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संस्कृत जैन काव्य शास्त्री और उनके प्रम्य
दिगभ्राचार्य थे या श्वेताम्वराचार्य यह प्रश्न भी कम विवादास्पद नहीं है। काव्यानुशासन में ऋषभदेव चरित का एक श्लोक है जिसमें जिनसेन (मुनिसेन) और पुष्पदन्त का उल्लेख है साथ ही वृहत्स्वयम्भू स्तोत्र ( लव समन्तभद्र) का एक श्लोक दिया गया है और नेमिनिर्वाण चन्द्रप्रभचरित, राजमती परित्याग आदि ग्रन्थों का उल्लेख है, जो सभी दिगम्वर परम्परा के ग्रंथ हैं अतः उन्हें दिगम्वराचार्य ही मानना होगा ।
'काव्यानुशासन' के अतिरिक्त 'छन्दोऽनुशासन' प्राप्त है पर ऋषभदेवचरित अप्राप्त है। तीन ही इनकी रचनाए है । काव्यानुशासन की वृत्ति से ज्ञात होता है कि वे नाटकादि के भी अशेष विद्वान् थे मम्भव है अन्य रचनाएँ रही हों, जो आज अप्राप्त है ।
छन्दोऽनुशासन की प्रति पाटण के ज्ञान भण्डार मे है । इसमे लगभग ५४० श्लोक हैं और स्वोपज्ञ वृत्ति भी है।
१. काव्यमीमांसा : अनु० केदारनाथ शर्मा, विहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना १९६५, प्रथम अध्याय
२. 'मरुधर केशरी अभिनन्दन ग्रन्थ', जोधपुर-व्यावर १६६८, पृष्ठ ४३० ।
सन्दर्भ-सूची
३. वही, पृष्ठ ४३०
४. विशेष विवरण को देखे- प्राकृत साहित्य का इति हास : डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी ।
५. आदिपुराण : अनु० पन्नालाल साहित्याचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली, १ / ६४ |
६. जैन साहित्य और इतिहास : नाथूरामप्रेमी, बम्बई १६४२, पृ० ४८३ ।
७. वही. पृ० ४८३
८. वही, पृ० ४८५
C. 'इन्द्रेण कि यदि स कर्णनरेन्द्रसूनुरं रावणेन किमहो यदि तहिपेन्द्रः
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५ अध्यायों में विभक्त उसका वर्ण्यविषय निम्न है । (१) सज्ञा ( २ ) - समवृत्ताख्य (३) अर्धसमवृत्ताख्य (४) मात्रासमक और (५) मात्रा छन्दक | M
दम्भोलि नाप्यलमलं यदि तत्प्रतापः स्वर्गोऽध्ययननुमुघा यदि तत्पुरी सा ॥
काव्यानुशासन निर्णयसागर से छपा है, यह हेमचन्द्र के काव्यानुशासन की शैली मे लिखा है। सूत्रो पर वृत्ति स्वय वाग्भट ने लिखी है और उसका नाम अलकार तिलक दिया है। काव्यमीमांसा, काव्यप्रकाश आदि प्राचीन काव्यग्रन्थो के मतों और विवेचनाओं का ही सग्रह है, मौलिकता कम ही है इसके पाँच प्रध्यायों मे प्रथम में काव्य-प्रयोजन, हेतु, भेद का, दूसरे मे सोलह-पद-दोष, १४ वाक्यदोष, १४ श्रर्थदोष, १० गुणों का तीन में अन्तर्भाव वैदर्भी आदि शैलियो, तृतीय मे ६३ अर्थालंकारों, चतुर्थ मे छ: शारदालकारों और पचम में नव रस, नायक-नायिका भेद तथा रसदोषो का विवेचन है ।
(क्रमशः )
जगदात्म कीति शुभ्र जनयन्तुदाम धामदोः परिघः । जयति प्रतापपूषा जयसिह क्षमाभृदाधिनाथः ॥ वाग्भटालकार ४।७६-४५
१०. अर्षाहल्लपाटकपुरमवनिपति: कर्णदेवनृपसूनुः । श्रीकल शनामधेयः करी च रत्नानि जगतीह ॥ वही ४।१४८६
११. A. द्रयाश्रुव काव्य २०१६१-६२
B. जहसिंह सूरि कृत कुमारपाल भूपाल चरित के अनुसार कुमारपाल का महामात्य उदयन था और अमात्य वाग्भट पर यह आश्चर्य की बात है कि वाग्भट ने कहीं कुमारपाल का उल्लेख नहीं किया है ।
१२. जैन साहित्य और इतिहास : पृष्ठ ४८६-८७ १३. अलकारशास्त्र का इतिहास : डॉ० कृष्णकुमार साहित्य भण्डार मेरठ १६७५, पृष्ठ २१८
१४. जै० सा० और इतिहास : पृष्ठ ४८७-८८
१५. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा :
सागर भाग ४ | पृष्ठ ३८
१६. वही, पृष्ठ ४०