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अज्ञात जैन कवि हरीसिंह की रचनाएँ
अद्यावधि पूर्णतः अज्ञात हरिसिंह जयपुर राज्य के प्रमुख नगर दौसा (देवगिरि) के रहने वाले थे। कवि के वर्तमान वंशज दौसा निवासी श्री मगनलाल छाबड़ा ने महावीर स्मारिका ८५ के अपने एक लेख में उन्हें जयपुर नगर के संस्थापक सवाई जयसिंह का दीवान बतलाया है हिन्दु अन्तसदिन के आधार पर यह प्रमाणित नहीं होता। अपनी एक फुटकर रचना की प्रशस्ति में कवि ने खामेर के शासक जयसिंह के सेवक 'सुख' को अपने काव्य-प्रेरक के रूप मे स्वीकार किया है
अम्बावती राज महाराज, जैसिंह सेवक है सुबनेन । जाउदै सुमति घटि आई, कोयो प्रसाद अर्थ सुष जैन । ६ दौसा में निर्मित देवालय मे भी कवि ने 'नैनमुख' का सहयोग स्वीकार किया है
देवगरी नगरी चतुर से महाजन लोक | ता देवकी थापना भई नैनसुष जोग । २२ बोध पच्चीसी प० भंवरलाल जी न्यायतीर्थ ने वीरवाणी में प्रका शित अपने एक लेख "पं० टोडरमल के समय मे जैन दीवान" मे नैनसुख खिदूका (दीवानवाल सं० १८१४ से ३५) नामक एक दीवान का उल्लेख किया है। सम्भवतः यही नैनमुख राज्य कर्मचारी हरिसिंह के अधिकारी दीवान थे; किन्तु इनका दीवानकाल ब्रह्म पच्चीसी के रचनाकाल के अनुसार संवत् १७८ के आस पास प्रारम्भ होना चाहिए। दोसा नगर में स्थित 'पार्श्वनाथ चैत्यालय' मे विद्यमान स्तम्भ लेख के अनुसार कवि हरिसिंह के पांच छोटे भई शंकर, श्री चंदकिशोर, नन्दलाल, मनप और गोपाल
हरिसिंह की रचनाए दीवान जी मन्दिर भरतपुर मे विद्यामान एक गुटके में उपलब्ध रचनाएं इस प्रकार
डॉ० गंगाराम गर्ग
ब्रह्मपच्चीसी : दोहा और छप्पय छंदों में निखी यह रचना आषाढ़ कृष्ण ११, संवत १७८३ को पूर्ण हुई। ब्रह्मपच्चीसी के प्रारम्भ में ऋषभदेव और शारदा की बन्दना की गई है। अष्ट सिद्धि नवनिधि के दाता तथा ब्रह्म रूप को दिखाने वाले प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की छवि-कवि को बढी आकर्षक लगी हैछत्र फिर चमर जुगलदिसि जाने ढरे, छोर आन बाकी, आग्या सब मानियो । अंतेवर छिन सहस्यतणां भोग रहे अष्ट सिद्धि नवनिधि, चट्टे सोई आनियो । इन आदि विभी विराम होय, कीनी स्वाग एकाकी मुनिवर रहत पद ठानियो । तातें भवि सिव सुषदाई, ब्रह्म रूप लषी आंत भव दुषकारी छोटो सब जानियो ।
अयान ।
सम्यक् पच्चीसी सावन सुदि ११ संवत् १७८३ को यह रचना कवित्त, कुण्डलियां, दोहा और चाल छंदों में लिखी गई है। कवि ने इस रचना में पुद्गल के मोह मे अनुरक्त जीवात्मा को सम्यक दर्शन की प्रेरणा दी है-वल्यो आतमराम मोह पिसाधनो सम्यक् दरसन जब भयो, तव प्रगटयो सुभ ज्ञानं १४ ।। असुचि अपावनि देहमनि, ताके सुष हूँ लीन । कहा मूल वेतन करी, रतनत्रय निधि दीन | १५|| बोध पच्चीसो इस रचना मे जिन दर्शन के प्रभाव का अनुभव कराते हुए धर्म की महिमा गाई गई है। छवि देषि भगवान की, मन मैं भयो करार | सुर नर फणपति की विभो दो सबै अवार 1 छबी देषि भगवान की, जो हिय में आनद । भयो कहाँ महिमा कडू तीन लोक सुधद ॥
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जबड़ी ५ छन्द की इस छोटी सी रवना मे जैन तत्वों में आस्था रखने का उपदेश दिया गया है