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२०, बर्ष ४३, कि..
का नाम सिंह गुप्त था। कुछ विद्वानों के मतानुसार ये तृतीय में दस गुणों को सोदाहरण विवेचना चतुर्थ में ४ बौद्धधर्मानुयायी थे। पं० आशाधर ने अष्टाङ्गहृदय पर शब्दालंकारों, ३५ अर्यालकारों तथा वैदर्भी गोणी आदि टीका लिखी थी जो आज अप्राप्य है इसी कारण विद्वान् रीतियों का वर्णन है। पंचम में नव-रसों, नायक-नायिका इन्हें जैन मानते हैं । समय अत्यन्त प्राचीन है।'
भेवों तथा अन्य आनुषंगिक विषयों का निरूपण है। दूसरे वाग्भट प्रसिद्ध महाकाव्य 'नेमिनिर्वाण' के कर्ता
परवर्ती काल में यह अत्यन्त लोकप्रिय हुआ जिसका है। जैनसिद्धान्त भवन आरा और श्रवणवेलगोल के हर
निदर्शन इस पर लिखी गई टीकाएं हैं इनमे 'जिनवर्धन जिनदास शास्त्री के पुस्तकालय में प्राप्त प्रति की प्रशस्ति ।
सूरिकृत टीका (१४०५-१४१६ ई०) सिंहदेवगणिकृत के अनुसार वाग्भट (बाहड़) छाहड के पुत्र और प्रारबाट
क्षेमहंसगणिकृत, गणेशकृत, राजहम उपाध्याय १३५०. या पोरवाड़ कुल के थे जन्म अहिन्छत्रपुग मे हुआ। वाग्भटा
१४०० ई.) समयसुन्दरकृत (१६२६ ई०) अवचरिकृत, लंकार' मे 'नेमिनिर्वाण के पद्य दिये गये हैं अत: वाग्भट
कृष्णशर्मकृत, वामनाचार्य कृत तथा ज्ञानप्रमोदगरिणकृत प्रथग (वि० सं० ११७६) ई०१२१२) के पूर्व इनका समय
टीकाएं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। स्वीकार किया जाना चाहिए।
वाग्भट प्रथम के पिता का नाम सोमश्रेष्ठी था। वाग्मट द्वितीय सिंहदेवगाण के कानानुसार वे महाकवि और एक राज्य यद्यपि अब परम्पराप्राप्त हेमचन्द्र और उसके काव्या. के महात्मा थे। कविचन्द्रिका टीका के कर्ता वादिराज ने
के कता वादिराज ने नशासन का विवंचन समीचीन था किन्तु वाग्भटो को उन्हे 'महामात्यपदमत' लिखा है। वाग्भट ने यत्र तत्र परम्परा में वाग्भट द्वितीय का विवेचन असमीचीन ही जयसिंह की प्रशंसा की है और एक जगह लिखा है कि होगा। वाग्भट द्वि० का काव्यानुशासन महत्त्वपूर्ण कृति ससार में तीन ही रत्न है अणहिलपाटक नगर, महाराज है। इन्होने वाग्भटालंकार-कर्ता का उल्लेख किया और जयसिंह और 'श्रीकलश' नाम का उनका हाथी।," अतः कहा ही कि वे दस गुणों का प्रतिपादन करते है पर परतुत. सिद्ध है कि ये अहिलपाटक या पुर नगरवासी थ और नीती
आर तीन ही गुण हैं। काव्यानशासन की टोका की उत्थानिका राजा जयसिंह के समकालीन जयसिंह का राज्यकाल से ज्ञात होता है कि ये नेमिकुमार के पुत्र थे नेमिकुमार के १०६३-११४३ ई० स्वीकार किया जाता है। अतः वाग्मट
पिता का नाम मक्कल भोकल) और माता का नाम महाप्रथम १२वी शती के पूर्वादं मे हुए। हेमचन्द्र ने दयाश्रय देवी था। नेभिकूमार कौन्तेय कुलदिवाकर, महान विद्वान, काव्य मे वाग्भट को जयसिंह को अमात्य बताया है।" धर्मात्मा और महा यशस्वी थे। उन्होंने मदपाट मे
वाग्भटालकार के अतिरिक्त इनकी अन्य कोई रचना प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ जिनका यात्रा महोत्सव किया था, उपलब्ध नहीं है। उक्त ग्रन्थ मे जगह-जगह स्वरचित जिससे उनका यश भूवनव्यापी हो गया था। राहड़पुर में प्राकृत-संस्कृत के उदाहरण कवि को उभयभाषाविज्ञता के नेमिमगवान का और नलौरव पुर मे ऋषभ जिनका बाइस
मज्ज्वल निदर्शन है। इसका अपरनाम काव्यलकार भी देवकलिकाओ सहित विशाल मन्दिर का निर्माण कराया भोपांच परिच्छेद और २६.१द्य है, काव्यशास्त्रीय सभी था। उनका कुल धन और विद्या से सम्पन्न था। काल विषयो का सक्षेप मे विवेचन है । अनुष्टप का वाहुल्य है। के सन्दर्भ में कोई सकेत उन्होने नही दिया है। डॉ. कृष्णप्रथम परिच्छेद पे काव्य-स्वरूप हेतु बतलाते हुए यह भी कुमार ने इन्हें १२वी शती के बाद स्वीकार किया है।" बताया गया है कि काव्य-रचनार्थ कौन सी परिस्थितियां पर श्री प्रेमी ने नेमिनिर्वाण, चन्द्रप्रभचरित, नाममाला, अनुकूल है। द्वितीय परिच्छेद में सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश राजमती परित्याग आदि ग्रन्थो के उल्लेख का आधार और भूत इन चार काव्य-भाषाओ का वर्णन कर छन्दोबद्ध लेकर उन्हे १.वी शती का विद्वान माना है।" जो समीगद्यनिबद्ध तथा गद्यपद्यमिध ये तीन काव्य के भेद कहे गये चीन जान पड़ता है। ग. नेमिचन्द्र शास्वो भी मही हैं। पश्चात् पद, वाक्य और अर्थदोषों का निरूपण है। समय मानने के पक्ष में हैं।