________________
२६, बर्ष ४३ कि.१
अनेकान्त
जिन धर्म कथित सुमागं रे जिय, तास निज सुष गाइय। के लिए आतुर हरिसिंह प्रभु की शरणागति के लिए बड़े सो परम ब्रह्म अनादि कबहूं, सम्यक् भाव न भाइयै ॥ आतुर हैंफुटकर गीत संग्रह :
अब हूं कब प्रभु पद परसौ। हरिसिंह ने लोक धुनों में कुछ गीत भी लिखे है। नैन निहारि करौं परनामै, मन बच तन करि हितसौं । 'सिपाहीड़ा की ढाल' संज्ञक एक गति में पंचपरमेष्ठी के भव भव के अध लागे तिनक, मूर उषारौ जरस । ध्यान, और अनुप्रेक्षा धारण करने की प्रेरणा दी गई है। सरणं राषउ जिन स्वामी, और न मांगों तुम सौं । दो अन्य गीतो मे क्रमशः ऋषभदेव के जन्मोत्सव और यह बीनती दास हरी की कृपा करौं यह मुझसौ। गिरिनार की महिमा गाई गई है। राजुल विषयक एक प्रभु-नाम के स्मरण से सती अजना और श्रीपाल का गीत में नेमिमथ की बारात और उनके वैराग्य धारण हित हो जाने के कारण नाम-स्मरण मे हरिसिंह की आस्था करने का प्रसंग कहा गया है। फुटकर गीतो मे राज- भी बढी हुई है । प्रभु-दर्शन की सभावना वह नाम-स्मरण स्थानी भाषा की प्रधानता है । नेमिनाथ के 'दूलह' रूप से ही मानते हैंतथा उनकी निकासी का चित्र कितना भव्य है
प्रभु जी बेगि दरसन देहु । कोई गावै कोई नांचे हरष स्यौ, कोई मगल कर धार,
भये आतुरवत भविजन, ये अरज सुनि लेहु । बाजा वाजे प्रभु मदिर अति घना, ताको सोर न पाय । इह ससार अनत, आतपहरन कौं प्रभु मेह । मौड़ मस्तग प्रभु जी के बांधियो, रतन जटित कनकाइ। तुम दरस तै परषि आतम, गये सिवपुर गेह ।। निरत करत आगै गुनि जन चले, पाछ ज्ञानी लारजी।
नाम तुम जन अजना से, किये सिवतिय नेह। गज पर चढ़ि प्रभु सोभा अति वनी, चाले जूनानेर हे। पतित उदधि श्रीपाल उधारे, नाम के परचेह।
समवशरण सम्बन्धी एक गीत मे रुक्मिणी से प्रेरित इह प्रतीति विचारि मन धरि, कियो निश्चै येह। होकर कृष्ण और बलभद्र के सभवशरण में जाने का वर्णन
सकल मंगल करन प्रभु जी, हरी नमत करेह ॥ किया गया है।
भक्तिपरक पदों के अतिरिक्त हरीसिंह ने विरहिणी पद संग्रह :
राजुल की व्यथा को भी अपने स्वर दिये हैं। विवाह-वेदी हरिसिंह की काव्य-कीर्ति का प्रमुख आधार सारंग, पर आने से पूर्व नेमिनाथ के विरक्त हो जाने पर उनकी विहाग, विलावल, कान्हड़ी आदि २० रागो मे लिखित
वाग्दत्ता पत्नी राजुल भी अपना शृगार हटाकर प्रिय की भक्तिपूर्ण पद है। इन पदो मे कवि का आत्म-निवेदन
अनुगामिनी बनी है
, शरणागति की भावना, नाम-स्मरण मे आस्था पदे-पदे
प्रभु बिन कैसे रहोगी माई, उन बिनु कछु न सुहाई। दृष्टिगोचर होती है। ससार-चक्र से ऊबे हुए भक्त को
कोन सुनै हियकी मेरी अब, बिरह भयो दुषदाई ॥ जिन-दर्शन की उत्कट लालसा है
इह संपर गहन वन तामैं, प्रभु बिन कौन सहाई । मोहि देषन जिनवर चावरी।
छिन छिन आव बितीत होत है, काल गयो अनभाई ।। उतम नर भव कुल श्रावक को, पायो मैं यह दावरी॥
सरण जाय करी पिय सेवा, फिरि ओसर नहिं पाई। कीये परावर्तन बहुतेरे, तामैं कहूं न मिलावरी। तामैं अब हम पियसौं मिलिहैं, दोउ भव सुषदाई ।। भाग विशेष मिलै अब स्वामी, गहि बरन नहिं रहारी॥
मिल अब स्वामा, गाह बरन नाह रहाउरा ॥ तोड़ सिंगार केस सब तोड़े राजुल गिरि पर जाई । स्वपर प्रकास ज्ञान की महिमा, ताकी देत बतावरी। तप करि कीयो कारिज अपनी, नाम 'हरी' मन भाई ॥
ति नूप बिराजत, हू ताका बाल जाउरा ।। उक्त विवरण से स्पष्ट है कि हरिसिंह मुक्तक और इह भवसागर तारन तुम बिन, और कछु न उपावरी। गेय दोनों प्रकार के जैन काव्य मे अपना उचित स्थान हरिसिंह आयो तुम सरण, अब जु रजो है रावरी॥ रखते हैं।
-१०-ए, रणजीतनगर, जन्म-जन्मान्तरो के पापों को जड़ से उखाड़ फिकवाने
भरतपुर