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२८, वर्ष ४३, कि०१
निःसन्देहं वेद बदाहुस्तज्ज्ञानमामिनः ॥ कारी शिष्य । नतीजा यह होता है कि साधु की अपनी
प्रयोजनभूत जीवादि सात तत्त्वों को यथातथ्य जानने दृष्टि वैराग्य से हटकर प्रतिष्ठा और यश पर केन्द्रित होने वाला ज्ञान-सम्यग्ज्ञान होता है। अतः श्रावक व मुनि दोनों लगती है। उसकी दृष्टि में परम्परागत प्राचार्य भी फोके को भौतिक ज्ञान की ओर प्रवृत्त न हो-मोक्षमार्ग में पड़ने लगते हैं । बस, साधु की यही प्रवृत्ति उच्छल और सहायक सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होना उद्दण्ड होने की शुरुआत होती है। चाहिए और धर्म प्रभावना होना चाहिए।
जनता दूसरों का माप अपने से करती है। हमे २. क्या हम धावक निर्दोष हैं ?
बोलने की कला नहीं और अमुक साधु बहुत बढ़ियामुनि-पद को अपनी विशेष गरिमा है और इसी गरिमा जन-मन-मोहक प्रवचन करते है या हम अपना भ्रमणके कारण इस पद को पंच परमेष्ठियो मे स्थान मिल सका प्रोग्राम घोषित कर चलते हैं तो अमुक साधु बिना कुछ है-'णमो लोए सव्वसाहणं ।'-जब कोई व्यक्ति किसी कहे ही एकाकी, मौन विहार कर देते हैं तो हम आकर्षित मुनिराज की ओर अंगुली उठा है तो हमें आश्चर्य और होकर उन्हें हर समय घेरने लगते है - उनकी जय-जयदुख दोनों होते है। हम सोचते है कि यदि हमें अधिकार कार के अम्बार मगा देते हैं। पत्रकार प्रकाशन-मामग्री मिला होता तो हम ऐसे निन्दक व्यक्ति को अवश्य ही मिलने से उस प्रसग को विशेष रूपों में छपाने लगते है । तनखया' घोषित कर देते जो हमारे पूज्य और इष्ट की बस, कदाचित् साधु को लगने लगता है कि मुझसे उत्तम निन्दा करता हो। आखिर, हमें सिखाया भी तो गया है और कौन ? उसका मोह (चाहे वह प्रभावना के प्रति ही कि-"मुनिराज का पद हो गरिमापूर्ण है।" क्या हम यह क्यों न हो) बढ़ने लगता है और वह भी ऐसे कार्यों को भी भन जायं कि-"भुक्तिमात्र प्रदानेन का परीक्षा प्राथमिकता देने लग जाता है जिसे जनता चाहती हो उसके तपस्विनां" वाक्य हमारे लिए ही है और सम्यग्दृष्टि भक्त चाहते हों और जिससे उसका विशेष गुणगान होता श्रावक सदा उपगृहन अग का पालन करते है, आदि। हो। यह देखता है-लोगों की रुचि मन्दिरो के निर्माण में
उप्त दिन हमने एक हितचित्तक की बातें सुनी, जो है तो वह उसी मे सक्रिय हो जाता है, साहित्य में जन-रुचि बड़े दुखी और चिन्तित हृदय की पुकार जैसी लगी। तो वह साहित्य लिख-लिखाकर उसके प्रकाशन मे लम इनमें मुनि संस्था के निर्मल और अक्षुण्ण रखने जैसी जाता या बाहरी शोध-खोज की बातें करने लगता है भावना स्पष्ट थी।
अपनी खोज और कर्तव्य को भल जाता है। आज अविचल बातें समय-संगत थीं और विचार कर सुधार करने रहने वाले साधु भी हैं और वे धन्य हैं। में सभी की भलाई है। हमारी दृष्टि मे तो पहिले हम मुनियों की जयन्तियां मनाने उन्हें अभिनन्दन प्रथ या श्रावक ही अपने में सुधार करें। सम्भवतः हम श्रावक ही
अभिनन्दन-पत्रादि मेंट करने कराने जैसे सभी कार्य भी मुनिमार्ग को दूषित कराने में प्रधान सहयोगी हैं । हम श्रावकों से ही सम्पन्न किये जाते हैं। कैसी विडम्बना है श्रावक जहाँ इक्के-दुक्के मुनिराज को अपनी दृष्टि से- कि-'मारे और रोने न दे। हम ही बढ़ावा दें और हम कहीं किन्हीं अंगों में कुछ प्रभावक पाते है, उनकी अन्य ही उन्हें उस मार्ग में जाने से रोकने को कहें ? ये तो ऐसा शिथिलताओं को नजरन्दाज कर जाते हैं और साधु को ही हुआ जैसे साधु कमरे में बैठ जाय और गृहस्थ आपस इतना बढ़ावा देने लग जाते हैं कि साधु को स्वयं में एक में ऊपर एक पंखा फिट कराने की बातें करें? साधु मना संस्था बनने को मजबूर हो जाना पड़ता है। साधु के यश करें तो कहें-महाराज यह तो हम श्रावकों के लिए हो के अम्बार लगे रहें और वह भीड़ से घिरा चारों ओर लगवा रहे है आदि । जब पंखा लग जाय तब वे ही धावक अपने जय-घोष सुनता रहे, तो इस युग मे तो यश-लिप्सा
बाहर जाकर कहें कि ये कैसे महाराज हैं--पसे का उप. से बचे रहना उसे बड़ा दुकर कार्य है । फलतः साधु स्वयं योग करते हैं ? संस्था और आचार्य बन जाता है और भक्तगण उसके आशा- हमने देखा पू०मा० श्रीधर्मसागर जी का 'अभिनदन