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________________ बी मुन्नालाल की शंकाओं का समाधान दृष्टि है अतः वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक कहो अथवा सामान्य ७. आपने लिखा धर्म का आविष्कार नहीं होता। विशेषात्मक कहो एक ही बात है। यह तो जैन धर्म का यह ठीक है परन्तु वहा यह नहीं लिखा है कि धर्म का प्राण है। बस्तु को ऐसा समझे बिना तो जैनधर्म का आविष्कार किया पर वहां लिखा है धर्म के विज्ञान का रहस्य समझ में भी नहीं आ सकता। कई उदाहरण आविष्कार किया। धर्म के विज्ञान का अर्थ है कि धर्म देकर इसको सावित किया गया है । यही तो इस प्रस्तावना किसे कहते है, धर्म क्या है इसकी जानकारी प्रगट करने का मुख्य विषय है। समयसार कलश १ कोटीका मे प० का तरीका धर्म के विज्ञान का आविष्कार है। जैसे अणु जयचन्द जी लिखते है कि "तातं द्रव्याथिक पर्यायाथिक के विज्ञान का आविष्कार किया का अर्थ यह नही है अणु दोनो नय मे प्रयोजन के वशतं शुद्ध द्रव्याथिक को मुख्य को बनाया परन्तु यह अर्थ है कि जानकारी प्रगट की। करके निश्चय कहै है।" कलश ४ का भावार्थ-"द्रव्य को मुख्य करी अनुभव करावै सो द्रव्याथिक, पर्याय को मुख्य ८. आपने जगह-जगह लिखा है जीव कम की वजह करी अनुभव करावे सो पर्यायाथिक है।" वस्तु ,सामान्य । से दुःखी है, कर्म की वजह से अशुद्ध है सो यह कथन विशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक है। ऐसा ज्ञान है वह व्यवहार नय से है। अशुद्ध निश्चय नय से जीव अपने सम्यक्त्व का साधक है : देखो माइल्लधवल नयचक्र गाथा रागादि भावो की वजह से अशद्ध है और रागादि की २४० पृ. १२६ । वस्तु का सामान्य स्वरूप शुद्ध निश्चयनय वजह से दुःखी है। का विषय है वह ही वस्तु की मौलिकता है। आपके लेख का जवाब ज्यादा विस्तार से नहीं ६. आपने लिखा इच्छा से आकुलता होती है. दिया है। अध्यात्म का बहुत बारोको से चितवन मनन आकुलता है वह दुःख है। सो इच्छा तो राग का ही भेद करने से तत्त्व की लड़ी सुलझती है । इस बात को खुशी है। आप ही लिख रहे है आत्मा के अहित विषय कषाय है कि आपने प्रस्तावना पढ़ी और उस पर विचार किया और आप ही कह रहे हैं कषाय से दुःख नही होता इच्छा इसलिए आपका ग्राभार है। अगर जिज्ञासु दृष्टि से पढ़ी से आकुलता होती है पाकुलता से दुख होता है। जिसके होतो तो ये सब प्रश्न खडे ही न होते । प्रस्तावना क्योकि राग ही नही रहा उसके इच्छा कहा से होगी। राग मे कोई ग्रन्थ नही था इसलिए ग्रन्थो के प्रमाण नही दिये सभी विकार गभित हो जाते है। गये। (पृ० २३ का शेषाश) पर विचार किया जाय, तो ऐसा प्रतीत होता है कि नन्दि का काल विक्रम को आठवी शताब्दि के आसपास उद्योतन सूरि के ३०-४० वर्ष पूर्व वह अपनी रचना कर होना चाहिए। अध्यक्ष, सस्कृत विभाग म०म० चुरा होगा। इस प्रकार हमारा अनुमान है कि जटासिंह महिला महाविद्यालय, आरा सन्दर्भ-सूची १. कुवलयमालाकहा-पृ० ४५०१ । "६. तुलनार्थ-देखे, व० च. सर्ग २६/५२, ५३, ५४, २. पद्मचरितम्--प्राक्कथन पृ०१। ५५, ५७, ५८, ६०, ६३, ६४, ६५, ६६, ३. व० च० हिन्दी प्रस्ताबना-पृ०६ । ७०, ७१ एवं ७२ तथा सन्मति प्रकरण४. तुलनार्थ-देखें वराङ्ग सर्ग ४, कम वर्णन-तस्वार्थ १/६, ९, ११, १२, १७, १८, २१, २२८वा अध्याय व० च० सर्ग ५-१० लोकस्व २५, ५१-५२ तथा ३-४७, ५४-५५ । रूप तत्त्वार्थ ३-४ अध्याय व० च० सर्ग २६ ७. तुलनार्थ- देखे, व० १५/१२२ तथा 'सामयिक पाठ' द्रव्यगुणपर्यायनिर्देश-तत्त्वार्थ-५वां अध्याय, मे सामयिक शब्द की व्याख्या । ३० च० सर्ग ३१ तपवर्णन-तत्त्वार्थ वां ८ व० च० प्रस्तावना-पृ० ६५। ६.१०. वहीं । अध्याय । ११. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परपरा५. तुलनार्थ-देखे, व०च० सर्ग २६/८२-८३ और स्वयम ३/२६४ । स्तोत्र श्लोक १०२-३। १२. हरिवंश पुराण-१/३०/३५ ।
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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