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३०, वर्ष ४३, कि०३
अनेकांत
अथ पापासवोऽस्त्यन्य संपदा कि प्रयोजम् ॥' पंडित जी, मैंने लक्ष्मी के दान करने योग्य तीन-चार यदि पाप का उदय है तो संचित संपदा भी चली।
पात्र चने हैं, उनमे आपका नाम प्रथम है। सो आप से ही जायगी, और यदि पुण्य का उदय है तो स्वयमेव आ ।
श्रीगणेश कीजिए और बोलिए आपको भेंट में कितना जायगी।
रुपया दे दूं? मुझे विश्वास है कि आप इन्कार न करेंगे। ___ हमें याद है, वर्षों पहिले जब हम दिल्ली नही आए पंडित जी ने कहा-सेठ जी, आपने भली बिवारीथे, बनारस मे पं० अभयचद जी विदिशा वालो ने एक आपको बहुत-बहुत धन्यवाद । पर, मेरी मजबूरी यह है सेठ जी और एक पंडित जी की वार्ता सुनाई थी। तब
कि मेरे पास लक्ष्मी का गुजारा नही हो पाएगा। क्योंकि सस्ता जमाना था-किसो के पास २५-३० हजार रुपये
मेरे पास तो लक्ष्मी की सोत सरस्वती है और दोनों के
एक साथ रहने मे विसंवाद है। दूसरी बात, मैं सरस्वती हो जाना बड़ी बात थी और ऐसा आदमी बहुत बड़ा सेठ समझा जाता था। ऐसे ही गरीबी की हालत से उठे, चिर
को छोड़ नहीं सकता। यह तो निश्चित है कि लक्ष्मी के
आ जाने पर मैं स्वभावतः ज्ञान-धर्म को भुला बैठगापरिचित सेठ जी से एक पडित जी ने पूछा-सेठ जी,
तृष्णा बढ़ती रहेगी और लक्ष्मी मुझे संसार वासना मे फंसा कुशल तो है ?
देगी-मैं मद में लीन हो जाऊँगा। मतः मेरे विचार से सेठ जी बोल-भगवान की कृपा है. आप तो जानते
तो जो पहित होगा वह परिग्रह रूप लक्ष्मी का संचय नही ही हैं कि हमारी क्या दशा थो? आज पेट भर लिया तो
करेगा और जो संचित करेगा उसकी पडिताई में बट्टा कल की फिकर रहती थी- अब सब मौज है।
लगेगा। फलत:-पंडित को सन्तोषी और प्रभावग्रस्त पडित जी बोले-अब तो आप मजे में हैं-सब रहने का प्रयत्न करना चाहिए और सेठों को चाहिए कि चिन्तामो से मुक्त । मौज किए जाइए और भगवान का वे पंडित की इतनी भावना को पूरा करते रहें किभजन ।
___'साई इतना दीजिए, जामैं कुटुम्ब समाय । सेठ जी ने कहा--पंडित जी, अब तो केवल एक ही मैं भी भूखा न रहे, अतिथि न भूखा जाय ॥' चिता रहती है कि कदाचित् यह लक्ष्मी रुष्ट होकर हमे और वे ध्यान रखे तो उनका भला, न रखें तो उनका छोड़ न जाय, हम इसे रखते तो सभाल कर कलेजे से भाग्य । पडित को तो सदा निःस्पृहता की ओर बढ़ना लगा कर है।
चाहिए। पडित जी बोले- सेठ जी, एक दिन तो इसका वियोग
उक्त परिग्रह का प्रसग हम पर्याप्त शिक्षा देता है। होना ही है। यदि लक्ष्मी प्रापको छोड़कर न जायगी तो परिग्रह हमें धर्म-कर्म से भ्रष्ट कराता है। तीर्थकर आदि माप ही इसे छोड़कर चले जाएँगे-संसार की ऐसी ही
__महापुरुषो ने इससे विरक्ति ली तब आत्मा मे रह सके रीति है। फिर भी आप चितित न हो-इसका उपयोग
और प्रात्मा मे रहना ही धर्म है। बिना परिग्रह की तृष्णा वान-पुण्य में करें, आपको परलोक मे मिल जायगी।
के त्याग के आत्मा के गीत गाते रहना-स्वयं को और सेठ जी बोले-बात तो ठीक है, पर आप पात्र तो लोगों को धोखा देना है। इसे खूब विचारें और अपरिग्रह बताइए जिसे हम लक्ष्मी देते रहें।
को प्रमुखता दे, जैनत्व को बचाएं। अपरिग्रह वृत्ति के पडित जी ने कहा-पात्र तो आपको ही खोजना विना जैन का चिना असम्भव है। जितने जिन हुए सभी पड़ेगा, सो खोजिए। आपको जरूरतमन्द काफी लोग मिल अपरिग्रह से हुए और उनका प्रचारित धर्म भी अपरिग्रह जाएंगे। बात आई गई हो गई और दोनों अपने-अपने में ही पनप सकेगा। फलत:--मोक्षेच्छु श्रावक को परिग्रहस्थान को चले गये। १५-२० दिनो के बाद सेठ जी उन परिमाण और मुनि को निष्कलक अपरिग्रह को अपनाना पंडित जी के पास पहुंचे और बोले
चाहिए।