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कुछ स्मृतियाँ
१. धर्म प्रभावना कैसे हो?
समन्तभद्र के शब्दों मेंवीतराग के आगम में परिग्रह के त्याग का विधान 'अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्ययथायथम् । है-साधु को पूर्ण अपरिग्रही होने का और गृहस्थ को जिनशासनमाहात्म्यप्रकाश स्यात्प्रभावना ॥'-१८ ममत्वभाव से रहित परिग्रह के परिमारण का उपदेश है। अर्थात् अज्ञान-तिमिर के प्रसार को दूर करके, जिन इन्हीं विचारधाराओं को लेकर जब जीवन यापन किया शासन की-जैसा वह है उसी रूप में महत्ता प्रकट करनाजाता है तब धार्मिकता और धर्म दोनों सुरक्षित होते हैं। प्रभावना है। प्रभावना में हमे यह पूरा ध्यान रखना तीर्थकर की समवसरण विभूति से भी हमे इसको स्पष्ट परमावश्यक है कि उसमें धर्ममार्ग मलिन तो नही हो रहा झलक मिलती है अर्थात् तीर्थकर भगवान छत्र, चमर, है। यदि ऐसा होता हो और उपास्य-उपासक का स्वरूप सिंहासन आदि जैसी विभूति के होने पर भी पृथ्वी से चार ही बिगड़ता हो तथा सांसारिक वासनाओ की पूर्ति के लिए अंगुल अधर चलते है और बाह्य आडम्बर से अछूते रहते यह सब कुछ किया जा रहा हो तो ऐसी प्रभावना से मुख हैं-अन्तरग तो उनका स्वाभाविक निर्मल होता ही है। मोड़ना ही श्रेष्ठ है। क्योंकि सम्यग्दष्टि जीव कभी भी इसका भाव ऐसा ही है कि वहाँ धर्म के पीछे धन दौड़ता किसी भी अवस्था में सांसारिक सुख वृद्धि के लिए धर्महै और धर्म का उस धन से कोई सरोकार नही होता। सेवन नहीं करता और न बह मान बड़ाई ही चाहता है। पर, आज परिस्थिति इससे विपरीत है यानी धर्म दौड़ कहा भी हैरहा है धन के पीछे।
'भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिगिनाम् । ऐसी स्थिति में हमें सोचना होगा कि आज धर्म की प्रणामविनयंचव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ॥' मान्यता धर्म के लिए कम और अर्थ के लिए अधिक तो सम्यग्दृष्टि जीव भय-आशा-स्नेह अथवा लोभ के नही हो गई है ? तीर्थ यात्राओ मे तीर्थ (धर्म) की कमी वशीभूत होकर भी कुदे । कुशास्त्र और कुगुरुओं को प्रणाम और सांसारिक मनोतियो की बढ़वारी तो नही है ? मात्र विनय (आदि) नही करते हैं। आगे ऐसा भी कहा है कि छत्र चढ़ा कर त्रैलोक्य का छत्रपति बनने की मांग तो राग-द्वेष से मलीन-लोकमान्य चार प्रकार के देवों को नहीं है ? जिन्हें तीर्थकरो ने छोड़ा था उन भौतिक साम- देव मान कर किसी भी प्रसंग की उपस्थिति में उनकी ग्रियों से लोग चिपके तो नही जा रहे ? कही ऐसा तो नही पूजा आरती वीतराग धर्म की दृष्टि से करना देवमूढ़ता हो गया कि पहिले जहां धर्म के पीछे धन दौड़ता था वहाँ है। इसी प्रकार धर्म मूढता और लोक मूढ़ता के त्याग का अब धन के पीछे धर्म दौड़ने लगा हो? कतिपय जन अपने भी जिन शासन मे उपदेश है। यहां तो वीतरागता मे प्रभाव से जनता को बाह्य प्राडम्बरों की चकाचौध मे सहायक साधनो-सु-देव, सुशास्त्र और सुगुरु की पूजामोहित कर कुदेवादि की उपासना का उपदेश तो नही देने उपासना की आज्ञा है, आर्षज्ञाताओं से धर्मोपदेश श्रवण लगे? जहां तीर्थंकरो की दिव्यध्वनि के प्रचार-प्रसार हेत की आज्ञा है। यदि हम उक्त रीति से अपने आचरण में वीतरागी पूर्णश्रुतज्ञानी गणधरों की खोज होती थी वहां सावधान रहते हैं तो धर्म-प्रभावना ही धर्म-प्रभावना है। आज उनका स्थान रागी, राजनीति-पट और जैन तत्वज्ञान अन्यथा यत्र-मंत्र-तत्र करने और सांसारिक सुखो का प्रलोशून्य-नेता तो नही लेने लगे? आदि। उक्त प्रश्न ऐसे है भन देने वालों की न पहिले कमी थी और न आज कमी जिनका समाधान करने पर हमें स्वय प्रतीत हो जायगा है। हमें सोचना है कि हम कौन-सा मार्ग अपनाएं ? कि धर्म का ह्रास क्यो हो रहा है।
सम्यग्ज्ञान मे ये तीनो ही नहीं होते। सम्यग्ज्ञानी धर्म प्रभावना का शास्त्रों मे उपदेश है और समाज के जीवादि सात तत्त्वों को यथार्थ जानता है । ज्ञान के विषय जितने अग हैं-मुनि, व्रती श्रावक, विद्वान् और अवृती मे आचार्य कहते हैसभी पर धर्म की बढ़वारी का उत्तरदायित्व है। स्वामी अन्यूनमनतिरिक्त याथातथ्यं विना च विपरीतात् ।