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________________ ३०, ४३, कि.१ अनेकान कर लिया तो हमारे सामने भी कई हितषियों द्वारा शोध- का ध्यान आया हो-क्षण भर के लिए ही सही। वे विरप्रबंध लिख कर डिग्री प्राप्त कर लेने की बात आई थी मत हुए और बात समाप्त हो गई। मैंने सोचा-काश, ये और चाहते तो हम डिग्री ले भी सकते थे। पर, हमने अन्य शोध-संभालों के बजाय आत्म-शोध करते होते । आप सोचा-शोध तो आत्मा की होनी चाहिए। प्रयोजनमत इस प्रसग में कसा क्या सोचते हैं ? तस्वों और आगमिक कथनों को तो आचार्यों ने पहिले हो जब देश में हिंसा का वातावरण बन रहा है, लोग शोध कर रखा है। क्यों न हम उन्ही से लाभ लें? यदि मछली-पालन और पोल्ट्रीज फार्म कायम करने जैसे धन्धो हमने प्रचलित रीति से किसी नई शोध का प्रारम्भ किया द्वारा जीवों के वध में लगे हैं तब कुछ लोग उस वध के तो निःसन्देह हमारा जीवन उसी मे निकल जायगा और निषेध मे भी लगे है । कुछ ऐसे भी हैं जो पशु-पक्षियो पर अपनी शोध-आत्म शोध कुछ भी न कर सकेंगे। बस, रिसर्च कर ग्रन्थो के निर्माण में लगे हैं। गोया, अनजाने हमने उस मे हाथ न डाला। अब यह बात दूसरी है कि मे वे मांस-भक्षियों को विविध जीवो की जानकारी दे रहे परिस्थितियो वश हम अपनी उतनी खोज न कर सके, हों, क्योंकि परमाणु खोज की भांति उसमें भी जीवरक्षा जितनी चाहिए थी। फिर भी हमे सतोष है कि हम जो है, की गारण्टी नहीं है-मास भक्षी ऐमी जानकारी का दुरुपजैसे हैं, ठीक है । पूर्वाचार्यों की शोध में सतुष्ट, आस्थावान योग भी कर सकते है। हमने बहुत से आफसैट पोरटरो और विवादास्पद एकांगी शोधो से दूर । को देखा है, जो प्लेट पर अण्डे की जर्दी लगाकर छापे जाते क्या कहें, शोध और सभाल की बातें ? एक दिन है। अहिंसा के पुजारी बनन वाले कतिपय प्रचारक इसी एक सज्जन आ गये। बातें चलती रही कि बीच मे- विधि के पोस्ट र बनाने-बनवाने मे सन्नद्ध है, आदि। बिखरे वैभव की रक्षा और शोध का प्रसग छिड़ गया। वे हम निवेदन कर दे कि यह अनेकान्त के ४३वे वर्ष बोले-पडित जी, क्या बताएं ? मै अमुक स्थान पर गया। को प्रथम किरण है । गत बीते वर्ष में हम स्खलित भी कितना मनोरम पहाड़ी प्रदेश है वह, कि क्या कह ? मैंने हुए होगे जिसका दोष हमारे माथे है। हम यह भी जान देखा वहां हमारी प्राचीन सुन्दर खडित-अखडित भूतियो रहे है कि जो मोती चुनकर हम देते रहे हैं उनके पारखी का वैभव विखरा पड़ा है, कोई उसकी शोध-सभाल करने थोडे ही होगे। एक-एक मोती चुनने में कितनी शक्ति वाला नही-बड़ा दुख होता है इस समाज की ऐसी दशा लगानी होती है इसे भी कम लोग ही जानते होगे। धर्म को देखकर । वे चेहरे की आकृति से, अपने को बडा दुखी और तत्त्वज्ञानशून्य वर्ग तो हमारे कार्य को निष्फल मानने जैसा प्रकट कर रहे थे, जैसे सारी समाज का दुख-दर्द का दुःसाहस भी करता होगा। पर, इसकी हमे चिन्ता उन्हीं ने समेट लिया हो। नही । यत: सभी हस नही होते । हां, एक बात और, अब बस, इतने मे क्या, हुआ कि सहसा उन्होने पाकिट से तक हमारे महासचिव, सस्था की कमेटी आदि ने हमे सिगरेट निकाली, माचिस जलाने को तगार हुए कि मुझसे पूरा-पूरा सहयोग दिया है। लेखको के सहयोग से तो न रहा गया-मन ने सोचा, वाह रे इनका प्राचीन वैभव। पत्रिका को जीवन ही मिलता रहा है। हम सभी के वचनों ने तुरन्त कहा-'कृपा करके बाहर जाकर पीजिए।' आभारी है और नए वर्ष में सभी का स्वागत करते है। वे सहमे । जैसे शायद उस क्षरण उन्हें अपनी शोध-सभाल --'संपादक -द्वन्द-युद्धदोनों ने एक दूसरे को चैलेंज जैसा दे रखा है। एक ओर हैं परिग्रही-आत्मोपलब्धि की चर्चा करने वाले और दूसरी ओर है अकेला अपरिग्रह । अपरिग्रह कहता है कि मेरे अपनाए बिना आत्मोपलब्धि असंभव है और वे हैं-वाचन और पाचन को बेचैन-भोगों में रस लेते, आत्मोपलब्धि को रट लगाए। हमारे ख्याल से तो तीर्थंकरों ने भी अरूपी आत्मा की ओर ऐसी दौड़ें नहीं लगाई । पहिले उन्होंने बारह भावनाओं का चिन्तवन कर इन्द्रियगम्य-नश्वर शरीर-भोगों को पहिचान कर छोड़ा तब आत्मा में रह सके। देखें-कौन जीतता है ?
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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