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चितवन के लिए
आत्मोपलब्धि का मार्ग : अपरिग्रह
आगम में निर्देश है कि चारित्रवान् ज्ञाता हो किसी को ज्ञान देने का अधिकारी है। फलतः आत्मा के विषय मे सवारिषी आरम जाता ही आरम-बोध कराने में समर्थ है । पर आज चारित्र की उपेक्षा कर आत्मा की चर्चा करने वाले कई लोग आत्मा से अनभिज्ञ होने पर भी लोगों को, आत्मा को दर्शाने के भ्रमजाल में फँमा आचार्य कुन्दकुन्द और उनकी वाणी का उपहास कर रहे है। कुन्दकुन्द कहते हैं
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"अमानतो अध्ययनावि सो अयातो कह होइ सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणतो ॥" मला जिन जीव को बाह्मज्ञाय से प्रतिभासित होने वाले नश्वर पायों की पहिचान तक नहीं हो पा रही हो, जो स्वयं नश्वर के संग्रह मे लगे हो, धन-संपदा, स्त्री-पुषादि मे राग-भाव के पूंज हो, वे पर को क्या आत्म-दर्शन कराएंगे ? कहा भी है- 'परमाणु मित्तय वि रागादीण दू विज विसो जगदि अप्पाइ
एवं सम्यगमधरो वि ॥'
जिसके लेशमात्र भी अज्ञानमय रागादि भाव है वह जीव कितना भी ज्ञानी हो तो भी आत्मा को नही जानता और अनात्मा को भी नहीं जानता ऐसे में यह सम्यग्दृष्टी कैसे हो सकता है ? और जब वह सम्यग्दुष्टी नहीं हो सकता तब उसे आत्मा के उपदेश देने का अधिकार भी कहाँ ? आत्मा तो इन्द्रियज्ञानातीत और अरूपी है, उसके ज्ञान की कथा तो छोड़िए, बहिरंग दृष्टि तो बाह्यविषयों की पहिचान मे भी गुमराह हुए हैं।
कुछ लोग 'महिसा परमो धर्म का नारा देते हैं पर, दरअसल वे उसके स्वरूप से स्वयं भी गुमराह हैं क्या कभी सोचा आपने कि अहिंसादि पाँच व्रतो और अब्रतो में उनके स्व-स्वलक्षणों के परिप्रेक्ष्य मे आदि के चार (अहिंसा - हिंसा, सत्य-असत्य, अचौर्य-चोयं, ब्रह्मचर्य
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पद्मचन्द्र शास्त्री 'संपादक'
अब्रह्म) पर सापेक्षी और पहारिक है क्योकि इन चारों मे प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्षरूप में पर-विकल्प अथवा पर प्रमाद की उपस्थिति अनुपस्थिति परम आवश्यक है । जब तक पर पदार्थ या पर-भाव या विकल्प नही होगा तब तक हिंसा-अहिंसा, मूंड-सत्य, चौर्य-अयोर्य, अब्रह्मब्रह्म किसी की सम्भावना फलित न होगी । अर्थात् हिंस्थ (पर) के होने पर ही हिंसक और हिंसा आदि के भाव फलित होगे - हिस्य (पर) के अभाव मे न हिमक होगा और न हिंसा होगी, सादि और उक्त प्रक्रिया द्रव्य और भाव दोनों रूपों में पप पुण्यो के लिए लागू होती है। और ऐसी स्थिति मे उक्त चारो प्रकार पुण्यपाप पर सापेक्षी होने से स्व-स्वाभाविक धर्म नहीं हो सकते हो, अपरिग्रह धर्म ऐमा धर्म है जो स्व-सापेक्ष व पर-निरपेक्ष है यदि अपरिग्रह होगा तो स्व-एकी होने में ही।
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फलतः स्थापित होने से अपरिग्रह आत्म-धर्म है और पराश्रित होने से अहिंसादि चारो धर्म लौकिकव्यवहार हैं। यदि आत्मार्थी अपरिग्रह की ओर बढ़ता है। तो वह मार्ग पर है और यदि परिग्रह की ओर बढ़ते हुए आत्मा की चर्चा करता है तो वह अमार्ग पर है। बड़ा अटपटा लगता है जब कोई व्यक्ति बात तो शुद्धात्मा की करता है और शुद्धात्मा के स्वाश्रित मार्ग परिग्रहपरिमाण या अपरिग्रह की उपेक्षा कर परिग्रह के संचय मे जुटा रहता है ।
आगम में हिंसा के चार भेद कहे हैं और वे हैंसकरुपी हिंसा, आरम्भी हिंसा, उद्योगी दिसा, विरोधी हिंसा । उक्त भेदो के अनुसार अहिंसा के भी चार भेद ठहरते हैं और सभी पर सापेक्ष ही है- सभी पर के सद् भाव में और पर के प्रति प्रयुक्त होगे, फिर चाहे वह हिंसा द्रव्य रूप में हो या भाव-रूप मे । कही भी ऐसा दृष्टि