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________________ भये प्रकाशन पर साधुवाद के कारण से होती है । यहा याद रखना चाहिए कि अपना की उत्पत्ति रुक जाती और शुद्ध पर्यायों की उत्पत्ति होने पना मानना तथा राग-द्वेष ये सब पर्याय है और पर्याय लगती है जिनका कारण स्वय ज्ञान गुण है। की उत्पत्ति का कारण पर्याय नही होती पर्यायो की उत्पत्ति लोक ८८६ मे भी कहा है जिस समय ज्ञान होता है के कारण भिन्न-भिन्न है। पर मे अपनापना मानना श्रद्धा उस समय ज्ञान ही होता है राग-द्वेष नहीं होते क्यो एक गुण की अशुद्ध पर्याय है और राग-द्वेष चारित्र गुण की साथ दो पर्याय नही होती ज्ञान पर्याय का कारण ज्ञान बिकारी पर्याय है। ये पर्याये गुणो से पृयक नही की जा गण है तथा रागद्वेष पर्यायों का कारण कर्म है । प्रस्तावना सकती। यदि पर्यायों का अभाव माना जायगा तो गुणो मे वस्तु की परिभाषा में पृ० १५ पर कहा है- वस्तु= का भी अभाव हो जायगा क्योंकि पर्याय गुणो की अव सामान्य --विशेष । सामान्य को वस्तु की मौलिकता स्थाये है और गुणो को कोई न कोई अवस्था हमेशा रहती और विशेष को पर्याय कहा है जिससे भाव होता है कि है और गुणो के समुदाय का नाम ही द्रव्य है गुणों के अभाव मे द्रव्य के अभाव होने का प्रसग आ जायगा। द्रव्य पृथक है और पर्याय पृथक जो कि आगम में 'गगा, पर्ययवद द्रव्य' धाले मोक्ष शास्त्र के लक्षण से मेन नही क्यों जमा घटा दो पृथक्-२ पदार्थों में होता है एक ही द्रव्य खाता । आगम के अनुसार सामान्य और विशेष दोनों ही के गुण और पर्यायों मे नही होता जैसे पृ० ११ मे कहा वस्तु के स्वरूप का वर्णन करने वाली शैलिया है वस्तु के है-'जीवात्मा-रागद्वेष-परमात्मा।' जो पागम के सक्षेप में वर्णन करने वाली सामान्य शैली है और विस्तार विरुद्ध है आगम मे तो द्रव्य का लक्षण सत कहा है और से वर्णन करने वाली विशेष शैली है या सामान्य और उस सत को उत्पाद, व्ययध्रौव्य युक्त सत् कहा। अर्थात् विशेष दो प्रकार के प्रत्येक द्रव्य मे गुण होते है जो गुण द्रव्य की अवस्थाये उत्पन्त होती रहती है और विनशती प्रत्येक द्रव्य मे पाये जाते हैं उन्हे सामान्य गुण कहते है रहती है । ये पर्याय दो प्रकार की होती है शुद्ध और अशुद्ध और जो गुण एक ही द्रव्य मे पाया जाता है दूसरे में नही शुद्ध पर्यायो में द्रव्य स्वय निमित्त होता है और अशुद्ध जिसके कारण से द्रव्यो के भिन्नता की पहिचान होती है पर्यायो मे परद्रव्य-कर्म कारण होता है तथा कारण के ऐसा कथन सर्वत्र जाता है परन्तु सामान्य को वस्तु की विना कार्य नही होता--(अशुद्ध पर्यायो) की उत्पत्ति नहीं मौलिकता तथा पर्याय को विशेप कहा हो ऐसा कही देखने होती । कर्म के अभाव होने से जीवात्मा परमात्मा कह मे नही आया। मो प्रकार से सभी जगह की गई अपनी लाने लगता है मोक्षशास्त्र मे भी कहा है-'ससारिणो परिभाषायें आगम से मेल नहीं खाती और न कहीं आगम मुक्ताश्च' अर्थात् जीव दो प्रकार के है ससारी और मुक्त । प्रमाण ही दिया है। यदि सभी का स्पष्टीकरण दे देते तो कर्म सहित जीव ससारी है और क्रर्म रहित मुक्त (परमात्मा) पाठको को पूरी जानकारी हो जाती। इसलिए जीवात्मा और परमात्मा की परिभाषा जो इस उक्त कुछ प्रसग ऐसे हैं जो अविचारक पाठकों को प्रस्तावना में की है वह आगम के विरुद्ध है । विपरीत दिशा दिखाने में भी सहायक हो सकते है। पचाध्यायी में राग-द्वेष के विषय मे श्लोक न०८८३ में भी राग-द्वेष विकारी पर्यायों को औदयिक भाव कहा हमारी राय मे तो ऐसे मौलिक ग्रन्थ को प्रस्तावना की आवश्यकता ही नहीं थी । आशा है सस्था और प्रस्तावना है जो पर-द्रव्य, मोह कर्म के कारण से उत्पन्न होती है। लेखक दोनों हमारे निवेदन स्वीकार कर आगामी सस्करण कालुष्यं तत्र रागादिर्भावश्चौदायिको यन:, में दोपों का परिहार करेगे। बड़ी खुशी है कि संस्था का बाकाच्चारित्रमोहस्य, दृइमोहस्याथ नान्यथा ।८८३ ध्यान प्राचीन ग्रन्थों के प्रकाशनो पर है। यदि अपना कुछ इनकी उत्पत्ति मोह कर्म के उदय से होती है और न दिया जाय तो प्राचीन सभी ग्रन्य मौलिक हैं -ग्रन्थ मोह कर्म के पृथक हो जाने पर राग-द्वेष (अणुद्ध पर्यागो) प्रकाशन के लिए साधुवाद ! सम्पादकीय.-इस लेख का समाधान पेज २८ पर देख ।
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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