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श्री मुन्नालाल की शंकाओं का समाधान
0 श्री बाबूलाल जैन श्री मुन्नालाल जी ने परमाध्यात्मतरंगिणी की प्रस्ता- Passion=God, God+Passion = Man अर्थात् वना के कई विषयों को आगमविरुद्ध बताया है। उनका मनुष्य-विषयकषाय = परमात्मा। प० टोडरमल जी ने स्पष्टीकरण किया जाता है :
मोक्षमार्ग सातवें अध्याय मे पेज २५८ श्री मुसद्दीलाल जैन १. पेजह से जो विषय चला आ रहा है वहा कहा ट्रस्ट से छ। हआ है, लिखा है कि रागादि मिटाने का है कि प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा होने की सम्भावना श्रद्धान होय सोही श्रद्धान सम्यकदर्शन है, रागादि मिटा. है। पेज १० पर यह कहा है कि जीव बीजभूत परमात्मा वने का ज्ञान सो सम्यकज्ञान भोर रागादि मि सोही है परन्तु उसका पुरुषार्थ सज्ञी पचेन्द्रिय अवस्था से चालू आचरण सम्यक् चारित्र है ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य होता है। उस विषय का आगे-पीछे का वर्णन लेकर है। भगवान कुन्दकुन्द ने 'चारित्रं खलु धम्मो' कहा है विचार करना चाहिए, मात्र बीच की एक लाइन लेने से और मोह क्षोभ से रहित परिणाम सो चारित्र है । मोहतो अर्थ का अनर्थ होगा ही। हमारा तात्पर्य भी जीव क्षोभ के द्वारा राग का ही अभाव बताया है अत: रागादि मात्र से ही है।
का अभाव धर्म है। १२वे गुण स्थान के शुरू मे मोह का २. प्रभव्य में भी पारिणामिक भाव है वह चैतन्य- अर्थात् रागादि का अभाव होने पर यथाख्यात चारित्र पना है। अभव्य पारिणामिक भाव की निज रूप श्रद्धा होता है और अनत सुख होता है यह आत्मा १२वे गुणनही करेगा अतः प्रभव्य है। वह बीजभूत तो है परन्तु स्थान के अन मे अरहत परमात्मा हो जाता है। उगने की शक्ति की व्यक्तता नहीं है अर्थात् अभव्य के ४. अपने लिखा अज्ञान से राग-द्वेष नही होते । सच्चा पुरुषार्थ नहीं होगा। समयसार गाथा २७३- ऐसा नही है राग-द्वेष की उत्पत्ति का मूल कारण जीव २७४ में कहा है-अभव्य व्यवहार चारित्र का पालन की अज्ञानता है-जो अपने स्वभाव को न जानकर शरीकरता है तथापि सम्यक्चारित्र को प्राप्त नही करता अत: रादि मे अपनापना मानने से हुई है। मिथ्यात्व के अभाव अज्ञानी है। इसी प्रकार ज्ञान की श्रद्धा न करने से शास्त्र बिना राग-द्वेष का अभाव नही हो सकता। कलश २१७ पढ़ने के गुण का अभाव है। गाथा २७५ के भावार्थ में समयसार की टीका में कहा है कि राग-द्वेष का द्वन्द तब प० जयचन्द जी लिखते है कि "आस्मा के भेद ज्ञान होने तक उदय को प्राप्त होता है जब तक यह ज्ञान ज्ञानरूप की योग्यता न होने से।" अभव्य को व्यवहार नय के नही... इसलिए यह ज्ञान अज्ञान भाव को दूर करके पक्ष का सूक्ष्म के वलीगम्य आशय रह जाता है जो मात्र ज्ञानरूप हो...। सर्वज्ञ जानते है। इससे मालूम होता है कि बीजभूत होते ५. वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। यहां पर आपने हुए भी उसकी व्यक्तता नहीं होती। जिस जीव के सच्चा सामान्य का अर्थ किया है कि जो गुण सब मे पाया पुरुषार्थ होगा उसी के व्यक्तता होगी। देखो द्रव्यसंग्रह जावे वह सामान्य गुण और जो किसी खास द्रव्य मे गाथा १४ की टीका।
पाया जावे वह विशेष गुण होता है। यहां पर गुण ३. मुन्नालाल जी का कहना है कि जीवात्मा- का कथन नहीं किया है । वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक रागद्वेष =परमात्मा यह गलत है। श्री वैरिस्टर चम्पत- होती है। सामान्य को विषय करने वाली द्रव्याथिक राय जी ने "की ऑफ नालेज" में लिखा है-Man- दृष्टि है और विशेष को विषय करने वाली पर्यायाथिक