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________________ कुछ स्मृतियाँ २६ ग्रन्थ ।' लोगों का कहना है आचार्य श्री इस में सहमत न थे जहां के तहां और उससे भी गिरे बीते रह गए और आत्मऔर अन्त तक इससे दूर रहे उन्होंने नही स्वीकारा जब लक्ष्य न होने से किसी गर्त में जा पहुंचे। यदि यही दशा कि कई मुनि श्रावको की भक्ति के वशीभूत हो अपने स्वयं रही तो एक दिन ऐसा आयगा कि कोई उस गतं को मिट्टी के पद को भूला बैठते हैं। किसी मुनि के जन्म की रजत, से पूर देगा और हम मर मिटेंगे-जैनी नाम शेष न रहेगा स्वर्ण या हीरक-जयंती मनाई जाती है तो काल गणना .-मात्र खोज की जड सामग्री रह जायगी। या फिर क्या माता के गर्भ निःसरण काल से की जाती है-जैसे कि पता कि वह भी रहे न रहे। पिछले कई भण्डार तो दीमक आम संभारी जनों में होता है। जबकि, मुनि का वास्तविक और मिट्टी के भोज्य बन ही चुके हैं। जन्म वीक्षा काल से होता है-वीतराग अवस्था के धारण प्राचीन पूर्वाचार्य बड़े साधक थे उन्होने स्वयं को शुद्ध से होता है और आगम में भी मुनि अवस्था को ही पूज्य किया और खोजकर हमें आत्म-शुद्धि के साधन दिए । बताया गया है। क्या मुनि कोई तीर्थकर है; जो उनको आज भण्डारों से पूर्वाचार्यो कृत इतने ग्रंथ प्रकाश में आ कल्याणकों से तोला जाय? पर, क्या कहें श्रावक तोलते है चके हैं कि अपना नया कुछ लिखने-खोजने की जरूरत ही और मुनि तुलते हैं। आखिर जरूरत क्या है-घिसे-पिटे नहीं रही। हम प्रकाश मे आए हुए मूल ग्रन्थों का तो दिनो को गिनने की? क्या इससे मुनि-पद ज्यादा चमक जीवन मे उपयोग न करें और मनमानी नई पर-खोजों में जाता है ? धन्य हैं वे परम वीतरागी मुनि, जो इस सबसे जटे रहें, वह भी दूसरों के लिए। यह कहा की बुद्धिमानी दूर रहते हैं-'हम उनके हैं वास, जिन्होंने मन मार लिया।' है? हमे अपने जीवन मे आचार पर बल देना ही हमारी हमे यह सब सोचना होगा और मुनियो के प्रति चिता सच्ची खोज होगी। व्यक्त न कर, पहिले अपने को सुधारना होगा। काश, हम यह हम पहिले भी लिख चुके हैं और आज भी लिख श्रावक उन्हें चन्दा न दें तो मुनि रसीद पर हस्ताक्षर न रहे है कि यदि वास्तव मे शोध-खोज का मार्ग प्रशस्त करें, आदि । यदि हम ठीक रहें और श्रावक संघ को करना है तो हम शुद्ध पंडित परम्परा को जीवित रखने कर्तव्य के प्रति सजग रखने का प्रयत्न करें तो सब स्वयं का प्रयत्न करें-जिससे हमें भविष्य में आत्म-शोध का हो सही हो-पदेन सभी मुनि उत्तम है। मार्ग मिलता रहे। आचार्यों द्वारा कृत प्राचीन शोधों से कैसी बिडम्बना है कि हम अपने नेताओ को ओर अपने हमे वे ही परिचित कराने में समर्थ हैं । इसमें अत्युक्ति नहीं श्रावक-पद को तो सही न करें और पूज्य मुनियों की तथा कि भविष्य मे पूर्वापार्यों द्वारा शोधित ऐसे जटिल प्रसंग परायों की चिंता मे दुबले होते रहें। हमें सरल भाषा में कोन उपस्थित करा सकेगा, जैसे प्रसंग ३. शोध-खोज और हमारा लक्ष्य : आयु के उतार पर बैठे हमारे विद्वानो ने जुटाए हैं। षट्शोध की दिशा बदलनी होगी। आज जो जैसी शोध खडागम-धवलादि, समयसार, षट्शाभूत सग्रह, बंधमहा. हो रही है और जैसी परिपाटी चल रही है, उससे धर्म बंध तथा अन्य अनेक आगमिक ग्रंथों के प्रामाणिक हिन्दी दूर-दूर जाता दिखाई दे रहा है। यह ठीक है कि जैनधर्म रूपातर प्रस्तुत करने वाले इन विद्वानों को धन्य है और शोध का धर्म है पर उसमें शोध से तात्पर्य आत्म-शोध इनको खोजें हो सार्थक हैं । हमारा कर्तव्य है कि उन ग्रंथो (शोधन) से है, न कि जड़ की गहरी शोध से। जड़ को का लाभ लें-उन्हें आत्म-परिणामों में उतारें और आगामी गहरी शोध तो आज बहुत काल से हो रही है और इतनी पीढ़ी को उनसे परिचित करायें। बस आज इतनी ही शोध हो चुकी है कि दुनियां बिनाश के कगार तक जा पहुची आवश्यक है और यही जैन और जैनत्व के लिए उपयोगी है-परमाण-खतरा सामने है। प्रकारान्तर से हम जैनी है-अन्य शोधे निरर्थक हैं। वरना, देख तो रहे हैभी आज जो खोजें कर रहे है, वे पाषाण और प्राचीन जैनियों के ढेर को आप। शायद ही उसमे से किसी एक लेखन आदि को खोजें भी सोमाओ को पार कर गई है। जैनी को पहिचान सके आप। उनसे हमारे भण्डार तो भरे, पर हम खाली के खाली, एक सज्जन बोले-हमे याद है, जब हमने एम. ए.
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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