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८, वर्ष ४३, कि० ४
अनेकान्त
था। कुछ विद्वान उन्हें 'शृगार रस का सम्राट्' मानते हैं शांत हुआ तो पुनः जैनधर्म मे दीक्षित हो गए। जिसका परिचय भरतेश वैभव' में प्रचुर मात्रा मे रत्नाकर ने यह काव्य चक्रवर्ती भरत के ।जिसके मिलता है।
नाम पर यह देश भारत व लाना है) समन्वयात्मक, वणि की रचनायें हैं-१. त्रिलोक शतक २. अपरा.
भव्य एवं अलोकिक जीवन को चित्रित करने के लिए जितेश्वर शतक ३. रत्नाकराधीश्वर शक और सर्वश्रेष्ठ
लिखा है। काव्य के प्रारम्भ मे ही उन्होंने कहा है, मा
के पास से ही कृति 'भरतेश वैभव' । इनके अतिरिक्त रत्नाकर ने लग
"असंख्य राज्य सुखों मे स्नान करके, व गृधा को प्रसन्न भग २००० आध्यात्मिक गीत भी लिखे है जो 'अण्णन
करके, जिनप्रोगी बनकर, क्षण भर मे कर्मों का नाश पद गलु' (बड़े भाई के पद) कहलाते है। उनमे से बहुत
करके जिन पदवी को प्राप्त करने वाले राजश्रेष्ठ के से आज लोकप्रिय हैं।
वैभव की कहानी सुनो।" इस प्रतिज्ञा के अनुसार उन्होने __त्रिलोकशतक मे कबि ने जैन मान्यता के अनुसार
भरत को भोगी होते हुए भी योगी, राज्य करते हुए भी सष्टि वर्णन रत्नाकर ने कद नामक पद्य मे किया है।
त्यागी या विरक्त, सानारिक होते हुए भी आध्यात्मिवअपराजितेश्वरशतक में पद्यो मे कवि ने नीति,
साधक और एक आदर्श राजा तथा मानव के रूप मे हमारे वैराग्य और आत्मानुभूति सम्बन्धी मार्मिक विचार व्यक्त सामने उपस्थित किया है। अपने चरित्रनायक को कहीं किए हैं।
भी हीन स्थिति में नहीं दिखाया यहां तक कि बाहुबलि के रत्नाकरशतक की रचना में भी कवि का लक्ष्य नीति
प्रमग मे भी । अपनी ६६ हजार रानियो के साथ और या उपदेश है। उसमें भी उनकी ओजस्विनी एव स्वतत्र
इन रानियों के जीवन का भी शृगारपूर्ण चित्रण 'भोगचेत्ता वाणी मुखरित हुई है।
विजय' नामक अधिकार में किया है। जिसके विषय मे रत्नाकर की सर्वश्रेष्ठ कृति है 'भरतेश वैभव' ।
श्री मुगवि ने लिखा है, "वही उनकी महान् कवित्व शक्ति इसमे भगवान आदिनाथ के पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत के
का परिचायक है और कन्नड़ साहित्य ससार के लिए वैभवपूर्ण जीवन का किन्तु उसके साथ ही उनकी त्यागपूर्ण ।
नवीन रस सृष्टि है।" जीवन-शैली का कवि ने दस हजार पद्यों में वर्णन किया
यह भी स्मरणीय है कि भरत के जीवन को अपनी है। उनक' दावा था कि उन्होने इसे केवल नो माह मे
रचना का विषय बनाने में रत्नाकर ने केवल शृगार की पूर्ण किया है।
ही प्रधानता मही दर्शाई किन्तु भरत के त्याग और आत्मअपने उपर्युक्त महाकाव्य का प्रारम्भ ही रत्नाकर ने
चितन मे लीन व्यक्तित्व को भी उभारकर शांतरस या भरत के राजदरबार मे सगीत-सभा और अध्यात्म चर्चा
अध्यात्मरस की भी उतनी ही प्रतिष्ठा की है। अन्तर से पिया है। उन्होने भरत और बाहुबलि युद्ध नहीं
केवल इतना ही है कि, "कवि सांसारिक भोग-विलास को बताया बल्कि यह लिखा है कि भरत ने अपने मीठे वचनो
आध्यात्मिक विकास का आत्यन्तिक विरोधी नही मानता" से ही बाहुबलि को अपने वश में कर लिया था। तीर्थंकरो
तथा "वस्तुतः भोग और त्याग मे अविरोध प्रदशित कर के पंचकल्याणक होते है किन्तु रत्नाकर ने भरत चक्रवर्ती
-"भोग और योग के मध्य समन्वय करना ही महाकवि के भी पचकल्याणक बना दिए है। ये हैं--१. भोगविनय
रत्नाकर के काव्य का एकमात्र लक्ष्य है।" (श्री २. दिविजय (वणि ने भरत को दयालु विजेता बनाया भुजबलि)। है) अर्ककीतिविजय (जिनसेन का भरत कठोर है) ४. कन्नड साहित्य मे रत्नाकर का एक विशिष्ट स्थान योगविजय और ५. मोक्षविजय । इस प्रकार की नई है। श्री मुगवि के अनुसार, 'भरतेशवैभव' रत्नाकर का कल्पनायें करके रत्नाकर ने परंपरागत भरत-चरित्र को भव्य भावगीत है उनके जीवन-दर्शन का सुन्दर प्रतीक उलट-पुलट कर दिया । इस कारण उन्हें सामाजिक विरोध प्रतीत होता है । कन्नड़ साहित्य ससार मे पम्प, हरिहर का भी सामना करना पड़ा। वीरशैव हो गए जब क्रोध ओर कुमार व्यास के समकक्ष खड़े होने वाले कवि