वतन्त्र काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का परिखित अलंकार है--उपमा रूपक, दीपक, रोष, अनुप्रास, चय प्रस्तुत है ? आशिय, विशेष, आक्षेप, जातिव्यतिरेक, रसिक, पर्याय, वाग्भट प्रथम यथासख्य, समाहित, विरोध, संशय, विभावना, भाव, वाग्भट प्रथम का वाग्भटालंकार कदाचित पहला अर्थान्तरन्यास, परिकर, सहोक्ति, उर्जा, अपह्न ति, प्रेमाति- प्राप्त काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ है। यों तो वाग्भट नाम के ४ शय, उद्वतं, परिवृत्त, द्रव्योत्तर, क्रियोत्तर, गुणोत्तर, कवियों का उल्लेख जैन साहित्य में हुआ है किन्तु काव्यबहुश्लेष, व्ययदेश, स्तुति, समज्योति, अप्रस्तुतप्रशंसा अनु- शास्त्र के क्षेत्र मे 'वाग्भटालंकार' के लेखक वाग्भट प्रथम मान, आदर्श, उत्प्रेक्षा, ससिद्धि, आशीष, उपमारूपक, और 'काव्यानुशासन' के लेखक वाग्भट द्वितीय कहे जाते निदर्शनाउत्प्रेक्षा, आभेद, उपेक्षा, वलित, यमक तथा हे। अन्य दो वाग्भटों के सक्षिप्त परिचय के विना यह लेख सहित । ये ४६ अलंकार है, किन्तु गाथा में अलंकारो की पूरा नहीं होगा। संख्या ४० बताई गई है। श्री नाहटा ने इसका समाधान एक वाग्भट ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'अष्टाङ्गदिया है कि प्रेमातिशय से गुणोत्तर तक ६ अलकारो को हृदय की रचना की है। ये सिन्धुदेशवासी थे और पिता
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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