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________________ प्रात्मोपलब्धि का मार्ग : अपरिग्रह गोचर नहीं होता कि उक्त चारों स्वापेक्ष हों। भावो मे गुरु आदि की पूजाओं में जो द्रव्य विसजित किए जाते हैं, भी जब प्रमत्तयोग (जो पर है) होगा तभी हिंसादि पाप उनमे भी स्पष्टत: 'जन्म-जरा-मत्यविनाशनाय', मोक्षफल. फलित होगे और जब प्रमत्त योग का अभाव होगा तब प्राप्तये' आदि जैसे निर्देश है। कहीं भी परिग्रह और अहिंसादि रूप फलेंगे। और ये भी सभी जानते हैं कि सांसारिक सुख-प्राप्ति की कामना की झलक नही है। प्रमादों की गणना परिग्रह में की गई है-हिंसा आदि में खेद की बात है कि परिग्रहियो ने इस पवित्र मार्ग को नहीं । अतः ऐसा स्पष्ट है कि हिंसादि जब भी होंगे सदा भी दूषित किया है और उन्होंने इतनी ज्यादती कर दी है परिग्रह (प्रमाद) के योग में होगे और अहिंसादि जब भी कि अपनी सांसारिक स्वार्थपूर्ति के लिए परिग्रही और होंगे परिग्रह (प्रमाद) के अभाव में होंगे। अतः पापों का असंयमी देवी-देवताओं तक को भ० पार्श्वनाथ की वीतमूल परिग्रह है-फलतः, जैनी का ध्यान परिग्रह के सीमित राग प्रतिमा से जोड़ रखा है। जो धरणेन्द्र, पद्मावती करने और क्रमशः उसके पूर्ण त्याग की ओर जाना चाहिए। अपने पूर्वभव के उपकारों का प्रत्युपकार करने भगवान यही एक मार्ग है जो आत्म-दर्शन तक ले जा सकता है। की मुनि अवस्था में आए-उन्हे इन्होने अर्ह-त भगवान शेष व्रत मोक्षमार्ग में उपकारी तो हैं किन्तु परिग्रह को की वीतराग मुद्रा तक से जोड़ लिया और उन्हे फण के आत्मसात् करके नहीं। रूप मे भगवान के सिर पर बिठा दिया है। इनकी अज्ञाजो लोग कहते है कि 'अप्रादुर्भाव खलु रागादीना नता की हद हो गई। ठीक ही है-परिग्रह की कामना भवत्यहिसेति' के परिप्रेक्ष्य में रागादि के अभाव (अपार- प्राणी से कौन-सा घिनौना काम तक नहीं करा लेती? ग्रह) और अहिंसा दोनो मे भेद नहीं है, आदि । ऐसे लोगो अर्थात् सभी कुछ करा सकती है । परिग्रह कामना ने इन्हें को विचारना चाहिए कि यदि अहिंसा और अपरिग्रह भिखारी तक बना दिया। दोनों में अभेद ही था तो आचार्यों ने दोनों की गणना एक बार स्व०बैरिस्टर चम्पतराय जी ने कहा था--प्रथक रूप मे क्यों की? क्या पाप पाँच न होकर "जैन मन्दिरों में भिक्षा मांगने की जरूरत नहीं है, जैन चार ही है या अणुव्रत, महाव्रत पचि न होकर चार हा मन्दिर भिखारियों के लिए नहीं है। जो मोशाभिलाषी है? ऐसे मे तो साधु के २८ मूल गुरण भी घट कर २७ ही हों-निर्ग्रन्थ होना चाहते हों, उन्हीं के लिए जैन मन्दिर रह जायेगे : फलत:-ऐसा ही श्रद्धान करना चाहिए कि लाभकारी हैं। 'सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं', 'धर्मस्य तत्त्व निहितं गुहायाँ' या लेकिन आज इस कथन से प्रायः विपरीत देखने में नान्यथावादिनो जिन:।' आ रहा है। आज कई मन्दिरों में ऐसे भिखारियो की भी फलतः हमें उपदिष्ट तत्त्व के सभाल की व्यवस्था मे भीड़ लगी रहती है, जो वीतराग देव की उपासना मे कम पांचो पापों को भेद रूप ही स्वीकार करना चाहिए। और कुदेवो की उपासना कक्ष मे अधिक इकट्ठे होते रहते जहाँ आचार्यों ने रागादि के अभाव को अहिंसा कहा है हैं। यह सब इनकी परिग्रह लालसा का ही परिणाम है। वहाँ 'अन्नं वै प्राण' की भांति कारण मे कार्य का उपचार यदि इनकी तनिक भी श्रद्धा बीतराग और वीतरागता पर करके कथन किया है-वास्तव मे अपरिग्रह और अहिंसा हो तो ये इधर झांके भी नही । अपितु, दोनों पृथक-पृथक ही हैं और उन दोनो में या सभी व्रतों आश्चर्य यह है कि ये सभी लोग पुण्य-पाप और में अपरिग्रह मूल और मुख्य है । और अपरिग्रह के होते प्रारब्ध को मान रहे है और कह रहे हैं कि भाग्य को कोई ही सर्वपाप स्वयमेव उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस मेट नही सकता, पाप कर्मों की निर्जरा तो वीतराग-परिप्रकार सूर्य के प्रकाश मे अन्धकार । णति से ही होगी आदि; फिर भी ये सरागता की ओर स्मरण रखना चाहिए कि जैनधर्म में निहित सभी दौड़ लगा रहे हैं ? धन-वैभव के भिखारी बने हुए हैं। विधि-विधान और क्रियाकाण्डों के मूल में मनुक्रम से वीत- स्वामी समन्तभद्र कहते हैंरागता और मुक्ति-प्राप्ति का लक्ष्य निहित है। देव-शास्त्र 'यदि पाप निरोधोस्त्यन्य संपदा प्रियोजनम् ।
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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